मैं जीवन को इतने करीब अकेले ही तो नहीं जीती हूँ हर इंसान के आस-पास ऐसा गुजरता है। कुछ पढ़ने वालों को लगा कि मैं सिर्फ नकारात्मक छवि ही प्रस्तुत करती हूँ। ऐसा नहीं है मैं खुद जिस परिवार हूँ वहां मैंने जो देखा है तो ऐसी घटनाएँ कहीं हिला देती हैं।
मैंने अपने जीवन में ऐसा देखा है तो श्रवण कुमार देखने के लिए कहीं और नहीं जाना पड़ता है। एक ऐसा इंसान भी मैंने देखा है जिसने अपने जीवन के 39 वर्ष तक सिर्फ अपनी माँ की सेवा में गुजारे हैं। न अपना करियर देखा और न भविष्य . फिर भी कभी कोई कमी नहीं हुई। यह बात और हैं कि अगर उन्होंने अपनी माता-पिता को नजरअंदाज किया होता तो शायद नहीं बल्कि निश्चित तौर पर आज बहुत समृद्ध और धनाढ्य होेते । जब वह 18 वर्ष की आयु में बीएससी कर रहा थे तभी 27 फरवरी 1972 को उनकी माँ सड़क दुर्घटना का शिकार हुई . शरीर में 27 जगह से हड्डियाँ टूटी हुई थी।
उनके पिता बड़े अस्पताल में फार्मासिस्ट थे और वहीँ कैम्पस में रहते थे। उस समय सर्जरी इतनी उन्नत नहीं थी कि घायल को तुरंत आपरेशन करके खड़ा किया जा सकता।घर में एक 7 साल बड़े भाई भी थे लेकिन जिम्मेदारी बाँटने के नाम पर सिर्फ अपने स्वार्थ को साधा। 3 साल तक उस इंसान ने घर, कालेज और अस्पताल में घूमते हुए अपनी एम एस सी को पूरा किया और उसमें अपनी डिवीजन गवां बैठे और भविष्य में जो सोचा था गर्त में चला गया। तीन साल बाद जब माँ घर आयीं तब भी वह चल फिर नहीं सकती थी। उनको बिस्तर पर ही रहना पड़ा। 5 साल बाद वह छड़ी के सहारे चलने काबिल हुई। घर के हालातों को देखते हुए मेडिकल रिप्रजेंटेटिव की नौकरी कर ली। इससे अस्पताल में काम भी कर सकते थे और घर में माँ को भी देखा जा सकता था। मैं इन सालों की साक्षी नहीं थी। इस परिवार से जुड़ने के बाद ही पता चला।
1980 में मैंने इस इंसान के साथ अपना जीवन आरम्भ किया और मुझसे यही कहा कि इन दोनों को कोई तकलीफ मत होने देना। पिता को अल्सर था तो उन्हें कभी कभी अस्पताल में भर्ती करना पड़ जाता था। दवा, डॉक्टर और अस्पताल में माहौल में जन्मे , पले-बढ़े, कुछ पिता का संरक्षण। जीवन में सेवा को अपना काम मान लिया। माँ के लिए तो बराबर ही उनको लगे रहना था।
एक समय तो ऐसा भी आया था कि मैं बीएड कर रही थी और इनको दिल्ली मीटिंग में जाना था। मेरी परीक्षा होने वाली ही थी तो मैं किताबें लेकर ससुर जी के पास अस्पताल में बैठी पढ़ती रहती थी। माताजी इस काबिल थी ही नहीं वे वहां बैठ सके।
1990 में पिताजी को कैसंर बताया गया। टूरिंग जॉब और जहाँ हमने घर बनाया था नयी जगह थी। वहाँ पर आवागमन के साधन आसानी से उपलब्ध नहीं थे। उनके पास स्कूटर था सो आना जाना आसन होता लेकिन वह तब जबकि शहर में हों। कैंसर के दौरान कितने बार घर और अस्पताल में भागदौड़ करने वाले वही एक इंसान थे। तीन माह वह अंतिम अवस्था में बिस्तर पर रहे लेकिन उनकी सेवा में कभी कोई भी कमी नहीं आने दी। 1991 में पिता को खो दिया।
माताजी तो अब भी उसी तरह से थी हाँ अब वह छड़ी के सहारे चल लेती थीं लेकिन उनकी तकलीफों में और इजाफा होता चला जा रहा था। उम्र के साथ साथ हड्डियों में दर्द बढ़ रहा था। चलने फिरने में तकलीफ होना स्वाभाविक था। इतना अवश्य था कि माँ के मुंह से निकला नहीं कि उसको पूरा करना उनके लिए वेद वाक्य की तरह से था।
फिर माँ को कैंसर बताया गया लेकिन पिता का हश्र देखने के बाद उन्होंने माँ की बायोप्सी कराने से इनकार कर दिया कि अगर जिन्दा रहना है तो इसके साथ भी उतने ही दिन जिन्दा रहना है और नहीं तो बायोप्सी के बाद भी उतने ही दिन रहेंगी। अब और कष्ट इन्हें नहीं दूँगा। हाँ इतना जरूर कि जहाँ जिसने भी बताया कि वहाँ अच्छा वैद्य है , डॉक्टर है और कोई भी पैथी ऐसी नहीं बची जिसमें न कराया हो। डॉक्टर या वैद्य मीलों दूर हो उसको अपने स्कूटर से लाना और ले जाना वहाँ से दवा लाना। सारे काम अकेले और खुद ही करते थे। कैंसर की डॉक्टर कह चुकी थी कि इनकी जिन्दगी से अधिक 6 महीने है लेकिन नहीं हारे और दवा कराते रहे कि बस उनकी तकलीफ में आराम हो। जाना तो सभी को है लेकिन आराम से जाएँ । उनकी त्वचा सड़ने लगी थी और उसकी ड्रेसिंग करने काम मेरा था। मैंने भी 6 महीने की छुट्टी ली क्योंकि दिन में कई बार तकलीफ बढ़ने पर उसकी ड्रेसिंग जरूरी होती थी। जब उन्हें दर्द होता था तो गालियाँ मैंने भी खूब खायीं। पता नहीं शायद भगवन भी उस तपस्या के आगे हार गया और माँ का कैंसर ठीक होने लगा और एक समय ऐसा भी आया की वह पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गयी। उसके बाद 14 साल रही लेकिन कैसर जैसी कोई तकलीफ उनके दुबारा नहीं हुई। दस साल बाद वह गिर गयीं और फिर वह अपना साहस खो बैठी दुबारा चलने का साहस न जुटा सकीं और 4 साल बिलकुल बिस्तर पर ही रहीं। उनके उसी कमरे में सारे काम करने होते थे . नहलाने से लेकर सभी काम .
उन्हें किसी भी काम में कोई गुरेज नहीं थे। माँ की नित्य क्रिया करवानी हो या कपडे धोने हों या फिर उनको नहलाना हो। मेरे मीटिंग में बाहर जाने पर ये सब काम खुद ही करते थे। और 4 साल बिस्तर पर रहने के बाद भी कभी उनको कहीं भी कोई घाव नहीं हुए। कभी कोई नर्स या काम करने वाले को उनका काम नहीं करने दिया। उनके कारण ही अपनी नौकरी छोड़ दी क्योंकि कैंसर की हालत में उन्हें छोड़ कर नहीं जा सकते थे। अपने काम को नया रूप दे दिया जिसमें समय का प्रतिबन्ध न हो. आखिर माँ ने 2 जनवरी 2011 को उन्होंने शरीर त्याग दिया।
इतने सालों में मैं साथ रही कभी भी मैंने उनको माँ या पिता के साथ कितने भी थके हों कभी भी झुंझलाते हुए नहीं देखा। अगर तुरंत ही आये हों और उन लोगों ने कह दिया कि हमें ये खाना है या ये दवा चाहिए तो तुरंत ही स्कूटर लेकर चल देना है ऐसे में मुझे कभी कभी कष्ट होता था कि आकर पानी या चाय भी नहीं पी और फिर चल दिए लेकिन उन्होंने कभी भी कोई शिकायत नहीं की।
ये श्रवण कुमार मेरे पतिदेव हैं। ये अतिश्योक्ति लग रही है तो यह अक्षरशः सत्य है। वैसे मैं इसको लिखने के लिए तैयार नहीं थी लेकिन जब ऐसी बात हो रही है तो सकारात्मक सोच वाले बेटे का ये उदारहण देना मुझे प्रासंगिक लगा। भले ही कोई कहे -- दूल्हे को कौन सराहे दूल्हे का बाप। "सिर्फ ये नहीं कि सिर्फ अपने माता पिता के लिए ही ऐसा किया हो उन्होंने तो अपने मित्रों के माता पिता के लिए भी बहुत किया है। खुद मेरे माता पिता को जब भी उनकी जरूरत पड़ी कभी पीछे नहीं हटे . मुझे फख्र है कि उनके इस काम में मेरा सहयोग ने ही मुझे इतनी गहरे से दर्द की परिभाषा को सिखाया है और औरों के लिए कुछ भी करने का जज्बा दिया है।