इसे ही हम समाज कहते हैं , जो अच्छा हो तो भी उसमें कुछ बुराई खोजने की आदत , कुछ गलतफहमियां पैदा करने की बात , कुछ कहावतों का सहारा लेकर उनको सत्य सिद्ध करने की आदत या फिर चिता की आग में हाथ सेंकने की आदत। शुभचिंतक बन आँगन में लकीर खींचने की आदत।
मैं इस काम से बहुत आहत हुई। मेरी माँ की मिलने वाली ( उनके पति मेरे पापा के मित्र थे ) उस दिन घर आयीं। हम तीन बहन भाई और भाभी सब बैठे हुए थे उनके पास। इधर उधर की बातें करने के बाद बोलने लगीं - "देखो जब तक माँ तब तक ही मायका होता है , अब तो भाई भाभी किसी कामकाज में बुलाएँगे तभी आओगी न। माँ होती है तो कभी कभी उनसे मिलने चली आयीं तुम लोग। "
उनके कहे शब्द समाज बनायीं हुई धारणा के अनुरूप थे और कभी कभी ये प्रत्यक्ष भी देखे जाते हैं लेकिन अवसर और माहौल के अनुसार ही कुछ कहा जाता है। ये बात सुनकर मेरे भाई भाभी के चेहरे के भाव और भरी हुई आँखें देख कर मुझे एकदम गुस्सा आ गया। उस समय मुझे इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि वे हमसे बहुत बड़ी हैं और हम उनकी बहुत इज्जत करते हैं। अभी माँ को गए हुए सिर्फ ३ दिन हुए थे और लोग अभी से हमारे बीच दीवार खींचने लगे।
मेरे भाई ने पिछले ही महीने माँ की सारे अकाउंट में मुझे नॉमिनी बनाया था क्योंकि उन्हें था कि कोई ये न कह सके कि माँ के पैसे के मालिक खुद बन गए। चार बहनों में वे सबसे बड़े और इकलौते भाई है।
मैंने उनसे कहा - 'चाची ऐसी बात नहीं है , हम पांच अभी भी एक दूसरे के लिए तैयार रहेंगे। जब भी जिसको जरूरत होगी हम सब साथ खड़े होंगे। माँ तो हर समय हमें दिशा नहीं देती थी। हम जैसे पहले आते थे वैसे ही अब भी आते रहेंगे। भाई के सुख दुःख में सबसे पहले मैं आती हूँ क्योंकि मैं सबसे पास हूँ। किसी भी मुसीबत या परेशानी में उनके बच्चे भी दूर हैं और सबसे पास के होने के नाते मैं सबसे रहूंगी और मेरे लिए भाई साहब। अभी माँ थी लेकिन सारा कुछ करते तो भाई और भाभी ही , चाहे मेरी बेटियों की शादी में भात पहनने की बात हो या फिर कोई और अवसर। माँ तो नहीं जाती थी। '
इसके बाद उन्हें कुछ भी बोलते नहीं बना। कैसे लोग बिना मांगे सलाह देने लगते हैं और अधिकार सहित।
मैं इस काम से बहुत आहत हुई। मेरी माँ की मिलने वाली ( उनके पति मेरे पापा के मित्र थे ) उस दिन घर आयीं। हम तीन बहन भाई और भाभी सब बैठे हुए थे उनके पास। इधर उधर की बातें करने के बाद बोलने लगीं - "देखो जब तक माँ तब तक ही मायका होता है , अब तो भाई भाभी किसी कामकाज में बुलाएँगे तभी आओगी न। माँ होती है तो कभी कभी उनसे मिलने चली आयीं तुम लोग। "
उनके कहे शब्द समाज बनायीं हुई धारणा के अनुरूप थे और कभी कभी ये प्रत्यक्ष भी देखे जाते हैं लेकिन अवसर और माहौल के अनुसार ही कुछ कहा जाता है। ये बात सुनकर मेरे भाई भाभी के चेहरे के भाव और भरी हुई आँखें देख कर मुझे एकदम गुस्सा आ गया। उस समय मुझे इस बात का ध्यान ही नहीं रहा कि वे हमसे बहुत बड़ी हैं और हम उनकी बहुत इज्जत करते हैं। अभी माँ को गए हुए सिर्फ ३ दिन हुए थे और लोग अभी से हमारे बीच दीवार खींचने लगे।
मेरे भाई ने पिछले ही महीने माँ की सारे अकाउंट में मुझे नॉमिनी बनाया था क्योंकि उन्हें था कि कोई ये न कह सके कि माँ के पैसे के मालिक खुद बन गए। चार बहनों में वे सबसे बड़े और इकलौते भाई है।
मैंने उनसे कहा - 'चाची ऐसी बात नहीं है , हम पांच अभी भी एक दूसरे के लिए तैयार रहेंगे। जब भी जिसको जरूरत होगी हम सब साथ खड़े होंगे। माँ तो हर समय हमें दिशा नहीं देती थी। हम जैसे पहले आते थे वैसे ही अब भी आते रहेंगे। भाई के सुख दुःख में सबसे पहले मैं आती हूँ क्योंकि मैं सबसे पास हूँ। किसी भी मुसीबत या परेशानी में उनके बच्चे भी दूर हैं और सबसे पास के होने के नाते मैं सबसे रहूंगी और मेरे लिए भाई साहब। अभी माँ थी लेकिन सारा कुछ करते तो भाई और भाभी ही , चाहे मेरी बेटियों की शादी में भात पहनने की बात हो या फिर कोई और अवसर। माँ तो नहीं जाती थी। '
इसके बाद उन्हें कुछ भी बोलते नहीं बना। कैसे लोग बिना मांगे सलाह देने लगते हैं और अधिकार सहित।