बचपन कब हम जीते हैं ? कभी सोचा है हमने , नहीं अपना बचपन तो याद ही नहीं रहता और अपने बच्चों का बचपन तो आज की पीढ़ी में हो या हम लोगों की पीढ़ी में - संयुक्त परिवार की जिम्मेदारीयों में माँ और बच्चे का उतना ही संपर्क रहता है जितना की जरूरी होता है । दिन में सुबह से उठ कर वह काम में जुट जाती है और बच्चे को भूख लगे तो माँ के पास आता है। वरना बच्चे की मालिश और बाकी काम तो घर की बड़ी बुजुर्ग महिलाएं कर ही लेती हैं। कभी कभी माँ व्यस्त है और बच्चा भूखा रोते रोते सो जाता है। मैंने गाँव में देखा है , माँ घर के सदस्यों के लिए रसोई तैयार कर रही है और उसके आँचल से दूध बह रहा है। मजाल है कि वह बच्चे को बाहर से मंगवा कर दूध पिला दे। बच्चे को बड़े बुजुर्ग घर के बाहर लेकर बैठ जाते थे ताकि माँ को काम में बाधा पैदा न हो। माँ ममताविहीन कब रही लेकिन उसको घर रख दिया गया और वह बनी रही। गाँव में तो बच्चे अपनी दादी या तै को माँ माँ को कभी चची और कभी काकी भी कहते पाए गए हैं। इसके कारणों की और कभी ध्यान ही नहीं दिया गया।
कमोबेश यही जिंदगी मैंने भी जी थी। तब गाँव की तरह से घर और बाहर में अंतर न था लेकिन मेरे समय में नौकरी और बच्चे दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करना आसान नहीं था। कामकाजी औरत और संहयुक्त परिवार के बीच पिसती एक माँ के भावों और उसकी मशीन सी जिंदगी को और कोई नहीं समझ सकता है शिव एक माध्यम वर्गीय परिवार की कामकाजी महिला के सिवा। पहले सबका नाश्ता बनाना , अपना लंच तैयार करना और फिर वक्त मिला तो बच्चे को दूध पिलाना। घर में रहने वाली महिलायें समझती हैं कि ये निकल जायेगी जितना काम करती जाए उतना अच्छा है। हाँ इतना जरूर होता था कि बच्चे को मेरे पीछे जैसे भी रखा जाता था रखा जरूर जाता था। ऑफिस से लौटने ही सबसे पहले बच्चे को लेकर दूध पिलाना होता था और फिर रसोई शाम की चाय, रात का खाना। बच्चे कब बड़े हो गए कब उन्होंने घुटने चलना सीख लिया और कब चलने लग गए कभी इसका सुख उठा ही न पाए और शायद आज की माँएं भी ये सुख नहीं उठा पाती वे है अगर वे कामकाजी हैं. वे मशीन बनी सिर्फ घर और बाहर के बीच सामंजस्य बिठाया करती हैं।
कब सुखी रही औरत ये तो हमें बताये कोई , हर समय ये सुनाने को मिलता है कि आजकल !तो लड़कियां और बहुएं आजाद है , जब चाहे जहाँ चली जा रही हैं और बच्चे आया या सास ससुर के सहारे छोड़ कर। हमें कोई गिना दे कि कितने प्रतिशत ये महिलायें हैं ? उच्च वर्ग के परिवारों की बात आप छोड़ दीजिये , वह कितने प्रतिशत है लेकिन उनमें भी कितनी ही देखिये हाई प्रोफाइल अभिनेत्रियां भी माँ बनाने के बाद एक अंतराल ऐसा लेती हैं जब तक कि बड़े बड़े या समझदार न हो जाए। शेष रहा निम्न , निम्न मध्यम , मध्यम या उच्च मध्यम वर्ग में कमोबेश यही स्थिति है। घर और बाहर की आपाधापी ने उन्हें मशीन ही तो बना रखा है। आज बच्चों के लिए बढ़ते शिक्षा व्यय , जीवन को चलने के लिए आने वाले खर्चे कैसे पूरे हों ? दोनों का कमाना जरूरी है। हर माँ चाहती है अपने बच्चे को बड़ा होता हुआ देखना और उसकी बाल लीलाओं का सुख लेना। हर माँ के अहसास बराबर ही होते हैं।फिर भी आज की माएँ ज्यादा संवेदनशील है क्योंकि आज समाज की जो स्थिति बन चुकी है तो बच्चे को आया या नौकरों के सहारे कोई नहीं छोड़ना चाहता है। नौकरी से विराम ले सकती हैं , कुछ समय के लिए नौकरी छोड़ सकती हैं लेकिन बच्चे को नहीं छोड़ती हैं। एक समय होता है जब कि बच्चे को माँ का ही संरक्षण चाहिए और वह उचित भी है.
जब बच्चे बड़े हुए तो उनकी दुनियां पढाई , कॉम्पिटिशन , सोशल मीडिया में व्यस्त हो जाती है। माँ को अपने बच्चों को यह अहसास दिलाना जरूरी होता है कि वे उनकी सबसे अच्छी दोस्त हैं। अपनी हर समस्या को शेयर करना माँ पर विश्वास होने की एक अच्छी सोचा है। अलग थलग रहने से या फिर माँ के अपने रूचि के आगे उनकी परवाह न करने से वे भी अलग थलग पड़ जाते हैं और न वे शेयर करना चाहते है और न माँ करती है यहीं हम गलत है - बड़े होते बच्चों को उनकी माँ के साथ एक अच्छी दोस्त होने का अहसास जरूर दिलाये रहें ताकि वे अपनी समस्या और जीवन के अच्छे पलों को आपके साथ शेयर कर सकें। बस यही वो समय है जब आप अपने माँ होने के सुख को भोग सकती हैं। कामकाजी होने पर भी उनके लिए समय रखें नहीं तो फिर ये माँ अकेले ही रहेगी। जैसे ही बच्चे बाहर पढ़ने के लिए निकल गए फिर नौकरी , शादी या फिर विदेश गमन। बस देखने और सुनने का सुख उठा सकती हैं।
अब संचार के साधनों की बढ़ती गति ने इतना जरूर कर दिया है कि अगर बच्चे चाहते हैं तो दिन में एक या दो बार वीडिओ चैट करके अपने से रूबरू हो लेते हैं और हमारी आत्मा सुखी हो लेती है। बस जीवन के उत्तरार्द्ध में जो क्षण जी लें वह माँ और मातृत्व सुख है। भाग्यशाली है वो माँ बाप जिनके बच्चे उसी जगह नौकरी पा जाते हैं जहाँ पर वह पैदा हुए और बड़े हुए और उनके साथ ही रह भी रहे हैं। कामना तो यही है फिर से वह घर की रौनक बड़े बड़े अपार्टमेंट और बंगलों में बस जाए और माँ और मातृत्व का सुख फिर से जी उठे।
कमोबेश यही जिंदगी मैंने भी जी थी। तब गाँव की तरह से घर और बाहर में अंतर न था लेकिन मेरे समय में नौकरी और बच्चे दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करना आसान नहीं था। कामकाजी औरत और संहयुक्त परिवार के बीच पिसती एक माँ के भावों और उसकी मशीन सी जिंदगी को और कोई नहीं समझ सकता है शिव एक माध्यम वर्गीय परिवार की कामकाजी महिला के सिवा। पहले सबका नाश्ता बनाना , अपना लंच तैयार करना और फिर वक्त मिला तो बच्चे को दूध पिलाना। घर में रहने वाली महिलायें समझती हैं कि ये निकल जायेगी जितना काम करती जाए उतना अच्छा है। हाँ इतना जरूर होता था कि बच्चे को मेरे पीछे जैसे भी रखा जाता था रखा जरूर जाता था। ऑफिस से लौटने ही सबसे पहले बच्चे को लेकर दूध पिलाना होता था और फिर रसोई शाम की चाय, रात का खाना। बच्चे कब बड़े हो गए कब उन्होंने घुटने चलना सीख लिया और कब चलने लग गए कभी इसका सुख उठा ही न पाए और शायद आज की माँएं भी ये सुख नहीं उठा पाती वे है अगर वे कामकाजी हैं. वे मशीन बनी सिर्फ घर और बाहर के बीच सामंजस्य बिठाया करती हैं।
कब सुखी रही औरत ये तो हमें बताये कोई , हर समय ये सुनाने को मिलता है कि आजकल !तो लड़कियां और बहुएं आजाद है , जब चाहे जहाँ चली जा रही हैं और बच्चे आया या सास ससुर के सहारे छोड़ कर। हमें कोई गिना दे कि कितने प्रतिशत ये महिलायें हैं ? उच्च वर्ग के परिवारों की बात आप छोड़ दीजिये , वह कितने प्रतिशत है लेकिन उनमें भी कितनी ही देखिये हाई प्रोफाइल अभिनेत्रियां भी माँ बनाने के बाद एक अंतराल ऐसा लेती हैं जब तक कि बड़े बड़े या समझदार न हो जाए। शेष रहा निम्न , निम्न मध्यम , मध्यम या उच्च मध्यम वर्ग में कमोबेश यही स्थिति है। घर और बाहर की आपाधापी ने उन्हें मशीन ही तो बना रखा है। आज बच्चों के लिए बढ़ते शिक्षा व्यय , जीवन को चलने के लिए आने वाले खर्चे कैसे पूरे हों ? दोनों का कमाना जरूरी है। हर माँ चाहती है अपने बच्चे को बड़ा होता हुआ देखना और उसकी बाल लीलाओं का सुख लेना। हर माँ के अहसास बराबर ही होते हैं।फिर भी आज की माएँ ज्यादा संवेदनशील है क्योंकि आज समाज की जो स्थिति बन चुकी है तो बच्चे को आया या नौकरों के सहारे कोई नहीं छोड़ना चाहता है। नौकरी से विराम ले सकती हैं , कुछ समय के लिए नौकरी छोड़ सकती हैं लेकिन बच्चे को नहीं छोड़ती हैं। एक समय होता है जब कि बच्चे को माँ का ही संरक्षण चाहिए और वह उचित भी है.
जब बच्चे बड़े हुए तो उनकी दुनियां पढाई , कॉम्पिटिशन , सोशल मीडिया में व्यस्त हो जाती है। माँ को अपने बच्चों को यह अहसास दिलाना जरूरी होता है कि वे उनकी सबसे अच्छी दोस्त हैं। अपनी हर समस्या को शेयर करना माँ पर विश्वास होने की एक अच्छी सोचा है। अलग थलग रहने से या फिर माँ के अपने रूचि के आगे उनकी परवाह न करने से वे भी अलग थलग पड़ जाते हैं और न वे शेयर करना चाहते है और न माँ करती है यहीं हम गलत है - बड़े होते बच्चों को उनकी माँ के साथ एक अच्छी दोस्त होने का अहसास जरूर दिलाये रहें ताकि वे अपनी समस्या और जीवन के अच्छे पलों को आपके साथ शेयर कर सकें। बस यही वो समय है जब आप अपने माँ होने के सुख को भोग सकती हैं। कामकाजी होने पर भी उनके लिए समय रखें नहीं तो फिर ये माँ अकेले ही रहेगी। जैसे ही बच्चे बाहर पढ़ने के लिए निकल गए फिर नौकरी , शादी या फिर विदेश गमन। बस देखने और सुनने का सुख उठा सकती हैं।
अब संचार के साधनों की बढ़ती गति ने इतना जरूर कर दिया है कि अगर बच्चे चाहते हैं तो दिन में एक या दो बार वीडिओ चैट करके अपने से रूबरू हो लेते हैं और हमारी आत्मा सुखी हो लेती है। बस जीवन के उत्तरार्द्ध में जो क्षण जी लें वह माँ और मातृत्व सुख है। भाग्यशाली है वो माँ बाप जिनके बच्चे उसी जगह नौकरी पा जाते हैं जहाँ पर वह पैदा हुए और बड़े हुए और उनके साथ ही रह भी रहे हैं। कामना तो यही है फिर से वह घर की रौनक बड़े बड़े अपार्टमेंट और बंगलों में बस जाए और माँ और मातृत्व का सुख फिर से जी उठे।