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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

जो बीत गया !

पूरा वर्ष बीत गया, हर साल की तरह से नहीं बीता क्योंकि बहुत लम्बे समय बाद कुछ बहुत अपने को खोया। अपने पिताश्री और ससुर जी के १९९१ में निधन के बाद सब कुछ अच्छा ही गुजरा था। ये वर्ष मेरी सासु माँ को ले गया, मेरे अति आत्मीय जनों में असमय मेरे भांजे और बहनोई को ले गया। काल की गति फिर भी ऐसे ही चल रही है। उनकी जगह भरी नहीं जा सकती है लेकिन वक्त उस घाव पर मरहम तो लगा ही देता है और ईश्वर शक्ति देता है उस सब को सहने के लिए।
अगर वह दुःख देता है तो सुख और ख़ुशी के पल भी देता है। इस वर्ष में मेरी बेटी की शादी हुई और दो और बेटियों की सगाई हुई (शादी नए वर्ष में सम्पन्न होगी।) छोटी बेटी सोनू अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने जॉब में लग गयी। सारे काम सकुशल और हंसी ख़ुशी से सम्पन्न हो जाएँ इससे अच्छा और क्या हो सकता है?
मेरे अच्छे और बुरे दोनों ही वक़्त में मेरे सभी आत्मीय जनों ने मुझे पूरा साहस और धैर्य दिया जिससे कि मैं सब कुछ सह कर भी सामान्य होने की स्थिति में आती जा रही हूँ।
इस बीते वर्ष से शिकायत क्या करूँ? काल का चक्र कभी रुकता तो है नहीं और ये हमारा प्रारब्ध है कि उसमें हमें क्या मिला?
न तो शिकायत जीवन में कुछ भी न मिलने की है
और न शिकवा इतना कुछ सिर पर से गुजरने की है।
हम फिर भी सोच कर देखो बहुत अच्छे है उन लोगों से ,
jaroorat to ज्यादा खोने वालों का दर्द समझने की है।

अलविदा गुजरे वर्ष को करें, दोष उसका नहीं हमारी तकदीर का है। वह तो वैसे ही आया था जैसे और आते हें नसीब में क्या लिखा - ये तो वो ही जाने।
विदा २०११......................

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

और जिन्दगी हार गयी!

हम तो विधाता के हाथ की कठपुतली है लेकिन कभी इस धरती के भगवान कैसे अपनी जिम्मेदारियों के साथ खिलवाड़ करते हें कि एक घर बिखर जाता है - रह जाते हें रोते कलपते उसके घर वाले और परिजन
ये कहानी आज से सात साल पहले शुरू हो चुकी थी जब टाटा मेमोरिअल के डॉक्टर के हाथों हमने अपने बहनोई शरद चन्द्र खरे को सौप दिया थाउन्होंने अपने देखरेख में रखा सालों तक और फिर सात साल बाद उन्हें पूर्ण रूप से स्वस्थ घोषित कर दिया जब कि वह इंसान अपने शरीर में उनकी गहन निरीक्षण के बाद भी कैंसर पाले बैठा थाडॉक्टर उसको आगे देखने या चेक अप करने के लिए कतई तैयार नहीं थे कि डॉक्टर तुम हो या मैं हूँ? पता नहीं कौन भगवान था? फिर बहुत मिन्नतों के बाद जब एम आर आई करवाई गई तो कैंसर उनके बोन मैरो में पूरी तरह से फैल चुका थाये सात साल तक हर महीने और फिर उनके अनुसार दी गयी तारीख पर चेक करवाने के बाद की लापरवाही थी
फिर मिली १३ जून २०११ को उसके ऑपरेशन की तिथिवहाँ बहुत काबिल डॉक्टर हें और ऑपरेशन में शरीर की मुख्य धमनी उनसे कट गयीखून के बंद होने का नाम नहीं और घबरा कर उन्होंने ऑपरेशन बंद कर दिया कि हम दो दिन बाद ऑपरेशन करेंगेमरीज जिन्दगी और मौत के बीच झूलता हुआ छोड़ दियाहम घर वाले उनके इशारों पर ही तो चल सकते थेदूसरे दिन जब देखा तो पूरे शरीर में फफोले पड़ने लगे थेघबरा कर उन्होंने कहा कि हमें अभी इनके पैर को काटना पड़ेगा नहीं तो हम इन्हें बचा नहीं पायेंगेहमें तो अपने मरीज की जान प्यारी थी और रोते हुए उन्हें वह भी करने की अनुमति दे दीक्योंकि उसके जीवन के रहते हमारे पास और भी विकल्प थेउन्होंने ने पैर काट दिया और उसके बाद २३ को कहा कि अपने मरीज को ले जाइएजिस मरीज का आपने पैर काट दिया और उस हालात में घर वाले कहाँ लेकर जायेंगे? लेकिन उनकी दलील थी कि अदमित करने के समय २३ तक ही बैड देने की अनुमति दी गयी थीउन मूर्खों को कौन समझाये कि आप सिर्फ ऑपरेशन करने जा रहे थे तब ये अनुमति थी , अब इतने बड़े ऑपरेशन के मरीज को क्या सड़क पर लितायेंगेलेकिन नहीं उनका फरमान तो आपको उसी दिन हटाना हैउसी हालात में उनको एक होटल में ले गएजहाँ से अस्पताल दूर था लेकिन मरता क्या करता? किन हालातों को उनको अस्पताल से लेकर आये और उनको रखा गया ये मेरी बहन और साथ रहने वाले ही जानते थेघाव भरने में समय लगता तो उन्होंने पहले ही घर ले जाने की अनुमति भी दे दीजब कि बाहर के विशेषज्ञों के अनुसार इतने बड़े ऑपरेशन के बाद उनको कीमो
थेरेपी देनी चाहिए थी लेकिन ऐसा कुछ खुद दिया और ही ऐसा करवाने की सलाह दी
उनके बाद भी दो बार चेक आप के लिए लेकर गए सब ठीक कह कर वापस कर दियापांच महीने बाद उनको नकली पैर लगवाने की बात हुईउससे पहले अस्पताल में पूरा चेक उप किया कि कोई अन्दर से परेशानी अभी भी हो और पूरी तरह से ठीक होने की बात कह कर पैर लगवाने की बात कही और वे वही पैर लगाने वाली संस्था में रहकर पैर लगवा कर उससे चलने का अभ्यास कर रहे थे लेकिन अचानक उन्हें सांस लेने की तकलीफ हुई उनके पास सिर्फ मेरी बहन ही थीउनको टैक्सी में डाल कर टाटा मेमोरिअल ले जाने लगी तो रास्ते में ही उनकी सांस बंद हो गयी फिर भी वहाँ पहुंची डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दियाउसने कहा कि सब कुछ ठीक था फिर अचानक क्या हुआ? डॉक्टर ने उत्तर दिया कि इन तीन हफ्तों में कैंसर उनके फेफड़ों तक पहुँच गया था अगर कैंसर बाकी था तो तीन हफ्ते पहले किये गए चेक अप में क्या आपने आँखें बंद करके देखा था?
अब सिर्फ सवाल और जवाब ही राह गए हेंउन जैसे जीवट वाला आदमी जिन्दगी हार गया और हम सब को मलाल है कि डॉक्टर ने लापर्वाली की होती तो हम इस गम में आज डूबे होते

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

सोच ऐसी क्यों हुई?

मेरे पड़ोस में रहने वाले एक ब्राह्मन परिवार का बेटा आयुध निर्माणी में कार्य करता है और एक दिन पता चला कि काम करते वक्त उसके हाथ की एक अंगुली मंशीन में आ जाने के कारण कट गयी। घर खबर आई तो हडकंप मच गया क्योंकि खबर आई थी 'मनीष ' का हाथ मशीन में आ गया और उसका हाथ काट गया। पड़ोसी होने के नाते और उनसे अपने आत्मिक सम्बन्ध होने के नाते हम लोग भी अस्पताल पहुंचे। हम सब लोग काफी दुखी थे। जब अस्पताल पहुंचे तो जो बात सुनी उसे सुनकर हंसी नहीं आई बल्कि तरस आया अपनी इस सोच पर कि सिर्फ जन्म के कारण प्रतिभा और मेधा कैसे कमतर आंकी जाती है और उसका सम्मान करने वाला कोई भी नहीं है।
उस लड़के की शादी अभी हाल में ही हुई थी। हम सब दुखी थे और वह हम लोगों के सामने हंसते हुए बोला - 'अच्छा हुआ अब मैं विकलांग के कोटे में आ जाऊँगा शादी मेरी हो ही चुकी है तो इस कटी उंगली से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है लेकिन अब मुझे प्रमोशन मिलने में आसानी होगी नहीं तो सारी जिन्दगी मशीन पर ही काम करते करते बीत जाती और मैं वहीं के वहीं रह जाता।'
उसके इन शब्दों में जो सरकारी नीतियों के प्रति आक्रोश झलक रहा था वह शर्मिंदा करने वाला है। यहाँ प्रोन्नति पाने के लिए वह विकलांग होने के बाद भी कितना खुश हुआ? आख़िर क्यों? ये सोच क्यों बदल गयी उसकी क्योंकि वह देख रहा है कि आरक्षण के चलते सिर्फ और सिर्फ चंद सर्टिफिकेट ही आधार बन चुके हें चाहे उस पद के लिए प्रोन्नत किया जाने वाला व्यक्ति काबिल हो या नहीं। आज की युवा पीढ़ी में जो कुंठा बसती जा रही है और वे तनाव में रहने लगे हें इसके पीछे कुछ ऐसे ही कारण है। युवा पीढ़ी जो आज अपराध की ओर अग्रसर हो रही है उसके पीछे भी हमारी सरकारी नीतियां ही हें। इसको बदलने या फिर सुधारने के बारे में कोई भी नहीं सोचता है। ऐसा नहीं है कि हमारे राजनेता इस बात को जानते और समझते नहीं है लेकिन वे अपनी सरकार को चलते रहने के लिए और वोट बैंक अपने कब्जे में करने के लिए ऐसा कर रहे हें और सारे तंत्र को आरक्षण की जंजीरों में बाँध कर जन जन के मन में एक घृणा का भाव भर दिया है। जिसे देखा जा सकता है उस बच्चे के शब्दों में .................

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

बेटी हुई पराई !







बेटी पराया धन किस लिए कहा जाता है कि उसको घर में हमेशा नहीं रखा जा सकता है बल्कि एक सुयोग्य वर को उसका हाथ देकर कन्यादान किया तो अपना हक़ उसपर से ख़त्म हो जाता है। ऐसा ही कहा जाता है लेकिन मुझे लगा कि बेटी या बेटा विवाह के बाद उनकी एक अपनी दुनियाँ तो बस ही जाती है लेकिन बेटी के बदले में एक बेटा भी मिल जाता है और बेटे के साथ एक बेटी, जैसे कि मैंने पाया है।



पारम्परिक परिवार होने के नाते एक महाराष्ट्रिय ब्राह्मण परिवार में बेटी को देने की बात पर सभी ने नाक भौं तो सिकोड़ी थी लेकिन मेरे पास विवाह के लिए सजातीय योग्य वर खरीदने लायक पर्याप्त धन न था। या कहो कि बेटी भी दहेज़ देकर वर खरीदने के लिए कतई तैयार न थी। इसलिए सुयोग्य वर जहाँ भी मिला उसको अपना बना लिया। मेरा दामाद पवन कुलकर्णी पुर्तगाल में पर्यावरण भौतिकी में पोस्ट डॉक्टरेट फेलो है और बेटी फिजियोथेरापिस्ट ।

एक सबसे बड़ी बात और अनुभव यह रहा है कि हमारे उत्तर भारत में लड़की का पिता हमेशा बेचारा ही बना रहता है लेकिन महाराष्ट्र से जुड़ने पर लगा कि वहाँ दोनों का सम्मान बराबर है। एक नया अनुभव मिला जो इससे पहले तो नहीं मिला था। कुल मिला कर सब कुछ बहुत अच्छा ही रहा। इसके लिए नागपुर के कुलकर्णी, भांगे और बारहाते परिवार के पूर्ण सहयोग से हम लोग इस विवाह कार्य को सम्पन्न करने में सफल हो सके।

इस अवसर पर अपनी शुभकामनाएं भेजने वाले सभी ब्लोगर साथियों को मेरा हार्दिक धन्यवाद। इस कार्य के कानपुर में सम्पन्न समारोह में महफूज की उपस्थिति ने सब लोगों का प्रतिनिधित्व किया। इसके लिए उसको बहुत बहुत धन्यवाद।



रविवार, 11 सितंबर 2011

वह ९/११ !


आज वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले की दसवीं वर्षी है। उस हादसे में खोये लोगों के परिजनों के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती हूँ कि उन्हें शक्ति दें। उनके लिए ये हादसा जिन्दगी के रूप को बदल कर रख दिया था।


वह दिन भी मुझे याद है, घर से ऑफिस निकलने से पहले इतने सारे काम होते थे कि nyooj देखने जैसी कोई बात नहीं हो सकती थी। जैसे ही ऑफिस पहुंची तो अमेरिका की इस दुखद घटना का समाचार मिला था। सर पकड़ कर बैठ गयी क्योंकि अभी अगस्त में ही मेरी साथ करने वाली सहेली अमेरिका अपने बेटे के पास छुट्टी लेकर गयी थी। ये तो नहीं सोच पाई कि वह कहां होगी ? ये घटना कहां हुई? bas ये कि वह sab log kaise हें ये khabar mil jaaye।


वह मेरे साथ शुरू से ही काम कर रही थी। उससमय अगर मेल भी करूँ तो किसे देखने की फुरसत होगी? दिमाग ने सोचना बंद कर दिया था। बॉस आये उनका भी यही सवाल पुष्प जी की कोई मेल या कॉल?



'नहीं' हर एक के मुँह से यही निकला , सारे दिन नेट पर न्यूज़ देखते रहे - कोई काम नहीं हुआ था। वहाँ से कॉल आ नहीं रही थी और न ही हम कर पा रहे थे। आखिर दिन में ३:३० पर पुष्प की मेल आई। 'हम sabhi log surakshit हें। ' हमारी पूरी लैब में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी थी। वह दिन आज भी याद है। phir ये sochane lage कि jin लोगों ने अपने लोगों को khoya हें unaki kya halat होगी

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

कल जो हम थे !

aन्ना के भ्रष्टाचार विरोध में पूरे देश को जागृत कर दिया तो कुछ वे भी जाग कर गुहार लगाने लगे जो कल दूसरों को चूस रहे थे। मैंने ये बात इस लिए कह सकती हूँ कि गुहार लगाने वाले को व्यक्तिगत तौर पर और एक कैम्पस में रहने के नाते पूरी तरह से जानती हूँ। २८ साल पहले हम भी विश्वविद्यालय कैम्पस में ही रहते थे। हमारे ससुर जी वहाँ की डिस्पेंसरी के इंचार्ज थे। अपने सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद वह चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े रहना चाहते सो उन्होंने यहाँ पर ज्वाइन कर लिया। विश्वविद्यालय के बाबुओं के जीवन स्तर को देख लें तो लगता था कि क्या आई ए एस का स्तर होगा?
ये सज्जन भी वहाँ पर रहते थे। एक बाबू होने के बाद भी उस समय वे कार के मालिक थे और बच्चों के कपड़े कोई देख ले तो निश्चित तौर पर उनकी ड्रेस बहुत महँगी होती थी। कमाई का कोई अंत तो था नहीं। चूंकि डिस्पेंसरी से सबको ही काम पड़ता था तो सबको जानती भी थी । अब दुर्भाग्य वश इनको वी आर एस लेना पड़ गया तो फिर वहाँ पर इनके जगह पर कोई और आ कर बैठ गया और इनसे खाने की जुगाड़ करने लगा तो इनका खून खौल उठा कि ये मुझसे भी खाने वाले आ गए लेकिन ये भूल गए कि इस पौध को पानी तो इन्होने ही दिया था। हो सकता है कि इनमें से किसी व्यक्ति से इन्हीं ने पैसा खा कर काम किया हो और अपनी बारी आई तो भ्रष्ट तंत्र के नाम पर अखबार में गुहार लगा दी। ये भूल गए कि इनके जानने वाले अभी कुछ लोग तो बाकी हैं कि इनका अपना चरित्र क्या रहा है? जब खुद थे तो तंत्र भ्रष्ट नहीं था और अब भ्रष्ट हो गया है।

जीवन भर खूब ऐश की। अब वे अपना कल भूल गये। शायद ये भूल गए कि तुम जोंक बन कर कल दूसरों का खून पीकर अपनी कार में पेट्रोल डलवा रहे थे तो यह नहीं सोचा होगा तुम्हारी जगह कोई और भी तो आएगा और अब तो पेट्रोल काफी महंगा cहुका है तो फिर वो जो आज तुम्हारी जगह पर बैठा है उसको भी तो कार में पेट्रोल डलवाना होगा। वैसे भी अब बच्चों की पढ़ाई बहुत महंगी हो चुकी है। ab रोना क्यों रो रहे हैं , जब खुद थे तो भ्रष्ट तंत्र नहीं था अब उसको ही भ्रष्ट कहते हुए गुहार लगा रहे हो। एक यही नहीं बल्कि जो भी इसका इस तरह से कमाई कर रहे हैं , कल वे भी इसका खामियाजा भुगतेंगे जब भ्रष्टाचार नहीं होगा तब भी उन्हें अपने काली कमाई को सहेजना मुश्किल पड़ जाएगा।

रविवार, 21 अगस्त 2011

अन्ना को अंगूठा !

जब पूरा देश एकजुट होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है और इस समय भी जो तस्वीर मैंने देखी वो लगा कि पूरा तंत्र इतना सुदृढ़ किले की तरह से बना है कि इसको तोड़ना बहुत मुश्किल है।
अभी दो दिन पहले ही की बात है, एक बेटी का गरीब पिता उसकी शादी के लिए जद्दोजहद कर रहा था क्योंकि दिन बा दिन बढती मंहगाई ने उसके शादी के बजट को फेल कर दिया। बारात बुलाएगा तो कहाँ से खिलायेगा? उसे याद आया कि उसके पिता जो सरकारी मुलाजिम थे , दो महीने पहले गुजर गए और उनकी पेंशन अशक्त होने के कारण जीवित प्रमाण पत्र न देने के कारण ट्रेजरी में ही पड़ी है। कुछ लोगों ने सलाह दी कि उनका मृत्यु प्रमाण पत्र लेकर जाओ कुछ रास्ता वह लोग सुझा देंगे और अगर कुछ पैसा मिल गया तो इस समय तुम्हारे लिए संजीवनी बूटी की तरह से होगी।
मरता क्या न करता?रोजी रोटी के धंधे को बंद कर ट्रेजरी गया, वहाँ पता किया तो पता चला कि अमुक बाबू ये काम करवा सकते हैं। खोजते हुए उनके पास गया, उन्होंने हिसाब लगाकर बता दिया कि आपको १ लाख रूपया मिल सकता है। उस बेचारे की तो लाटरी निकल आई या कहो उसने बिटिया के भाग्य को खूब सराहा।
लेकिन उसको पाने के लिए उसके २५ हजार घूस भी देनी पड़ रही है लेकिन वह लाये कहाँ से? उसके जितने भी स्रोत थे सारे टटोल डाले लेकिन वे न काम आ सके। आखिर उसके लिए किसी तरह से इंतजाम इस विश्वास पर कर दिया गया कि जैसे ही पैसा मिलेगा वह इस राशि को चुका देगा। अब उस १ लाख की राशि उसको कितने दिन में मिलेगी ये नहीं पता है लेकिन २५ हजार के कर्ज में वह फँस चुका है। आप और हम क्या समझते है कि ये सरकारी मुलाजिम खुद को बदल पायेंगे।
ऐसे लोग ही अन्ना और हमारे संघर्ष को अंगूठा दिखा रहे हैं। देखते हैं कि ये कब गिरफ्त में आते हैं?

सोमवार, 8 अगस्त 2011

फायदे के लिए !

एक कहावत है न कि मौके को देखते हुए 'गधे को लोग बाप बना लेते हैं.' वह तो बात अलग हो गयी लेकिन ऐसा किस्सा अभी तक तो सामने नहीं आया है ( मैं सिर्फ अपनी बात कर रही हूँ, आप लोगों ने देखा या सुना हो तो बताएं) कानपुर में एक रिटायर्ड डॉक्टर जो कि उच्चतम पद से सेवा निवृत हुए । कुछ सामाजिक सरोकार के तहत पता चला कि उन्होंने जीवन भर सवर्ण बन कर नौकरी की और वह भी ब्राह्मण पिता की संतान थे। उनका नाम है डॉ राम बाबू।
अपने सेवानिवृत होने के पांच साल पहले उन्होंने कोर्ट में ये दावा किया कि उनकी माँ अनुसूचित जाति की थी , इस लिए उनको अनुसूचित जाति का घोषित किया जाय। अदालत ने उनको पांच साल पहले अनुसूचित घोषित कर दिया और वे ताबड़तोड़ पदोन्नति लेते हुए उच्चतम पद पर पहुँच गए।
वैसे तो अभी तक यही प्रावधान सुना है कि बच्चे के नाम के आगे पिता की जाति का उल्लेख होता है । यहाँ तक कि शादी के बाद पत्नी के नाम के साथ भी पति कि जाति जोड़ी जाने लगती है। वैसे अब एक विकल्प यह भी देखा जा रहा है कि लड़कियाँ अपनी जाति को हटाने के स्थान पर पति के नाम के अंतिम हिस्से को साथ में जोड़ लेती हैं।
लेकिन किसी ने माँ की जाति या उसके उपनाम को अपने साथ जोड़ा हो ऐसा नहीं मिला है क्योंकि अभी भी हमारे समाज में पितृसत्तात्मक परिवार ही पाए जाते हैं। वैसे तो यह एक अच्छा दृष्टिकोण है कि माँ को प्रमुखता देते हुए उनकी जाति का उल्लेख किया जाय लेकिन अपने जीवन के पूरे सेवा काल में ये बात डॉ राम बाबू को समझ क्यों नहीं आई? सिर्फ इस लिए कि अब उनके सेवानिवृत्ति के दिन करीब आ रहे थे और सवर्ण होते हुए उन्हें पदोन्नति की ये सीमा प्राप्त नहीं हो सकती थी तो पदोन्नति का शार्टकट उन्होंने खोज लिया। हमारी अदालत ने भी इस पर कोई सवाल नहीं किया कि अपने जीवन के ५५ साल उन्होंने ब्राह्मण बनकर काटे अब अचानक ये माँ के प्रति प्रेम उनमें कहाँ से जाग आया है ? सिर्फ निजी स्वार्थ के लिए सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए इस तरह से जाति परिवर्तन की आज्ञा अदालत को भी नहीं देनी चाहिए। वैसे ये डॉ रामबाबू अब पूरी तरह से अनुसूचित जाति के हो चुके हैं क्योंकि अब वह अनुसूचित जाति के लिए किसी संस्था के पदाधिकारी भी हैं।
ये हमारी आरक्षण नीति के गलत रवैये को ही दिखाता है क्योंकि आगे डॉ रामबाबू के सभी बेटे इस आरक्षण के अधिकारी हो चुके हैं और आगे आने वाली पीढ़ी भी। ये पढ़े लिखे लोग अपनी मेधा का प्रयोग इसी लिए कर रहे हैं कि कैसे वे अधिक से अधिक इस सरकार की गलत नीतियों का फायदा उठा कर आगे बढ़ते रहें.इस आरक्षण ने समाज के बीच में ऐसी खाई खोद रखी है कि इससे समाज का हित नहीं बल्कि अहित हो रहा है या फिर डॉ रामबाबू जैसे लोग उसके लिए तिकड़म खोज कर अपने लिए मार्ग बनाते जा रहे हैं। यह न सरकार की और न ही अदालत के द्वारा अपनाये गए रवैये को स्वस्थ मानसिकता का प्रतीक नहीं कहा जा सकता है।

रविवार, 7 अगस्त 2011

ये दोस्ती हम नहीं ..........!

           बहुत सोचने पर ये घटना याद आई कि ऐसे भी दोस्त होते हैं जिन्हें अपने दोस्त के लिए कुछ भी कर गुज़रने में सोचने की जरूरत नहीं होती      
          विजय बहुत दिनों के बाद अपने कस्बे लौटा था क्योंकि अब उसके पिता या और घर वाले यहाँ पर नहीं रह गए थेबस एक दोस्त था और उसकी माँ थी जिसने अपनी माँ के मरने पर उसे दीपक की तरह ही प्यार दिया थास्टेशन पर लेने के लिए विजय को दीपक ही आया था क्योंकि उसे विजय से मिले हुए बहुत वर्ष बीत गए थेअब दोनों ही रिटायर्ड हो चुके हैंविजय ने ट्रेन से उतरते ही दोनों हाथ फैला दिए गले लगाने के लिए और यह भूल गया कि दीपक का एक हाथ कटे हुए तो वर्षों बीत चुके हैंएक पल में दीपक की कमीज की झूलती हुई आस्तीन ने उसको जमीन कर लेकर खड़ा कर दिया


       बीस साल से पहले की बात है दीपक ट्रेन से गिरा और उसका हाथ काट गयातब छोटी जगह में बहुत अधिक सुविधाएँ नहीं हुआ करती थीं और ही हर आदमी में इतनी जागरूकता थीवह कई महीने अस्पताल में पड़ा रहा और उसका इलाज चलता रहा घाव भरा नहीं रहा था । फिर पता चला कि सेप्टिक हो गया है। तब जाकर डॉक्टर सचेत हुए लेकिन उस कस्बे में वह इंजेक्शन नहीं मिल रहा था बल्कि कहो पास के शहर में भी उपलब्ध नहीं था। उस समय फ़ोन अधिक नहीं होते थे। विजय दूर कहीं चीफ इंजीनियर था , खबर उसके पास ट्रंक कॉल बुक करके भेजी गयी शायद वह वहाँ से कुछ कर सके। बस वही एक आशा बची थी। विजय ने खबर सुनते ही अपने एक मित्र को बम्बई में फ़ोन करके उस इंजेक्शन को हवाई जहाज से भेजने को कहा। जैसे ही उसे इंजेक्शन मिला वह अपनी गाड़ी और एक ड्राइवर लेकर निकल पड़ा। सफर बहुत लम्बा था इसलिए एक ड्राइवर साथ लिया था। १४ घंटे की सफर के बाद विजय दीपक के पास पहुंचा था।

            "डॉक्टर इसको कुछ नहीं होना चाहिए। अगर आप कुछ न कर सकें तो अभी बताएं मैं इसको बाहर ले जाता हूँ।"


         "नहीं, इस इंजेक्शन से हम कंट्रोल कर लेंगे। अगर ये अभी भी न मिलता तो हम नहीं बचा पाते।"
     
        दीपक बेहोशी में जा चुका था। दो दिन बाद वह होश में आया तब खतरे से बाहर घोषित किया गया। होश में आने पर उसने विजय को देखा - 


"अरे तू कब आया।"दो दिन पहले, तू अब ठीक है ?"

"अरे मैं तो तुझे आज ही देख रहा हूँ।"


"तूने इससे पहले आँखें कब खोली थीं।"  विजय उसका हाथ पकड़ कर बैठ गया था।

         विजय को दीपक की पत्नी , बच्चे और माँ ने दिल से दुआएं दी कि अगर उसने इतना न किया होता तो शायद दीपक????????।


ये भी यथार्थ सच है कि मित्र वही है, जो अपनी मित्रता को धन और स्तर से न आंके।