मेरे सिद्धांत और मेरा करियर !
इस विषय पर लिखने के लिए आज डॉ. कुमारेन्द्र की एक पोस्ट से अपनी भी आपबीती लिखने का मन हो आया जिसे सिर्फ मेरे घर वाले और सहयोगी ही जानते हैं.
आज से ३६ साल पहले मैंने १९७४ में डबल एम.ए. (राजनीति शास्त्र और समाज शास्त्र ) किया था और उस समय बुंदेलखंड युनिवेर्सिटी में मेरिट थी. उस समय इतनी शिक्षा में सीधे पद मिल जाया करते थे. मेरी कई सहपाठियों को मिले भी. लेकिन कसबे की रहने वाली लड़की के लिए घर वालों की नजर में शादी करनी अधिक जरूरी थी और नौकरी की कोई अहमियत भी नहीं थी. इसलिए और मैं अपने लेखन से व्यस्त थी इसलिए भी तब तो नौकरी की कोई बात ही नहीं उठी. लेकिन शादी के बाद यहाँ कानपुर में आकर 'सिंद्धांतों से नहीं डिगेंगे' ( जो आज भी है) के तर्ज पर नौकरी की कोशिश की तो पता चला कि १० हजार लगेंगे डिग्री कॉलेज में प्रवक्ता की जगह के लिए. जो मुझे मंजूर नहीं था. क्योंकि मैं पात्रता में कहीं भी कम नहीं थी और पढ़ाने में अधिक रूचि थी और कौंसलर तो शायद मैं पैदा ही हुई थी.
इसी रूचि के तहत मैंने बी.एड. ,एम. एड .दोनों किया. फिर भी वही हाल अब रकम और बढ़ गयी थी. मैं वही थी, समझौता मुझे मंजूर नहीं था तो नहीं था . फिर बिना किसी सिफारिश के यहाँ आई आई टी में नौकरी मिली. एक साल बाद मशीन अनुवाद में आ गयी. सबने कहा कि विषय अच्छा है नया है, कानपुर विश्विद्यालय से Ph . D. कर लीजिये. खैर एक परिचित गाइड के निर्देशन में विषय "शिक्षा में मशीन अनुवाद की उपयोगिता" पर शोध विषय स्वीकृत हो गया . मैं उनकी पहली छात्रा थी और नए विषय को तुरंत ही स्वीकृति मिल गयी. मैंने काम करना शुरू कर दिया. वे मेरे विषय से बिलकुल अनभिज्ञ थी इसलिए मार्गदर्शन का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था. उस समय कंप्यूटर शिक्षा विषय में हाल ही शामिल भी किया गया था . मुझे अपने काम के लिए आई आई टी अपने वरिष्ठ प्रोफेसरों से सहयोग मिल ही रहा था. लेकिन कौन इसका श्रेय नहीं लेना चाहेगा. काम किया जब तैयार हो गयी तो मेरी गाइड ने अपरोक्ष रूप से कहना शुरू किया की उसकी थेसिस का विषय मेरे निर्देशन में स्वीकृत हुआ है उसने मुझे ये सोने की अंगूठी बनवा कर दी है. आज कल तो सिर्फ हस्ताक्षर के ही ५० हजार गाइड मांग रहे हैं. इस तरह से अपरोक्ष रूप ५० हजार रुपये की मांग की सिर्फ हस्ताक्षर करने के लिए और वह थीसिस मैंने उठ कर रखा दी. मैं चाहती तो किसी भी दूसरी गाइड के साथ उसी विषय को जमा कर सकती थी लेकिन मन में एक वितृष्णा सी हो गयी.
फिर आज तक दुबारा मैंने Ph . D . करने कि जरूरत नहीं समझी क्योंकि अगर अपनी मेहनत के बाद भी पैसे दूं तो ऐसी डिग्री मुझे नहीं चाहिए. वैसे मैं खुद कितने लोगों को Ph . D . के लिए निर्देशित कर चुकी हूँ लेकिन खुद Ph . D . नहीं हूँ. वैसे भी अब सिर्फ नाम के आगे डॉ. लगाने के लिए डिग्री हासिल करने की मुझे जरूरत भी नहीं है. लेकिन मेरा यह ख्याल कि अगर मैं काबिल हूँ और इसके लिए पात्रता भी है तो मैं पैसे क्यों दूं? मुझे वक़्त के साथ ले जाने में सफल नहीं रहा, लेकिन मेरे सिद्धांत मुझे आज भी प्रिय है और मुझे इस बात का पूरा गर्व है.
शनिवार, 22 मई 2010
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19 टिप्पणियां:
रेखा जी. बहुत ख़ुशी हुई आपको पढ़कर...
ऐसा लगा मेरे विचारों को खुलकर किसी ने कहा... बहुत बहुत धन्यवाद आपका
मेरे सिद्धांत मुझे आज भी प्रिय है और मुझे इस बात का पूरा गर्व है.
man harshit ho gaya aapke siddant padhkar ....vandniiy soch
aaj mehsoos hua hum hi akele nahi h is dunia m or bhi hai hum jaise
रेखा बहिन आपकी बात से पूरी तरह सहमत हूँ
जीवन में सिद्धांतों से समझोता जेसे बिना रीढ़ का जीवन है
सिद्धांत से व्यक्तित्व का परिचय मिलता है शिक्षा के क्षेत्र में अवनति के लिए
ऐसे समझोते ही उत्तरदायी हैं जो अब तो चहुँ और देखने को मिलते हैं
आपकी आपबीती जान कर सच ही शिक्षा क्षेत्र में भ्रष्टाचार का पता चलता है और मन ही मन रोष हो रहा है....आप अपने सिद्धांतों पर अडिग हैं...आपका यह लेख बहुत प्रेरणाप्रद है....पर ऐसे ही कितने लोग होंगे जो काबिल होते हुए भी उनको वो नहीं मिल पाता जो मिलना चाहिए.....और ऐसे भी लोग होंगे जिन्होंने अपने लिए आसान रस्ते चुन लिए होंगे.....सार्थक लेख....
संगीता जी,
ऐसे बहुत से हैं, जो वाकई काबिल हैं और भाग्य कहें या फिर उनका ज़माने के साथ समझौता न करना कि वे वह नहीं पा सके जिसके वे हकदार थे. अगर वे सुलझे हुए नहीं हैं तो कुंठा का शिकार भी जो जाते हैं.
्रेखा जी आप की आप बीती पढ़ कर मुझे अपने दिन याद आ रहे हैं। कैरियर की शुरुवात में हम ने भी पी एच डी करने के लिए पूरा जोर लगा दिया था। गाइड हमारी भी सिर्फ़ नाम भर की थी। खैर काम जब पूरा हो गया और फ़ाइनल ड्राफ़्ट तैयार हो गया तब हमारी गाइड ने अचानक फ़र्माइश की कि हम उस फ़ाइनल ड्राफ़्ट की एक कॉपी उसके पास जमा करें। हमने कर दी और पंद्रह दिनों बाद पता चला कि मैडम कलकत्ता के किसी सेमिनार में उसमें से पेपर प्रेसेंट कर के आ गयी अपने नाम से। अब हमें डिग्री मिलने का तो सवाल ही नहीं रह गया था। गाइड बड़ी मगरमच्छ थी और मैं छोटी मछ्ली। पानी में ( यानी के उसी यूनिवर्स्टी में ) रह कर उस से बैर भी नहीं कर सकते थे। चुपचाप सारा काम उठा के ताक पर रख दिया । उसके बाद ऐसे टूटे कि आज तक पी एच डी नहीं कर सके। उसी अपूर्ण पी एच डी की भेंट अजन्मा बच्चा भी चढ़ गया। खैर वो किस्से फ़िर कभी।
ओह!! थोड़ी देर से आपकी पोस्ट पर आई,इसका फायदा यह हुआ कि अनीता जी कि टिप्पणी भी पढने को मिल गयी...जब शिक्षा संस्थानों में जो जिम्मेवार नागरिकों को तैयार करने का बीड़ा उठाते हैं...वहाँ का ये हाल है..तो दूसरी जगह की तो कल्पना ही बेकार है.
कितना वक़्त और कितनी मेहनत लगती है पी.एच.डी. करने में और उसका हश्र ये होता है...बहुत ही दुखद जनक स्थिति..
ऐसा लगता है हमारा संपूर्ण समाज भ्रष्टाचार में लिप्त हो गया है, दर्द होता है हमें भी होता है पर जैसे आपने सह लिया वैसे ही हम भी सहना सीख लिये हैं। क्या किया जाये इन लोगों का जो ये सब कार्य करते हैं ? बहुत बड़ा प्रश्न है।
अनिताजी,
एक दिन जब हमारी और आपकी बात हुई थी तो हम लोगों ने अपनी समानताएं देखी थीं और हम कितने सामान थे . फिर ये बात अलग कैसे हो सकती है?
एक नहीं कई घटनाएँ जुड़ी हैं इस भ्रष्ट तंत्र की. आपसे मिलती हुई घटना ये हुई कि मैंने एक डिग्री कॉलेज में Ad hoc पढ़ाया . पुराने प्राध्यापक कोई पढ़ता तो था नहीं, मुझसे सलाह की और मैंने उसमें रिसर्च का पेपर लगवा दिया. जो नहीं पढ़े वो क्या करें ? मैंने रिसर्च का पेपर ले लिया . जब लघु शोध प्रबंध की बात आई तो किसी ने भी नहीं किया था. जो इस पेपर को लिए थे करीब २२ स्टुडेंट थे . मैंने सब को अलग अलग विषय देकर करवाया. जब वायवा हुआ तो बाहर से आये हुए परीक्षक ने बहुत प्रशंसा की. जब वह लघु शोध विश्वविद्यालय जाने लगे तो वही के एक प्राध्यापक ने सलाह दी कि ये तो Ad hoc है इससे इनको कोई फायदा नहीं मिलने वाला है लेकिन अगर आप ( जो वहाँ पर स्थायी थे) लोगों के नाम से यूनिवर्सिटी पहुँच जायेंगी तो आपको ग्रेडलगने में फायदा होगा.
और सिर्फ कॉलेज की कॉपी छोड़ कर सारे लघु शोध के कवर पेज और अंदर बदल दिए गए हमारे साइन के स्थान पर उनके साइन हुए . बस ये बात छात्रों को नहीं पता चली नहीं तो वे तो यूनियन बाजी करने लगते . बस उसके बाद मैंने वह कॉलेज छोड़ दिया.
जो आप ने कहा वो कहीं से भी गलत नहीं हैं लेकिन एक गाइड के गलत होने से पी एच डी ना करना मेरी नज़र मे पलायन हैं { क्षमा करदे } आप को पी एच डी भी करनी चाहिये थी और सिस्टम से लड़ना भी चाहिये था । मूक समपर्ण का दोष हमारा अपना होता है फिर चाहे वो समर्पण किसी भी बात के लिये हो
ईमानदारी से किसी संस्मरण को बयां करती पोस्ट / अच्छी सोच की अभिव्यक्ति /
बधाई हो दीदी. आज सिद्धान्तों पर चलने वाले हैं ही कितने? इसीलिये तो डिग्रियां बिक रहीं हैं, और कोई भी काम सही तरीके से नहीं हो पा रहा, कारण योग्यता का न होना ही तो है.
भ्रष्टाचार के अनछुए जखम को कुरेद दिया आपने ।सच कहें तो यही बजह है कि पड़े-लिखे लेग कुछ मामलों में तो पशुओं से भी बदतर हैं मानबता के मापदम्ड से।
Rekha ji jo baat aapne kahi mene bhi suni to bahut thi.par aaz aapse bhi sun lia..kitne sharm ki baat hai jis PHD holder ko ham bachchon ko sikhshit karne ko kahte hain uski hi degree khareedee hui hoti hai.:(
@रचना,
तुम्हारा कहना अपनी जगह ठीक है , लेकिन ये Ph .D . मेरे लिए क्या मायने रखती थी. मुझे ज्ञान पूरा है सिर्फ नाम के आगे डॉ. लग जाता न. सो उससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मैंने करीब १५ Ph .D . को सहायता करके उनका काम करवा चुकी हूँ. . ये हार नहीं बल्कि मेरी जीत है , मेरे सिद्धांतों कि जीत.
@शिखा,
यहाँ बहुत कुछ होता है, उन्हीं गाइड ने मेरी M .Ed . की Dessertation मुझसे पढ़ने के लिए मांगी और अपने किसी छात्रा को वही Ph . D . के लिएविषय दिला कर मेरी Dessertation उसको बेच दी. जब मैंने मांगी तो कह दिया वो कहीं खो गयी उससे, वो ५०० रुपये दे गयी थी. मेरी मेहनत तो चली गयी मैं उन रुपयों के लिए लालायित नहीं थी सो उन्हीं के पास रहने दिए.
आप को ओर आप के सिद्धांतों को नमन करता हुं, कभी कभी मेरे दिल मै ख्याल आता था कि इस दुनिया मै शायद मै ही एक पागल हुं, जो अपने सिद्धांतों के लिये बडे से बडा नुक्सान भी ऊठाने को तेयार है, लेकिन मै आप जितना तो नही पढा.....बहुत अच्छा लगा आज आप को पढना, आप के विचार अच्छे लगे, धन्यवाद
रेखा जी आप के बारे मे जान कर अच्हा लगा. माना कि सिधान्तो पर चल कर मन माना मुकाम नहि मिल्ता पर कम से कम अपनी नज्र्रो मे जो आप खुद को जो मह्सूस करती है वो सुकून शायद ना मिल पाता.
bahut achhe vichar hai..sidhanto se koi samjhauta nahi,apne sidhanto par kayam rah jana hi bahut badi baat hai.
वाह आंटी जी, इस डिग्री की गरिमा तो बरकरार आपने रखी है और सही मायने में डॉ. की हकदार तो आप ही हैं। आज से डॉ. रेखा श्रीवास्तव आंटी। बहुत खुशी हुई आपका संस्मरण पढ़कर।
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