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शुक्रवार, 1 अक्टूबर 2010

शास्त्री जी को नमन !

      
         आज का दिन जितने जोर शोर से गाँधी जयंती के लिए तैयार किया जाता है तो उसकी धूमधाम  में देश का ये छोटे कद का सपूत कहीं दिखाई नहीं देता है. गाँधी की छवि ने उसकी छवि को धूमिल कर दिया हो ऐसा नहीं है लेकिन हम ही उसको भूल जाते हैं . वे एक ऐसे महापुरुष थे , जो खामोश रहते हुए बहुत कुछ कर गए. महापुरुष कहलाने के लिए अनुयायिओं की एक सेना लेकर चलने कि जरूरत नहीं होती बल्कि एक व्यक्तित्व होता है और ओजस्वी वाणी. बहुत थोड़े समय के लिए वे प्रधानमंत्री बने लेकिन वे देश के अब तक के सबसे गरीब प्रधानमंत्री हुए. जब देश की बागडोर उन्होंने संभाली तो देश एक साथ कई विभीषिकाओं से जूझ रहा था , जिनमें खाद्य समस्या और सीमा पर पाकिस्तानी गतिविधियाँ प्रमुख थी. उन्होंने देश को जिस ढंग से एक सूत्र में बाँध  कर सिर्फ युद्ध ही नहीं जीता बल्कि खाद्य समस्या से लड़ने के लिए देशवासियों को इस तरह से तैयार किया कि हम जीत गए. 
                          मैं अपने बचपन की उनके इस प्रयास से जुड़ी एक घटना प्रस्तुत कर रही हूँ. बात १९६५ की है, मैं बहुत छोटी थी किन्तु स्मृति में अभी भी शेष है. शास्त्री जी का आगमन हमारे गृह नगर जालौन में हुआ था और मैं अपने माँ और पापा के साथ उरई से जालौन उनका भाषण सुनने के लिए गयी थी. वह कोई चुनावी भाषण नहीं था, वादों की श्रंखला लिए कोई बहलाने वाली सभा भी नहीं थी. वह तो था उस समय देश में विकराल रूप लिए हुए खड़ी "खाद्य समस्या" से लड़ने का आह्वान . शास्त्री जी ने उस विशाल जनसमूह के सामने आग्रह किया कि अगर आप सभी लोग सप्ताह में एक दिन व्रत रखने का संकल्प करें तो इससे बचने वाले अन्न से हम अपनी समस्या को कुछ कम कर सकते हैं. उन्होंने उन लोगों से हाथ उठाने को कहा जो इस कार्य के लिए संकल्प ले रहे थे. मैंने भी हाथ उठाया था. मैंने सोमवार को व्रत रखने की सोची . माँ पापा ने समझाया कि उन्होंने तो बड़ों से कहा था तुम तो बहुत छोटी हो लेकिन मैंने हाथ उठाया था तो मैंने कहा कि मैंने भी हाथ उठाया था तो मैं भी व्रत करूंगी. उसके बाद मैंने कई वर्षों तक व्रत रखा. वह घटना मुझे आज भी याद है और उस तेजस्वी व्यक्तित्व की छवि आज भी मन में उसी तरह से अंकित है. 
                          अपने प्रधान मंत्रित्व काल में जब पाकिस्तान ने युद्ध छेड़ा तो कमान उनके हाथ में थी और उस समय देश की सीमा पर अपने दायित्व निभाने वाले जवानों और देश के लिए अन्न उपजाने वाले किसानों दोनों को ही उनके  दायित्व से जुड़े कर्तव्यों को सम्मान देते हुए "जय जवान जय किसान " का नारा दिया था.  शत्रु को परास्त करने के बाद विजय पताका भारत ने फहराई थी और इसके बाद भी रूस के मध्यस्थता में भारत और पाकिस्तान के मध्य युद्ध संधि हुई और जीते हुए क्षेत्र को उन्होंने लौटा दिया. रात संधिपत्र पर हस्ताक्षर हुए और फिर वे सदा के लिए १० जनवरी १९६६ की रात सो गए. वह कोई षड़यंत्र था या हमारा दुर्भाग्य कि हम देश के उस होनहार लाल को खो बैठे. 
                         उनके निधन के बाद उनकी पत्नी ललिता शास्त्री ने "मेरे पति मेरे देवता " नाम से  उनके सम्पूर्ण जीवन का वृतांत लिखा जो "साप्ताहिक हिंदुस्तान " में धारावाहिक के रूप में प्रकाशित हुआ. उससे उनके सम्पूर्ण जीवन वृतांत पढ़कर और मन श्रद्धा से भर उठा. वे ही एक ऐसे प्रधानमंत्री थे जो कर्जदार ही चले गए. बहुत वर्षों बाद ये मामला संज्ञान में आया कि शास्त्री जी ने शायद अपनी बेटी के शादी के अवसर पर स्टेट बैंक से कर्ज लिया था जो वे नहीं चुका पाए और उनका निधन हो गया. जब पता चला तो देने वाला जा चुका था. और बैंक ने वह कर्जा माफ कर दिया.
                        आज मैं उनके जन्म दिन पर शत शत नमन करती हूँ और सोचती हूँ कि काश उसके बाद और एक शास्त्री भारत को मिला होता तो आज इसकी तस्वीर शायद कुछ और होती.