जैसे जीवन में कथा और कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं, वैसे ही ऑफिस, ऑफिस के बस स्टॉप, मुंबई की लोकल और दिल्ली की मेट्रो में भी बिखरी पड़ी हैं। बहुत कुछ मिल जाता है एक छोटी सी यात्रा में और लम्बी हुई तो एक यात्रा में कई। जब मैं पिछले साल अपना लघुकथा संग्रह "यथार्थ के रंग" वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र राव को भेंट करने गयी थी तो उन्होंने सुझाव दिया था कि मेट्रो में लघु कथाएं आपको बिखरी मिलेंगी और उन पर लिखिए। उसी क्रम में शुरू किया है। वैसे इसी तर्ज पर मैंने अपने कार्यकाल में आईआईटी के बस स्टॉप पर मिली कहानियों की भी एक श्रृंखला अपने ब्लॉग पर लिखी थी और अब दो कदम आगे बढ़ गया समय तो मैट्रो पर आ गयी।
जैसे ही मैट्रो का दरवाजा खुला, एक आधुनिक युवती कैसे कहूँ क्योंकि हमारी नजर में वो तो महिला ही कही जाएगी। चारों तरफ उसने नजर डाली कि कहाँ बैठा जाय? जगह खाली देखकर वह आ कर बैठ गयी। उसके बगल में बैठी उस लड़की ने उसे देखा और एकदम सवाल कर दिया - "क्या आप ऋतिका हैं ?"
"या बट हाउ कैन यू आइडेंटिफाइ ?"
"आर यू फ्रॉम ग़ाज़िआबाद।"
"या या बट?"
"शायद हम एक साथ पढ़े है, एक साथ कोचिंग भी की है और किसी ज़माने में साथ साथ एंट्रेंस भी देने गए हैं।" उस युवती ने अपना परिचय दे दिया।
"ओह, कहीं तुम पूर्णिमा तो नहीं हो?"
"ठीक पहचाना, लेकिन तुम ऐसे कैसे भूल गयीं? हम गहरे दोस्त थे। "
"इतना लम्बा पीरियड गुजर गया, कहाँ याद रहता है? और किस किस को याद रखा जाय।"
"बात तो एक दम प्रैक्टिकल कही है और आज का जमाना भी यही है, लोग माँ-बाप को भूल जाते हैं। " पूर्णिमा ने कुछ तल्खी से कहा।
"छोडो न, ये बताओ कि आजकल कहाँ हो? मेरे साथ तो सलेक्शन तुम्हारा हुआ नहीं था।" ऋतिका के स्वर में कुछ दर्प झलक रहा था।
"हाँ मेरा अगले साल हुआ था और फिर आईआईटी, दिल्ली से ही डिग्री ली है।"
संस्थान का नाम सुनकर वह कुछ झेंप से गयी क्योंकि वह अपने को कुछ अधिक ही सुपर समझ रहीं थी। फिर बात चली तो आगे भी बढ़ेगी ही।
"कहाँ हो आजकल?"
"मैं डी डी हूँ।" पूर्णिमा ने सहज भाव से उत्तर दिया।
"वेयर, ऐनी इंस्टिट्यूट ?"
"या , जीजीवाय में। "
"मैं तो यूएस में सेटल हो गयी हूँ , यहाँ कुछ रखा नहीं है सिवा करप्शन और पोल्युशन के। तुमने कभी बाहर निकलने का ट्राई नहीं किया?"
"ऐसा नहीं है, हर इंसान की अपनी अपनी प्रॉयोरिटी होती हैं और उसी के अनुसार वह अपने निर्णय लेता है।"
"ऐसा भी क्या ? करियर से बढ़ कर भी कुछ होता है। "
"हाँ मेरे पेरेंट्स, उनके लिए मैं ही अकेली हूँ तुम्हारे तो और भी भाई बहन है न। "
"सब बाहर ही सेटल हैं, यहाँ पर मम्मा अकेली हैं , पापा कोरोना में चले गए। "
"तब तो तुम्हें देखने को सालों से नहीं मिले होंगे?"
"हाँ करीब तीन साल पहले मिले थे, फिर कोई नहीं मिल पाया। उनके काम उनके भाई ने किये।"
"और मम्मा अकेली ?"
"हाँ उनके सबलिंग्स हैं और उनके बच्चे सो वही लुक आफ्टर करते हैं । वो अपने में मगन और हमको इतना समय ही नहीं है।"
"कहाँ जा रही हो?
"थोड़ा क़्वालिटी टाइम निकाल कर हम लोग हर साल में एक बाँ गेट टू गेदर करते हैं और एक वीक के लिए कही भी साथ समय बिताते हैं। नो फॅमिली मेंबर, नो अदर रिलेटिव बस एन्जॉय करते हैं। जो जहाँ होता है वहाँ से जहाँ तय करते हैं इकट्ठे हो जाते हैं। इस बार एक फ्रेंड के फॉर्म हाउस पर जा रहे हैं।"
"ओह , कितने दिन बाद इकट्ठे हो रहे हो?"
"कोरोना के तीन साल बाद। बहुत एक्साइटिड है सब लोग।" ऋतिका के स्वर में ख़ुशी झलक रही थी।
"कब तक हो यहाँ ? टाइम मिले तो आओ।"
"नो नो बिलकुल भी नहीं है, यहीं से सीधे निकल जाऊँगी। कोरोना के पहले ही मिली थी।"
"और इन लॉज़?"
"उनसे तो मेरी कुण्डली कभी मिली ही नहीं , तभी तो इंडिया से बाहर सेट हुए हैं। कुणाल कभी कभी आकर मिल जाते हैं।"
"वहाँ पर अपने पेरेंट्स को भी तो बुला सकते है , फुल फैमिली एन्जॉय कीजिए।"
"नो नो, तब तो एन्जॉयमेंट पॉसिबल ही नहीं है।"
"ऐसा क्यों?"
"समझा करो, हमारे ट्रेंड्स उन लोगों को समझ नहीं आते हैं और वही अब हायर सोसाइटी कल्चर है और यहीं अंतर है इंडिया और अब्रॉड में। वहाँ लोग लाइफ एन्जॉय करते हैं और यहाँ ढोते हैं।"
"ये तुम्हारी गलतफहमी है, यहाँ भी हम लाइफ एन्जॉय करते हैं, बस नजरिये का फर्क है। इसको फुरसत में सोचना कभी।" जैसे ही मैट्रो रुकी पूर्णिमा उठ खड़ी हुई। बॉय करती हुई वह एक प्रश्न छोड़ कर चली गयी।
"