उम्र खर्च हो गयी
बिना सोचे-समझे,
बहुत पैसे कमाने के लिए।
धनी आज बहुत हैं,
रखने की जगह नहीं,
बस चुप हो गया।
वक़्त ही नहीं मिला संभालें,
जैसे भी थे, कुछ तो करीब थे।
कम अमीर थे,
लेकिन दिल से अनमोल थे,
तब शायद हम खुशनसीब थे।
'यथार्थ ' कुछ ऐसे कटु और मधुर अनुभव जो वक़्त ने दिए और जिनसे कुछ मिला है. लोगों को पहचाना है. दोहरे जीवन और मानदंड जीने वालों के साथ का अनुभव या यथार्थ के साथ जीने के क्षण.
जयश्री गांगुली ! (खो गए जो समय के साथ। )
जयश्री गांगुली यही नाम था उसका, बहुत बड़े घर की बहू और संपन्न घर की सात भाइयों की सबसे छोटी इकलौती बहन। जिसने जीवन में अभाव कभी देखे ही नहीं थे। हाथों हाथ रहने वाली प्यारी सी लड़की थी। बोलने में बहुत मधुर और रवींद्र संगीत में पारंगत होने के साथ साथ बहुत अच्छी चित्रकार थी।
उसका पति एक सैन्य अधिकारी का पुत्र था और बड़ा लाड़ला बेटा, एक कंपनी में मैनेजर था। जयश्री के पिता ने अच्छा घर और वर देख कर शादी कर दी। उनका घर एकदम किसी रईस के घर की तरह था। एक बंगलेनुमा घर में रहते थे। उस समय उनके घर में शानदार रेशमी परदे झूला करते थे। जब वह सब सुख सुविधाएँ, जो मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए जुटाना संभव नहीं था, उनके घर में उपलब्ध थीं। घर जतिन की माँ के अनुरूप ही चलता था क्योंकि एक सैन्य अधिकारी का जीवन जिस अनुशासन में बँधा होता है, वह भी उसी अनुशासन की आदी थीं।
जयश्री एक अनुशासित और अपनी सासुमाँ की आज्ञा पालन करने वाली बहू थी। जितना सुख उसने अपने पिता के घर में उठाया था, उससे ज्यादा ही सुख उसको यहाँ पर भी था। जितना कहूँ , उसके लिए कम ही रहेगा।
जयश्री के दो बेटे थे - बड़ा सुदीप और छोटा प्रदीप। दोनों बच्चे एक प्रतिष्ठित कान्वेंट स्कूल में पढ़ रहे थे। उसकी जिंदगी ने एक ऐसी करवट ली कि सब कुछ सारे गुण कहाँ खो गए नहीं मालूम। पति की महत्वाकांक्षाओं ने कंपनी में गबन कर दिया और एक लम्बे समय तक करते रहने के बाद वह पुलिस को तो नहीं सौंपा गया लेकिन उसको निकल कर बाहर कर दिया गया। जयश्री एकदम काँप गयी क्योंकि घर तो सासुमाँ ही चला रही थीं और जतिन की कमाई सिर्फ उसकी शान शौकत के लिए ही होता था।
कंपनी से निकल कर जतिन एकदम बेकार होकर अपनी पुरानी आदतों और साथियों को छोड़ नहीं पाया और फिर पैसे के कमाने की लत ने उसको गलत कामों में फंसा दिया। ये जयश्री की गलती थी कि वह पति के आचरण को अब तक समझ नहीं पायीं थी। एक दिन पुलिस की रेड पड़ी और जतिन को नकली नोटों के साथ पकड़ा गया था और घर की तलाशी लेने पर काफी करेंसी बरामद की गयी। पुलिस ने भी बेइज्जत करने का कोई भी कसर नहीं छोड़ी, जतिन को हथकड़ी डाल कर सड़क पर दूर खड़ी जीप तक पैदल चलाते हुए ले गयी। माँ इस सदमे को सह नहीं पाई, उनको हार्ट अटैक पड़ा और वह चल बसी। बचे जयश्री और उसके नाबालिग बेटे - उन्होंने जतिन के छोटे भाई नितिन को सूचना दी और नितिन तुरंत आया। पुलिस सिर्फ माँ की अंतिम क्रिया के लिए जतिन को अपनी कस्टडी में लायी और वापस ले गए। जतिन भाई को देख कर रो पड़ा और बच्चों को गले लगाकर खूब रोया लेकिन अब कुछ कर नहीं सकता था।
नितिन ने माँ के सारे अकाउंट खोलने के लिए कानूनी कार्यवाही करके जयश्री के लिए कुछ समय के लिए आर्थिक सुरक्षा की व्यवस्था कर दी। जयश्री अकेले ही सब लड़ाई लड़ने लगी, लेकिन कुछ महीनों के बाद मकान मालिक ने भी मकान खाली करने के लिए नोटिस दे दिया। बाकी किराया होने के कारण उसने सामान भी कब्जे में ले लिया। जयश्री अपने जरूरी सामान लेकर अपने पिता के घर चली गयी। वह घर जो उसके लिए हमेशा खुला रहता था, पिता के न रहने पर उसके घर पहुँचने पर किसी ने कोई स्वागत नहीं किया। लेकिन रहने के लिए उसको पिता का कमरा दे दिया गया। पापा के पास कमरा ही था कोई किचन वगैरह तो नहीं था और सारे भाइयों का अपना अलग अलग पोर्शन था। कुछ ही महीने गुजरे थे कि भाभियों ने कहा कि अब अगर दूसरा घर ले लें तो अधिक अच्छा रहेगा। बच्चे बड़े हो गए हैं तो पापाजी का कमरा भी उनको देना पडेगा।
जयश्री ने वहाँ से बहुत दूर कहीं एक मकान खोजा, जो सबसे ऊपर की मंजिल पर बना हुआ एक कमरा और उसके आगे एक बरामदा था बस उसके आगे खुली लम्बी सी छत। इत्तेफाक से उसके उस घर के पास से गुज़रते हुए जयश्री ने देख लिया और जिद करके अपने घर ले गयी। जब उसके कमरे में घुसी तो जैसे किसी ने आसमान से जमीन पर लाकर पटक दिया था - एक लकड़ी का तख़्त उस पर एक दरी और चादर पड़ी थी। एक लोहे का बक्सा जिस पर कुछ जरूरी सामान रखे थे और सामने स्टूल पर एक टेबल फैन। एक स्टूल पर स्टोव रखा था। उसके उस रईसी ठाठ बाट की साक्षी थी, उसे हालत को देख कर सदमे में आ गयी।
किसी तरह से घर चलाना था, कभी शौकिया पढ़ाया था, उसको अनुभव था और उसी अनुभव के सहारे नौकरी कर ली। आखिर कितना कर लेती वह , बच्चों की पढाई छूट गयी दोनों ही नाबालिग थे लेकिन संवेदनशील थे, बड़े ने एक फैक्ट्री में नौकरी कर ली, वहाँ घंटों पर भुगतान होता था और छोटे को कान्वेंट से निकाल कर हिंदी माध्यम में पढ़ना शुरू कर दिया लेकिन मन उसका भी परेशांन रहता था। रात में सब चुपचाप खाना खाते और सो जाते सुबह से वही रूटीन शुरू हो जाता।
एक दिन जतिन जमानत पर छूट कर आया और रातोंरात वह चला गया, घर में बताया या नहीं लेकिन चला गया। कुछ दिन बाद सब चले गए। कहाँ? किसी को पता नहीं चला। उसे प्यारी सी महिला, जो केयरिंग थी, कुशल गृहणी थी, एक अच्छी माँ और पत्नी थी लेकिन आज दसियों वर्ष हो गए और उसका किसी को भी कुछ भी पता नहीं है। गुम हो गया एक नाम और इंसान।
:
सम्मान!
असद ने नेट से देखा कि नवरात्रि की पूजा में क्या-क्या सामान लगता है और जाकर बाजार से खरीद लाया।
|
सीमान्त !
विनी की पोस्टिंग शहर से दूर एक नई टाउनशिप बनाने वाली जगह लगाई गई। वही निर्जन निर्माण स्थल पर सामने के मैदानों में समूहों से बने आवासीय घर, मजदूर रहते थे और जहाँ उनके बच्चे खेलते थे और यही इलाका ही तो वहाँ इंसानों के होने का अहसास कराता था।
उपेक्षित !
विधि!
कुछ नाम और कुछ किरदार इस जगत में इस तरह बनकर आता है कि अपनी भूमिका निभाते हुए फिर कहीं गुम हो जाते है। उस किरदार को कुछ दिन याद रखा जाता है और फिर वह भुला दिया जाता है लेकिन कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो बार बार जेहन में एक प्रश्न की तरह से उभरते ही रहते हैं।
उनमें एक विधि भी थी, थी इस लिए क्योंकि वह इस पटल से ही नहीं बल्कि अपने सभी मित्रों और परिचितों के लिए भी कहीं विलीन हो चुकी थी और तभी तो बार बार याद आती है। वह असाधारण थी - रंग रूप और गुणों से भी जिसे कहते हैं सर्वगुण सम्पन्न वह थी ऐसी ही। सोशल मीडिया पर भी खासी लोकप्रिय थी क्योंकि उसकी कला ही उसकी पहचान थी। उसकी शिक्षा भी उसको बहुमुखी गुणों से संपन्न बना चुकी थी। वह संविदा पर संस्थान में कार्य कर रही थी और उसके ज्ञान के कारण ही उसको एक विभाग से दूसरे विभाग में पद मिल जाता था। उसके लिए काम कभी ख़त्म ही नहीं हुआ।
विधि के माता-पिता ने अपनी तरफ से उसके लिए सुयोग्य वर खोज लिया, जो कि पहले से ही कुछ परिचित भी था। उसके पिता विधि के पिता के बचपन के सहपाठी थे, जो अपनी संपत्ति के साथ गाँव में ही रहे और विधि के पिता उच्चशिक्षा और नौकरी के लिए बाहर आ गए।
अंशुल भी उच्च शिक्षा प्राप्त इंजीनियर था लेकिन वह शीघ्र शोध के लिए बाहर जाने वाला था। सबको यह था कि अगर वह बाहर जाएगा तब भी कोई समस्या नहीं क्योंकि विधि अच्छी जगह नौकरी कर रही थी। उनकी शादी कर दी गई और शादी के 6 महीने के भीतर ही अंशुल की यू एस जाने की औपचारिकताएँ पूरी हो गईं। इस बीच विधि गर्भवती हो चुकी थी। उनके आपसी समझौते के अनुसार विधि ने नौकरी नहीं छोड़ी और वह वहीं एक हॉस्टल में रहने लगी। जैसे-जैसे डिलीवरी का समय समीप पा रहा था, विधि के माता-पिता उसको लेकर चिंतित हुए और इसी बीच अंशुल का संदेश आया कि उसको अब नौकरी छोड़कर माँ के पास गाँव चली जाना चाहिए।
आज याद आ रहे है, कुछ ऐसे लोग जो सालों साथ रहे और फिर ऐसे खो गये- जैसे कभी थे ही नहीं। वे टेलेंटेड थीं, असाधारण और कलात्मक गुणों से संपन्न भी थीं। चढ़ गईं भेंट सिर्फ किसी के अहंकार की या फिर किसी को उनकी असाधारणता रास नहीं आई। कहाँ है? कैसी हैं? नहीं जानती लेकिन उनके अस्तित्व को उकेरने का मन हो रहा है। उन गुमनामी में खोये अस्तित्वों को शब्दों में ही जीवित कर लूँ। क्या मैं सही सोच रही हूँ?
बी भानुमती !
हाँ यही नाम था उसका, वह तेलुगुभाषी थी और यहाँ पर उसके पिता एयरफोर्स में जॉब करते थे। एक भाई और एक बहन थी। कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.फिल कर रही थी। वह आखिरी सेमेस्टर में अपनी डेज़र्टेशन के लिए हमारी टीम में आकर जुडी। वह अस्सी और नब्बे का दशक था। हम उस समय दक्षिण भारतीय भाषाओं को लेकर मशीन अनुवाद पर काम कर रहे थे। हमारी टीम उस समय तमिल, कन्नड़, तेलुगु और मलयालम भाषा को लेकर काम कर रहे थे। इसके लिए वहाँ के प्रोफ़ेसर की पत्मियाँ थी जो कि इन भाषाओँ में पारंगत थी और हमारे साथ मिलकर अपनी अपनी भाषा की व्याकरण के आधार पर lexicon बना रहे थे। भानु इसके लिए बहुत सही काम के लिए सक्षम छात्रा थी। हमारी टीम को उसे समय "अक्षर भारती" नाम दिया गया था।
अपनी पढाई के साथ भानु स्केच बनाने की कला में बहुत ही कुशल कलाकार थी। पढाई एक तरफ और उसकी रूचि एक तरफ। ऑफिस में मेरी दराज में मेरी एक डायरी रहती थी क्योंकि मेरी रचनाएँ वहाँ ही रची जाती थीं। ये बात भानु को पता थी और वह मेरी डायरी लेकर उसमें स्केच बना देती थी और मालूम वह क्या बनती थी - अभिनेत्री रेखा की आँखों को रेखांकित करती थी। कहीं भी और किसी भी पेज में वह सिर्फ एक ही चीज बनाती, मैंने इस बारे में उससे कई बार सवाल किया तो वह सिर्फ इतना ही कहती कि मुझे इन आँखों में बहुत कुछ दिखाई देता है।
जब उसकी एम फिल पूरी हो गयी तो उसने हमारी टीम में शामिल होकर रिसर्च असिस्टेंट पद पर कार्य करना शुरू कर दिया और हमारी टीम का हिस्सा बन गयी। कुछ महीने गुजरे होंगे कि अचानक उसके पिता का निधन हो गया और उसकी माँ ने कानपुर से हैदराबाद जाने का निर्णय ले लिया। उसके दिन पास आ रहे थे और यह कभी कभी हम सब से मिलने आ जाती थी कि अचानक उसकी जिंदगी में एक अप्रत्याशित मोड़ आ गया। उसका कानपुर से जाना निश्चित हो चुका था कि उसके कैंपस में रहने वाले पिता के मित्र का बेटा छुट्टियों में घर आया और उसको पता चला कि ये लोग जा रहे हैं तो उसने भानु के घरवालों के सामने भानु से शादी करने का प्रस्ताव रख दिया और भानु के घर वालों को ये रिश्ता जाना पहचाना और अच्छा लगा और उनकी सगाई हो गयी।
उसकी शादी भी जल्दी ही कर दी गयी। हमारी पूरी टीम उसकी शादी में शामिल हुई थी। सब कुछ अच्छा था और उसका वर भी शायद एयरफोर्स में ही नौकरी कर रहा था। शादी के बाद उसका परिवार हैदराबाद चला गया और वह भी यहाँ से पति के साथ चली गयी। तब न तो मोबाइल थे कि हमें समाचार मिलते रहते और सब कुछ एक अँधेरे में डूब गया लेकिन हैदराबाद से जुड़े कुछ लोगों से समाचार कभी कभी मिल जाता था कि भानु दो बच्चों की माँ बन चुकी थी लेकिन उसका वैवाहिक जीवन अच्छा नहीं चला था। फिर एक दिन पता चला कि वह अपने बच्चों को लेकर पति से अलग हो गयी क्योंकि उसकी आदतों के चलते उसके कलाकार मन को कहीं न कहीं आहत हुआ होगा या फिर कुछ तो कारण रहे ही होंगे।
बस यहीं तक पता चल पाया फिर हमारी टीम से कुछ लोग हैदराबाद भी जाकर रहने लगे और भानु को खोजने की बहुत कोशिश की लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। हमारे पास कुछ भी शेष नहीं है , न मेरी वह डायरी और न उससे संपर्क करने का कोई सूत्र। फेसबुक से बचपन से लेकर अपनी शिक्षा काल के सहपाठी तक मिल गए लेकिन भानु कहीं नहीं मिली लेकिन दिल और दिमाग में आ भी अंकित है।