चिट्ठाजगत www.hamarivani.com

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

उपेक्षित !

                                                             उपेक्षित !

 
 
पापाजी,

           आज मम्मी की कॉल आई थी कि आप चाहते हैं कि अपना पैसा हम लोगों के नाम करना चाहते हैं।  अब ये सब जो मैं कहना चाहती हूँ, वह कॉल से संभव नहीं है। 
          मैं आपके बेटे के सपने को तोड़ने वाली थी क्योंकि दस साल बाद आप पूरे मन से बेटे के स्वागत की तैयारी में बैठे थे और जब वह टूट गया तो आप दोनों ने मुझे बेमन से स्वीकार कर लिया। चाचाजी के जोर डालने पर मुझे घर में जगह मिलीं।
          आप बहुत अच्छा कमाते थे, पर आप दीन हीन ही दिखाते थे। पैसा ही आपका कर्म और धर्म था। अगर चाचा न होते तो हम कुछ बने ही न होते। हर जगह हम बहनें चाचा के साथ गए। कोई भी एंट्रेंस देना हो, इंटरव्यू देना हो या नौकरी पर जाना हो। 
          हमारी भी इच्छा थी कि हमारे पापा हमें प्यार करें और हमारे साथ रहें। 
          मुझे वह दिन याद है कि पढ़ाई के दौरान दीदी के अवसाद में चले जाने पर आप नहीं बल्कि चाचा मम्मी को लेकर वहाँ गए थे और उन्हें वहाँ से लेकर आए थे, उनका इलाज करवाया था।
          मेरी पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए दोनों बहनों पर दबाव डाला गया था कि मैंने तुम लोगों को पढ़ाया है, अब इसकी जिम्मेदारी तुम लोग उठाओ। उनके अहसान से मैं आजतक मुक्त नहीं हो पायी। दीदी लोग पहले से नौकरी करने लगी थी तो उन लोगों ने अपनी शादी का खर्च खुद उठा लिया। जब मेरी शादी के लिए दोनों बहनों से फिर आर्थिक सहायता की माँग की गई , तो मेरा मन आत्महत्या करने का हो रहा था।
          मैं तब कमाती नहीं थी और आपने मेरे लिए एक अभिशाप साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपनी शादी में मैंने जरूरी जरूरतों के लिए मैंने अपनी सहेलियों से पैसा लिया था, जिसे अपनी कमाई से बहुत बाद में चुकाया।
            अब मेरे लिए आपके उस संचित धन की कोई आवश्यकता नहीं है। आप एक पिता होने के नाते फर्ज की इति धन देकर देना चाहते हैं तो क्षमा चाहती हूँ , मेरा बचपन आपकी इस सोच की बलि चढ़ गया।
             बस इतना ही, पैसा मेरे सिसकते बचपन और अब तक की घुटन का इलाज नहीं बन सकता। 
             
आपकी बेटी 
दिव्या

कोई टिप्पणी नहीं: