मैं उनकी नर्स थी, क्योंकि बेटे की पत्नी को ससुर की सेवा में कोई रूचि नहीं थी और बेटे के पास समय नहीं था। इसलिए उन्होंने मुझे रख लिया और मैं सुबह आठ बजे से रात आठ बड़े तक उनकी देखभाल करती थी। वे बहुत गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे।
एक दिन उनके बेटे ने मुझे एक केले का पैकेट लाकर दिया और अपने कमरे में चले गए। उनके साले बैठे थे सो उनसे ही बोले , 'उनके लिए तो केले ही ठीक हैं, यह सेब बच्चों के लिए लाया हूँ, उनको खिलाने से तो अब कोई फायदा नहीं है। सेब बच्चों को खिलाऊँगा तो आगे मेरे काम आयेंगे।
मैं सोच रही थी की शायद इस पिता ने भी इतने ही प्यार से अपने बच्चों के लिए यह सब किया होगा की आगे मेरे काम आयेंगे किंतु क्या हुआ? पितृ ऋण की किसी ने सोची ही नहीं है। सब अपने भविष्य के लिए पुत्र ऋण को ही चुकाते रहे और फिर सब ने वही किया न - पुत्र ऋण ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण नजर आता है और इस अवस्था में आकर लगता है कि नहीं कि यह तो इतिहास अपने को दुहरा रहा है।
अब पितृ ऋण तो सिर्फ धार्मिक किताबों का विषय रह गया है। या फिर पितृ पक्ष के १५ दिनों में ही जीवन भर का पितृ ऋण चुकाने कि जो शार्टकट व्यवस्था हमारे शास्त्रों में कि गई है वही ठीक है। बड़े नियम धर्म से १५ दिन गुजार कर अपनी कई पीढियों के पूर्वजों को सम्मान देकर हम अपनी आत्मा को संतुष्ट कर लेते हैं।
शायद इसी के लिए कहा गया है -- जियत न दीने कौरा, मरे उठाये चौरा।
रेखा श्रीवास्तव
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