जिन्दगी वैसे तो संघर्ष का दूसरा नाम है और मैंने किया भी है , दूसरे शब्दों में कहें तो अपने लिए कम जिए दूसरों के लिए ज्यादा जिए। रिश्ते मेरे लिए चाहे रक्त के हों या फिर मानस सब प्रिय हैं और ऐसा नहीं है मेरे बड़े दायरे में मैं भी सबको प्रिय होऊं लेकिन फर्ज के लिए कभी अपने प्रयासों को कम नहीं किया। इस काम के लिए सिर्फ मैं नहीं बल्कि मेरे पतिदेव भी पूरी तरह से समर्पित हैं।
यह दौर शुरू होता है 9 मार्च की सुबह से, उरई से भाभी का फ़ोन और वह अनापेक्षित , मन सशंकित हो उठा और पता चला कि भाई साहब रात में फिसल कर गिर गए और रात में ठीक रहे , उठकर अपने बिस्तर में गये और दवा आदि खाकर सो गये लेकिन सुबह नहीं उठे हैं ।
मैने उन्हें एंबुलेंस से कानपुर लाने को कहा । नर्सिंग होम निश्चित था । वहाँ भी फोन कर दिया कि हमारा पेशेंट इस नाम का आ रहा है । जब तक हम पहुँचे तो भाभी ही मिली , भाई साहब तो सीटी स्कैन के लिए जा चुके थे और वहाँ से आईसीयू में। उनके डीप ब्रेन में क्लॉटिंग थी, जहाँ पर ऑपरेशन भी संभव नहीं था। वहाँ से जो भी जरूरत होती उसकी सूचना प्रसारित कर दी जाती लेकिन उनके बारे में कुछ भी नहीं पता चलता। हम विजिटिंग एरिया में पड़ी कुर्सियों पर बैठे रहते सारा दिन। शाम को भतीजे रुचिर को नर्सिंग होम में छोड़ कर भाभी को लेकर घर आ जाते। यही क्रम चलता रहा न कोई प्रगति पता चल पाती और एक दिन उन्हें एम आर आई के लिए दूसरे सेंटर ले जाना था। उन्हें स्ट्रेचर पर नीचे लाया गया, एम्बुलेंस से ले जाना था । हम लोग वहीँ खड़े होकर देखते रहे और उनकी हालत देख कर आँखों में आँसूं छलक पड़े। इस दौरान मेरे बुआ का बेटा गुड्डू (संजय) हमारे साथ रहता था। वह किदवई नगर से स्कूटर से आता और शाम सात बजे मेरे साथ ही निकल जाता।
फिर उसके अनुसार उनका इलाज चलने लगा। हम १८ दिन उसी तरह सुबह से शाम तक कुर्सियों पर बैठे रहते और शाम को घर चल देते , इस आशा के साथ शायद कल कोई प्रगति हो। फिर एक दिन मैंने डॉक्टर शुक्ला से कहा कि हमें एक रूम तो दे दीजिये और फिर उसी दिन हमें रूम अलॉट हो गया और भाई साहब को वहां शिफ्ट कर दिया गया। अब हमको थोड़ा संतोष मिला कि हम उन्हें देख सकते हैं और अगर कोई प्रगति भी होती है तो हम देख सकते हैं। अब भाभी और रुचिर नर्सिंग होम में रहते और हम दोनों लोग वापस आ जाते। सुबह सबके लिए खाना और पानी लेकर हम दोनों ही पहुँच जाते। धीरे धीरे उन्होंने आँखें खोलना शुरू कर दिया और स्थिर रहते थे। बहुत धीमी सही प्रगति होने लगी। अभी आवाज नहीं आयी थे लेकिन वे सब सुन रहे थे। भाभी सामने जाती में आँसूं आ जाते। अब हम सिर्फ उनको सांत्वना ही दे सकते थे। डॉक्टर ने कहा कि हम उनके पास खड़े होकर उन्हें स्पर्श थेरेपी दें तो वह जल्दी प्रतिक्रिया करने लगेंगे। वह सब सुन रहे थे और फिर हाथ में भी हरकत होने लगी।
दवा के साथ पूजा पाठ , जप , हवन सब चल रहे थे। हर नयी प्रगति से मन खुश हो जाता। लखनऊ से हमारे चाचा जी का निर्देश था कि मुझे रोज बताओ कि भैयाजी (हम सब घर में उन्हें इसी नाम से पुकारते थे। वे बहुत ही सामाजिक और व्यवहार कुशल व्यक्ति थे। घर हो या बाहर उनका व्यवहार सराहनीय रहा। उरई में खासे लोकप्रिय भी थे। डीएवी इंटर कॉलेज के रिटायर्ड प्रिंसिपल थे। क्रिकेट के लिए भी जाने जाते थे।
फिर उन्होंने सबसे पहले अपने बेटे का निकनेम डब्बू बुलाया। हम सबकी बांछें खिल गयीं। अब उनको नाम लेने के लिए कहा जाने लगा। और फिर धीरे धीरे हम सबके नाम लेने लगे और स्मरण शक्ति भी उनकी वापस आनी शुरू हो गयी। सबको देख कर पहचानने लगे थे।
संजय (गुड्डू) मेरी बुआ का बेटा जो मेरे हर सुख - दुःख में हम लोगों के कंधे से कन्धा मिला कर खड़ा रहता था। भैयाजी के हॉस्पिटल आने के साथ ही वह नियम से आ रहा था और हम सबके साथ बैठा रहता। वह मुझसे कुछ ही छोटा था। एक दिन वह मुझसे बोला कि मैं आज ११ बजे का निकला हूँ और अब यहाँ पहुंचा हूँ। मैं उससे थोड़ी ही बड़ी थी लेकिन मैंने उसको बहुत तेज डाँटा कि इस लू धूप में स्कूटर से घूमते हो कहीं लू लग गयी तो ? आज के बाद धूप में नहीं निकलोगे। ' और उसने वादा भी किया कि अब वह शाम को ही निकल कर आएगा। वह हमारे परिवार का सबसे ज्यादा सबके सुख और दुःख में साथ देने वाला था। हमारे लिए तो वह एक ऐसा इंसान था कि अगर कभी मुसीबत आई तो सबसे पहले आने वाला वही था। रात में घर पहुंची तो गुड्डू का फ़ोन आया - "रेखा मुझे बुखार आ गया। "
अब उसको डांटने का मन नहीं कर रहा था तो मैंने समझाया - "अब तुम धूप में बिलकुल नहीं निकलना। मैं भैयाजी का अपडेट देती रहूंगी। आराम करो और दवा लेते रहो। लू लगी है ठीक हो जायेगी। "
हम तो अपने काम में लगे ही थे। 22 अप्रैल को रुचिर की शादी होनी थी , सारी व्यवस्था हो चुकी थी , यहाँ तक कि होटल से लेकर मैरिज हाल तक बुक थे और भी सारी तैयारियाँ हो चुकी थीं। हम ये सोच रहे थे कि भाई साहब बस इतना हो जाए कि व्हील चेयर में बैठ सकें तो हम उनको उरई ले जाएंगे और सब मैनेज हो जाएगा। उनमें सुधार बराबर हो रहा था और डॉक्टर भी कह रहे थे कि आप ले जा सकते हैं, लेकिन हमारी तरफ से उन्हें अभी हॉस्पिटल में रखना जरूरी था। प्रगति धीमी हो रही थी और उससे संतुष्ट नहीं थे। फ़िज़ियोथेरेपिस्ट भी अपना काम बखूबी कर रहे थे।
हमारे लखनऊ वाले चाचा जी हमारे सबसे ज्यादा शुभचिंतक थे। वह भैयाजी की रोज के समाचार हमसे लेते रहते थे कि कितनी प्रगति है। उन्होंने यहाँ तक मान्यता की कि भैयाजी ठीक हो जाएगा तो हम सब गाँव चल कर कुलदेवता का हवन करेंगे।
चाचा जी का फ़ोन आया कि अगर भैयाजी जा न सकें तब भी शादी मत रोकना। तुम दोनों यहाँ पर उसके पास रहना और वहां सादे समारोह में शादी करवा दी जाय। हम इसके लिए तैयार थे। हमने भाभी को 14 अप्रैल को उरई भेज दिया कि वे वहां सबके साथ काम शुरू करें और भतीजी भी पहुँच जायेगी। शादी की घर की पहली रस्म शुरू हो गयी। उसी रात लड़की वालों के यहाँ से खबर आयी कि उनके समधी (बड़ी बेटी के ससुर जी ) का कोरोना से निधन हो गया। शादी का कार्यक्रम निरस्त कर दिया गया।
इधर गुड्डू का RTPCR नेगेटिव आया तो कुछ राहत मिली। बुखार आ जा रहा था कि एक रात 12 :30 पर गुड्डू का फ़ोन आया कि ऑक्सीजन लेवल 87 आ गया है क्या करूँ ? इनको जानकारी थी और उससे कहा कि नारायणा हॉस्पिटल में बेड खाली है , तुरंत एडमिट हो जाओ। उसका बेटा लेकर आया और एडमिट करवा दिया। ऑक्सीजन लगा दी गयी। फिर रेमिडसिविर की जरूरत पड़ी वह कहीं भी नहीं मिला। दो दिन बाद मिला और लगना शुरू हुआ और फिर आईसीयू में ले जाने के लिए जद्दोजहद शुरू हो गयी किसी तरह आईसीयू में बेड मिला। उसका वहां इलाज शुरू हुआ। लेकिन नहीं दुर्भाग्य मेरे साथ खड़ा था। गुड्डू को वेंटीलेटर पर रखा गया।
उनका सीटी स्कोर ख़राब था। रात को नींद नहीं आयी और डेढ़ बजे भतीजे का फ़ोन
आया कि बुआ पापा नहीं रहे। मुझे लगा कि मेरे दोनों हाथ आज कट गए। वह भाई से
साथ साथ दोस्त , सुख - दुःख में साथ देने वाला और सबसे अजीज भाई था। जब
इनका गॉलब्लेडर का ऑपरेशन होना था। हम दोनों अकेले थे , बच्चे बाहर , जेठ -
जेठानी बेंगलोर अपनी बेटियों के पास। वह ऑपरेशन तक साथ रहा। फिर वह अपनी
नौकरी के लिए स्कूटर इंडिया , लखनऊ के लिए सुबह पाँच बजे घर से निकलता , आठ
बजे ऑफिस रिपोर्ट करना होता था , वहां से पांच बजे निकल कर आठ बजे कानपुर।
दिसंबर का महीना था स्टेशन से सीधे नर्सिंग होम आता और हमारे पास दो घंटे
रुकता और रात दस बजे घर के लिए निकलता। जब तक वहां रही उसका यही क्रम
रहा।मेरे लिए वह बहुत बड़ा सहारा था और मैं असहाय हो चुकी हूँ।
संजय (गुड्डू)
कोरोना ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए थे और शहर में इतनी मारामारी पड़ रही थी। बेड नहीं , ऑक्सीजन नहीं और जरूरत होने पर आईसीयू में भी जगह नहीं। जहाँ भाईसाहब थे , उनके फ़िज़ियोथेरेपिस्ट को कोरोना हो गया। वह हमारे संपर्क में आता ही था क्योंकि हम दिन भर उसी कमरे में रहते थे। वहां डॉक्टर और स्टाफ ने हमारा हॉस्पिटल आना बंद करवा दिया कि अब आप लोग न आएं। सिर्फ रुचिर को रहने दीजिये । रुचिर भी डरा हुआ था तो बोला - " बुआ आप और फूफा जी यहाँ मत आइये क्योंकि अगर आप दोनों को कुछ हुआ तो मैं नहीं सँभाल पाऊंगा और अगर मुझे कुछ हुआ तो आप लोग सँभाल लेंगे। "
आखिर हमने जाना बंद कर दिया। बस ये खाना और पानी उसको दे आते।
इधर मेरे जेठ जी जिनको कई दिन से बुखार आ रहा था, लेकिन हम दोनों ही भाईसाहब , गुड्डू के लिए परेशान थे, संयुक्त परिवार में रहते हैं तो चिंता भी थी। उसी सुबह जेठानी जी ने कहा कि बुखार नहीं उतर रहा है , टेस्टिंग करवा दीजिये। तुरंत ही एंटीबाडी टेस्ट करवाया जो पॉजिटिव था लेकिन ऑक्सीजन लेवल ठीक था और उनकी दवा डॉक्टर की सलाह पर चलने लगी। दो दिन लेवल सही रहा और फिर एक दिन 87 आ गया। ये उनको लेकर भागे। करीब 5 - 6 नर्सिंग होम में जगह न मिलने पर एक नर्सिंग होम के आईसीयू में जगह मिली और उन्हें एडमिट करवा दिया। कुछ राहत मिली।
सुबह उठी तो जेठ जी की भी चिंता लगी थी लेकिन वहां परिचित आईसीयू स्टॉफ था। इन्हें उम्र के कारण वहाँ न रुकने की सख्त हिदायत थी। फ़ोन से ही इनको तबियत के बारे में अवगत कराया जा रहा था। दोपहर जेठ जी की हालत गंभीर हुई तो पूछा गया कि अंकल जी वेंटिलेटर पर डालने की जरूरत है। इनका दिमाग ठनका लेकिन फिर भी अनुमति दी और वेंटिलेटर पर डालने से पहले ही वहां से आवाज आयी - 'अंकल जी चले गए। ' और ये तुरंत गाड़ी लेकर निकल गए। शाम पांच बजे वह भी साथ छोड़ गए। मेरी एक पड़ोसन मित्र वो भी अचानक ही चली गयीं। कोरोना तीन तीन मेरे अपने लोगों को एक दिन में ही लील गया। रोऊँ भी तो कैसे ? जेठानी को नहीं बताया और उनकी बॉडी भी सुबह लेने का आग्रह किया। उनकी बेटी को झाँसी से आना था। दो बेटियाँ आस्ट्रेलिया और यू एस में हैं तो आना संभव ही नहीं था। ये दो भाई थे और अकेले रह गए। मेरे पति से सात साल बड़े थे और जन्म से लेकर उस दिन तक कभी अलग नहीं रहे। 41 साल तो मेरी शादी को हो चुके हैं।
जेठजी
हम चार लोग घर में थे , बेटियों की शादी हो चुकी है। अब बस तीन रह गए थे।
भाई साहब ने भी उरई ले चलने की रट लगा रखी थी। हम जेठजी के बाद घर में होने वाले संस्कारों को पूरा कर रहे थे और उनको नहीं बताया था। एक दिन वह रट लगा गए कि गुड्डू नहीं आ रहा है , मेरी उससे बात करवा दो। उनको ब्रेन पर कोई शॉक न लगे इसलिए उनको बताया नहीं गया कि गुड्डू अब नहीं रहा। उनको झूठा फ़ोन लगा कर कह दिया कि मिल नहीं रहा है। जैसे ही मिलेगा तो बात करवा देंगे।
हम जेठ जी तेरहवीं आदि के लिए घर पर ही थे। गुड्डू का सदमा हमारे चाचाजी भी सहन नहीं कर पाये और लखनऊ वाले चाचाजी भी कोरोना के कारण हमें अचानक ही छोड़ कर चल दिए। जो भाई साहब के लिए इतना चिंतित थे कि मुझसे रोज उनकी तबियत में होने वाली प्रगति लेते रहते थे और वो भी हमें छोड़ कर चले गए । एक के बाद एक सदमा लगता चला जा रहा था। चाचा जी के न रहने पर एक दिन भाई साहब ने जिद पकड ली कि आज मुझे चाचाजी से बात करनी है। किसी तरह से उनको बहला कर ध्यान वहां से हटाया।
चाचाजी (विजय कुमार श्रीवास्तव )
इसी बीच पता चला कि उनके अजीज मित्र अरुण भाई साहब भी कोरोना में चले गए। वह भी उनको नहीं बताया गया। इतने सारे राज हम छिपा गए थे।एक दिन उन्होंने इनका सिर बिना बालों का देख लिया और वह समझ गए कि जेठ जी नहीं रहे। अब उनका मन नहीं लग रहा था क्योंकि भाभी को उरई भेज दिया गया था और मेरा भी जाना बंद कर दिया गया था। फ़ोन पर बात करती तो कहते - रेखा मुझे उरई ले चलो। मैं उन्हें आश्वासन दे देती कि बस चलते हैं। भाभी से बात होती तो कहते अब उरई आना है , यहाँ मन नहीं लग रहा है।
हम पूरी तैयारी 15 मई को उनको उरई ले गए। उनके अनुरूप ही बिस्तर और गद्दे की व्यवस्था की गयी। हम चार दिन रुके , उनके लिए फ़िज़ियोथेरेपिस्ट की व्यवस्था , ड्रेसिंग की व्यवस्था सब करके आना था। एक दिन जब हम चलने को तैयार हुए तो कहने लगे आज मत जाओ , कल चले जाना। हम रुक गए और जितने दिन वहां रही उनको खाना खिलाना, दवा देना सब मैं करती थी। आखिर 18 मई को मैं वापस कानपूर आ गयी। एकदम स्वस्थ थे , हमारे और इनके पैर विदा किया था और हम वादा करके आये थे कि हम फिर जल्दी ही आएंगे। बीच बीच में उनसे विडिओ कॉल से बात होती और फ़ोन पर भी।उन्हें सांत्वना देते कि वह जल्दी ही पूरी तरह ठीक हो जायेगे
भाईसाहब (विनोद कुमार श्रीवास्तव )
उस सुबह रुचिर का फ़ोन आया तो मैंने समझा कि उसको कानपुर आना था तो कह रहा होगा कि आप लोग तैयार रहें। हम दोनों को उसके साथ उरई जाना था। जब फ़ोन उठाया तो उसने कहा - ' बुआ पापा नहीं रहे। " एक बार फिर वही वाक्य जो मैं एक बार सुन चुकी थी दुहराया जा रहा था। मेरी हालत कोई और नहीं समझ सकता था और हम गाड़ी से उरई के लिए रवाना हो गए। रात में अच्छी तरह खाना खाकर सोये थे और फिर सुबह उठे ही नहीं। साइलेंट हार्ट अटैक ने मुझसे मेरा इकलौता बड़ा भाई छीन लिया।ये रहे मेरे जिंदगी के सबसे ज्यादा कष्टपूर्ण दिन।कौन कितना दिल पर लेता है नहीं जानती लेकिन मैं तो टूट सी गयी।
यहाँ तक इति नहीं थी। इस बीच कम से कम मेरे रिश्तों से जुड़े करीब २० लोग कोरोना का शिकार हो चुके थे।जीवन में इतने अपनों साथ कभी नहीं खोया था।