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शनिवार, 8 मई 2010

माँ तुझे सलाम!

                         शत शत वन्दे है मातु तुम्हें,
                         सब कुछ अर्पण है मातु तुम्हें, 
                         जीवन सच्चे मानव का दिया 
                         ये श्रेय समर्पित  मातु  तुम्हें.
            अगर पश्चिमी संस्कृति से हमने कुछ ग्रहण किया है तो वह सब कुछ बुरा ही नहीं है, कुछ अच्छा भी है. ये "मदर्स डे"  भी तो वही से सीखा है हमने. कम  से कम साल में एक बार सारी दुनियाँ माँ क्या है? और उसने क्या किया है? इसको सब लोग याद करने लगे हैं. वैसे भी नारी का यह रूप सदा ही वन्दनीय है. जन्म से लेकर अपने पैरों पर चलने तक सिर्फ और सिर्फ एक माँ ही होती है जो अपने बच्चे को पालती है. 

                              माँ यदि माँ और बाप दोनों की भूमिका निभाकर बच्चे को उस मुकाम तक लाये - जहाँ उसकी अपनी जगह बन सके और फिर ऐसे बच्चे को - जो दुनियाँ की नजर में लाइलाज हो तो उस माँ की हिम्मत और संकल्प को शत शत नमन.
                      वह माँ उषा कपूर से मेरी मुलाकात विगत १९ जनवरी को ट्रेन में हुई थी. मैं कानपुर से जबलपुर जाने के लिए ट्रेन में चढ़ी थी और वह लखनऊ से आ रही थी. वह मेरी सामने वाले सीट पर बैठी थी. उनके साथ उनकी १२-१३ वर्ष की मानसिक विकलांग बेटी भी थे. उनकी बेटी स्तुति आँखें बंद किये बैठी थी और बार बार आने बालों में अँगुलियों से कंघी कर रही थी. पहले मैं समझी की ये नेत्रहीन है लेकिन बाद में पता चला कि वह सिर्फ मानसिक विकलांग है. उसको अकेले संभालना आसन काम नहीं था.
                     मैंने बड़े संकोच के साथ उनसे पूछा की क्या आपकी  बेटी को कोई प्रॉब्लम है? 
"हाँ ये नॉर्मल नहीं है, बिना मेरे कहीं जा नहीं सकती , मैंने इसको आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प लिया है और अकेले ही इस रास्ते पर चल रही हूँ." 
"इसके फादर?"   मैंने बात अधूरी इसलिए छोड़ी थी की पता नहीं क्यों ये अकेली चल रही हों ?
"इसके फादर सी एम ओ है, अमुख जगह पर उनकी पोस्टिंग है. मैं इसको लेकर अकेली लखनऊ  से आ रही हूँ."
                     मेरी उत्सुकता उस बेटी में अधिक थी, क्योंकि मेरी बेटी ऐसे बच्चों के इलाज के लिए पढ़ाई कर रही है और ऐसे केस उसके लिए चुनौती होते हैं. 
"क्या ये जन्म से ही ये ऐसी है ?" मैंने उनसे जानना चाहा.
"हाँ, जब ये होने को थी तो डॉक्टर ने कहा था की बच्चे की पोजीशन सामान्य नहीं है, इसलिए आपरेशन करना पड़ेगा. लेकिन हमारे सास ससुर ने कहा कि नहीं बच्चा घर पर ही हो जाएगा. इसके पैदा होने में दाई ने सिर बड़ा होने के कारण प्रसव किसी तरीके से कराया जिससे उस समय इसके सिर की नसों पर पड़े दबाव के कारण इसमें ये असामान्यता आ गयी." 
" ये बात आपको पता कब चली?"  मैंने अपनी जिज्ञासा व्यक्त की तो वह भी कोई बांटने वाला मिला या कोई रास्ता सुझाये ये सोच कर मुझसे शेयर करने लगीं. 
"पहले २ महीने तो तक तो पता ही नहीं चला, क्योंकि मुझे कोई अनुभव नहीं था और बड़ों ने कहा की बच्चे बचपन में ऐसे ही रहते हैं. कुछ बच्चे देर में चैतन्य होते हैं. इन्होने कोई रूचि नहीं दिखाई क्योंकि ये अपने माँ-बाप के बेटे थे. मैं भी नयी ही थी , इसके लिए तुरंत कुछ न कर सकी."
       उनके स्वर की विवशता मैं अनुभव कर रही थी और फिर उनके कहे को सुनाने के लिए भी बेताब थी. हमारी सफर तो लम्बी थी लेकिन रात हो रही थी और सोने का समय भी हो रहा था.
"आप ने इसके बारे में जब सोचा तब ये कितनी बड़ी हो चुकी थी? " मैंने सब कुछ जाना चाहती थी.
"जब ये २ साल की हो गयी और अपने काम के लिए भी मेरे ऊपर ही निर्भर थी, फिर मैंने सोचा की अगर इस बच्ची को जन्म दिया है तो इसको पार लगाना मेरा काम है. मैं लखनऊ अपने मायके आ गयी. वहाँ पर मैंने विशेष स्वास्थ्य केंद्र में इसको दिखाया - उन्होंने भी यही बताया की इसकी कोई दवा नहीं होती बल्कि इसके रिहैबिलिटेशन के द्वारा ही ठीक किया जा सकता है. फिर मैंने इसके रिहैबिलिटेशन के लिए डिप्लोमा कोर्स किया ताकि मैं इसको खुद देख सकूं और इसको सही ढंग से ट्रीट कर सकूं. इन बच्चों के लिए दवा नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक तरीके से हैंडल करने की जरूरत होती है."
                               उन्होंने उस कड़ाके की सर्दी में सिर्फ एक शाल ले रखी थी और बच्ची के लिए दो बैग और बेडिंग उनके साथ थी. हर जगह इसको अकेले ही लेकर जाती . पति सिर्फ पैसे देने वाले थे. बच्ची के लिए उनकी इतनी ही भूमिका थी. बच्ची के साथ उनका एक चौथाई किराया लगता था. 
                            बीच बीच में वह  बेटी को खाने के लिए भी देती  जा रही थीं.  उसके स्वेटर को ठीक कर रही थी. उससे लेटने के लिए भी कह रही थी. बच्ची अभी भी आँखें बंद किये ही बैठी थी और बात भी करती जा रही थी.
                            उनको मैहर जाना था, वहाँ उनके आध्यात्मिक गुरु का शिविर  लगने वाला था. ध्यान , योग और अन्य क्रियाओं में वे इसको शामिल करने ले जाती हैं. उनके गुरु के अनुसार ये लड़की एक दिन आत्मनिर्भर बन जायेगी. वह  खुद तो इस ज्ञान में इतने आगे बढ़ चुकी थीं की जो भी जिसने किया उन्होंने सबको माफ कर दिया लेकिन अभी बच्ची के लिए बस एक ही लक्ष्य बना कर रखा है कि ये आत्म निर्भर हो जाए .
"मैं जिस स्थति से गुजर कर आई हूँ, चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा था, कभी कभी अकेले में फूट फूट कर रो पड़ती थी कि ये मेरे किस कर्म कि सजा मुझे मिली लेकिन नहीं मुझे गुरु मिले तो राह मिली. वही मुझे दिशा देने वाले हैं. अब तो मैं इसको बहुत बहुत कुछ सुधार कर ले आई हूँ. अब ये लड़की अगर सब्जी दीजिए तो आपको काटकर देगी, पराठे भी बहुत बढ़िया बनाती है."
"मम्मी को भी खिलाती हूँ." वह आँखें बंद किये किये ही बोली.
"मैंने ये संकल्प लिया है की मैं अपने मरने के पहले इसे आत्म निर्भर बना दूँगी ताकि ये अपने  आप सब कर सके, और मुझे पूरा विश्वास है - अपने गुरु और खुद अपने पर की जो लड़ाई मैं लड़ रही हूँ, एक दिन जीत कर दिखाउंगी."
                     फिर हम सब सोने चले गए. सुबह होने को थी तो मैहर आने वाला था. वह ऊपर से उतर कर आयीं और सामन समेटना शुरू किया. बच्ची से कहा - 'चलो आगे स्टेशन पर उतरना है.'
बच्ची चिल्लाने लगी - नहीं मुझे मैहर जाना है, मुझे मैहर जाना है.' 
                  उस समय वे उसको ठीक तरीके से नहीं समझ पा रही थी. आखिर उन्होंने कहा - 'ठीक है, मैं जाती हूँ, तुम आगे उतर जाना.'
                 माँ की ये बात उसको समझ आ गयी और वह सीट से उठा कर खड़ी हो गयी. वे दो बैग , बेडिंग अकेले लेकर चल रही थी. इस तरह से वे मैहर पर हमसे विदा हुईं. 
                       सफर में मिले मुसाफिर हमसे कहीं न कहीं जुड़े होते हैं और आज भी उनके धैर्य, संकल्पशक्ति और लगन को नमन करती हूँ कि ईश्वर उन्हें सफलता प्रदान करे. ऐसी माँ जो इस जंग को अकेले ही लड़ने के निकल पड़ी है कौन उसे सलाम नहीं करेगा? 
माँ तुम्हें सलाम.
                     

15 टिप्‍पणियां:

श्यामल सुमन ने कहा…

यूँ तो मँ वन्दनीय होती ही हैं रेखा जी - मगर आपने जो कहानी बतायीं ऐसी मँ वरेण्य हैं। सार्थक आलेख।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

honesty project democracy ने कहा…

विचारणीय पोस्ट और उम्दा प्रस्तुती जो मन को छू गयी /

मनोज कुमार ने कहा…

संवेदनशील पोस्ट।

rashmi ravija ने कहा…

सचमुच माँ तुझे सलाम...ऐसे में माँ कैसे दृढ होकर खड़ी हो जाती हैं अपनी संतान के पीछे..गर्व से दिल भर आया. और अक्सर ऐसे सफ़र में वो अकेली ही होती हैं. पर अपने बच्चे को आत्मनिर्भर बनाने के हर उपाय आजमाने को तत्पर.
बहुत ही प्रेरणादायक संस्मरण

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

प्रेरणादायक संस्मरण...
सार्थक आलेख...
मां तुझे सलाम...

Mithilesh dubey ने कहा…

बहुत बढ़िया आपकी पोस्ट , कहानी तो सिधे दिल को छु गयी बहुत खूब ।

रज़िया "राज़" ने कहा…

बढिया पोस्ट। वैसे भी उसके तोले कोई आ ही नहिं सकता। "माँ" तुझे सलाम।

दिलीप ने कहा…

umda lekhan maan ko kya salaam bheja apni lekhni se...

मनोज कुमार ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे 09.05.10 की चर्चा मंच (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।
http://charchamanch.blogspot.com/

Ra ने कहा…

बहुत सुन्दर लिखा है आपने ...अच्छा लगा ...सार्थक भी है ...माँ पर कितना भी लिखो कम ही फिर भी आपने बहुत अच्छा लिखा .....

http://athaah.blogspot.com/

अर्चना तिवारी ने कहा…

शत शत वन्दे है मातु तुम्हें,
सब कुछ अर्पण है मातु तुम्हें,
जीवन सच्चे मानव का दिया
ये श्रेय समर्पित मातु तुम्हें.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

प्रेरणादायक और संवेदनशील पोस्ट....ये माँ ही है जो दृढ इच्छाशक्ति रखती है और प्रयास करती है की उसका हर बच्चा जीवन में आत्मनिर्भर बने

Ra ने कहा…

जी नमस्ते ..... एक अच्छी प्रस्तुति ....सुन्दर रचना ../माँ पर कुछ भी लिखो कम ही लगता है ..फिर भी आपने बहुत सुन्दर लिखा है ...बस इसे पढ़ कर इतना ही कहूँगा की दुनिया की हर माँ को शत-शत नमन ....'माँ ' शब्द अपने आप में महान है /// और इसी महान शब्द पर हमने भी कुछ लिखने की कोशिश की है ....उसे भी अपनी टिपण्णी में ही शामिल समझे ....आपके सुझाव सादर आमंत्रित है
http://athaah.blogspot.com/2010/05/blog-post_08.html

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

मनोज जी,

धन्यवाद जो आपने इस पोस्ट को चर्चा के योग्य समझा और उसको शामिल किया.

Unknown ने कहा…

मैं अपने मरने के पहले इसे आत्म निर्भर बना दूँगी ताकि ये अपने आप सब कर सके, और मुझे पूरा विश्वास है - अपने गुरु और खुद अपने पर की जो लड़ाई मैं लड़ रही हूँ, एक दिन जीत कर दिखाउंगी."
उस माँ के जज्बे को सलाम! ईश्वर उनकी मदद करे।