संत ऐसे ऐसे !
रविदास जयंती के दिन हमने उन महान संत की महानता को याद कर रहे थे और वह ' वाला मन चंगा तो कठौती में गंगा' वाला प्रसंग आया था तो मुझे अपने गुरु का एक प्रसंग याद आ गया और वे कोई बड़े भगवाधारी या साधु संतों के वेश वाले इंसान न थे। वे मेरे फूफाजी थे और मेरा जन्म उनके सामने हुआ था।मेरी बुआ भी मुझे बहुत प्यार करती हैं और फूफाजी भी करते थे।
वे मेरे आध्यात्मिक गुरु हुए और उन्होंने मुझे सब कुछ सिखाया और बताया। जो जीवन का सत्य है और अपने को उसमें लिप्त न होने देने का मार्ग। वे एक साधारण गृहस्थ और एक इंटर कॉलेज में प्रवक्ता थे। ज्ञान और आध्यात्मिक शक्तियों से सम्पन्न थे। कोई भीड़ नहीं सिर्फ अपने घर वालों या फिर बहुत घनिष्ठ लोगों तक उनकी दुनियां थी।
अंशुमाला जी के कहने पर बस एक छोटी से घटना उद्धृत कर रही हूँ। उनको मेरे अलावा मेरे भाई साहब से भी बड़ा स्नेह थे। भाईसाहब के एक मित्र जो कानपुर में ही रहते हैं , बहुत परेशान रहते थे , भाईसाहब उन्हें फूफाजी के पास ले गये । वह आँखें बंद करके लेटे थे , जैसे ही दोनों पहुँचे वे बोले - "दोस्त अब तक कहाँ थे? बहुत दिनों से इंतजार था तुम्हारा।"
बाद में आँखें खोली । फिर उनका एक सहारा बन गये फूफाजी घंटों उनके पास बैठते। एक दिन बहुत परेशान आये । बैठे बात करते रहे , जब चलने लगे तो फूफाजी ने कहा - "आदित्य मेरी डायरी उठाओ, उसको खोलो और जो रखा है उठा लो, एक बार और खोलो और उसमें रखा भी ले लो और डायरी बंद करके रख दो । इतना काफी है न।"
"जी।"
बताती चलूँ इस घटना का काल 1995 से पहले का था ।