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गुरुवार, 18 नवंबर 2010

संस्कारों का ढोंग !

                         हमारी संस्कृति में मनुष्य के गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक सोलह संस्कार होते हैं. आज के जीवन में और बदलते मूल्यों के अनुसार पूरे सोलह संस्कार तो कोई भी नहीं कर पाता है लेकिन कुछ महत्वपूर्ण संस्कार जीवन में पूरे किये ही जाते हैं. इनमें से अब कुछ ही रह गए हैं जैसे - जन्म पर होने वाले, नामकरण , मुंडन, कर्णछेदन, विद्यारम्भ, विवाह और अंत्येष्टि एवं उसके बाद त्रयोदशी आदि. 
                          ये सारे संस्कार हमारी अपनी मान्यताओं के अनुरुप होते हैं और इस बात पर भी कि  हम इनको कितना महत्व देते हैं. अब कुछ नए संस्कार भी जुड़ गए हैं जैसे बर्थडे , एनिवर्सरी  जैसे कार्यक्रम. बड़े धूमधाम से मनाते हैं. अपनी हैसियत के अनुसार लोगों को भी बुलाते हैं. लेकिन पुराने संस्कारों के प्रति हमारा दृष्टिकोण पुरातन पंथी कह कर बदलता जा रहा है. उसको भी हम सुविधानुसार  ढाल कर पूरा करने लगे हैं. 
                          कल मैं अपने पति के एक मित्र के पिता की तेहरवी में गयी थी. तीन बेटे और तीनों बहुएँ एकदम आधुनिक लेकिन कुछ अवसर ऐसे होते हैं कि  आधुनिकता हमें ये नहीं सिखाती है कि  हम अपनी कुछ परम्पराओं को भूल कर चलें या तो हम कुछ भी नहीं करें. हम इस वैदिक रीति के कार्यक्रम को मानते ही नहीं है और होता भी है आर्यसमाज रीति से आप संस्कार कीजिये और उसकी विधि के अनुसार शांति हवन कीजिये. वह भी सर्वमान्य पद्धति है. लेकिन अगर वैदिक रीति से चले तो फिर उसके प्रत्येक नियम को कुछ हद तक तो पालन करना अनिवार्य है. 
                          सुबह हवन होना था और पंडितों को खिलाना भी था. पंडित जी से पूछ कर सारा समान पैकेट बना कर उनको सौप दिया गया कि  आप ब्राह्मण खोज कर उनको दे दें. सारी चीजों के पैकेट थे साथ ही खाने के पैकेट भी थे. कुछ काम घर में बहुओं के द्वारा भी किये जाते हैं तो वह कौन करे? खुद खाना घर में तो बनाती नहीं है तो यहाँ पूरियां कौन तलेगा? बड़ी ने छोटी से कहा और छोटी ने और छोटी से . फिर छोटी ने एप्रन पहना और डरते डरते गैस तक गयीं सिर्फ ७-८ पूरियां ताली . बस हो गया भाभी जी. 
                        हम  काफी अंतरंगता रखते हैं तो वहाँ हम दिन भर थे. शाम को जिन्हें कार्ड दिया गया था तो लोग आने शुरू हो गए. दोपहर में ही मुझसे पूछा गया कि  इतने लोगों को कार्ड दिया गया है तो किस हिसाब से हलवाई को आर्डर दें कि क्या चीज कितनी होनी चाहिए?फिर सोचा गया कि अलग अलग चीजों के आने से झंझट बढेगा और फिर थाली कटोरी का भी काम बढ़ जाएगा.  फिर पैक्ड  थालियों का व्यक्तियों के हिसाब से आर्डर कर दिया गया. पैक्ड थालियाँ आ गयी और जैसे जैसे लोग आते जा रहे थे. मेजों पर थालियाँ रख दी जाती और लोग खाकर चलते जा रहे थे. हम भी उनमें से एक थे और खा पीकर हम भी घर आ गए. रात में देर तक नीद नहीं आई कि क्या इस तरह से भी होने लगा है. क्या सिर्फ एक संस्कार हम पूरी श्रद्धा से और नियमानुसार  नहीं कर सकते हैं. पुरुष वर्ग शायद ऐसा करता भी लेकिन स्त्रियाँ जब कुछ करने के लिए राजी ही नहीं तो वे क्या करें? उनके लिए बर्थडे पार्टी और तेरहवी बराबर हो गयी . बाहर से आर्डर कर दिया और खुद तैयार होकर होस्ट बनी सबको अटैंड कर रहीं है. वही यहाँ था, सारी बहुएँ तैयार पूरे मेकअप में बाबूजी के गुणगान कर रही थी. और कुछ हम जैसी दकियानूसी महिलायें इस संस्कार की परंपरागत तरीके पर रो रही थीं.