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सम्मान!
असद ने नेट से देखा कि नवरात्रि की पूजा में क्या-क्या सामान लगता है और जाकर बाजार से खरीद लाया।
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'यथार्थ ' कुछ ऐसे कटु और मधुर अनुभव जो वक़्त ने दिए और जिनसे कुछ मिला है. लोगों को पहचाना है. दोहरे जीवन और मानदंड जीने वालों के साथ का अनुभव या यथार्थ के साथ जीने के क्षण.
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सम्मान!
असद ने नेट से देखा कि नवरात्रि की पूजा में क्या-क्या सामान लगता है और जाकर बाजार से खरीद लाया।
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सीमान्त !
विनी की पोस्टिंग शहर से दूर एक नई टाउनशिप बनाने वाली जगह लगाई गई। वही निर्जन निर्माण स्थल पर सामने के मैदानों में समूहों से बने आवासीय घर, मजदूर रहते थे और जहाँ उनके बच्चे खेलते थे और यही इलाका ही तो वहाँ इंसानों के होने का अहसास कराता था।
उपेक्षित !
विधि!
कुछ नाम और कुछ किरदार इस जगत में इस तरह बनकर आता है कि अपनी भूमिका निभाते हुए फिर कहीं गुम हो जाते है। उस किरदार को कुछ दिन याद रखा जाता है और फिर वह भुला दिया जाता है लेकिन कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो बार बार जेहन में एक प्रश्न की तरह से उभरते ही रहते हैं।
उनमें एक विधि भी थी, थी इस लिए क्योंकि वह इस पटल से ही नहीं बल्कि अपने सभी मित्रों और परिचितों के लिए भी कहीं विलीन हो चुकी थी और तभी तो बार बार याद आती है। वह असाधारण थी - रंग रूप और गुणों से भी जिसे कहते हैं सर्वगुण सम्पन्न वह थी ऐसी ही। सोशल मीडिया पर भी खासी लोकप्रिय थी क्योंकि उसकी कला ही उसकी पहचान थी। उसकी शिक्षा भी उसको बहुमुखी गुणों से संपन्न बना चुकी थी। वह संविदा पर संस्थान में कार्य कर रही थी और उसके ज्ञान के कारण ही उसको एक विभाग से दूसरे विभाग में पद मिल जाता था। उसके लिए काम कभी ख़त्म ही नहीं हुआ।
विधि के माता-पिता ने अपनी तरफ से उसके लिए सुयोग्य वर खोज लिया, जो कि पहले से ही कुछ परिचित भी था। उसके पिता विधि के पिता के बचपन के सहपाठी थे, जो अपनी संपत्ति के साथ गाँव में ही रहे और विधि के पिता उच्चशिक्षा और नौकरी के लिए बाहर आ गए।
अंशुल भी उच्च शिक्षा प्राप्त इंजीनियर था लेकिन वह शीघ्र शोध के लिए बाहर जाने वाला था। सबको यह था कि अगर वह बाहर जाएगा तब भी कोई समस्या नहीं क्योंकि विधि अच्छी जगह नौकरी कर रही थी। उनकी शादी कर दी गई और शादी के 6 महीने के भीतर ही अंशुल की यू एस जाने की औपचारिकताएँ पूरी हो गईं। इस बीच विधि गर्भवती हो चुकी थी। उनके आपसी समझौते के अनुसार विधि ने नौकरी नहीं छोड़ी और वह वहीं एक हॉस्टल में रहने लगी। जैसे-जैसे डिलीवरी का समय समीप पा रहा था, विधि के माता-पिता उसको लेकर चिंतित हुए और इसी बीच अंशुल का संदेश आया कि उसको अब नौकरी छोड़कर माँ के पास गाँव चली जाना चाहिए।
आज याद आ रहे है, कुछ ऐसे लोग जो सालों साथ रहे और फिर ऐसे खो गये- जैसे कभी थे ही नहीं। वे टेलेंटेड थीं, असाधारण और कलात्मक गुणों से संपन्न भी थीं। चढ़ गईं भेंट सिर्फ किसी के अहंकार की या फिर किसी को उनकी असाधारणता रास नहीं आई। कहाँ है? कैसी हैं? नहीं जानती लेकिन उनके अस्तित्व को उकेरने का मन हो रहा है। उन गुमनामी में खोये अस्तित्वों को शब्दों में ही जीवित कर लूँ। क्या मैं सही सोच रही हूँ?
बी भानुमती !
हाँ यही नाम था उसका, वह तेलुगुभाषी थी और यहाँ पर उसके पिता एयरफोर्स में जॉब करते थे। एक भाई और एक बहन थी। कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.फिल कर रही थी। वह आखिरी सेमेस्टर में अपनी डेज़र्टेशन के लिए हमारी टीम में आकर जुडी। वह अस्सी और नब्बे का दशक था। हम उस समय दक्षिण भारतीय भाषाओं को लेकर मशीन अनुवाद पर काम कर रहे थे। हमारी टीम उस समय तमिल, कन्नड़, तेलुगु और मलयालम भाषा को लेकर काम कर रहे थे। इसके लिए वहाँ के प्रोफ़ेसर की पत्मियाँ थी जो कि इन भाषाओँ में पारंगत थी और हमारे साथ मिलकर अपनी अपनी भाषा की व्याकरण के आधार पर lexicon बना रहे थे। भानु इसके लिए बहुत सही काम के लिए सक्षम छात्रा थी। हमारी टीम को उसे समय "अक्षर भारती" नाम दिया गया था।
अपनी पढाई के साथ भानु स्केच बनाने की कला में बहुत ही कुशल कलाकार थी। पढाई एक तरफ और उसकी रूचि एक तरफ। ऑफिस में मेरी दराज में मेरी एक डायरी रहती थी क्योंकि मेरी रचनाएँ वहाँ ही रची जाती थीं। ये बात भानु को पता थी और वह मेरी डायरी लेकर उसमें स्केच बना देती थी और मालूम वह क्या बनती थी - अभिनेत्री रेखा की आँखों को रेखांकित करती थी। कहीं भी और किसी भी पेज में वह सिर्फ एक ही चीज बनाती, मैंने इस बारे में उससे कई बार सवाल किया तो वह सिर्फ इतना ही कहती कि मुझे इन आँखों में बहुत कुछ दिखाई देता है।
जब उसकी एम फिल पूरी हो गयी तो उसने हमारी टीम में शामिल होकर रिसर्च असिस्टेंट पद पर कार्य करना शुरू कर दिया और हमारी टीम का हिस्सा बन गयी। कुछ महीने गुजरे होंगे कि अचानक उसके पिता का निधन हो गया और उसकी माँ ने कानपुर से हैदराबाद जाने का निर्णय ले लिया। उसके दिन पास आ रहे थे और यह कभी कभी हम सब से मिलने आ जाती थी कि अचानक उसकी जिंदगी में एक अप्रत्याशित मोड़ आ गया। उसका कानपुर से जाना निश्चित हो चुका था कि उसके कैंपस में रहने वाले पिता के मित्र का बेटा छुट्टियों में घर आया और उसको पता चला कि ये लोग जा रहे हैं तो उसने भानु के घरवालों के सामने भानु से शादी करने का प्रस्ताव रख दिया और भानु के घर वालों को ये रिश्ता जाना पहचाना और अच्छा लगा और उनकी सगाई हो गयी।
उसकी शादी भी जल्दी ही कर दी गयी। हमारी पूरी टीम उसकी शादी में शामिल हुई थी। सब कुछ अच्छा था और उसका वर भी शायद एयरफोर्स में ही नौकरी कर रहा था। शादी के बाद उसका परिवार हैदराबाद चला गया और वह भी यहाँ से पति के साथ चली गयी। तब न तो मोबाइल थे कि हमें समाचार मिलते रहते और सब कुछ एक अँधेरे में डूब गया लेकिन हैदराबाद से जुड़े कुछ लोगों से समाचार कभी कभी मिल जाता था कि भानु दो बच्चों की माँ बन चुकी थी लेकिन उसका वैवाहिक जीवन अच्छा नहीं चला था। फिर एक दिन पता चला कि वह अपने बच्चों को लेकर पति से अलग हो गयी क्योंकि उसकी आदतों के चलते उसके कलाकार मन को कहीं न कहीं आहत हुआ होगा या फिर कुछ तो कारण रहे ही होंगे।
बस यहीं तक पता चल पाया फिर हमारी टीम से कुछ लोग हैदराबाद भी जाकर रहने लगे और भानु को खोजने की बहुत कोशिश की लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। हमारे पास कुछ भी शेष नहीं है , न मेरी वह डायरी और न उससे संपर्क करने का कोई सूत्र। फेसबुक से बचपन से लेकर अपनी शिक्षा काल के सहपाठी तक मिल गए लेकिन भानु कहीं नहीं मिली लेकिन दिल और दिमाग में आ भी अंकित है।