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मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

मौत से साक्षात्कार ! (2 )

मौत से साक्षात्कार ! (2 )


                             जिंदगी देने वाले नेइंसान को कितनी साँसे दी हैं , यह तो वही जानता है।  कभी एक झटके में वह जीवन छीन लेता है और कभी बड़े बड़े हादसों से बचा कर फिर जीने के लिए छोड़ देता है।  मेरी जिंदगी का एक और हादसा जिसने मौत के मुँह से वापस लेकर खड़ा कर दिया था  - 


                                   वाकया तब का है जब हम अपना घर बनवा कर आ गए थे क्योंकि ससुर जी ने प्लाट पहले ही लेकर छोड़ दिए थे क्योंकि यहाँ पर ज्यादा आबादी नहीं थी और न ही आने जाने के साधन थे। जब लोगों ने घर बनवाने शुरू किये तो हुआ कि कुछ बनवा कर चला जाय।  उस समय मेरी साँस इस बात में लटकी हुई थी  कि यहाँ से मेरे आईआईटी जाने के लिए कोई भी रास्ता नहीं था कोई भी साधन ऐसा नहीं था कि हम जा सकें।  पतिदेव का टूरिंग जॉब था और मुझे तो महीने में २२ दिन जाना ही था। मैंने हिम्मत की और घर से करीब तीन किलोमीटर पैदल  चलकर तब का डीपीआर  जो कि जीटी रोड से लगा हुआ था।  उसकी रेलवे क्रासिंग तक जाती तो मुझे करीब एक किमी जाकर वापस आना पड़ता और फिर टेम्पो में बैठ कर उल्टा  चलकर आना होता, अतः एक मानव रहित क्रासिंग थी, जिससे सामान्यतः सब लोग निकल लेते थे और मैंने भी वही रास्ता चुना। 

                                  रोज आते जाते उतना पैदल चलने की आदत बन चुकी थी।  पता नहीं उस समय की बात अब याद नहीं कि घर से किसी तनाव में निकली थी और वही सोचते सोचते क्रासिंग तक पहुँच गयी।  कहीं नहीं देख रही थी और कुछ सुन भी नहीं रही थी।  ट्रैन आ रही थी तो ट्रैक के उस पार लोग खड़े थे और इस पार भी। मैं अपनी ही घुन में बढती चली जा रही थी।  ट्रैक उस तरफ खड़े लोगों ने चिल्लाना चूरू किया - रुक जाओ ट्रैन आ रही है। " 

                                न मुझे कुछ सुनाई दे रहा था और न दिखाई,  मैं बढती ही चली जा रही थी कि पीछे रुके हुए लोगों में से एक लड़के ने करीब छलांग लगते हुए मुझे पीछे खींचा तब मुझे होश आया कि सामने से ट्रेन गुजर रही है।  उसके बाद सारा तनाव और बदहवासी चली गयी और मैं काँप रही थी। किसी ने रुक कर अपनी बोलल से पानी पिलाया और मैं अवाक् थी कि मौत कैसे सामने से गुजर गयी? 

जो लोग इकट्ठे थे सब चिल्लाने लगे - 'मरना था क्या ?

'आत्महत्या करने जा रही थी। ' 

                           मेरे पास कोई उत्तर नहीं  था।

                               जब कि  कुछ दिन पहले ही ऐसा ही हादसा हुआ था मेरी भतीजी की क्लासमेट जो रोज उसी के साथ जाती थी लेकिन उसे दिन वह कुछ पहले मिकल गयी।  मैं रस्ते में ही थी कि लोगों को कहते सुना कि स्कूल की यूनिफार्म में थी स्कूल जा रही थी।  लेकिन ट्रेन से कटी नहीं बल्कि सिर्फ तेन के इतने करीब पहुँच गयी थी कि ट्रेन के लगे झटके से ही वह गिट्टियों में गिर कर नहीं रही थी।

    

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

मौत से साक्षात्कार !

                                              मौत से साक्षात्कार !

 

                       अगर जन्म एक जीवन का आरंभ है तो मौत उसकी इति।  इस बात को हर इंसान जानता है और फिर  कब इंसान किस मनोदशा में कुछ लिखने लगता है, ऐसा ही मेरा साथ भी हुआ। आज एक पुरानी डायरी मिली और मैं भी क्षण विशेष में यदि कुछ लिख नहीं पाती हूँ तो विषय को कहीं लिख कर छोड़ देती हूँ और अगर समय निकल गया और वह पेज कहीं दब गया तो फिर वह चला जाता है ठन्डे बस्ते में। 

                       आज एक डायरी हाथ आ गयी और ये डायरियां जरूरी नहीं कि पूरी भर जाएँ तभी बदली जाय। कोई नयी डायरी हाथ में आ गयी तो फिर उसी में शुरू हो गये। पुरानी फिर दब ही जाती है। एक पेज में मिला कि मौत से साक्षात्कार और उसके बाद वह घटनाएं जिन्हें मैंने अपनी जिंदगी में सामना किया था। फिर सोचा कि पता नहीं फिर भूल जाऊं और ये हादसे फिर हमेशा के लिए गुम  हो जाएंगे। 


                                                                             1 - 

                                उस रात श्रमशक्ति से मुझे बेटी के पास दिल्ली जाना था और हमेशा की तरह ये स्कूटर से मुझे स्टेशन छोड़ने जा रहे थे। हम घर से बिलकुल सही स्कूटर के साथ निकले। जीटी रोड पर पहुँचे ही थे कि बीच सड़क पर अचानक स्कूटर पंचर हो गया। स्कूटर लहराता हुए एकदम सड़क से नीचे उतर कर एक मंदिर के आगे रुक गया। स्कूटर जैसे ही सड़क से उतरा कि पीछे से एक ट्रक गुजरा और ये सब इतने कम समय के अंतराल में हुआ कि  शायद एक सेकण्ड का भी समय रुक गया होता तो हम दोनों में से कोई भी न होता।  सड़क के किनारे बनी दुकानों से लोग दौड़ पड़े और हम लोगों को देखा कि  कहीं चोट तो नहीं आयी और बोले कि ईश्वर ने आप दोनों को बाल बाल बचा लिया।  उन लोगों ने ही स्टेपनी लगा कर टायर बदल दिया। हम फिर स्टेशन कइ लिए रवाना हो गए।

                               हम इतना समाय लेकर चलते है कि चाहे स्टेशन पर इन्तजार भले करना पड़े लेकिन भाग कर ट्रेन न पकड़नी पड़े।  वहाँ से हम आगे चल दिए।  झकरकटी के पुल पर पहुँचे ही थे कि फिर स्कूटर का टायर पंचर हो गया और वह भी उस समय ट्रैफिक काम होने के कारण हम फिर बच गए।  आखिर मैंने सोच लिया कि अब मैं जा नहीं पाऊँगी लेकिन स्टेशन को बस स्टॉप पर खड़ा करके हम ऑटो से स्टेशन की ओर रवाना हुए। मैं तो दिल्ली  गयी लेकिन ये ऑटो से ही घर आये और सुबह जाकर स्कूटर बनवा कर घर ला पाए। 

                                ये हादसा आज भी अगर याद आ जाता है तो फिर सोचती हूँ कि मेरी बेटियों का क्या होता ? वे उसे समय पढ़ रहीं थी।  इसीलिए कहते हैं कि ऊपर वाला महान है। 

(क्रमश)

रविवार, 16 अप्रैल 2023

मैट्रो से -- (१)

                   

           जैसे जीवन में कथा और कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं, वैसे ही ऑफिस, ऑफिस के बस स्टॉप, मुंबई की लोकल और दिल्ली की मेट्रो में भी बिखरी पड़ी हैं।  बहुत कुछ मिल जाता है एक छोटी सी यात्रा में और लम्बी हुई तो एक यात्रा में कई।  जब मैं पिछले साल अपना लघुकथा संग्रह "यथार्थ के रंग" वरिष्ठ साहित्यकार राजेंद्र राव को भेंट करने गयी थी तो उन्होंने सुझाव दिया था कि मेट्रो में लघु कथाएं आपको बिखरी मिलेंगी और उन पर लिखिए।  उसी क्रम में शुरू किया है।  वैसे इसी तर्ज पर मैंने अपने कार्यकाल में आईआईटी के बस स्टॉप पर मिली कहानियों की भी एक श्रृंखला अपने ब्लॉग पर लिखी थी और अब दो कदम आगे बढ़ गया समय तो मैट्रो पर आ गयी।

 

            जैसे ही मैट्रो का दरवाजा खुला, एक आधुनिक युवती कैसे कहूँ क्योंकि हमारी नजर में वो तो महिला ही कही जाएगी। चारों तरफ उसने नजर डाली कि कहाँ बैठा जाय? जगह खाली देखकर वह आ कर बैठ गयी।  उसके बगल में बैठी उस लड़की ने उसे देखा और एकदम सवाल कर दिया - "क्या आप ऋतिका हैं ?"

          "या बट हाउ कैन यू आइडेंटिफाइ ?"

         "आर यू फ्रॉम ग़ाज़िआबाद।"

         "या या बट?"

         "शायद हम एक साथ पढ़े है, एक साथ कोचिंग भी की है और किसी ज़माने में साथ साथ एंट्रेंस भी देने गए हैं।" उस युवती ने अपना परिचय दे दिया। 

       "ओह, कहीं तुम पूर्णिमा तो नहीं हो?" 

       "ठीक पहचाना, लेकिन तुम ऐसे कैसे भूल गयीं? हम गहरे दोस्त थे। "

       "इतना लम्बा पीरियड गुजर गया, कहाँ याद रहता है? और किस किस को याद रखा जाय।"

        "बात तो एक दम प्रैक्टिकल कही है और आज का जमाना भी यही है, लोग माँ-बाप को भूल जाते हैं। " पूर्णिमा ने कुछ तल्खी से कहा। 

        "छोडो न, ये बताओ कि आजकल कहाँ हो? मेरे साथ तो सलेक्शन तुम्हारा हुआ नहीं था।" ऋतिका के स्वर में कुछ  दर्प झलक रहा था। 

        "हाँ मेरा अगले साल हुआ था और फिर आईआईटी, दिल्ली से ही डिग्री ली है।"

संस्थान  का नाम सुनकर वह कुछ झेंप से गयी क्योंकि वह अपने को कुछ अधिक ही सुपर समझ रहीं थी।  फिर बात चली तो आगे भी बढ़ेगी ही। 

       "कहाँ हो आजकल?"

       "मैं डी डी हूँ।" पूर्णिमा ने सहज भाव से उत्तर दिया। 

       "वेयर, ऐनी इंस्टिट्यूट ?"

       "या , जीजीवाय में। "

       "मैं तो यूएस में सेटल हो गयी हूँ , यहाँ कुछ रखा नहीं है सिवा करप्शन और पोल्युशन के। तुमने कभी बाहर निकलने का ट्राई नहीं किया?" 

       "ऐसा नहीं है, हर इंसान की अपनी अपनी प्रॉयोरिटी होती हैं और उसी के अनुसार वह अपने निर्णय  लेता है।"

       "ऐसा भी क्या ? करियर से बढ़ कर भी कुछ होता है। "

       "हाँ मेरे पेरेंट्स, उनके लिए मैं ही अकेली हूँ  तुम्हारे तो और भी भाई बहन है न। "

       "सब बाहर ही सेटल हैं, यहाँ पर मम्मा अकेली हैं , पापा कोरोना में चले गए। "

       "तब तो तुम्हें देखने को सालों से नहीं मिले होंगे?"

       "हाँ करीब तीन साल पहले मिले थे, फिर कोई नहीं मिल पाया। उनके काम उनके भाई ने किये।"

        "और मम्मा अकेली ?"

        "हाँ उनके सबलिंग्स हैं और उनके बच्चे सो वही लुक आफ्टर करते हैं । वो अपने में मगन और हमको इतना समय ही नहीं है।"

         "कहाँ जा रही हो?

         "थोड़ा क़्वालिटी टाइम निकाल कर हम लोग हर साल में एक बाँ  गेट टू गेदर करते हैं और एक वीक के लिए कही भी साथ समय बिताते हैं।  नो फॅमिली मेंबर, नो अदर रिलेटिव बस एन्जॉय करते हैं। जो जहाँ होता है वहाँ से जहाँ तय करते हैं इकट्ठे हो जाते हैं।  इस बार एक फ्रेंड के फॉर्म हाउस पर जा रहे हैं।"

        "ओह , कितने दिन बाद इकट्ठे हो रहे हो?" 

        "कोरोना के तीन साल बाद।  बहुत एक्साइटिड है सब लोग।" ऋतिका के स्वर में ख़ुशी झलक रही थी।

        "कब तक हो यहाँ ? टाइम मिले तो आओ।"

        "नो नो बिलकुल भी नहीं है, यहीं से सीधे निकल जाऊँगी।  कोरोना के पहले ही मिली थी।"

        "और इन लॉज़?" 

        "उनसे तो मेरी कुण्डली कभी मिली ही नहीं , तभी तो इंडिया से बाहर सेट हुए हैं।  कुणाल कभी कभी आकर मिल जाते हैं।"

        "वहाँ पर अपने पेरेंट्स को भी तो बुला सकते है , फुल फैमिली एन्जॉय कीजिए।"

        "नो नो, तब तो एन्जॉयमेंट पॉसिबल ही नहीं है।"

        "ऐसा क्यों?"

        "समझा करो, हमारे ट्रेंड्स उन लोगों को समझ नहीं आते हैं और वही अब हायर  सोसाइटी कल्चर है और यहीं अंतर है इंडिया और अब्रॉड में। वहाँ लोग लाइफ एन्जॉय करते हैं और यहाँ ढोते हैं।"

        "ये तुम्हारी गलतफहमी है, यहाँ भी हम लाइफ एन्जॉय करते हैं, बस नजरिये का फर्क है। इसको फुरसत में सोचना कभी।" जैसे ही मैट्रो रुकी पूर्णिमा उठ खड़ी हुई। बॉय करती हुई वह एक प्रश्न छोड़ कर चली गयी। 

 

"

 


 

शुक्रवार, 17 जून 2022

घड़ी की सुइयों पर दौड़ती जिंदगी ! (संस्मरण)

 घड़ी पर दौड़ती जिंदगी!


                  अभी तो जिंदगी बाबूजी को लेकर दौड़ी थी लेकिन धीरे धीरे कैंसर अंदर पैर पसारने लगा था और उनको उर्सला अस्पताल में एडमिट कराया गया , बताते चलें वह वहीं से फार्मासिस्ट के पद से रिटायर्ड थे। परिचित डॉक्टर, दायरा कुछ तो सुविधाजनक बन रहा था।

              हम दो ही दौड़ने वाले थे। जेठजी रक्षा मंत्रालय की फैक्ट्री में कार्यरत थे, इसलिए वे अपने कार्य के प्रति ईमानदार रहे। 

बाबूजी के पास पतिदेव रहते थे और मैं सुबह सात बजे घर से निकलती, आठ बजे तक अस्पताल पहुँचती और इन्हें छोड़ देती कि ये इस बीच इन्हें अपने मित्र के यहाँ जाकर नित्य क्रिया और नाश्ता करके दस बजे तक आना होता और मुझे ऑफिस की बस ठीक दस बजे पकड़ कर आइआइटी पहुँचना होता । दिन में जो समय मिलता काम करती और फिर छुट्टी से पहले ही चार बजे की बस पकड़ कर अस्पताल पहुँच जाती और इन्हें अपना काम करने का समय मिलता। 

          छः बजे हमें निर्देश था कि हम दोनों इनके मित्र डॉ. तिवारी के यहाँ चाय नाश्ता करेंगे और तब घर जायेंगे। मैं घर के लिए रवाना हो जाती और ये बाबूजी के पास। वही एक घंटे वाहन बदलते हुए घर आती। घर के काम, खाना, कपड़े और बर्तन आदि, इंतजार में होते और सब निबटाते हुए रात को दस बज जाता, फिर इसी तरह से घड़ी की सुइयों पर नया दिन शुरू होता। 

           कब दिन शुरू होता और कब खत्म पता ही नहीं चलता , मशीन की तरह जिंदगी चलती रही करीब दस दिनों तक और फिर बाबूजी बोले कि मैं अब बच्चों के साथ ही रहना चाहता हूँ । हम उनको लेकर घर आ गये।

गुरुवार, 16 जून 2022

वो दिन भी क्या थे! (संस्मरण)


वो दिन भी क्या थे!

                               जिंदगी  एक इम्तिहान है और किसी  की जिंदगी तो पूरी की पूरी इस इम्तिहान को देती ही रहती है और कुछ की नज़र में हम पास होते हैं और कुछ की नज़र में कभी पास होते ही नहीं है। जो दिखावा कर ही नहीं पाते हैं और समर्पित होकर भी फेल का तमगा लगाए घूमते रहते हैं। 

                               बात 1990 की है, हम इंदिरा नगर की कॉलोनी छोड़ कर इस नए बसे इलाके में अपने बनाये हुए घर में 11 सदस्यों के साथ आ गए थे।  जहाँ न सहायिका मिलनी थी और न ही कोई यातायात का साधन था कि हम आईआईटी के लिए उससे  जा सकें।  तब पतिदेव का टूरिंग जॉब था ।  करीब पांच किमी मीटर पैदल चल कर आना जाना पड़ता था और फिर संयुक्त परिवार के हिस्से में आये काम भी तो करने होते थे। हिम्मत बहुत थी , दो बुज़ुर्गों का साथ भी था। 

                परीक्षा की घड़ी तब शुरू हुई जब उसी साल दिसम्बर में  ससुर जी को मुँह का कैंसर पता चला। जब पतिदेव कानपुर में होते तो स्कूटर से ले जाते , लेकिन जब टूर पर होते तो मैं एक किमी पैदल जाकर स्टॉप से रिक्शा लेकर आती और फिर ससुर जी को रेडिएशन के लिए जे के कैंसर इंस्टिट्यूट ले जाती।  रेडिएशन करवा कर वापस रिक्शे से लेकर घर लाती और घर छोड़ कर अपना बैग उठा कर आईआईटी के लिए पैदल निकल जाती क्योंकि कैंसर इंस्टिट्यूट और हमारा ऑफिस विपरीत दिशा में थे। 

                              शाम को ऑफिस से लौट कर फिर अपने हिस्से के काम करती। बेटियाँ इतनी समझदार थी कि मैंने कभी उनका होमवर्क नहीं देखा और वे अपनी बड़ी दीदियों के साथ सब पूरा कर लेती।  मेरे घर में पाँच बेटियाँ थी।  तीन मेरे जेठ जी की  और दो मेरी , लेकिन उनके बीच गजब का सामंजस्य था। 

             रात में भी बार बार उनको देखना पड़ता, जब भी आवाज देते। आलम यह होता कि दिन में ऑफिस में सो जाती , मेरी पूरी टीम एक लैब में ही काम करती थी। इस बीच अगर हमारे प्रोजेक्ट डायरेक्टर आ जाते तो सबसे इशारे से मना कर देते कि डिस्टर्ब मत करें। बाद में बताते सब लोग। उनके प्रति मेरे मन में आज भी अथाह श्रद्धा है।

रविवार, 20 फ़रवरी 2022

संत ऐसे ऐसे !

 संत ऐसे ऐसे !

 

                             रविदास जयंती के दिन हमने उन महान संत  की महानता को याद कर रहे थे और वह ' वाला मन चंगा तो कठौती में गंगा' वाला प्रसंग आया था तो मुझे अपने गुरु का एक प्रसंग याद आ गया और वे कोई बड़े भगवाधारी या साधु संतों के वेश वाले इंसान न थे। वे मेरे फूफाजी थे और मेरा जन्म उनके  सामने हुआ था।मेरी बुआ भी मुझे बहुत प्यार करती हैं और फूफाजी भी करते थे। 

                             वे मेरे आध्यात्मिक गुरु हुए और उन्होंने मुझे सब कुछ सिखाया और बताया।  जो जीवन का सत्य है और अपने को उसमें लिप्त न होने देने का मार्ग। वे एक साधारण गृहस्थ और एक इंटर कॉलेज में प्रवक्ता थे। ज्ञान और आध्यात्मिक शक्तियों से  सम्पन्न थे। कोई भीड़ नहीं सिर्फ अपने घर वालों या फिर बहुत घनिष्ठ लोगों तक उनकी दुनियां थी। 

                              अंशुमाला जी के कहने पर बस एक छोटी से घटना उद्धृत कर रही हूँ।  उनको मेरे अलावा मेरे भाई साहब से भी बड़ा स्नेह थे।  भाईसाहब के एक मित्र जो कानपुर में ही रहते हैं , बहुत परेशान रहते थे , भाईसाहब उन्हें फूफाजी के पास ले गये । वह आँखें बंद करके लेटे थे , जैसे ही दोनों पहुँचे वे बोले - "दोस्त अब तक कहाँ थे? बहुत दिनों से इंतजार था तुम्हारा।"

                बाद में आँखें खोली । फिर उनका एक सहारा बन गये फूफाजी घंटों उनके पास बैठते। एक दिन बहुत परेशान आये । बैठे बात करते रहे , जब चलने लगे तो फूफाजी ने कहा - "आदित्य मेरी डायरी उठाओ, उसको खोलो और जो रखा है उठा लो, एक बार और खोलो और उसमें रखा भी  ले लो और डायरी बंद करके रख दो । इतना काफी है न।" 

"जी।"

            बताती चलूँ इस घटना का काल  1995 से पहले का था ।

              

गुरुवार, 20 जनवरी 2022

कुलदीपक !

                भारतीय समाज की यह त्रासदी आज भी बनी हुई है कि एक बेटा हो बुढ़ापे का सहारा, बाप की नाम उजागर करने वाला। अब भी कुछ ऐसे वाकये अचानक आ कर खड़े हो जाते हैं कि सिर पीटने का मन करता है।

              मेरी सहायिका सुबह आठ बजे आती है तो मैं गेट का ताला उससे पहले खोल देती हूँ। आज किसी ने गेट खटखटाया तो मैंने कहा - "खुला है।"

           फिर खटखटाया तो मैं गेट की तरफ गई, एक इंसान खड़ा था , कुछ पहचानी शक्ल लगी , इससे पहले कि पहचान पाती वह बोला - "आँटी पहले मैं यहीं आपके पड़ोस में रहता था, मेरे पिताजी नहीं रहे, कुछ पैसों से मदद कर दीजिए।"  

              मैं जवान और स्वस्थ लोगों को भीख नहीं देती , सो मैंने उसे आगे जाने को कहा। मुझे उसकी शक्ल याद आ गई । उसका परिवार मेरे घर से दो तीन घर छोड़कर रहता था और वे लोग मुझसे पहले से रहते थे। तीन बहनों के बाद ये बेटा था और दादी का बेहद दुलारा। 

            बाबाजी फ्लैक्स कंपनी में काम करते थे। रिटायरमेंट के बाद यही छोटा सा मकान बनवा कर बहू बेटे परिवार सहित रहने लगे। अपने रहते दो पोतियों की शादी कर दी। बेटा चल बसा तो बहू ने एक स्कूल में आया की नौकरी कर ली।

              पोता बड़ा होने के साथ साथ बिगड़ता जा रहा था । दादा की आँखें बंद होने के बाद दादी से पैसे लेकर पान मसाला, सिगरेट बहुत कम उम्र में सेवन करने लगा । पहले अच्छी तरह फिर मार पीट कर छीन ले जाता। 

               कुछ लालची लोगों की नजर उसके घर पर लगी थी । उसे उधार देने लगे। सामान और पैसा सब कुछ,  बदले में उसके घर से सामान मँगवा लेते। उसने सारा सामान बेच दिया । भूखों मरने की नौबत आ गई। दबंगों ने उधार देना शुरू किया और मकान पर कब्जा कर लिया।

              फिर कहाँ गये ? मुझे पता नहीं लेकिन कुछ खबर मिलती रहती। दादी भी गुजर गई।

              इसके बाप को गुजरे हुए करीब बीस साल हो चके हैं और आज अपने नशे के लिए पिता के नाम पर भीख माँग रहा था। नाम ही तो चला रहा है ।