सबसे पहले मैं बता दूं किये कहानी बिल्कुल भी नहीं है बल्कि हाल ही में घटी एक सच्ची कहानी है. वैसे कहानियां आती कहाँ से हैं? लेकिन जब अपने घर और परिवार के करीब घटती है तो लिखना अधिक मुश्किल होता है. फिर भी कलम जब मुझे नहीं छोड़ती है तो फिर रिश्तों का लिहाज कर करेगी.
कभी कभी ऐसा होता है कि जिसके लिए कोई तैयार नहीं होता, शायद भाग्य के लेख ऐसे होते हैं या ईश्वर कि मर्जी ऐसी होती है कि इंसान को उसकी नेकी और खुद्दारी के जीवन जीते हुए ही बिना किसी के हाथ से कुछ भी मांगे चल देता है और तब यही कहना होता है कि उस ईश्वर ने उसका मान रख लिया. यह भी कहने का मन होता है कि हाँ इस तरह तूने न्याय किया भगवान.
उस दिन सुबह फ़ोन कि घंटी से ही नीद खुली --"रात में ....मामाजी नहीं रहे."
"अचानक?" इनके मुँह से निकला .
"हाँ कुछ ऐसा ही समझ लो."
"उनके पास कौन था?" हमें पाता था कि मामाजी अकेले ही रहते थे.
"मैं."
सूचना देने वाले इनके मामा के बेटे थे. दिवंगत आत्मा के हमराज और हमउम्र भांजे थे. मामाजी का बचपन और पढ़ाई अपनी बहन के यहाँ हुई थी और इससे भांजे से उनके आत्मीय सम्बन्ध आरम्भ से ही थे. मेरे पतिदेव भी और बच्चों कि तरह से ननिहाल जाते ही थे तो उनसे बहुत छोटे होने पर भी उनकी आत्मीयता अच्छी ही थी.
यहाँ के पौश इलाके में उनकअ तीन मंजिल का मकान है और उसमें वे और उनके किरायेदार ही रहते थे. उनके तीन बेटे - एक आयकर अधिकारी (परिवार यही पर रहता है). दूसरा आई जी बाहर तैनात और तीसरा सी बी आई अफसर और वह भी बाहर. बेटे और डॉक्टर दामाद यहीं पर हैं. प्रशासनिक पद से सेवानिवृत - अपने जीवन में बहुतों का जीवन संवर दिया, जिनको लगवा सके नौकरी में लगवा दिया. करोड़ों कि संपत्ति. जिस रिश्तेदार को जरूरतमंद समझ दिल खोलकर सहायता की. बच्चों कि शादी के बाद ही मामी का निधन हो गया था सो वह अकेले ही रहते थे.
कोई उनके साथ रहने को तैयार नहीं था, जो बाहर थे वो बाहर थे. कभी जाना हुआ और लगा कि इनको लग रहा है कि उनकी स्वतंत्रता में खलल पड़ रही है तो तुरंत ही चल दिए. फिर अपने शहर और घर से प्यार किसे नहीं होता? शहर वाले भी नहीं रखना चहेते थे रखते क्या उस घर में ही नहीं रहना पसंद था. सो अलग अपनी कालोनी में रहते थे. हम ठहरे रिश्तेदार सो मामा कि भी सुनी और उनके बेटों कि भी लेकिन निर्णय लेने कि क्षमता थी .
मौत वाले दिन का वाक्य था, उन्होंने अपने भांजे को फ़ोन किया कि मैंने डॉक्टर से समय ले लिया है और aaj रात १० बजे का समय दिया है. तुम आ जाना तो मेरे साथ चलना. पास ही बहू और पोते सब रहते हैं लेकिन किसी को बताने कि जरूरत नहीं समझी और न ही सूचना देने कि जरूरत समझी. जब भांजे पहुंचे तो उन्होंने बताया कि आज सुबह मुझे खून कि उलटी हुई है इसी लिए मैंने डॉक्टर से समय लिया . लौटने में हमें देर हो जाएगी इस लिए तुम रात मेरे पास ही रुक जाना. स्थिति गंभीर समझ कर भांजे ने उनके बेटे को फ़ोन किया तो पाता चला कि वे बाहर से अभी आये हैं और थके हुए हैं. इसलिए डॉक्टर को आप ही दिखा आइये मैं सुबह आऊंगा .
जब रात जाने का समय आया तो भांजे से बोले - 'देखो सुबह से दुबारा तो मुझे कोई परेशानी हुई नहीं है, अब लौटने में भी बहुत देर हो जाएगी फिर रिक्शे से चलना होगा. सुबह चलेंगे . '
खाना खाकर बोले टी अब तुम भी सो जाओ और मैं भी सोता हूँ. दोनों ही सो गए. पता नहीं कब रात उन्हें एक बार खून कि उलटी हुई , वह उठकर बेसिन तक गए और फिर जब दुबारा हुई तो वे लौटकर सोफे पर ही बैठ गए और भांजे को हिलाया भर भांजे उठ गए तो वे होश में थे और बोले मुझे फिर उलटी हुई है और आँखें बंद कर ली . फिर वे चिरनिद्रा में चले गए. भांजे घबरा गए और उन्होंने किरायेदार को बुलाया . उसके बाद उनके बेटे को फ़ोन किया, वह गाड़ी लेकर आया और नर्सिंग होम ले गए वहाँ डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया.
रात के दो बजे थे , बाकी बेटे और बेटी को भी खबर कर दी गयी . जो जहाँ था वहाँ से अपनी गाड़ी से या फ्लाईट पकड़ कर आ गए. शाम 4 बजे वह पंचतत्व में विलीन हो गए.
सभी बच्चे अच्छी ही नहीं बल्कि बहुत अच्छी स्थिति में थे लेकिन शायद पैसा ऐसी चीज होती है कि जहाँ सारे रिश्ते पड़ोसियों से भी बदतर हो जाते हैं. उन्हें पंचतत्व में विलीन हुए अभी कुछ ही घटे हुए थे. सभी बेटे बहुएँ और बेटी घर में थे. बड़े होने के नाते और मामाजी से सबसे घनिष्ठ और आत्मीय होने के नाते भांजे भी रात में वहीं रुके हुए थे. वे मामा के राजदार भी थे.
वे सो गए तो हाल में जोर जोर से बोलने की आवाजें आ रही थी, बीच में नीद टूटी तो सोचा कि पिता और ससुर की मृत्यु के बाद नीद नहीं आ रही होगी तो सभी एक साथ बातें कर रहे होंगे . तब तक वे भी चैतन्य हो चुके थे और आवाजें उनको साफ साफ उन्हें देने लगी थीं.
---मम्मी के मरने पर सारी सदियाँ आप ही लेकर गयीं थी.
==वो मम्मी ने पहले ही पापा को बोल दिया था कि ये सदियाँ मुझे दे दी जाय.
--अब क्या और चाहती हैं , आपके तीनों बच्चों की शादी में पापा ने कितना खर्च किया था? अब भी लेना चाहती हो .
--उससे क्या? वो उन्होंने अपनी मर्जी से खर्च किया था.
--अब मम्मी के जेवर से भी कुछ और चाहिए ?
--देखती हूँ कि क्या लेना है ?
--पापा कि वसीयत जो भी हो , हम सब आपस में सहमति से बाँट लेंगे .
--ऐसा क्यों ? फिर वसीयत का मतलब क्या हुआ ?
--कुछ भी हो , उन्होंने हम सबको कभी बराबर नहीं समझा , हमेशा मुझे दूर दूर रखा
--क्यों कभी ये सोचा तुमने?
-- हाँ , क्योंकि हम उनकी तानाशाही के नीचे सांस नहीं लेना चाहते थे, हम यहाँ होकर भी उनसे अलग रहे. क्या बुरा किया तुम लोग तो बाहर रहकर स्वतन्त्र हो कर जी रहे हो और हम उनके शासन में रहें.
--एक जगह रहने से कुछ तो तकलीफ होती ही है लेकिन फर्ज भी कोई चीज होती है.
--फर्ज तो सभी के हैं, दीदी भी तो यहाँ है कभी ले जाती उनको और रखती अपने पास.
--वो मेरे घर रहना नहीं चाहते थे, बेटी का घर जो था.
--वाह ! देने के लिए बेटी पहले और करने के लिए बेटे . ये अच्छा सिद्धांत है.
--मेरे पापा को देखो रिटायर होने पर दोनों बेटों को बराबर बराबर बाँट दिया है.
--और आगे उसके बाद वृन्दावन में आश्रम में रह रहे हैं, अब कोई पूछता भी नहीं है उंको.
--वो तो अपनी मर्जी से गए हैं, सेवा भाव से वर्ना उन्हें क्या कमी है?
--बस बस रहने दो.
भांजे इन सब बातों आजिज आ गए और वह हाल के दरवाजे पर आकर खड़े हो गए. उनसे रहा नहीं गया -- 'बस करो तुम लोग इतने अच्छे अच्छे जगह पर हो और पैसे की भी कोई कमी नहीं है, फिर भी इस तरह से लड़ रहे हो . are उनकी चिता की रख तो ठंडी हो जाने देते . अरे लड़ो तो इसपर की उनकी अश्थियों को ठिकाने कौन lagayega . तुम्चार हो अरे सब उसको बाँट कर चारों धाम में जाकर विसर्जित करते तो शायद उन्हें अब तो शांति मिल जाती . अगर वह भी न कर सको तो मुझे दे देना मैं कर दूंगा .'
उनको गुस्से में देख कर सब धीरे धीरे खिसक लिए क्योंकि मामा के अन्तरंग और हमराज होने के नाते सभी उनकी इज्जत तो करते ही थे . वे सोफे पर सिर पकड़ कर बैठ गए. उनके दिमाग में ये चल रहा था कि अभी जब इनको वसीयत के बारे में कुछ पता नहीं है तब तो ये हाल है और अगर इन्हें उसके बारे में पता चल गया तो क्या होगा ?
वास्तव में मामा की वसीयत के एक गवाह वह भी थे और मामा ने अपने बच्चों को उसमें कुछ भी नहीं दिया था . मामा की वसीयत थी --
'मेरी चल अचल संपत्ति से मेरे बेटे और बेटी को कुछ भी नहीं दिया जाएगा . मेरी जो भी संपत्ति शेयर , मकान और बैंक बैलेंस है वह अमुक ट्रस्ट में जमा कर दिया जाएगा और उसकी जिम्मेदारी है कि मेरे मकान के नीचे के हिस्से में एक वृद्धाश्रम खोल दे . जिसमें मेरे जैसे उपेक्षित वृद्धों को रहने दिया जाएगा और वे सभी वृद्ध अगर सक्षम हैं तो अपनी संपत्ति इस ट्रस्ट में जमा कर दें ताकि इसका खर्च उठाने में को भी परेशानी न हो . शेष मकान का किराया और इस आश्रम की व्यवस्था ट्रस्ट ही देखेगा . मेरे पैसे से ट्रस्ट गरीब लड़कियों की शादी की व्यवस्था भी करेगा . इस धन के संचय और व्यय की जिम्मेदारी इस ट्रस्ट की रहेगी . अगर मेरे बच्चों में से कोई इसके बाद इस ट्रस्ट में अपनी सहयोगत्मक सेवाएं देना चाहें तो उनको इसमें सदस्यता प्रदान की जा सकती है. '