आज केवल राम जी का नारी विषयक लेख की श्रृंखला पढ़ रही थी और उसमें ही पढ़ा कि आज भी परिवार चाहे जितनी आधुनिकता का दम भरते हों और चाहे जितनी सभा और मंच पर बेटी और बेटे की समानता की बातें करते हों लेकिन अन्दर से हम आज भी वैसे ही हैं और खास तौर पर महिलायें भी . जिन्हें शायद अपने महिला होने पर गर्व होना चाहिए और बेटियों से मिल रहे प्रेम और समर्पण को मानना चाहिए .
नाम तो मैं उजागर नहीं करूंगी लेकिन बहुत करीब के लोगों के परिवार में दो बेटियां माँ बनने वाली थी और दोनों के प्रति घर में सभी सदस्यों को उत्सुकता थी .उन दोनों के अलावा परिवार की एक बेटी बाहर रहती हैं। वह भारत आ रही थी तो उसने सोचा की दोनों के होने वाले बच्चों के लिए कुछ ड्रेसेज लेती चलूँ और वह दोनों के होने वाले बच्चों के लिए ड्रेसेज का सेट बना कर पैक करके रख गयी कि जब जिसके घर आप लोगों का जाना हो तो आप लोग मेरा पैक भी लेती जाएँ .
इत्तेफाक से दोंनों ही बेटियों के लडके हुए और पैक यथा समय जाते वक्त लोग लेते चले गए .
कुछ दिनों बाद उनमें से एक कानपुर आई और उसके लाये हुए कपड़ों से एक ड्रेस जो लड़कियों की तो नहीं थी लेकिन दोनों के पहनने काबिल थी . वापस करती हुई बोली - ये ड्रेस न लड़कियों की है और मेरा बेटा लड़कियों की ड्रेस क्यों पहनेगा ? इसको रख लीजिये , आगे किसी और के काम आ जायेगा . उस लड़की में मैंने बेटा को जन्म देने का जो दर्प देखा तो लगा कि अपनी माँ के कोई बेटा न होने का दंश या फिर उस मानसिकता को बदल न पाने का प्रतीक . इसको क्या कहा जाएगा ? मुझे तो लगा कि शिक्षा , प्रगतिशीलता या फिर आधुनिकता का जामा पहन भर लेने से हमारी मानसिकता में बसे पुरातनता के कीड़े कभी मर नहीं सकते हैं . ये फर्क ख़त्म करने कि हम हामी भर रहे हैं और खुद को इससे ऊपर ले जाने का दम भर रहे हैं लेकिन वह दम सिर्फ जबान से बोलने भर के लिए है . हम आज भी वही हैं जहाँ सदियों पहले थे और आज भी दिल से यही चाहते हैं की घर में पहला बेटा जो जाये फिर चाहे दूसरी संतान हो न हो क्योंकि आज कल एक की परवरिश ही कठिन हो रही हैं .
नाम तो मैं उजागर नहीं करूंगी लेकिन बहुत करीब के लोगों के परिवार में दो बेटियां माँ बनने वाली थी और दोनों के प्रति घर में सभी सदस्यों को उत्सुकता थी .उन दोनों के अलावा परिवार की एक बेटी बाहर रहती हैं। वह भारत आ रही थी तो उसने सोचा की दोनों के होने वाले बच्चों के लिए कुछ ड्रेसेज लेती चलूँ और वह दोनों के होने वाले बच्चों के लिए ड्रेसेज का सेट बना कर पैक करके रख गयी कि जब जिसके घर आप लोगों का जाना हो तो आप लोग मेरा पैक भी लेती जाएँ .
इत्तेफाक से दोंनों ही बेटियों के लडके हुए और पैक यथा समय जाते वक्त लोग लेते चले गए .
कुछ दिनों बाद उनमें से एक कानपुर आई और उसके लाये हुए कपड़ों से एक ड्रेस जो लड़कियों की तो नहीं थी लेकिन दोनों के पहनने काबिल थी . वापस करती हुई बोली - ये ड्रेस न लड़कियों की है और मेरा बेटा लड़कियों की ड्रेस क्यों पहनेगा ? इसको रख लीजिये , आगे किसी और के काम आ जायेगा . उस लड़की में मैंने बेटा को जन्म देने का जो दर्प देखा तो लगा कि अपनी माँ के कोई बेटा न होने का दंश या फिर उस मानसिकता को बदल न पाने का प्रतीक . इसको क्या कहा जाएगा ? मुझे तो लगा कि शिक्षा , प्रगतिशीलता या फिर आधुनिकता का जामा पहन भर लेने से हमारी मानसिकता में बसे पुरातनता के कीड़े कभी मर नहीं सकते हैं . ये फर्क ख़त्म करने कि हम हामी भर रहे हैं और खुद को इससे ऊपर ले जाने का दम भर रहे हैं लेकिन वह दम सिर्फ जबान से बोलने भर के लिए है . हम आज भी वही हैं जहाँ सदियों पहले थे और आज भी दिल से यही चाहते हैं की घर में पहला बेटा जो जाये फिर चाहे दूसरी संतान हो न हो क्योंकि आज कल एक की परवरिश ही कठिन हो रही हैं .