घड़ी पर दौड़ती जिंदगी!
अभी तो जिंदगी बाबूजी को लेकर दौड़ी थी लेकिन धीरे धीरे कैंसर अंदर पैर पसारने लगा था और उनको उर्सला अस्पताल में एडमिट कराया गया , बताते चलें वह वहीं से फार्मासिस्ट के पद से रिटायर्ड थे। परिचित डॉक्टर, दायरा कुछ तो सुविधाजनक बन रहा था।
हम दो ही दौड़ने वाले थे। जेठजी रक्षा मंत्रालय की फैक्ट्री में कार्यरत थे, इसलिए वे अपने कार्य के प्रति ईमानदार रहे।
बाबूजी के पास पतिदेव रहते थे और मैं सुबह सात बजे घर से निकलती, आठ बजे तक अस्पताल पहुँचती और इन्हें छोड़ देती कि ये इस बीच इन्हें अपने मित्र के यहाँ जाकर नित्य क्रिया और नाश्ता करके दस बजे तक आना होता और मुझे ऑफिस की बस ठीक दस बजे पकड़ कर आइआइटी पहुँचना होता । दिन में जो समय मिलता काम करती और फिर छुट्टी से पहले ही चार बजे की बस पकड़ कर अस्पताल पहुँच जाती और इन्हें अपना काम करने का समय मिलता।
छः बजे हमें निर्देश था कि हम दोनों इनके मित्र डॉ. तिवारी के यहाँ चाय नाश्ता करेंगे और तब घर जायेंगे। मैं घर के लिए रवाना हो जाती और ये बाबूजी के पास। वही एक घंटे वाहन बदलते हुए घर आती। घर के काम, खाना, कपड़े और बर्तन आदि, इंतजार में होते और सब निबटाते हुए रात को दस बज जाता, फिर इसी तरह से घड़ी की सुइयों पर नया दिन शुरू होता।
कब दिन शुरू होता और कब खत्म पता ही नहीं चलता , मशीन की तरह जिंदगी चलती रही करीब दस दिनों तक और फिर बाबूजी बोले कि मैं अब बच्चों के साथ ही रहना चाहता हूँ । हम उनको लेकर घर आ गये।