पूरा वर्ष बीत गया, हर साल की तरह से नहीं बीता क्योंकि बहुत लम्बे समय बाद कुछ बहुत अपने को खोया। अपने पिताश्री और ससुर जी के १९९१ में निधन के बाद सब कुछ अच्छा ही गुजरा था। ये वर्ष मेरी सासु माँ को ले गया, मेरे अति आत्मीय जनों में असमय मेरे भांजे और बहनोई को ले गया। काल की गति फिर भी ऐसे ही चल रही है। उनकी जगह भरी नहीं जा सकती है लेकिन वक्त उस घाव पर मरहम तो लगा ही देता है और ईश्वर शक्ति देता है उस सब को सहने के लिए।
अगर वह दुःख देता है तो सुख और ख़ुशी के पल भी देता है। इस वर्ष में मेरी बेटी की शादी हुई और दो और बेटियों की सगाई हुई (शादी नए वर्ष में सम्पन्न होगी।) छोटी बेटी सोनू अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने जॉब में लग गयी। सारे काम सकुशल और हंसी ख़ुशी से सम्पन्न हो जाएँ इससे अच्छा और क्या हो सकता है?
मेरे अच्छे और बुरे दोनों ही वक़्त में मेरे सभी आत्मीय जनों ने मुझे पूरा साहस और धैर्य दिया जिससे कि मैं सब कुछ सह कर भी सामान्य होने की स्थिति में आती जा रही हूँ।
इस बीते वर्ष से शिकायत क्या करूँ? काल का चक्र कभी रुकता तो है नहीं और ये हमारा प्रारब्ध है कि उसमें हमें क्या मिला?
न तो शिकायत जीवन में कुछ भी न मिलने की है
और न शिकवा इतना कुछ सिर पर से गुजरने की है।
हम फिर भी सोच कर देखो बहुत अच्छे है उन लोगों से ,
jaroorat to ज्यादा खोने वालों का दर्द समझने की है।
अलविदा गुजरे वर्ष को करें, दोष उसका नहीं हमारी तकदीर का है। वह तो वैसे ही आया था जैसे और आते हें नसीब में क्या लिखा - ये तो वो ही जाने।
विदा २०११......................
शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011
गुरुवार, 15 दिसंबर 2011
और जिन्दगी हार गयी!
हम तो विधाता के हाथ की कठपुतली है लेकिन कभी इस धरती के भगवान कैसे अपनी जिम्मेदारियों के साथ खिलवाड़ करते हें कि एक घर बिखर जाता है - रह जाते हें रोते कलपते उसके घर वाले और परिजन।
ये कहानी आज से सात साल पहले शुरू हो चुकी थी जब टाटा मेमोरिअल के डॉक्टर के हाथों हमने अपने बहनोई शरद चन्द्र खरे को सौप दिया था। उन्होंने अपने देखरेख में रखा ७ सालों तक और फिर सात साल बाद उन्हें पूर्ण रूप से स्वस्थ घोषित कर दिया जब कि वह इंसान अपने शरीर में उनकी गहन निरीक्षण के बाद भी कैंसर पाले बैठा था। डॉक्टर उसको आगे देखने या चेक अप करने के लिए कतई तैयार नहीं थे कि डॉक्टर तुम हो या मैं हूँ? पता नहीं कौन भगवान था? फिर बहुत मिन्नतों के बाद जब एम आर आई करवाई गई तो कैंसर उनके बोन मैरो में पूरी तरह से फैल चुका था। ये सात साल तक हर महीने और फिर उनके अनुसार दी गयी तारीख पर चेक करवाने के बाद की लापरवाही थी।
फिर मिली १३ जून २०११ को उसके ऑपरेशन की तिथि। वहाँ बहुत काबिल डॉक्टर हें और ऑपरेशन में शरीर की मुख्य धमनी उनसे कट गयी। खून के बंद होने का नाम नहीं और घबरा कर उन्होंने ऑपरेशन बंद कर दिया कि हम दो दिन बाद ऑपरेशन करेंगे। मरीज जिन्दगी और मौत के बीच झूलता हुआ छोड़ दिया। हम घर वाले उनके इशारों पर ही तो चल सकते थे। दूसरे दिन जब देखा तो पूरे शरीर में फफोले पड़ने लगे थे। घबरा कर उन्होंने कहा कि हमें अभी इनके पैर को काटना पड़ेगा नहीं तो हम इन्हें बचा नहीं पायेंगे। हमें तो अपने मरीज की जान प्यारी थी और रोते हुए उन्हें वह भी करने की अनुमति दे दी। क्योंकि उसके जीवन के रहते हमारे पास और भी विकल्प थे। उन्होंने ने पैर काट दिया और उसके बाद २३ को कहा कि अपने मरीज को ले जाइए। जिस मरीज का आपने पैर काट दिया और उस हालात में घर वाले कहाँ लेकर जायेंगे? लेकिन उनकी दलील थी कि अदमित करने के समय २३ तक ही बैड देने की अनुमति दी गयी थी। उन मूर्खों को कौन समझाये कि आप सिर्फ ऑपरेशन करने जा रहे थे तब ये अनुमति थी , अब इतने बड़े ऑपरेशन के मरीज को क्या सड़क पर लितायेंगे। लेकिन नहीं उनका फरमान तो आपको उसी दिन हटाना है। उसी हालात में उनको एक होटल में ले गए। जहाँ से अस्पताल दूर था लेकिन मरता क्या न करता? किन हालातों को उनको अस्पताल से लेकर आये और उनको रखा गया ये मेरी बहन और साथ रहने वाले ही जानते थे। घाव भरने में समय लगता तो उन्होंने पहले ही घर ले जाने की अनुमति भी दे दी। जब कि बाहर के विशेषज्ञों के अनुसार इतने बड़े ऑपरेशन के बाद उनको कीमो
थेरेपी देनी चाहिए थी लेकिन ऐसा न कुछ खुद दिया और न ही ऐसा करवाने की सलाह दी।
उनके बाद भी दो बार चेक आप के लिए लेकर गए सब ठीक कह कर वापस कर दिया। पांच महीने बाद उनको नकली पैर लगवाने की बात हुई। उससे पहले अस्पताल में पूरा चेक उप किया कि कोई अन्दर से परेशानी अभी भी न हो और पूरी तरह से ठीक होने की बात कह कर पैर लगवाने की बात कही और वे वही पैर लगाने वाली संस्था में रहकर पैर लगवा कर उससे चलने का अभ्यास कर रहे थे लेकिन अचानक उन्हें सांस लेने की तकलीफ हुई उनके पास सिर्फ मेरी बहन ही थी। उनको टैक्सी में डाल कर टाटा मेमोरिअल ले जाने लगी तो रास्ते में ही उनकी सांस बंद हो गयी फिर भी वहाँ पहुंची डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। उसने कहा कि सब कुछ ठीक था फिर अचानक क्या हुआ? डॉक्टर ने उत्तर दिया कि इन तीन हफ्तों में कैंसर उनके फेफड़ों तक पहुँच गया था। अगर कैंसर बाकी था तो तीन हफ्ते पहले किये गए चेक अप में क्या आपने आँखें बंद करके देखा था?
अब सिर्फ सवाल और जवाब ही राह गए हें। उन जैसे जीवट वाला आदमी जिन्दगी हार गया और हम सब को मलाल है कि डॉक्टर ने लापर्वाली न की होती तो हम इस गम में आज डूबे न होते।
ये कहानी आज से सात साल पहले शुरू हो चुकी थी जब टाटा मेमोरिअल के डॉक्टर के हाथों हमने अपने बहनोई शरद चन्द्र खरे को सौप दिया था। उन्होंने अपने देखरेख में रखा ७ सालों तक और फिर सात साल बाद उन्हें पूर्ण रूप से स्वस्थ घोषित कर दिया जब कि वह इंसान अपने शरीर में उनकी गहन निरीक्षण के बाद भी कैंसर पाले बैठा था। डॉक्टर उसको आगे देखने या चेक अप करने के लिए कतई तैयार नहीं थे कि डॉक्टर तुम हो या मैं हूँ? पता नहीं कौन भगवान था? फिर बहुत मिन्नतों के बाद जब एम आर आई करवाई गई तो कैंसर उनके बोन मैरो में पूरी तरह से फैल चुका था। ये सात साल तक हर महीने और फिर उनके अनुसार दी गयी तारीख पर चेक करवाने के बाद की लापरवाही थी।
फिर मिली १३ जून २०११ को उसके ऑपरेशन की तिथि। वहाँ बहुत काबिल डॉक्टर हें और ऑपरेशन में शरीर की मुख्य धमनी उनसे कट गयी। खून के बंद होने का नाम नहीं और घबरा कर उन्होंने ऑपरेशन बंद कर दिया कि हम दो दिन बाद ऑपरेशन करेंगे। मरीज जिन्दगी और मौत के बीच झूलता हुआ छोड़ दिया। हम घर वाले उनके इशारों पर ही तो चल सकते थे। दूसरे दिन जब देखा तो पूरे शरीर में फफोले पड़ने लगे थे। घबरा कर उन्होंने कहा कि हमें अभी इनके पैर को काटना पड़ेगा नहीं तो हम इन्हें बचा नहीं पायेंगे। हमें तो अपने मरीज की जान प्यारी थी और रोते हुए उन्हें वह भी करने की अनुमति दे दी। क्योंकि उसके जीवन के रहते हमारे पास और भी विकल्प थे। उन्होंने ने पैर काट दिया और उसके बाद २३ को कहा कि अपने मरीज को ले जाइए। जिस मरीज का आपने पैर काट दिया और उस हालात में घर वाले कहाँ लेकर जायेंगे? लेकिन उनकी दलील थी कि अदमित करने के समय २३ तक ही बैड देने की अनुमति दी गयी थी। उन मूर्खों को कौन समझाये कि आप सिर्फ ऑपरेशन करने जा रहे थे तब ये अनुमति थी , अब इतने बड़े ऑपरेशन के मरीज को क्या सड़क पर लितायेंगे। लेकिन नहीं उनका फरमान तो आपको उसी दिन हटाना है। उसी हालात में उनको एक होटल में ले गए। जहाँ से अस्पताल दूर था लेकिन मरता क्या न करता? किन हालातों को उनको अस्पताल से लेकर आये और उनको रखा गया ये मेरी बहन और साथ रहने वाले ही जानते थे। घाव भरने में समय लगता तो उन्होंने पहले ही घर ले जाने की अनुमति भी दे दी। जब कि बाहर के विशेषज्ञों के अनुसार इतने बड़े ऑपरेशन के बाद उनको कीमो
थेरेपी देनी चाहिए थी लेकिन ऐसा न कुछ खुद दिया और न ही ऐसा करवाने की सलाह दी।
उनके बाद भी दो बार चेक आप के लिए लेकर गए सब ठीक कह कर वापस कर दिया। पांच महीने बाद उनको नकली पैर लगवाने की बात हुई। उससे पहले अस्पताल में पूरा चेक उप किया कि कोई अन्दर से परेशानी अभी भी न हो और पूरी तरह से ठीक होने की बात कह कर पैर लगवाने की बात कही और वे वही पैर लगाने वाली संस्था में रहकर पैर लगवा कर उससे चलने का अभ्यास कर रहे थे लेकिन अचानक उन्हें सांस लेने की तकलीफ हुई उनके पास सिर्फ मेरी बहन ही थी। उनको टैक्सी में डाल कर टाटा मेमोरिअल ले जाने लगी तो रास्ते में ही उनकी सांस बंद हो गयी फिर भी वहाँ पहुंची डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। उसने कहा कि सब कुछ ठीक था फिर अचानक क्या हुआ? डॉक्टर ने उत्तर दिया कि इन तीन हफ्तों में कैंसर उनके फेफड़ों तक पहुँच गया था। अगर कैंसर बाकी था तो तीन हफ्ते पहले किये गए चेक अप में क्या आपने आँखें बंद करके देखा था?
अब सिर्फ सवाल और जवाब ही राह गए हें। उन जैसे जीवट वाला आदमी जिन्दगी हार गया और हम सब को मलाल है कि डॉक्टर ने लापर्वाली न की होती तो हम इस गम में आज डूबे न होते।
शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011
सोच ऐसी क्यों हुई?
मेरे पड़ोस में रहने वाले एक ब्राह्मन परिवार का बेटा आयुध निर्माणी में कार्य करता है और एक दिन पता चला कि काम करते वक्त उसके हाथ की एक अंगुली मंशीन में आ जाने के कारण कट गयी। घर खबर आई तो हडकंप मच गया क्योंकि खबर आई थी 'मनीष ' का हाथ मशीन में आ गया और उसका हाथ काट गया। पड़ोसी होने के नाते और उनसे अपने आत्मिक सम्बन्ध होने के नाते हम लोग भी अस्पताल पहुंचे। हम सब लोग काफी दुखी थे। जब अस्पताल पहुंचे तो जो बात सुनी उसे सुनकर हंसी नहीं आई बल्कि तरस आया अपनी इस सोच पर कि सिर्फ जन्म के कारण प्रतिभा और मेधा कैसे कमतर आंकी जाती है और उसका सम्मान करने वाला कोई भी नहीं है।
उस लड़के की शादी अभी हाल में ही हुई थी। हम सब दुखी थे और वह हम लोगों के सामने हंसते हुए बोला - 'अच्छा हुआ अब मैं विकलांग के कोटे में आ जाऊँगा शादी मेरी हो ही चुकी है तो इस कटी उंगली से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है लेकिन अब मुझे प्रमोशन मिलने में आसानी होगी नहीं तो सारी जिन्दगी मशीन पर ही काम करते करते बीत जाती और मैं वहीं के वहीं रह जाता।'
उसके इन शब्दों में जो सरकारी नीतियों के प्रति आक्रोश झलक रहा था वह शर्मिंदा करने वाला है। यहाँ प्रोन्नति पाने के लिए वह विकलांग होने के बाद भी कितना खुश हुआ? आख़िर क्यों? ये सोच क्यों बदल गयी उसकी क्योंकि वह देख रहा है कि आरक्षण के चलते सिर्फ और सिर्फ चंद सर्टिफिकेट ही आधार बन चुके हें चाहे उस पद के लिए प्रोन्नत किया जाने वाला व्यक्ति काबिल हो या नहीं। आज की युवा पीढ़ी में जो कुंठा बसती जा रही है और वे तनाव में रहने लगे हें इसके पीछे कुछ ऐसे ही कारण है। युवा पीढ़ी जो आज अपराध की ओर अग्रसर हो रही है उसके पीछे भी हमारी सरकारी नीतियां ही हें। इसको बदलने या फिर सुधारने के बारे में कोई भी नहीं सोचता है। ऐसा नहीं है कि हमारे राजनेता इस बात को जानते और समझते नहीं है लेकिन वे अपनी सरकार को चलते रहने के लिए और वोट बैंक अपने कब्जे में करने के लिए ऐसा कर रहे हें और सारे तंत्र को आरक्षण की जंजीरों में बाँध कर जन जन के मन में एक घृणा का भाव भर दिया है। जिसे देखा जा सकता है उस बच्चे के शब्दों में .................
उस लड़के की शादी अभी हाल में ही हुई थी। हम सब दुखी थे और वह हम लोगों के सामने हंसते हुए बोला - 'अच्छा हुआ अब मैं विकलांग के कोटे में आ जाऊँगा शादी मेरी हो ही चुकी है तो इस कटी उंगली से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है लेकिन अब मुझे प्रमोशन मिलने में आसानी होगी नहीं तो सारी जिन्दगी मशीन पर ही काम करते करते बीत जाती और मैं वहीं के वहीं रह जाता।'
उसके इन शब्दों में जो सरकारी नीतियों के प्रति आक्रोश झलक रहा था वह शर्मिंदा करने वाला है। यहाँ प्रोन्नति पाने के लिए वह विकलांग होने के बाद भी कितना खुश हुआ? आख़िर क्यों? ये सोच क्यों बदल गयी उसकी क्योंकि वह देख रहा है कि आरक्षण के चलते सिर्फ और सिर्फ चंद सर्टिफिकेट ही आधार बन चुके हें चाहे उस पद के लिए प्रोन्नत किया जाने वाला व्यक्ति काबिल हो या नहीं। आज की युवा पीढ़ी में जो कुंठा बसती जा रही है और वे तनाव में रहने लगे हें इसके पीछे कुछ ऐसे ही कारण है। युवा पीढ़ी जो आज अपराध की ओर अग्रसर हो रही है उसके पीछे भी हमारी सरकारी नीतियां ही हें। इसको बदलने या फिर सुधारने के बारे में कोई भी नहीं सोचता है। ऐसा नहीं है कि हमारे राजनेता इस बात को जानते और समझते नहीं है लेकिन वे अपनी सरकार को चलते रहने के लिए और वोट बैंक अपने कब्जे में करने के लिए ऐसा कर रहे हें और सारे तंत्र को आरक्षण की जंजीरों में बाँध कर जन जन के मन में एक घृणा का भाव भर दिया है। जिसे देखा जा सकता है उस बच्चे के शब्दों में .................
शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011
बेटी हुई पराई !
बेटी पराया धन किस लिए कहा जाता है कि उसको घर में हमेशा नहीं रखा जा सकता है बल्कि एक सुयोग्य वर को उसका हाथ देकर कन्यादान किया तो अपना हक़ उसपर से ख़त्म हो जाता है। ऐसा ही कहा जाता है लेकिन मुझे लगा कि बेटी या बेटा विवाह के बाद उनकी एक अपनी दुनियाँ तो बस ही जाती है लेकिन बेटी के बदले में एक बेटा भी मिल जाता है और बेटे के साथ एक बेटी, जैसे कि मैंने पाया है।
पारम्परिक परिवार होने के नाते एक महाराष्ट्रिय ब्राह्मण परिवार में बेटी को देने की बात पर सभी ने नाक भौं तो सिकोड़ी थी लेकिन मेरे पास विवाह के लिए सजातीय योग्य वर खरीदने लायक पर्याप्त धन न था। या कहो कि बेटी भी दहेज़ देकर वर खरीदने के लिए कतई तैयार न थी। इसलिए सुयोग्य वर जहाँ भी मिला उसको अपना बना लिया। मेरा दामाद पवन कुलकर्णी पुर्तगाल में पर्यावरण भौतिकी में पोस्ट डॉक्टरेट फेलो है और बेटी फिजियोथेरापिस्ट ।
एक सबसे बड़ी बात और अनुभव यह रहा है कि हमारे उत्तर भारत में लड़की का पिता हमेशा बेचारा ही बना रहता है लेकिन महाराष्ट्र से जुड़ने पर लगा कि वहाँ दोनों का सम्मान बराबर है। एक नया अनुभव मिला जो इससे पहले तो नहीं मिला था। कुल मिला कर सब कुछ बहुत अच्छा ही रहा। इसके लिए नागपुर के कुलकर्णी, भांगे और बारहाते परिवार के पूर्ण सहयोग से हम लोग इस विवाह कार्य को सम्पन्न करने में सफल हो सके।
इस अवसर पर अपनी शुभकामनाएं भेजने वाले सभी ब्लोगर साथियों को मेरा हार्दिक धन्यवाद। इस कार्य के कानपुर में सम्पन्न समारोह में महफूज की उपस्थिति ने सब लोगों का प्रतिनिधित्व किया। इसके लिए उसको बहुत बहुत धन्यवाद।
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