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शनिवार, 28 दिसंबर 2024

सम्मान!

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                                                   सम्मान!

 

                    असद ने नेट से देखा कि नवरात्रि की पूजा में क्या-क्या सामान लगता है और जाकर बाजार से खरीद लाया। 

             वह बिंदु के आने का बेसब्री से इंतजार रहा था और समय है कि कट नहीं रहा था। वह आँखें बंद करके लेट गया और अतीत में घूमने लगा। 
              2 साल से वह अरब में था और बिंदु यहाँ एक ऑफिस में संविदा पर नौकरी कर रही थी। उनका परिचय फेसबुक से हुआ था। अहद वहाँ अकेला और बिंदु सबके होते हुए भी अकेली थी। वे एक दूसरे के दुःख को महसूस करने लगे थे। असद वहाँ कमा रहा था और घर वाले ऐश कर रहे थे। 
           अचानक असद के अब्बू का इंतकाल हो गया और वह घर लौट आया।  सब कुछ दूर रहते भी उन लोगों ने तय कर दिया था कि बिना किसी को खबर दिए दोनों ने कोर्ट मैरिज कर लेंगे। एक अप्रत्याशित निर्णय था।  
          उसे विश्वास था कि उसके घर वाले तो मान ही जायेंगे क्योंकि घर को इतना संपन्न उसकी कमाई से ही बना लिया है।  लेकिन घर में सवाल उठाते ही - अम्मी ने कह दिया कि वह ऐसे किसी भी कदम से उसको जायदाद से बेदखल कर देगी क्योंकि सारा कुछ तो अब्बू के नाम ही था। 
             उसने बिंदु के घर जाकर शादी की  बात करनी चाही तो बिंदु के घरवालों उसका नाम सुनते ही बेइज्जती करके निकाल दिया। उसको लव जेहाद में फँसाने की धमकी भी दी गयी। छह महीने मामला संभालने की कोशिश की और इंतजार किया।  आखिर में बिंदु ने वहाँ से घर छोड़कर अपना घर बनाने का निर्णय ले लिया। पहले दिन अपने घर जा रही थी। 
        बिंदु के आने की आहट सुनकर उसकी तन्द्रा टूटी। उसने दरवाजा खोलकर झुकते हुए बिंदु का इस्तकबाल किया। 
       बिंदु ने घर में घुसते हुए एक अलमारी में लाल चुनरी नारियल देवीजी की फोटो देखी। उसने असद की ओर मुड़ते हुए पूछा - "ये क्या है?" 
 "तुम्हारी पूजा का सामान क्योंकि मैं चाहता हूं कि तुमने मेरे लिए घर छोड़ा है लेकिन जो संस्कार खून में बसे हैं , उनकी मैं इज्जत करता हूँ । तुम अपनी पूजा जारी रखना इसी में हमारी खुशी है। 
         उनके घर में दुर्गा सप्तशती और कुरान एक साथ रखे थे।

सीमान्त !

 

                                                     सीमान्त !

                    विनी की पोस्टिंग शहर से दूर एक नई टाउनशिप बनाने वाली जगह लगाई गई। वही निर्जन निर्माण स्थल पर सामने के मैदानों में समूहों से बने आवासीय घर, मजदूर रहते थे और जहाँ उनके बच्चे खेलते थे और यही इलाका ही तो वहाँ इंसानों के होने का अहसास कराता था।

               नवरात्रि आई तो रेवती को लगा कि वह क्या करेगी? नवरात्रि में कैसे कन्याओं को खिलाएगी। उन्होंने बगल में रहने वाली आशा को बोला - ''हम शाम को चल कर उन झोपड़ी वाली बच्चियों के लिए बोल कर आयेंगे।''
              "बावरी हुई हो ये लोग पता नहीं किस जाति के है? इनकी लड़कियों के लिए तो मैं न जाऊँगी।"
            रेवती चुपचाप चुप रह गई और उसने अपने काम वाली से कहा - "तुम जो लड़कियाँ हो, उन्हें नहलाकर धुले कपड़े कर तैयार रखने के लिए उनके घर वालों से कह देना।"
         सुबह वह गाड़ी से निकली और लड़कियों को इकट्ठा किया, दो लड़कियाँ दूर खड़ी लालसा में भरी नजरों से देख रही थीं।
      "तुम भी आओ अभी दो और चाहिए।" रेवती ने कहा तो वह पीछे हो गई।
       "मैम साहब वो मुसलमान हैं।" कामवाली ने बताया।
      "तो क्या हुआ? देवियों की कोई जाति नहीं होती।"
     वह सारी बच्चियों को ले आई और उन्हें भोजन करने के लिए  ले गई। जब उनकी पूजा करके उनको चुनरी ओढ़ाई तो सभी देवियाँ ही लग गयीं।
     रेवती खुश थी कि आज उसने इन शीटों के सामने जाति धर्म में अंतर को विसर्जित कर दिया।

उपेक्षित !

                                                             उपेक्षित !

 
 
पापाजी,

           आज मम्मी की कॉल आई थी कि आप चाहते हैं कि अपना पैसा हम लोगों के नाम करना चाहते हैं।  अब ये सब जो मैं कहना चाहती हूँ, वह कॉल से संभव नहीं है। 
          मैं आपके बेटे के सपने को तोड़ने वाली थी क्योंकि दस साल बाद आप पूरे मन से बेटे के स्वागत की तैयारी में बैठे थे और जब वह टूट गया तो आप दोनों ने मुझे बेमन से स्वीकार कर लिया। चाचाजी के जोर डालने पर मुझे घर में जगह मिलीं।
          आप बहुत अच्छा कमाते थे, पर आप दीन हीन ही दिखाते थे। पैसा ही आपका कर्म और धर्म था। अगर चाचा न होते तो हम कुछ बने ही न होते। हर जगह हम बहनें चाचा के साथ गए। कोई भी एंट्रेंस देना हो, इंटरव्यू देना हो या नौकरी पर जाना हो। 
          हमारी भी इच्छा थी कि हमारे पापा हमें प्यार करें और हमारे साथ रहें। 
          मुझे वह दिन याद है कि पढ़ाई के दौरान दीदी के अवसाद में चले जाने पर आप नहीं बल्कि चाचा मम्मी को लेकर वहाँ गए थे और उन्हें वहाँ से लेकर आए थे, उनका इलाज करवाया था।
          मेरी पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए दोनों बहनों पर दबाव डाला गया था कि मैंने तुम लोगों को पढ़ाया है, अब इसकी जिम्मेदारी तुम लोग उठाओ। उनके अहसान से मैं आजतक मुक्त नहीं हो पायी। दीदी लोग पहले से नौकरी करने लगी थी तो उन लोगों ने अपनी शादी का खर्च खुद उठा लिया। जब मेरी शादी के लिए दोनों बहनों से फिर आर्थिक सहायता की माँग की गई , तो मेरा मन आत्महत्या करने का हो रहा था।
          मैं तब कमाती नहीं थी और आपने मेरे लिए एक अभिशाप साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपनी शादी में मैंने जरूरी जरूरतों के लिए मैंने अपनी सहेलियों से पैसा लिया था, जिसे अपनी कमाई से बहुत बाद में चुकाया।
            अब मेरे लिए आपके उस संचित धन की कोई आवश्यकता नहीं है। आप एक पिता होने के नाते फर्ज की इति धन देकर देना चाहते हैं तो क्षमा चाहती हूँ , मेरा बचपन आपकी इस सोच की बलि चढ़ गया।
             बस इतना ही, पैसा मेरे सिसकते बचपन और अब तक की घुटन का इलाज नहीं बन सकता। 
             
आपकी बेटी 
दिव्या

सोमवार, 23 दिसंबर 2024

विधि : जो खो गयी !

 

 

       विधि!

 

                       कुछ नाम और कुछ किरदार इस जगत में इस तरह बनकर आता है कि अपनी भूमिका निभाते हुए फिर कहीं गुम हो जाते है। उस किरदार को कुछ दिन याद रखा जाता है और फिर वह भुला दिया जाता है लेकिन कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो बार बार जेहन में एक प्रश्न की तरह से उभरते ही रहते हैं। 

                  उनमें एक विधि भी थी, थी इस लिए क्योंकि वह इस पटल से ही नहीं बल्कि अपने सभी मित्रों और परिचितों के लिए भी कहीं विलीन हो चुकी थी और तभी तो बार बार याद आती है।  वह असाधारण थी - रंग रूप और गुणों से भी जिसे कहते हैं सर्वगुण सम्पन्न वह थी ऐसी ही।  सोशल मीडिया  पर भी खासी लोकप्रिय थी क्योंकि उसकी कला ही उसकी पहचान थी। उसकी शिक्षा भी उसको बहुमुखी गुणों से संपन्न बना चुकी थी। वह संविदा पर संस्थान में कार्य कर रही थी और उसके ज्ञान के कारण ही उसको एक विभाग से दूसरे विभाग में पद मिल जाता था। उसके लिए काम कभी ख़त्म ही नहीं हुआ।       

        विधि के माता-पिता ने अपनी तरफ से उसके लिए सुयोग्य वर खोज लिया, जो कि पहले से ही कुछ परिचित भी था। उसके पिता विधि के पिता के बचपन के सहपाठी थे, जो अपनी संपत्ति के साथ गाँव में ही रहे और विधि के पिता  उच्चशिक्षा और नौकरी के लिए बाहर आ गए। 

         अंशुल भी उच्च शिक्षा प्राप्त  इंजीनियर था लेकिन वह शीघ्र शोध के लिए बाहर जाने वाला था। सबको यह था कि अगर वह बाहर जाएगा तब भी कोई समस्या नहीं क्योंकि विधि अच्छी जगह नौकरी कर रही थी। उनकी शादी कर दी गई और शादी के 6 महीने के भीतर ही अंशुल की यू एस जाने की औपचारिकताएँ पूरी हो गईं।  इस बीच विधि गर्भवती हो चुकी थी। उनके आपसी समझौते के अनुसार विधि ने नौकरी नहीं छोड़ी और वह वहीं एक हॉस्टल में रहने लगी। जैसे-जैसे डिलीवरी का समय समीप पा रहा था, विधि के माता-पिता उसको लेकर चिंतित हुए और इसी बीच अंशुल का संदेश आया कि उसको अब नौकरी छोड़कर माँ के पास गाँव चली जाना चाहिए। 

         विधि अपनी नौकरी छोड़कर गाँव चली गई, वहीं पर उसने बेटे को जन्म दिया। उसको यह नहीं पता था कि अंशुल का परिवार एक बहुत दकियानूसी परिवार है। इसीलिए दकियानूसी के चलते विधि को सामंजस्य बिठाने में परेशानी आने लगी। उसने अपने पिता को बुलाया उसके सारे हालत देखते हुए उसके पिता ने विधि को अपने साथ ले जाने का प्रस्ताव रखा, जो उसके सास ससुर को अच्छा नहीं लगा। गाँव में कुछ दिन रहने की बात तो सही थी, लेकिन लंबे समय तक रहना उसके लिए संभव नहीं था और वह अपने पिता के साथ अपने घर आ गई। अंशुल के घर वालों ने अंशुल से क्या? ये नहीं मालूम लेकिन अंशुल ने विधि से कहा कि उसको गाँव में ही रहना होगा। विधि कोई बगैर पढ़ी-लिखी या पराश्रित लड़की नहीं थी। उसने अपने लिए यू एस की टिकट करवाई और वह विजिटर्स वीजा लेकर अंशुल के पास पहुँच गई। अंशुल को यह अच्छा नहीं लगा लेकिन वह वहाँ कुछ कर भी नहीं सकता था। 3 महीने वह वहाँ रही। उसने अपना वीजा अंशुल के बेस पर बढ़ाने का प्रयास किया लेकिन वह सफल नहीं हो पायी और फिर तुरंत ही उसको वहाँ से वापस आना पड़ा। 
              उसने क्या देखा और क्या समझा यह नहीं मालूम? लेकिन उसने वापस गाँव जाने से इंकार कर दिया है और अपनी नौकरी के लिए फिर से प्रयास करने लगी। यह बात अंशुल के घरवालों को समझ नहीं आई। विधि के घरवालों ने भी बीच का रास्ता निकालने की बात सोची कि छुट्टियों में विधि अपनी ससुराल चली जाएगी और नौकरी के समय उसके बच्चे को माँ देखती थी और वह जॉब करती रहती थी। 
          फिर एकाएक क्या हुआ कि विधि अपने परिचय के दायरे से और सोशल मीडिया से एकदम गायब हो गई। उसने नौकरी भी छोड़ दी और कहीं कोई भी संदेश उसने नहीं छोड़ा। उसके ऑफिस वाले उसके सहयोगी, सहकर्मी और मित्र मंडली एकाएक सकते में आ गई कि आखिर इतनी सामाजिक और लोकप्रिय विधि अचानक चली कहाँ गई?  कुछ लोगों ने इस बारे में जानने की कोशिश की तो पता चला कि अंशुल वहाँ से डिग्री लेकर  वापस आ गया था और उसने एक जगह अच्छी नौकरी भी पा ली थी, लेकिन विधि उसके साथ नहीं गई थी या कहे वह विधि को अपने साथ नहीं ले गया। उसकी जिद थी कि विधि सब कुछ छोड़कर उसके माता-पिता के पास गाँव में रहेगी, जो शायद विधि के माता-पिता को स्वीकार नहीं हुआ और बच्चों का भविष्य देखते हुए वह विधि को अपने साथ ले आए। उन्होंने अंशुल से संपर्क किया और बीच का रास्ता निकालने का आग्रह किया। उसका हल यही निकला कि विधि एक पारंपरिक बहू पत्नी बनकर घर पर ही रहेगी और फिर उसने सबसे संपर्क खत्म करवा दिया।  उड़ते उड़ते यह भी खबर मिली कि विधि अब अपने पति के पास चली गई है लेकिन एक प्रतिभावान व्यक्तित्व की हत्या हो चुकी थी , जिसकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी कि एक सुसंस्कृत परिवार की बेटी स्वस्थापित व्यक्तित्व अपना वज़ूद खो देगा। उसका पता अब भी कम से कम मित्र वर्ग में किसी को नही है। माँ बाप बता देते हैं कि अब अपने पति  के साथ है।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2024

बी भानुमती !

              आज याद आ रहे है, कुछ ऐसे लोग जो सालों साथ रहे और फिर ऐसे खो गये- जैसे कभी थे ही नहीं। वे टेलेंटेड थीं, असाधारण और कलात्मक गुणों से संपन्न भी थीं। चढ़ गईं भेंट सिर्फ किसी के अहंकार की या फिर किसी को उनकी असाधारणता रास नहीं आई। कहाँ है? कैसी हैं? नहीं जानती लेकिन उनके अस्तित्व को उकेरने का मन हो रहा है। उन गुमनामी में खोये अस्तित्वों को शब्दों में ही जीवित कर लूँ। क्या मैं सही सोच रही हूँ? 


बी भानुमती !

                    हाँ यही नाम था उसका, वह तेलुगुभाषी थी और यहाँ पर उसके पिता एयरफोर्स में जॉब करते थे। एक भाई और एक बहन थी। कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.फिल कर रही थी। वह आखिरी सेमेस्टर में अपनी डेज़र्टेशन के लिए हमारी टीम में आकर जुडी।  वह अस्सी और नब्बे का दशक था। हम उस समय दक्षिण भारतीय भाषाओं को लेकर मशीन अनुवाद पर काम कर रहे थे। हमारी टीम उस समय तमिल, कन्नड़, तेलुगु और मलयालम भाषा को लेकर काम कर रहे थे।  इसके लिए वहाँ के प्रोफ़ेसर की पत्मियाँ थी जो कि इन भाषाओँ में पारंगत थी और हमारे साथ मिलकर अपनी अपनी भाषा की व्याकरण के आधार पर lexicon बना रहे थे।  भानु इसके लिए बहुत सही काम के लिए सक्षम छात्रा थी। हमारी टीम को उसे समय "अक्षर भारती" नाम दिया गया था।

               अपनी पढाई के साथ भानु स्केच बनाने की कला में बहुत ही कुशल कलाकार थी।  पढाई  एक तरफ और उसकी रूचि एक तरफ।  ऑफिस में मेरी दराज में मेरी एक डायरी रहती थी क्योंकि मेरी रचनाएँ वहाँ ही रची जाती थीं। ये बात भानु को पता थी और वह मेरी डायरी लेकर उसमें स्केच बना देती थी और मालूम वह क्या बनती थी - अभिनेत्री रेखा की आँखों को रेखांकित करती थी।  कहीं भी और किसी भी पेज में वह सिर्फ एक ही चीज बनाती, मैंने इस बारे में उससे कई बार सवाल किया तो वह सिर्फ इतना ही कहती कि मुझे इन आँखों में बहुत कुछ दिखाई देता है। 

             जब उसकी एम फिल पूरी हो गयी तो उसने हमारी टीम में शामिल होकर रिसर्च असिस्टेंट पद पर कार्य करना शुरू कर दिया और हमारी टीम का हिस्सा बन गयी।  कुछ महीने गुजरे होंगे कि अचानक उसके पिता का निधन हो गया और उसकी माँ ने कानपुर से हैदराबाद जाने का निर्णय ले लिया।  उसके दिन पास आ रहे थे और यह कभी कभी हम सब से मिलने आ जाती थी कि अचानक उसकी जिंदगी में एक अप्रत्याशित मोड़ आ गया।  उसका कानपुर से जाना निश्चित हो चुका था कि उसके कैंपस में रहने वाले पिता के मित्र का बेटा छुट्टियों में घर आया और उसको पता चला कि ये लोग जा रहे हैं तो उसने भानु के घरवालों के सामने भानु से शादी करने का प्रस्ताव रख दिया और भानु के घर वालों को ये रिश्ता जाना पहचाना और अच्छा लगा और उनकी सगाई हो गयी। 

                उसकी शादी भी जल्दी ही कर दी गयी। हमारी पूरी टीम उसकी शादी में शामिल हुई थी। सब कुछ अच्छा था और उसका वर भी शायद एयरफोर्स में ही नौकरी कर रहा था।  शादी के बाद उसका परिवार हैदराबाद चला गया और वह भी यहाँ से पति के साथ चली गयी। तब न तो मोबाइल थे कि हमें समाचार मिलते रहते और सब कुछ एक अँधेरे में डूब गया लेकिन हैदराबाद से जुड़े कुछ लोगों से समाचार कभी कभी मिल जाता था कि भानु दो बच्चों की माँ बन चुकी थी लेकिन उसका वैवाहिक जीवन अच्छा नहीं चला था।  फिर एक दिन पता चला कि वह अपने बच्चों को लेकर पति से अलग हो गयी क्योंकि उसकी आदतों के चलते उसके कलाकार मन को कहीं न कहीं आहत हुआ होगा या फिर कुछ तो कारण रहे ही होंगे। 

             बस यहीं तक पता चल पाया फिर हमारी टीम से कुछ लोग हैदराबाद भी जाकर रहने लगे और भानु को खोजने की बहुत कोशिश की लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। हमारे पास कुछ भी शेष नहीं है , न मेरी वह डायरी और न उससे संपर्क करने का कोई सूत्र। फेसबुक से बचपन से लेकर अपनी शिक्षा काल के सहपाठी तक मिल गए लेकिन भानु कहीं नहीं मिली लेकिन दिल और दिमाग में आ भी अंकित है।

मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

मौत से साक्षात्कार ! (2 )

मौत से साक्षात्कार ! (2 )


                             जिंदगी देने वाले नेइंसान को कितनी साँसे दी हैं , यह तो वही जानता है।  कभी एक झटके में वह जीवन छीन लेता है और कभी बड़े बड़े हादसों से बचा कर फिर जीने के लिए छोड़ देता है।  मेरी जिंदगी का एक और हादसा जिसने मौत के मुँह से वापस लेकर खड़ा कर दिया था  - 


                                   वाकया तब का है जब हम अपना घर बनवा कर आ गए थे क्योंकि ससुर जी ने प्लाट पहले ही लेकर छोड़ दिए थे क्योंकि यहाँ पर ज्यादा आबादी नहीं थी और न ही आने जाने के साधन थे। जब लोगों ने घर बनवाने शुरू किये तो हुआ कि कुछ बनवा कर चला जाय।  उस समय मेरी साँस इस बात में लटकी हुई थी  कि यहाँ से मेरे आईआईटी जाने के लिए कोई भी रास्ता नहीं था कोई भी साधन ऐसा नहीं था कि हम जा सकें।  पतिदेव का टूरिंग जॉब था और मुझे तो महीने में २२ दिन जाना ही था। मैंने हिम्मत की और घर से करीब तीन किलोमीटर पैदल  चलकर तब का डीपीआर  जो कि जीटी रोड से लगा हुआ था।  उसकी रेलवे क्रासिंग तक जाती तो मुझे करीब एक किमी जाकर वापस आना पड़ता और फिर टेम्पो में बैठ कर उल्टा  चलकर आना होता, अतः एक मानव रहित क्रासिंग थी, जिससे सामान्यतः सब लोग निकल लेते थे और मैंने भी वही रास्ता चुना। 

                                  रोज आते जाते उतना पैदल चलने की आदत बन चुकी थी।  पता नहीं उस समय की बात अब याद नहीं कि घर से किसी तनाव में निकली थी और वही सोचते सोचते क्रासिंग तक पहुँच गयी।  कहीं नहीं देख रही थी और कुछ सुन भी नहीं रही थी।  ट्रैन आ रही थी तो ट्रैक के उस पार लोग खड़े थे और इस पार भी। मैं अपनी ही घुन में बढती चली जा रही थी।  ट्रैक उस तरफ खड़े लोगों ने चिल्लाना चूरू किया - रुक जाओ ट्रैन आ रही है। " 

                                न मुझे कुछ सुनाई दे रहा था और न दिखाई,  मैं बढती ही चली जा रही थी कि पीछे रुके हुए लोगों में से एक लड़के ने करीब छलांग लगते हुए मुझे पीछे खींचा तब मुझे होश आया कि सामने से ट्रेन गुजर रही है।  उसके बाद सारा तनाव और बदहवासी चली गयी और मैं काँप रही थी। किसी ने रुक कर अपनी बोलल से पानी पिलाया और मैं अवाक् थी कि मौत कैसे सामने से गुजर गयी? 

जो लोग इकट्ठे थे सब चिल्लाने लगे - 'मरना था क्या ?

'आत्महत्या करने जा रही थी। ' 

                           मेरे पास कोई उत्तर नहीं  था।

                               जब कि  कुछ दिन पहले ही ऐसा ही हादसा हुआ था मेरी भतीजी की क्लासमेट जो रोज उसी के साथ जाती थी लेकिन उसे दिन वह कुछ पहले मिकल गयी।  मैं रस्ते में ही थी कि लोगों को कहते सुना कि स्कूल की यूनिफार्म में थी स्कूल जा रही थी।  लेकिन ट्रेन से कटी नहीं बल्कि सिर्फ तेन के इतने करीब पहुँच गयी थी कि ट्रेन के लगे झटके से ही वह गिट्टियों में गिर कर नहीं रही थी।

    

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

मौत से साक्षात्कार !

                                              मौत से साक्षात्कार !

 

                       अगर जन्म एक जीवन का आरंभ है तो मौत उसकी इति।  इस बात को हर इंसान जानता है और फिर  कब इंसान किस मनोदशा में कुछ लिखने लगता है, ऐसा ही मेरा साथ भी हुआ। आज एक पुरानी डायरी मिली और मैं भी क्षण विशेष में यदि कुछ लिख नहीं पाती हूँ तो विषय को कहीं लिख कर छोड़ देती हूँ और अगर समय निकल गया और वह पेज कहीं दब गया तो फिर वह चला जाता है ठन्डे बस्ते में। 

                       आज एक डायरी हाथ आ गयी और ये डायरियां जरूरी नहीं कि पूरी भर जाएँ तभी बदली जाय। कोई नयी डायरी हाथ में आ गयी तो फिर उसी में शुरू हो गये। पुरानी फिर दब ही जाती है। एक पेज में मिला कि मौत से साक्षात्कार और उसके बाद वह घटनाएं जिन्हें मैंने अपनी जिंदगी में सामना किया था। फिर सोचा कि पता नहीं फिर भूल जाऊं और ये हादसे फिर हमेशा के लिए गुम  हो जाएंगे। 


                                                                             1 - 

                                उस रात श्रमशक्ति से मुझे बेटी के पास दिल्ली जाना था और हमेशा की तरह ये स्कूटर से मुझे स्टेशन छोड़ने जा रहे थे। हम घर से बिलकुल सही स्कूटर के साथ निकले। जीटी रोड पर पहुँचे ही थे कि बीच सड़क पर अचानक स्कूटर पंचर हो गया। स्कूटर लहराता हुए एकदम सड़क से नीचे उतर कर एक मंदिर के आगे रुक गया। स्कूटर जैसे ही सड़क से उतरा कि पीछे से एक ट्रक गुजरा और ये सब इतने कम समय के अंतराल में हुआ कि  शायद एक सेकण्ड का भी समय रुक गया होता तो हम दोनों में से कोई भी न होता।  सड़क के किनारे बनी दुकानों से लोग दौड़ पड़े और हम लोगों को देखा कि  कहीं चोट तो नहीं आयी और बोले कि ईश्वर ने आप दोनों को बाल बाल बचा लिया।  उन लोगों ने ही स्टेपनी लगा कर टायर बदल दिया। हम फिर स्टेशन कइ लिए रवाना हो गए।

                               हम इतना समाय लेकर चलते है कि चाहे स्टेशन पर इन्तजार भले करना पड़े लेकिन भाग कर ट्रेन न पकड़नी पड़े।  वहाँ से हम आगे चल दिए।  झकरकटी के पुल पर पहुँचे ही थे कि फिर स्कूटर का टायर पंचर हो गया और वह भी उस समय ट्रैफिक काम होने के कारण हम फिर बच गए।  आखिर मैंने सोच लिया कि अब मैं जा नहीं पाऊँगी लेकिन स्टेशन को बस स्टॉप पर खड़ा करके हम ऑटो से स्टेशन की ओर रवाना हुए। मैं तो दिल्ली  गयी लेकिन ये ऑटो से ही घर आये और सुबह जाकर स्कूटर बनवा कर घर ला पाए। 

                                ये हादसा आज भी अगर याद आ जाता है तो फिर सोचती हूँ कि मेरी बेटियों का क्या होता ? वे उसे समय पढ़ रहीं थी।  इसीलिए कहते हैं कि ऊपर वाला महान है। 

(क्रमश)