इस तरह कि कहानियां फिल्मों और टीवी सीरियल में ही देखने को मिलती हैं , किन्तु इस जीवन के यथार्थ में भी ऐसे कुछ घटनाक्रम बने होते हैं कि यकीन कोई करे या न करे सच हमेशा सच ही होता है.
पिछली बार जब में अपने घर गयी तो एक गाड़ी दरवाजे पर आकर रुकी. आने वाले ने दरवाजा नहीं खटखटाया बल्कि जिसको वो साथ लेकर आया था उसने दरवाजा खुलवाया. वह हमारा परिचित था पहले पुराने मकान के पास ही एक छोटा सा होटल था उसी में काम करने वाला एक कारिन्दा था.
उससे पूछा कि क्या बात है? तो उसने गाड़ी के निकल कर बाहर खड़े हुए व्यक्ति की ओर इशारा किया - "ये आपका घर पूँछ रहे थे, तो मालिक ने आपके यहाँ भेजा था. "
मैंने उस व्यक्ति को नहीं पहचाना, मैंने पूछा कि किससे मिलना है?
"दीदी" उसने मुझसे यही कहा और मैं नहीं समझी कि ये है कौन? और क्या चाहता है?
"अन्दर आ जाऊं?"
"हाँ, हाँ, आओ", मुझे अपनी मूर्खता पर हंसी भी आई कि कोई दीदी कह रहा है जरूर पहचानता होगा.
अन्दर आया तो उसने माँ के पैर छुए, भाभी को देख कर पूछा - अगर मैं गलत नहीं हूँ तो ये भाभी ही होंगी.' और उसने झुक कर उनके भी पैर छुए.
मैं तो उसी पुराने वाले घर में गया था, फिर होटल वाले ने कहा कि आप लोग बहुत साल पहले यहाँ से चले गए हैं और अब चाचा भी नहीं रहे हैं. फिर उसी ने अपना आदमी भेजा कि घर तक पहुंचा दो.
"आप अपना परिचय देंगे." मैंने अब भी नहीं पहचाना था.
"मैं कौन सा नाम बताऊँ - विदित रैना या मंगू." उसकी आवाज भर्रा गयी थी.
"मंगू" - मुझे किसी ने जमीन पर फ़ेंक दिया था.
"हाँ, मेरी पोस्टिंग झाँसी में हुई तो मैंने सोचा कि चाचा से मिलूंगा किन्तु ........." फिर वह चुप हो गया.
मंगू नाम ने मुझे करीब ३५ साल पहले धकेल दिया था. जिस होटल का उसने जिक्र किया था , वह उसी में बर्तन धोने का काम करता था और उसका मालिक जरा सी गलती पर बहुत पीटता था. एक दिन इतना पीटा कि उसकी पीठ पर छड़ी के निशान आ गए और पास ही में Advertising Company चलने वाले सज्जन ने उसको उठा कर अपनी दुकान में बैठा लिया तो होटल वाला लड़ गया कि आप हमारे लड़कों को बिगाड़ रहे हैं , ये आपने अच्छा नहीं किया. जब ये लावारिस घूम रहा था तो मैंने ही इसको रखा था.
उन्होंने कहा कि ' अब ये मेरे पास रहेगा और मैं इसको काम सिखाऊंगा और खाना भी खिलाऊंगा.'
उस मंगू को उन्होंने अपनी ही दुकान में जगह दे दी.
उनकी जान पहचान सरकारी आफिस में भी थी , उनके काम से जो जुड़े थे , वे सब उनकी बहुत इज्जत करते थे क्योंकि वे एक सच्चे इंसान थे. बहुत अमीर नहीं थे लेकिन नेक दिल और नेक कार्य करने वाले थे. अपने ५ बच्चों के साथ एक लड़का और पाल लिया. घर वालों ने विरोध भी किया था किन्तु धुन के पक्के थे. वही सोता और बस घर में खाना खाने आता था.
एक बार वहाँ पर एक कश्मीरी प्लानिंग ऑफिसर आये, उनके बच्चे नहीं थे और उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध होने पर बोले एक बच्चा गोद देना चाहता हूँ. बहुत संकोच के साथ उन्होंने मंगू के बारे में उन्हें बताया और ये शायद उसकी किस्मत थी कि वे तैयार हो गए. तब किसी को गोद लेना और रखना इतना मुश्किल न था. रैना जी ने उसको अपने घर रखा और उसका दाखिला भी स्कूल में करवा दिया. फिर उनका वहाँ से ट्रान्सफर भी हो गया और समय के साथ सब मंगू को भूल गए.
हाँ एक बार जरूर रैनाजी किसी काम से वहाँ आये तो उसको साथ लाये थे और वह मिलने आया. स्कूल की तरफ से किसी कार्यक्रम में भाग लेने आया था. तब अपने चाचा से मिलने आया था -' चाचा, पापा और मम्मी बहुत प्यार करते हैं, मैं बहुत अच्छे स्कूल में पढ़ रहा हूँ.'
उनको भी देखकर तसल्ली हुई कि जो एक काम किया था , वह सफल रहा.
फिर आज वो नहीं हैं, विदित रैना ने उनके उस काम को फिर से याद दिला दिया.
विदित ने अपने बारे में बताया - 'मम्मी अब नहीं हैं, पापा हैं, मेरी शादी भी हो गयी है, दो बच्चे हैं और मैं एक बैंक में नौकरी कर रहा हूँ. जब झाँसी आ गया तो अपने को रोक नहीं पाया. पहले मैं उस होटल पर ही गया था और फिर मैंने चाचा की दुकान देखी. उस होटल वाले से पूछा तो उसने बताया कि चाचा तो रहे नहीं हैं , चाची और भैया दूसरे मकान में चले गए हैं.
"अच्छा तुमको चाचा की याद रही." मैंने उससे उत्सुकता से पूछा क्योंकि एक लम्बा अंतराल बीत गया था.
"क्यों नहीं? ये जो भी आज हूँ, मेरी किस्मत कितनी है नहीं जानता लेकिन चाचा का हाथ मेरे ऊपर जरूर है. जगह की बहुत अधिक याद तो नहीं थी, पर होटल और दुकान अभी भी उसी तरह से याद है."
उस व्यक्ति से मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा और मेरा सिर भी गर्व से ऊँचा हो गया क्योंकि जिस व्यक्ति ने उसको गोद दिया था और होटल से निकाल कर अपने घर में रखा था वह मेरे पापा थे.