26 जनवरी 1980 यही वह दिन था जब की देश में गणतंत्र दिवस मन रहे थे सब और मेरे जीवन में एक संविधान की भूमिका ख़त्म होकर दूसरे संविधान की भूमिका रची गयी थी .
कब और कैसे 33 साल गुजर गए पता ही नहीं चला , दिन और रात गुजरते रहे , हम सुबह शाम दौड़ते रहे जिन्दगी के रास्तों पर और कंटकाकीर्ण रास्तों पर भी चलते रहे क्योंकि हमारी जिन्दगी कभी भी अपने लिए जीने वाली रही ही नहीं .शायद सुनने में कोई विश्वास न करे लेकिन ये सच है कि हम इन 33 सालों में से 31 साल तक ( इसलिए क्योंकि 2 साल पहले हमारी सासु माँ के निधन तक ) तो हम कहीं भी परिवार के साथ घूमने तक नहीं जा पाए . आश्चर्य लग रहा होगा लेकिन सच यही है। शादी के समय बाबू जी के पैर में डिसलोकेशन हो गया था , इसलिए कोई सवाल नहीं उठता था और अम्मा तो 8 साल पहले से दुर्घटना का शिकार होने के कारण सामान्य थी हीं नहीं।
हम जीवन में कभी भी घूमने गए ही नहीं , हाँ हमारी सीमायें इतनी सीमित थी की अगर अपने परिवार में किसी समारोह में शामिल होना हुआ तो मैं दो दिन पहले और ये उसी दिन और दूसरे दिन वापस . उनकी अम्मा को लगता था कि अगर उनका बेटा उनके पास रहेगा तो उन्हें कोई भी तक्लीफ होती है तो वे सुरक्षित रहेंगी . लोग परिवार के साथ हिल स्टेशन , तीर्थ स्थान और पर्यटन स्थल घूमने जाते हैं लेकिन ऐसा मेरी जिन्दगी में कुछ भी नहीं हुआ। लेकिन मुझे कोई शिकायत भी नहीं रही क्योंकि मेरी दुनियां घर , नौकरी और परिजनों तक ही सीमित रही।
मैं तो फिर भी अपने ऑफिसियल मीटिंग्स एक लिए बहुत जगह गयी लेकिन घर में इनको रहना होता था . वही होटल में रहते हुए कई बार ये बात मन को लग जाती थी कि काश मैं बच्चों और इनके साथ यहाँ आई होती और इतना सारा घूमते तो कितना अच्छा होता लेकिन फिर थोड़ी देर बाद सब ख़त्म क्योंकि अम्मा को यह नहीं बताया जाता था कि रेखा कोलकाता त्रिवेंद्रम या फिर नॉएडा गयी हैं क्योंकि उन्हें बहुत डर लगता था सो उनसे कह दिया जाता था कि ऑफिस के काम से लखनऊ गयी है। अब दो साल से वे भी नहीं रहीं लेकिन अब जिन्दगी उसी ढर्रे से जीने की आदी हो चुकी है और मैं भी। अब कोई शिकायत नहीं क्योंकि अब पीछे देखकर अफसोस करने का समय ही नहीं रहा और बस अतीत पर एक नजर डाल कर सबके साथ बांटने का मन करता है तो उसे उठा कर बाँट लेती हूँ .
अब जब की शादी करके दामाद जी भी आ चुके हैं तो विश करने पर कहेंगे 'पापाजी आज क्या प्रोग्राम है?' तो हंसी आती है . हाँ अब छोटी बेटी जरूर इस दिन आ जाती है या फिर हम लोगों को दिल्ली बुलाती है और फिर जो उन्हें करना होता है बच्चे कर डालते हैं . हम तो अब चीफ गेस्ट बन चुके हैं। सच कहूं विश्वास ही नहीं होता है कि जिन्दगी के इतने वर्ष हम साथ गुजर चुके हैं। अभी कल की ही बात लगती है।
कब और कैसे 33 साल गुजर गए पता ही नहीं चला , दिन और रात गुजरते रहे , हम सुबह शाम दौड़ते रहे जिन्दगी के रास्तों पर और कंटकाकीर्ण रास्तों पर भी चलते रहे क्योंकि हमारी जिन्दगी कभी भी अपने लिए जीने वाली रही ही नहीं .शायद सुनने में कोई विश्वास न करे लेकिन ये सच है कि हम इन 33 सालों में से 31 साल तक ( इसलिए क्योंकि 2 साल पहले हमारी सासु माँ के निधन तक ) तो हम कहीं भी परिवार के साथ घूमने तक नहीं जा पाए . आश्चर्य लग रहा होगा लेकिन सच यही है। शादी के समय बाबू जी के पैर में डिसलोकेशन हो गया था , इसलिए कोई सवाल नहीं उठता था और अम्मा तो 8 साल पहले से दुर्घटना का शिकार होने के कारण सामान्य थी हीं नहीं।
हम जीवन में कभी भी घूमने गए ही नहीं , हाँ हमारी सीमायें इतनी सीमित थी की अगर अपने परिवार में किसी समारोह में शामिल होना हुआ तो मैं दो दिन पहले और ये उसी दिन और दूसरे दिन वापस . उनकी अम्मा को लगता था कि अगर उनका बेटा उनके पास रहेगा तो उन्हें कोई भी तक्लीफ होती है तो वे सुरक्षित रहेंगी . लोग परिवार के साथ हिल स्टेशन , तीर्थ स्थान और पर्यटन स्थल घूमने जाते हैं लेकिन ऐसा मेरी जिन्दगी में कुछ भी नहीं हुआ। लेकिन मुझे कोई शिकायत भी नहीं रही क्योंकि मेरी दुनियां घर , नौकरी और परिजनों तक ही सीमित रही।
मैं तो फिर भी अपने ऑफिसियल मीटिंग्स एक लिए बहुत जगह गयी लेकिन घर में इनको रहना होता था . वही होटल में रहते हुए कई बार ये बात मन को लग जाती थी कि काश मैं बच्चों और इनके साथ यहाँ आई होती और इतना सारा घूमते तो कितना अच्छा होता लेकिन फिर थोड़ी देर बाद सब ख़त्म क्योंकि अम्मा को यह नहीं बताया जाता था कि रेखा कोलकाता त्रिवेंद्रम या फिर नॉएडा गयी हैं क्योंकि उन्हें बहुत डर लगता था सो उनसे कह दिया जाता था कि ऑफिस के काम से लखनऊ गयी है। अब दो साल से वे भी नहीं रहीं लेकिन अब जिन्दगी उसी ढर्रे से जीने की आदी हो चुकी है और मैं भी। अब कोई शिकायत नहीं क्योंकि अब पीछे देखकर अफसोस करने का समय ही नहीं रहा और बस अतीत पर एक नजर डाल कर सबके साथ बांटने का मन करता है तो उसे उठा कर बाँट लेती हूँ .
अब जब की शादी करके दामाद जी भी आ चुके हैं तो विश करने पर कहेंगे 'पापाजी आज क्या प्रोग्राम है?' तो हंसी आती है . हाँ अब छोटी बेटी जरूर इस दिन आ जाती है या फिर हम लोगों को दिल्ली बुलाती है और फिर जो उन्हें करना होता है बच्चे कर डालते हैं . हम तो अब चीफ गेस्ट बन चुके हैं। सच कहूं विश्वास ही नहीं होता है कि जिन्दगी के इतने वर्ष हम साथ गुजर चुके हैं। अभी कल की ही बात लगती है।