सबको शुभकामनाएं देते देते मेरी छोटी बेटी का ये तोहफा अपनी माँ के लिए - बोली अरे लिखने वाली मम्मी के लिए कविता ही तो लिखनी पड़ेगी और भले ही ये पांचवे क्लास वाली हो. पर मुझे तो ऐसे ही लिखना आता है, मम्मी प्लीज हंसना नहीं.
सबसे प्यारी जिनकी सूरत,
ममता की है वो एक मूरत,
हमसे करें ढेर सा प्यार,
हम है उन आँखों का संसार
चाहे दिन हो या आधी रात,
दूर करें हर गम की बात,
भूल कर अपना सारा दर्द
गर्मी हों या रातें सर्द,
किसी काम को करें न मना,
ऐसी प्यारी न्यारी मेरी माँ.
हैप्पी मदर'स डे !
--सोनू
सोमवार, 10 मई 2010
शनिवार, 8 मई 2010
माँ तुझे सलाम!
शत शत वन्दे है मातु तुम्हें,
सब कुछ अर्पण है मातु तुम्हें,
जीवन सच्चे मानव का दिया
ये श्रेय समर्पित मातु तुम्हें.
अगर पश्चिमी संस्कृति से हमने कुछ ग्रहण किया है तो वह सब कुछ बुरा ही नहीं है, कुछ अच्छा भी है. ये "मदर्स डे" भी तो वही से सीखा है हमने. कम से कम साल में एक बार सारी दुनियाँ माँ क्या है? और उसने क्या किया है? इसको सब लोग याद करने लगे हैं. वैसे भी नारी का यह रूप सदा ही वन्दनीय है. जन्म से लेकर अपने पैरों पर चलने तक सिर्फ और सिर्फ एक माँ ही होती है जो अपने बच्चे को पालती है.
माँ यदि माँ और बाप दोनों की भूमिका निभाकर बच्चे को उस मुकाम तक लाये - जहाँ उसकी अपनी जगह बन सके और फिर ऐसे बच्चे को - जो दुनियाँ की नजर में लाइलाज हो तो उस माँ की हिम्मत और संकल्प को शत शत नमन.
वह माँ उषा कपूर से मेरी मुलाकात विगत १९ जनवरी को ट्रेन में हुई थी. मैं कानपुर से जबलपुर जाने के लिए ट्रेन में चढ़ी थी और वह लखनऊ से आ रही थी. वह मेरी सामने वाले सीट पर बैठी थी. उनके साथ उनकी १२-१३ वर्ष की मानसिक विकलांग बेटी भी थे. उनकी बेटी स्तुति आँखें बंद किये बैठी थी और बार बार आने बालों में अँगुलियों से कंघी कर रही थी. पहले मैं समझी की ये नेत्रहीन है लेकिन बाद में पता चला कि वह सिर्फ मानसिक विकलांग है. उसको अकेले संभालना आसन काम नहीं था.
मैंने बड़े संकोच के साथ उनसे पूछा की क्या आपकी बेटी को कोई प्रॉब्लम है?
"हाँ ये नॉर्मल नहीं है, बिना मेरे कहीं जा नहीं सकती , मैंने इसको आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प लिया है और अकेले ही इस रास्ते पर चल रही हूँ."
"इसके फादर?" मैंने बात अधूरी इसलिए छोड़ी थी की पता नहीं क्यों ये अकेली चल रही हों ?
"इसके फादर सी एम ओ है, अमुख जगह पर उनकी पोस्टिंग है. मैं इसको लेकर अकेली लखनऊ से आ रही हूँ."
मेरी उत्सुकता उस बेटी में अधिक थी, क्योंकि मेरी बेटी ऐसे बच्चों के इलाज के लिए पढ़ाई कर रही है और ऐसे केस उसके लिए चुनौती होते हैं.
"क्या ये जन्म से ही ये ऐसी है ?" मैंने उनसे जानना चाहा.
"हाँ, जब ये होने को थी तो डॉक्टर ने कहा था की बच्चे की पोजीशन सामान्य नहीं है, इसलिए आपरेशन करना पड़ेगा. लेकिन हमारे सास ससुर ने कहा कि नहीं बच्चा घर पर ही हो जाएगा. इसके पैदा होने में दाई ने सिर बड़ा होने के कारण प्रसव किसी तरीके से कराया जिससे उस समय इसके सिर की नसों पर पड़े दबाव के कारण इसमें ये असामान्यता आ गयी."
" ये बात आपको पता कब चली?" मैंने अपनी जिज्ञासा व्यक्त की तो वह भी कोई बांटने वाला मिला या कोई रास्ता सुझाये ये सोच कर मुझसे शेयर करने लगीं.
"पहले २ महीने तो तक तो पता ही नहीं चला, क्योंकि मुझे कोई अनुभव नहीं था और बड़ों ने कहा की बच्चे बचपन में ऐसे ही रहते हैं. कुछ बच्चे देर में चैतन्य होते हैं. इन्होने कोई रूचि नहीं दिखाई क्योंकि ये अपने माँ-बाप के बेटे थे. मैं भी नयी ही थी , इसके लिए तुरंत कुछ न कर सकी."
उनके स्वर की विवशता मैं अनुभव कर रही थी और फिर उनके कहे को सुनाने के लिए भी बेताब थी. हमारी सफर तो लम्बी थी लेकिन रात हो रही थी और सोने का समय भी हो रहा था.
"आप ने इसके बारे में जब सोचा तब ये कितनी बड़ी हो चुकी थी? " मैंने सब कुछ जाना चाहती थी.
"जब ये २ साल की हो गयी और अपने काम के लिए भी मेरे ऊपर ही निर्भर थी, फिर मैंने सोचा की अगर इस बच्ची को जन्म दिया है तो इसको पार लगाना मेरा काम है. मैं लखनऊ अपने मायके आ गयी. वहाँ पर मैंने विशेष स्वास्थ्य केंद्र में इसको दिखाया - उन्होंने भी यही बताया की इसकी कोई दवा नहीं होती बल्कि इसके रिहैबिलिटेशन के द्वारा ही ठीक किया जा सकता है. फिर मैंने इसके रिहैबिलिटेशन के लिए डिप्लोमा कोर्स किया ताकि मैं इसको खुद देख सकूं और इसको सही ढंग से ट्रीट कर सकूं. इन बच्चों के लिए दवा नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक तरीके से हैंडल करने की जरूरत होती है."
उन्होंने उस कड़ाके की सर्दी में सिर्फ एक शाल ले रखी थी और बच्ची के लिए दो बैग और बेडिंग उनके साथ थी. हर जगह इसको अकेले ही लेकर जाती . पति सिर्फ पैसे देने वाले थे. बच्ची के लिए उनकी इतनी ही भूमिका थी. बच्ची के साथ उनका एक चौथाई किराया लगता था.
बीच बीच में वह बेटी को खाने के लिए भी देती जा रही थीं. उसके स्वेटर को ठीक कर रही थी. उससे लेटने के लिए भी कह रही थी. बच्ची अभी भी आँखें बंद किये ही बैठी थी और बात भी करती जा रही थी.
उनको मैहर जाना था, वहाँ उनके आध्यात्मिक गुरु का शिविर लगने वाला था. ध्यान , योग और अन्य क्रियाओं में वे इसको शामिल करने ले जाती हैं. उनके गुरु के अनुसार ये लड़की एक दिन आत्मनिर्भर बन जायेगी. वह खुद तो इस ज्ञान में इतने आगे बढ़ चुकी थीं की जो भी जिसने किया उन्होंने सबको माफ कर दिया लेकिन अभी बच्ची के लिए बस एक ही लक्ष्य बना कर रखा है कि ये आत्म निर्भर हो जाए .
"मैं जिस स्थति से गुजर कर आई हूँ, चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा था, कभी कभी अकेले में फूट फूट कर रो पड़ती थी कि ये मेरे किस कर्म कि सजा मुझे मिली लेकिन नहीं मुझे गुरु मिले तो राह मिली. वही मुझे दिशा देने वाले हैं. अब तो मैं इसको बहुत बहुत कुछ सुधार कर ले आई हूँ. अब ये लड़की अगर सब्जी दीजिए तो आपको काटकर देगी, पराठे भी बहुत बढ़िया बनाती है."
"मम्मी को भी खिलाती हूँ." वह आँखें बंद किये किये ही बोली.
"मैंने ये संकल्प लिया है की मैं अपने मरने के पहले इसे आत्म निर्भर बना दूँगी ताकि ये अपने आप सब कर सके, और मुझे पूरा विश्वास है - अपने गुरु और खुद अपने पर की जो लड़ाई मैं लड़ रही हूँ, एक दिन जीत कर दिखाउंगी."
फिर हम सब सोने चले गए. सुबह होने को थी तो मैहर आने वाला था. वह ऊपर से उतर कर आयीं और सामन समेटना शुरू किया. बच्ची से कहा - 'चलो आगे स्टेशन पर उतरना है.'
बच्ची चिल्लाने लगी - नहीं मुझे मैहर जाना है, मुझे मैहर जाना है.'
उस समय वे उसको ठीक तरीके से नहीं समझ पा रही थी. आखिर उन्होंने कहा - 'ठीक है, मैं जाती हूँ, तुम आगे उतर जाना.'
माँ की ये बात उसको समझ आ गयी और वह सीट से उठा कर खड़ी हो गयी. वे दो बैग , बेडिंग अकेले लेकर चल रही थी. इस तरह से वे मैहर पर हमसे विदा हुईं.
सफर में मिले मुसाफिर हमसे कहीं न कहीं जुड़े होते हैं और आज भी उनके धैर्य, संकल्पशक्ति और लगन को नमन करती हूँ कि ईश्वर उन्हें सफलता प्रदान करे. ऐसी माँ जो इस जंग को अकेले ही लड़ने के निकल पड़ी है कौन उसे सलाम नहीं करेगा?
माँ तुम्हें सलाम.
सब कुछ अर्पण है मातु तुम्हें,
जीवन सच्चे मानव का दिया
ये श्रेय समर्पित मातु तुम्हें.
अगर पश्चिमी संस्कृति से हमने कुछ ग्रहण किया है तो वह सब कुछ बुरा ही नहीं है, कुछ अच्छा भी है. ये "मदर्स डे" भी तो वही से सीखा है हमने. कम से कम साल में एक बार सारी दुनियाँ माँ क्या है? और उसने क्या किया है? इसको सब लोग याद करने लगे हैं. वैसे भी नारी का यह रूप सदा ही वन्दनीय है. जन्म से लेकर अपने पैरों पर चलने तक सिर्फ और सिर्फ एक माँ ही होती है जो अपने बच्चे को पालती है.
माँ यदि माँ और बाप दोनों की भूमिका निभाकर बच्चे को उस मुकाम तक लाये - जहाँ उसकी अपनी जगह बन सके और फिर ऐसे बच्चे को - जो दुनियाँ की नजर में लाइलाज हो तो उस माँ की हिम्मत और संकल्प को शत शत नमन.
वह माँ उषा कपूर से मेरी मुलाकात विगत १९ जनवरी को ट्रेन में हुई थी. मैं कानपुर से जबलपुर जाने के लिए ट्रेन में चढ़ी थी और वह लखनऊ से आ रही थी. वह मेरी सामने वाले सीट पर बैठी थी. उनके साथ उनकी १२-१३ वर्ष की मानसिक विकलांग बेटी भी थे. उनकी बेटी स्तुति आँखें बंद किये बैठी थी और बार बार आने बालों में अँगुलियों से कंघी कर रही थी. पहले मैं समझी की ये नेत्रहीन है लेकिन बाद में पता चला कि वह सिर्फ मानसिक विकलांग है. उसको अकेले संभालना आसन काम नहीं था.
मैंने बड़े संकोच के साथ उनसे पूछा की क्या आपकी बेटी को कोई प्रॉब्लम है?
"हाँ ये नॉर्मल नहीं है, बिना मेरे कहीं जा नहीं सकती , मैंने इसको आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प लिया है और अकेले ही इस रास्ते पर चल रही हूँ."
"इसके फादर?" मैंने बात अधूरी इसलिए छोड़ी थी की पता नहीं क्यों ये अकेली चल रही हों ?
"इसके फादर सी एम ओ है, अमुख जगह पर उनकी पोस्टिंग है. मैं इसको लेकर अकेली लखनऊ से आ रही हूँ."
मेरी उत्सुकता उस बेटी में अधिक थी, क्योंकि मेरी बेटी ऐसे बच्चों के इलाज के लिए पढ़ाई कर रही है और ऐसे केस उसके लिए चुनौती होते हैं.
"क्या ये जन्म से ही ये ऐसी है ?" मैंने उनसे जानना चाहा.
"हाँ, जब ये होने को थी तो डॉक्टर ने कहा था की बच्चे की पोजीशन सामान्य नहीं है, इसलिए आपरेशन करना पड़ेगा. लेकिन हमारे सास ससुर ने कहा कि नहीं बच्चा घर पर ही हो जाएगा. इसके पैदा होने में दाई ने सिर बड़ा होने के कारण प्रसव किसी तरीके से कराया जिससे उस समय इसके सिर की नसों पर पड़े दबाव के कारण इसमें ये असामान्यता आ गयी."
" ये बात आपको पता कब चली?" मैंने अपनी जिज्ञासा व्यक्त की तो वह भी कोई बांटने वाला मिला या कोई रास्ता सुझाये ये सोच कर मुझसे शेयर करने लगीं.
"पहले २ महीने तो तक तो पता ही नहीं चला, क्योंकि मुझे कोई अनुभव नहीं था और बड़ों ने कहा की बच्चे बचपन में ऐसे ही रहते हैं. कुछ बच्चे देर में चैतन्य होते हैं. इन्होने कोई रूचि नहीं दिखाई क्योंकि ये अपने माँ-बाप के बेटे थे. मैं भी नयी ही थी , इसके लिए तुरंत कुछ न कर सकी."
उनके स्वर की विवशता मैं अनुभव कर रही थी और फिर उनके कहे को सुनाने के लिए भी बेताब थी. हमारी सफर तो लम्बी थी लेकिन रात हो रही थी और सोने का समय भी हो रहा था.
"आप ने इसके बारे में जब सोचा तब ये कितनी बड़ी हो चुकी थी? " मैंने सब कुछ जाना चाहती थी.
"जब ये २ साल की हो गयी और अपने काम के लिए भी मेरे ऊपर ही निर्भर थी, फिर मैंने सोचा की अगर इस बच्ची को जन्म दिया है तो इसको पार लगाना मेरा काम है. मैं लखनऊ अपने मायके आ गयी. वहाँ पर मैंने विशेष स्वास्थ्य केंद्र में इसको दिखाया - उन्होंने भी यही बताया की इसकी कोई दवा नहीं होती बल्कि इसके रिहैबिलिटेशन के द्वारा ही ठीक किया जा सकता है. फिर मैंने इसके रिहैबिलिटेशन के लिए डिप्लोमा कोर्स किया ताकि मैं इसको खुद देख सकूं और इसको सही ढंग से ट्रीट कर सकूं. इन बच्चों के लिए दवा नहीं बल्कि मनोवैज्ञानिक तरीके से हैंडल करने की जरूरत होती है."
उन्होंने उस कड़ाके की सर्दी में सिर्फ एक शाल ले रखी थी और बच्ची के लिए दो बैग और बेडिंग उनके साथ थी. हर जगह इसको अकेले ही लेकर जाती . पति सिर्फ पैसे देने वाले थे. बच्ची के लिए उनकी इतनी ही भूमिका थी. बच्ची के साथ उनका एक चौथाई किराया लगता था.
बीच बीच में वह बेटी को खाने के लिए भी देती जा रही थीं. उसके स्वेटर को ठीक कर रही थी. उससे लेटने के लिए भी कह रही थी. बच्ची अभी भी आँखें बंद किये ही बैठी थी और बात भी करती जा रही थी.
उनको मैहर जाना था, वहाँ उनके आध्यात्मिक गुरु का शिविर लगने वाला था. ध्यान , योग और अन्य क्रियाओं में वे इसको शामिल करने ले जाती हैं. उनके गुरु के अनुसार ये लड़की एक दिन आत्मनिर्भर बन जायेगी. वह खुद तो इस ज्ञान में इतने आगे बढ़ चुकी थीं की जो भी जिसने किया उन्होंने सबको माफ कर दिया लेकिन अभी बच्ची के लिए बस एक ही लक्ष्य बना कर रखा है कि ये आत्म निर्भर हो जाए .
"मैं जिस स्थति से गुजर कर आई हूँ, चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा था, कभी कभी अकेले में फूट फूट कर रो पड़ती थी कि ये मेरे किस कर्म कि सजा मुझे मिली लेकिन नहीं मुझे गुरु मिले तो राह मिली. वही मुझे दिशा देने वाले हैं. अब तो मैं इसको बहुत बहुत कुछ सुधार कर ले आई हूँ. अब ये लड़की अगर सब्जी दीजिए तो आपको काटकर देगी, पराठे भी बहुत बढ़िया बनाती है."
"मम्मी को भी खिलाती हूँ." वह आँखें बंद किये किये ही बोली.
"मैंने ये संकल्प लिया है की मैं अपने मरने के पहले इसे आत्म निर्भर बना दूँगी ताकि ये अपने आप सब कर सके, और मुझे पूरा विश्वास है - अपने गुरु और खुद अपने पर की जो लड़ाई मैं लड़ रही हूँ, एक दिन जीत कर दिखाउंगी."
फिर हम सब सोने चले गए. सुबह होने को थी तो मैहर आने वाला था. वह ऊपर से उतर कर आयीं और सामन समेटना शुरू किया. बच्ची से कहा - 'चलो आगे स्टेशन पर उतरना है.'
बच्ची चिल्लाने लगी - नहीं मुझे मैहर जाना है, मुझे मैहर जाना है.'
उस समय वे उसको ठीक तरीके से नहीं समझ पा रही थी. आखिर उन्होंने कहा - 'ठीक है, मैं जाती हूँ, तुम आगे उतर जाना.'
माँ की ये बात उसको समझ आ गयी और वह सीट से उठा कर खड़ी हो गयी. वे दो बैग , बेडिंग अकेले लेकर चल रही थी. इस तरह से वे मैहर पर हमसे विदा हुईं.
सफर में मिले मुसाफिर हमसे कहीं न कहीं जुड़े होते हैं और आज भी उनके धैर्य, संकल्पशक्ति और लगन को नमन करती हूँ कि ईश्वर उन्हें सफलता प्रदान करे. ऐसी माँ जो इस जंग को अकेले ही लड़ने के निकल पड़ी है कौन उसे सलाम नहीं करेगा?
माँ तुम्हें सलाम.
लेबल:
माँ,
विकलांग और रिहैबिलिटेशन,
संकल्पशक्ति
मंगलवार, 27 अप्रैल 2010
वो एक रिश्ता!
इस जीवन में कुछ रिश्ते ऐसे बन जाते हैं, जो न हम जन्म से लेकर आते हैं, न वे हम उम्र होते हैं और नहीं वे हमारे मित्र की श्रेणी में आते हैं. ऐसा ही एक रिश्ता इस आफिस में ही बना और वो आई थी यहाँ काम करने. उसके बारे में पहले से सुनती आ रही थी क्योंकि एक दुखद घटना उसके जीवन में घट चुकी थी. उस समय उसका पूरा परिवार अस्पताल में भर्ती था और सिर्फ माँ थी जो सबको देख रही थी. ऐसा अजीब समय था कि घर के ३ सदस्य कोमा की स्थिति में थे. घर और अस्पताल के बीच वह दौड़ती रहती थी. कभी पति, कभी बेटी और कभी बेटे के बैड पर जाती और फिर किसी एक के पास बैठ जाती थी.
फिर एक दिन वो भी उन्हीं में से एक बैड पर पड़ गयी और सब को उसी हालत में छोड़ कर खुद चली गयी, बड़ी बेटी कहीं बाहर पढ़ रही थी उसको बुलाया गया. मुखाग्नि देने के लिए न पति और न बेटा कोई भी मुहैय्या न था. फिर वह यूँ ही विदा कर दी गयी. हफ्तों तक किसी को नहीं मालूम कहाँ है? फिर बड़ी बेटी ने सब संभाला और कहा कि माँ घर में है. जब वे सब ठीक होकर घर आ गए तो पता चला कि वो सबकी सेवा करते करते सबके लिए जीवन मांग कर खुद चली गयी. सब बिखर गए , एकबारगी लगा कि अब क्या होगा? बहुत छोटी थी उस समय. माँ के बिना जीना सीख लिया था उसने भी. पर एकाएक माँ का जाना सबके लिए असह्य था.
पिता ने दोनों कि जिम्मेदारी संभाली.
अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वह मेरे यहाँ तक पहुँची, पहले ट्रेनिंग के लिए और फिर नौकरी के लिए. बहुत से लोग आते हैं और आकर चले जाते हैं, वह आई और गयी भी पर इस बीच उसने मुझसे माँ का हक ले लिया. कुछ निर्णय और बातें ऐसी भी होती हैं , जिन्हें बेटी सिर्फ अपनी माँ से बांटती है. वो मुझसे बांटी. हर लड़की की तरह से उसके जीवन में भी शादी जैसे मुद्दे के लिए जद्दोजहद शुरू हुई. वह भी गुडिया के तरह से कई लोगों के सामने ले जाई गयी और फिर इससे वह परेशान होने लगी. बिना माँ के बेटी पिता को अपने निर्णय न बता सकती थी और जो उसके सगे थे वे बहुत दूर थे.
फिर उसे मिला एक दोस्त जो उसके लिए चेहरे कि हंसी लेकर आया. उसने समझा और समझाया भी. मैं साक्षी थी उसके हर पल की. मैंने भी दिल से चाहा कि जो इसने अपने जीवन में खोया है वह उसको मिल जाया. एक माँ मिलनी चाहिए, जो इसको बहुत बहुत प्यार दे. बहुत लम्बी हाँ और न के बीच तनाव के पल जीते हुए उसको वो भी मिला जिसके लिए वह तृषित थी.
फिर एक दिन उसने मुझसे कहा - आप मेरे लिए एक कविता लिखिए. ये कविता उसी के लिए लिखी गयी थी और आज जब अचानक डायरी में मिली तो सोचा कि इसको उसके नाम ही डाल दूं.
हर जीवन
गौर से देखो
एक कविता है.
तुम खुद एक कविता ओ
बस उसको पढ़ने वाला हो.
आज तुम्हारी खिलखिलाती हंसी में,
अतीत के ढरकते आंसू
सहम कर लौट जाते हैं.
ईश्वर न करे
कभी सपने में भी
वे भयावह दिन आयें.
जब खुशियाँ सपनों में आतीं
और नींद टूटने के साथ
सपने में ही बिखर जाती थीं.
उन भयावह दिनों को झेलकर
आज कीमत खुशियों की जानी है.
उन्हें समेट लो
भर लो अपने आँचल में
खुश और बहुत खुश रहो
फूल खिले रहें
तेरी जीवन बगिया में
और महकता रहे जीवन
खूबसूरत उपवन कि तरह.
खूबसूरत उपवन की महक
बस मुझ तक आती रहे
औ' याद तुम्हारी
दिलाती रहे.
फिर एक दिन वो भी उन्हीं में से एक बैड पर पड़ गयी और सब को उसी हालत में छोड़ कर खुद चली गयी, बड़ी बेटी कहीं बाहर पढ़ रही थी उसको बुलाया गया. मुखाग्नि देने के लिए न पति और न बेटा कोई भी मुहैय्या न था. फिर वह यूँ ही विदा कर दी गयी. हफ्तों तक किसी को नहीं मालूम कहाँ है? फिर बड़ी बेटी ने सब संभाला और कहा कि माँ घर में है. जब वे सब ठीक होकर घर आ गए तो पता चला कि वो सबकी सेवा करते करते सबके लिए जीवन मांग कर खुद चली गयी. सब बिखर गए , एकबारगी लगा कि अब क्या होगा? बहुत छोटी थी उस समय. माँ के बिना जीना सीख लिया था उसने भी. पर एकाएक माँ का जाना सबके लिए असह्य था.
पिता ने दोनों कि जिम्मेदारी संभाली.
अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वह मेरे यहाँ तक पहुँची, पहले ट्रेनिंग के लिए और फिर नौकरी के लिए. बहुत से लोग आते हैं और आकर चले जाते हैं, वह आई और गयी भी पर इस बीच उसने मुझसे माँ का हक ले लिया. कुछ निर्णय और बातें ऐसी भी होती हैं , जिन्हें बेटी सिर्फ अपनी माँ से बांटती है. वो मुझसे बांटी. हर लड़की की तरह से उसके जीवन में भी शादी जैसे मुद्दे के लिए जद्दोजहद शुरू हुई. वह भी गुडिया के तरह से कई लोगों के सामने ले जाई गयी और फिर इससे वह परेशान होने लगी. बिना माँ के बेटी पिता को अपने निर्णय न बता सकती थी और जो उसके सगे थे वे बहुत दूर थे.
फिर उसे मिला एक दोस्त जो उसके लिए चेहरे कि हंसी लेकर आया. उसने समझा और समझाया भी. मैं साक्षी थी उसके हर पल की. मैंने भी दिल से चाहा कि जो इसने अपने जीवन में खोया है वह उसको मिल जाया. एक माँ मिलनी चाहिए, जो इसको बहुत बहुत प्यार दे. बहुत लम्बी हाँ और न के बीच तनाव के पल जीते हुए उसको वो भी मिला जिसके लिए वह तृषित थी.
फिर एक दिन उसने मुझसे कहा - आप मेरे लिए एक कविता लिखिए. ये कविता उसी के लिए लिखी गयी थी और आज जब अचानक डायरी में मिली तो सोचा कि इसको उसके नाम ही डाल दूं.
हर जीवन
गौर से देखो
एक कविता है.
तुम खुद एक कविता ओ
बस उसको पढ़ने वाला हो.
आज तुम्हारी खिलखिलाती हंसी में,
अतीत के ढरकते आंसू
सहम कर लौट जाते हैं.
ईश्वर न करे
कभी सपने में भी
वे भयावह दिन आयें.
जब खुशियाँ सपनों में आतीं
और नींद टूटने के साथ
सपने में ही बिखर जाती थीं.
उन भयावह दिनों को झेलकर
आज कीमत खुशियों की जानी है.
उन्हें समेट लो
भर लो अपने आँचल में
खुश और बहुत खुश रहो
फूल खिले रहें
तेरी जीवन बगिया में
और महकता रहे जीवन
खूबसूरत उपवन कि तरह.
खूबसूरत उपवन की महक
बस मुझ तक आती रहे
औ' याद तुम्हारी
दिलाती रहे.
शनिवार, 10 अप्रैल 2010
शायद हम अब कभी न मिलें!
परसों ही टीवी पर छत्तीसगढ़ में हुए शहीदों पर आ रहे समाचार देख रही थी. एक शहीद ने उस समय अपने घर फ़ोन किया था और कहा कि हमें नक्सलियों ने चारों तरफ से घेर लिया है , चारों तरफ से गोलियां चल रही हैं. फिर फ़ोन कट गया और फिर जब उसकी पत्नी ने मिलाया तो अंत समय मिला उसने कहा - 'मेरे सीने में दो गोलियां लगी हैं, अब शायद मैं नहीं बचूंगा , मेरे बच्चों का ख्याल रखना. '
उस समय उसके इन शब्दों के बारे में सुनकर आँखों से आंसूं गिरने लगे. क्योंकि ऐसी ही एक अतीत के घटना में मैं चली गयी थी और उस समय लगा कि किसी ने सच ही कहा है.
'कौन रोता है किसी और की खातिर ए दोस्त सबको अपनी ही बात पर रोना आया.'
ये घटना १९९२-९३ की है, जब मुंबई में भयानक धमाके हुए थे.पूरी मुंबई दहल उठी थी. उस समय मैं आई आई टी में नौकरी के साथ साथ विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस में डिप्लोमा भी ले रही थी. पहली बार ही ये कोर्स वहाँ शुरू हुआ था और वहाँ पढ़ाने वाले मेरे ही विभाग के लोग थे. सबको मालूम था कि ये जो यहाँ पढ़ाया जा रहा है, उससे मैं अच्छी तरह से वाकिफ हूँ, लेकिन ये सब मैंने यही पर सीखा था.
उस समय मेरे सेमेस्टर एक्जाम चल रहे थे. मेरे पति अपनी कंपनी की तरफ से मुंबई ट्रेनिंग के लिए गए हुए थे. उसी समय वहाँ पर एकदम से ये स्थिति पैदा हो गयी. वहाँ से न तो कोई फ़ोन ही आसकता था और न तब मोबाइल ही आया था. बस टीवी पर समाचार देख सकती थी और ईश्वर से उनकी सलामत की कामना कर रही थी . मेरी दोनों बेटियां छोटी थी. मेरे सिर पर हाथ रखनेवाले मेरे ससुर का निधन भी हाल ही में हो गया था.
एक दिन मेरे पति ने सोचा की यहाँ से बच कर जाना तो बहुत ही मुश्किल लग रहा है , एक इनलैंड लैटर उनके पास था तो उन्होंने सोचा कि यहाँ से पता नहीं मेरी लाश भी वहाँ पहुँच पाएगी या नहीं, इस लिए मेरे लिए एक पत्र लिखा. जो इस प्रकार था.
प्रिय रेखा,
मैं यहाँ बम्बई में एक होटल में हूँ, यहाँ से बाहर नहीं जा सकते हैं, चारों तरफ धुंआ ही धुंआ दिखाई दे रहा है. अगर कंपनी के लिए बाहर जाता हूँ तो सिर झुका कर सड़क पर चलना होता है. वहाँ भी लगता है की कहीं से कोई गोली आकर न लग जाए.
मैं नहीं जानता की यहाँ से वापस कानपुर पहुँच पाऊंगा या नहीं , फिर भी पता नहीं कोई खबर मिले या न मिले इसलिए ये पत्र लिखा रहा हूँ. कि अगर कुछ अनहोनी हो जाए तो तुम बच्चों को बहुत प्यार के साथ पालना....
अगर बच कर आ गया तो मिलूंगा. ये पत्र एक लैटर बॉक्स में डाल देता हूँ.
सबको यथायोग्य कहना.
--आदित्य
ये पत्र मुझे मिल चुका था क्योंकि मैं अपने पत्र आई आई टी के पते पर ही मंगवाती थी. उस पत्र को पाकर मेरी जो हालत थी मैं नहीं बयां कर सकती. मैं पेपर लेकर बैठी थी और चुपचाप न पेन खोला न कॉपी. मेरे शिक्षक आर्य जी, जो आई आई टी में हमारे अच्छे मिलने वालों में थे , मुझे देख कर बोले - अरे कुछ कर क्यों नहीं रही हो? मेरी पास वाली लड़की से बोले - आद्या आज इनको क्या हुआ है?
वह पत्र मेरे हाथ में दबा हुआ था, मैंने चुपचाप उनको पकड़ा दिया और फूट फूट कर रोने लगी. जब उन्होंने पत्र पढ़ा तो फिर समझने लगे -'अरे ये क्या? अब तो वहाँ सब कुछ ठीक होने लग है. ये पहले लिखा होगा आ ही रहे होंगे. परेशान मत हो. '
इस बात को मैं अपने घर में जाकर किसी को नहीं बता सकती थी. किसी तरह से पेपर दिया और वापस घर आ गयी. मुझे सब कुछ अंधकारमय लग रहा था. वैसे भी मेरे पति टूरिंग जॉब में थे तो अकेले सब करने की आदत तो थी लेकिन इस तरह से कुछ सामने आ सकता है ऐसा नहीं सोचा था.
उसी रात ११ बजे गेट खटका , मेरा उठाने का मन नहीं था. मैं लेटी रही , किसी ने दरवाजा खोला और जब इनकी आवाज सुनी तो मैं एकदम से उठाकर भागी . फिर इन को पकड़ कर जो मैं रोई थी, शायद जीवन में कभी नहीं रोई.
"इन्होने धीरे से पूछा की चिट्ठी मिल गयी क्या?"
घर वाले भी नहीं समझ पाए कि मैं क्यों रोई?
ईश्वर को लाख लाख धन्यवाद कि उसने मुझे उस विषम स्थिति से जल्दी ही उबार लिया.
पर उस शहीद की आत्मा को ईश्वर शांति प्रदान करे और परिवार वालों को साहस दे की वे उसके सपनों को पूरा कर सकें.
उस समय उसके इन शब्दों के बारे में सुनकर आँखों से आंसूं गिरने लगे. क्योंकि ऐसी ही एक अतीत के घटना में मैं चली गयी थी और उस समय लगा कि किसी ने सच ही कहा है.
'कौन रोता है किसी और की खातिर ए दोस्त सबको अपनी ही बात पर रोना आया.'
ये घटना १९९२-९३ की है, जब मुंबई में भयानक धमाके हुए थे.पूरी मुंबई दहल उठी थी. उस समय मैं आई आई टी में नौकरी के साथ साथ विश्वविद्यालय से कंप्यूटर साइंस में डिप्लोमा भी ले रही थी. पहली बार ही ये कोर्स वहाँ शुरू हुआ था और वहाँ पढ़ाने वाले मेरे ही विभाग के लोग थे. सबको मालूम था कि ये जो यहाँ पढ़ाया जा रहा है, उससे मैं अच्छी तरह से वाकिफ हूँ, लेकिन ये सब मैंने यही पर सीखा था.
उस समय मेरे सेमेस्टर एक्जाम चल रहे थे. मेरे पति अपनी कंपनी की तरफ से मुंबई ट्रेनिंग के लिए गए हुए थे. उसी समय वहाँ पर एकदम से ये स्थिति पैदा हो गयी. वहाँ से न तो कोई फ़ोन ही आसकता था और न तब मोबाइल ही आया था. बस टीवी पर समाचार देख सकती थी और ईश्वर से उनकी सलामत की कामना कर रही थी . मेरी दोनों बेटियां छोटी थी. मेरे सिर पर हाथ रखनेवाले मेरे ससुर का निधन भी हाल ही में हो गया था.
एक दिन मेरे पति ने सोचा की यहाँ से बच कर जाना तो बहुत ही मुश्किल लग रहा है , एक इनलैंड लैटर उनके पास था तो उन्होंने सोचा कि यहाँ से पता नहीं मेरी लाश भी वहाँ पहुँच पाएगी या नहीं, इस लिए मेरे लिए एक पत्र लिखा. जो इस प्रकार था.
प्रिय रेखा,
मैं यहाँ बम्बई में एक होटल में हूँ, यहाँ से बाहर नहीं जा सकते हैं, चारों तरफ धुंआ ही धुंआ दिखाई दे रहा है. अगर कंपनी के लिए बाहर जाता हूँ तो सिर झुका कर सड़क पर चलना होता है. वहाँ भी लगता है की कहीं से कोई गोली आकर न लग जाए.
मैं नहीं जानता की यहाँ से वापस कानपुर पहुँच पाऊंगा या नहीं , फिर भी पता नहीं कोई खबर मिले या न मिले इसलिए ये पत्र लिखा रहा हूँ. कि अगर कुछ अनहोनी हो जाए तो तुम बच्चों को बहुत प्यार के साथ पालना....
अगर बच कर आ गया तो मिलूंगा. ये पत्र एक लैटर बॉक्स में डाल देता हूँ.
सबको यथायोग्य कहना.
--आदित्य
ये पत्र मुझे मिल चुका था क्योंकि मैं अपने पत्र आई आई टी के पते पर ही मंगवाती थी. उस पत्र को पाकर मेरी जो हालत थी मैं नहीं बयां कर सकती. मैं पेपर लेकर बैठी थी और चुपचाप न पेन खोला न कॉपी. मेरे शिक्षक आर्य जी, जो आई आई टी में हमारे अच्छे मिलने वालों में थे , मुझे देख कर बोले - अरे कुछ कर क्यों नहीं रही हो? मेरी पास वाली लड़की से बोले - आद्या आज इनको क्या हुआ है?
वह पत्र मेरे हाथ में दबा हुआ था, मैंने चुपचाप उनको पकड़ा दिया और फूट फूट कर रोने लगी. जब उन्होंने पत्र पढ़ा तो फिर समझने लगे -'अरे ये क्या? अब तो वहाँ सब कुछ ठीक होने लग है. ये पहले लिखा होगा आ ही रहे होंगे. परेशान मत हो. '
इस बात को मैं अपने घर में जाकर किसी को नहीं बता सकती थी. किसी तरह से पेपर दिया और वापस घर आ गयी. मुझे सब कुछ अंधकारमय लग रहा था. वैसे भी मेरे पति टूरिंग जॉब में थे तो अकेले सब करने की आदत तो थी लेकिन इस तरह से कुछ सामने आ सकता है ऐसा नहीं सोचा था.
उसी रात ११ बजे गेट खटका , मेरा उठाने का मन नहीं था. मैं लेटी रही , किसी ने दरवाजा खोला और जब इनकी आवाज सुनी तो मैं एकदम से उठाकर भागी . फिर इन को पकड़ कर जो मैं रोई थी, शायद जीवन में कभी नहीं रोई.
"इन्होने धीरे से पूछा की चिट्ठी मिल गयी क्या?"
घर वाले भी नहीं समझ पाए कि मैं क्यों रोई?
ईश्वर को लाख लाख धन्यवाद कि उसने मुझे उस विषम स्थिति से जल्दी ही उबार लिया.
पर उस शहीद की आत्मा को ईश्वर शांति प्रदान करे और परिवार वालों को साहस दे की वे उसके सपनों को पूरा कर सकें.
सोमवार, 5 अप्रैल 2010
रेल तंत्र में बनाया - अप्रैल फूल !
ये अप्रैल फूल - बच्चे बना लें, मित्र बना लें, या सहकर्मी सब सह्य है क्योंकि थोड़ी देर का होता है और अपनी मूर्खता पर हंसी भी आ जाती है. थोड़ी देर के लिए सभी खुश हो लेते हैं. कभी उनकी बारी होती है और कभी हमारी होती है.
अब की बार सोचा कुछ और हुआ कुछ और - २ अप्रैल को गुड फ्राई डे, फिर शनि और रवि एक छुट्टी की लम्बी श्रृंखला मिल गयी तो सोचा कि ३ दिन बच्चों के साथ गुजार कर आते हैं. १ अप्रैल को ९ बजे घर छोड़ दिया १०:५० कि ट्रेन थी. स्टेशन पहुँचने पर पता चला कि ट्रेन ३ घंटे लेट है. बच्चों के साथ समय गुजारने की जो ललक और ख़ुशी थी. बहुत दिन हो चले थे. मैंने पतिदेव से कहा - "आप घर जाइए, मैं चली जाउंगी. ३ घंटे की तो बात है."
उनको अगले दिन आना था. मैं वेटिंग रूम में बैठ गयी और घोषणा के इन्तजार में थी. काफी देर हो गयी तो आँखें झुकने लगीं, बीच बीच में झपकी भी लेती जा रही थी. एक एक करके सारे यात्री अपनी अपनी ट्रेन के आने पर चले गए और मैं तो जैसे बिन बुलाये मेहमान कि तरह जमी बैठी थी. वह ट्रेन "गया" बिहार से आने वाली थी और "महाबोधि" था नाम. वह लम्बा इन्तजार - पल पल काटना तो मुश्किल हो रहा था. १ बजे पतिदेव का फ़ोन आया कि क्या पोजीशन है? बच्चे अलग बार बार फ़ोन कर रहे थे.
सुबह ५ बजे से फिर फ़ोन आने शुरू होगये.
"कहाँ पहुंची"
मुझे तो आग लगी थी इन रेलवे वालों पर. ३ घंटे लेट ट्रेन अभी तक नहीं आई थी.
"कानपुर सेंट्रल " मैंने बड़े रुआंसे स्वर में कहा.
"स्टेशन आकर वापस ले जाऊं?" पतिदेव ने पूछा.
"नहीं, अब घर छोड़ा है तो बच्चों के पास ही जाऊँगी." पहली अप्रैल का असर अभी रेलवे तंत्र में खत्म नहीं हुआ था.
"मम्मा कहाँ हो?" बच्चे बीच बीच में पूछ रहे थे.
आखिर १० घंटे के इन्तजार के बाद "महाबोधि " का बोध हुआ और मैं उसमें जाकर बैठ गयी इस उम्मीद के साथ कि बहुत लेगी तो ५ बजे तक तो पहुंचा ही देगी.
ट्रेन पर अभी "फर्स्ट अप्रैल" का भूत खत्म नहीं हुआ था - मंथर गति से मस्त हथिनी की तरह से चल रही थी. जहाँ मन होता वही बिगड़ैल घोड़ी की तरह से अड़ जाती. सारी रात बैठी रही, ये सोच कर चली थी कि नाश्ता घर पहुँच कर कर लेंगे. अब ट्रेन में भी कुछ अच्छा न मिला. चावल खाकर पेट की क्षुधा शांत की और फिर दिल्ली पहुँचने का इन्तजार करने लगी.
"कहाँ पहुंची?" का स्वर बीच बीच में सुनाई ही दे जाता था. खीज और झुंझलाहट के मारे बुरा हाल.
ट्रेन कहीं एक घंटे रुक जाती और कहीं तो इससे भी अधिक. ये भी पता नहीं कि ये रुक क्यों जाती है? बगल से दूसरी ट्रेन मुंह चिढाती हुई धड़धडाती हुई निकल जाती . हम बिचारे बैठे बैठे देख रहे थे. कानपुर से दिल्ली का ६ घंटे का सफर आखिर ११ घंटे में पूरा हुआ और हम दिल्ली स्टेशन पर उतर ही गए.
इसमें सबसे बड़ा अप्रैल फूल बनने वाली बात ये थी कि ये ट्रेन जब "गया" से रवाना हो रही थी तब कानपुर में ३ घंटे लेट की घोषणा की जा रही थी और रेल तंत्र इस ट्रेन से जाने वाले लोगों को पूरी तरह से अप्रैल फूल बनने कि तैयारी करके बैठा था. हम बनते रहे और सिर पीटते रहे. यानि कि ये हमारा रेल तंत्र जो कि हमारी ही संपत्ति है सही जानकरी भी नहीं दे सकता है. उससे भी बड़ी मजाक वाली बात ये है कि ४ घंटे बाद जो टिकट वापस करना चाहे तो अब तो तारीख बदल चुकी है ये वापस भी नहीं होगा. चाहे ट्रेन आई हो या नहीं आई हो. अब तो आपको इसी से जाना पड़ेगा. अपनी गलती का ठीकरा भी हमारे ही सिर फोड़ेंगे .
मंगलवार, 30 मार्च 2010
अविश्वनीय सच!
इस तरह कि कहानियां फिल्मों और टीवी सीरियल में ही देखने को मिलती हैं , किन्तु इस जीवन के यथार्थ में भी ऐसे कुछ घटनाक्रम बने होते हैं कि यकीन कोई करे या न करे सच हमेशा सच ही होता है.
पिछली बार जब में अपने घर गयी तो एक गाड़ी दरवाजे पर आकर रुकी. आने वाले ने दरवाजा नहीं खटखटाया बल्कि जिसको वो साथ लेकर आया था उसने दरवाजा खुलवाया. वह हमारा परिचित था पहले पुराने मकान के पास ही एक छोटा सा होटल था उसी में काम करने वाला एक कारिन्दा था.
उससे पूछा कि क्या बात है? तो उसने गाड़ी के निकल कर बाहर खड़े हुए व्यक्ति की ओर इशारा किया - "ये आपका घर पूँछ रहे थे, तो मालिक ने आपके यहाँ भेजा था. "
मैंने उस व्यक्ति को नहीं पहचाना, मैंने पूछा कि किससे मिलना है?
"दीदी" उसने मुझसे यही कहा और मैं नहीं समझी कि ये है कौन? और क्या चाहता है?
"अन्दर आ जाऊं?"
"हाँ, हाँ, आओ", मुझे अपनी मूर्खता पर हंसी भी आई कि कोई दीदी कह रहा है जरूर पहचानता होगा.
अन्दर आया तो उसने माँ के पैर छुए, भाभी को देख कर पूछा - अगर मैं गलत नहीं हूँ तो ये भाभी ही होंगी.' और उसने झुक कर उनके भी पैर छुए.
मैं तो उसी पुराने वाले घर में गया था, फिर होटल वाले ने कहा कि आप लोग बहुत साल पहले यहाँ से चले गए हैं और अब चाचा भी नहीं रहे हैं. फिर उसी ने अपना आदमी भेजा कि घर तक पहुंचा दो.
"आप अपना परिचय देंगे." मैंने अब भी नहीं पहचाना था.
"मैं कौन सा नाम बताऊँ - विदित रैना या मंगू." उसकी आवाज भर्रा गयी थी.
"मंगू" - मुझे किसी ने जमीन पर फ़ेंक दिया था.
"हाँ, मेरी पोस्टिंग झाँसी में हुई तो मैंने सोचा कि चाचा से मिलूंगा किन्तु ........." फिर वह चुप हो गया.
मंगू नाम ने मुझे करीब ३५ साल पहले धकेल दिया था. जिस होटल का उसने जिक्र किया था , वह उसी में बर्तन धोने का काम करता था और उसका मालिक जरा सी गलती पर बहुत पीटता था. एक दिन इतना पीटा कि उसकी पीठ पर छड़ी के निशान आ गए और पास ही में Advertising Company चलने वाले सज्जन ने उसको उठा कर अपनी दुकान में बैठा लिया तो होटल वाला लड़ गया कि आप हमारे लड़कों को बिगाड़ रहे हैं , ये आपने अच्छा नहीं किया. जब ये लावारिस घूम रहा था तो मैंने ही इसको रखा था.
उन्होंने कहा कि ' अब ये मेरे पास रहेगा और मैं इसको काम सिखाऊंगा और खाना भी खिलाऊंगा.'
उस मंगू को उन्होंने अपनी ही दुकान में जगह दे दी.
उनकी जान पहचान सरकारी आफिस में भी थी , उनके काम से जो जुड़े थे , वे सब उनकी बहुत इज्जत करते थे क्योंकि वे एक सच्चे इंसान थे. बहुत अमीर नहीं थे लेकिन नेक दिल और नेक कार्य करने वाले थे. अपने ५ बच्चों के साथ एक लड़का और पाल लिया. घर वालों ने विरोध भी किया था किन्तु धुन के पक्के थे. वही सोता और बस घर में खाना खाने आता था.
एक बार वहाँ पर एक कश्मीरी प्लानिंग ऑफिसर आये, उनके बच्चे नहीं थे और उनसे घनिष्ठ सम्बन्ध होने पर बोले एक बच्चा गोद देना चाहता हूँ. बहुत संकोच के साथ उन्होंने मंगू के बारे में उन्हें बताया और ये शायद उसकी किस्मत थी कि वे तैयार हो गए. तब किसी को गोद लेना और रखना इतना मुश्किल न था. रैना जी ने उसको अपने घर रखा और उसका दाखिला भी स्कूल में करवा दिया. फिर उनका वहाँ से ट्रान्सफर भी हो गया और समय के साथ सब मंगू को भूल गए.
हाँ एक बार जरूर रैनाजी किसी काम से वहाँ आये तो उसको साथ लाये थे और वह मिलने आया. स्कूल की तरफ से किसी कार्यक्रम में भाग लेने आया था. तब अपने चाचा से मिलने आया था -' चाचा, पापा और मम्मी बहुत प्यार करते हैं, मैं बहुत अच्छे स्कूल में पढ़ रहा हूँ.'
उनको भी देखकर तसल्ली हुई कि जो एक काम किया था , वह सफल रहा.
फिर आज वो नहीं हैं, विदित रैना ने उनके उस काम को फिर से याद दिला दिया.
विदित ने अपने बारे में बताया - 'मम्मी अब नहीं हैं, पापा हैं, मेरी शादी भी हो गयी है, दो बच्चे हैं और मैं एक बैंक में नौकरी कर रहा हूँ. जब झाँसी आ गया तो अपने को रोक नहीं पाया. पहले मैं उस होटल पर ही गया था और फिर मैंने चाचा की दुकान देखी. उस होटल वाले से पूछा तो उसने बताया कि चाचा तो रहे नहीं हैं , चाची और भैया दूसरे मकान में चले गए हैं.
"अच्छा तुमको चाचा की याद रही." मैंने उससे उत्सुकता से पूछा क्योंकि एक लम्बा अंतराल बीत गया था.
"क्यों नहीं? ये जो भी आज हूँ, मेरी किस्मत कितनी है नहीं जानता लेकिन चाचा का हाथ मेरे ऊपर जरूर है. जगह की बहुत अधिक याद तो नहीं थी, पर होटल और दुकान अभी भी उसी तरह से याद है."
उस व्यक्ति से मिलकर मुझे बहुत अच्छा लगा और मेरा सिर भी गर्व से ऊँचा हो गया क्योंकि जिस व्यक्ति ने उसको गोद दिया था और होटल से निकाल कर अपने घर में रखा था वह मेरे पापा थे.
मंगलवार, 23 मार्च 2010
संस्कृति - संस्था - संस्कार !
संस्कृति - संस्था - संस्कार ये तीन आधार है - मानव जीवन को एक पृथक स्वरूप लेने वाले. ये सर्व विदित है की विश्व में भारतीय संस्कृति, सामाजिक संस्थाएं ( विवाह, परिवार आदि) और संस्कार (गर्भाधान से लेकर श्राद्ध तक) को बहुत ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है. वहाँ जाकर बस जाने वाले व्यक्ति भी कभी कभी अपने श्राद्ध जैसे संस्कार के लिए भारत आकर कभी वाराणसी , कभी हरिद्वार में पूर्ण करते हैं. कितने विदेशी युवा भारतीय विवाह पद्यति को अपना कर अपना वैवाहिक जीवन आरम्भ करते हैं. पर हम क्यों इनसे दूर होते जा रहे हैं? हम अपनी संस्थाओं के महत्व को खोते जा रहे हैं, उनके मूल्य को नहीं समझ पा रहे या फिर न समझने का नाटक कर आसन जीवन जीने की लालसा रखते हैं. अपनी जड़ों से अलग होकर किसी भी वृक्ष का कोई अस्तित्व शेष नहीं रहता है. वह एक दिन सूख कर सिर्फ ठूंठ बन जाता है.
परिवार संस्था की टूटती हुई एक कड़ी हाल ही में देखी - एक युवक की अस्वाभाविक मृत्यु पर - उसी जगह रहने वाले उसके भाई और माँ का अंतिम क्षण तक इन्तजार किया गया कि रक्त - सम्बन्ध इतने गहरे होते हैं कि कितना ही विवाद सही इस जीवन के अंतिम संस्कार में तो साथ होते हैं. श्मशान में बहुत देर तक सबकी आँखें यह देखती रही कि शायद अब माँ और भाई आएगा, अपने बेटे और भाई के अंतिम दर्शन के लिए.
किन्तु शायद दुर्भावनाएं अधिक बलवती थीं और उस बेटे और भाई को , जो उनका भार वहन कर रहा था अपनों का साथ मिलना नसीब नहीं था. सबकी आँखें मुड़कर देख रही थीं की अंतिम संस्कार कौन करेगा?
उसकी २८ वर्षीय पत्नी रोली ने बहुत देर रो लिया था और घर वालों की रास्ता भी देख ली थी, उसने अपनी दो वर्षीय पुत्री को पिता की गोद में देकर मुखाग्नि के लिए खुद को तैयार कर लिया था. अपने पति को मुखाग्नि देते समय उसकी मनःस्थिति तो शायद ही कोई समझ सकता हो लेकिन वहाँ पर इकट्ठे लोगों की आँखें बरसने लगीं.
बहुत छोटी सी घटना लग रही होगी किन्तु क्या हमारी संवेदनाएं इतनी मर चुकी है या फिर हमारे संस्कार बिलकुल ही समाप्त हो चुके हैं. ये हम कहाँ से ले रहे हैं? दोष यह दिया जाता है की बच्चों को TV बरवाद कर रहा है. पश्चिमी संस्कृति ने हमारे समाज , संस्कृति और संस्कारों पर कुठाराघात किया है - नहीं वे संस्कार जो हमें विरासत में मिलते हैं कभी भी ख़त्म नहीं होते- हाँ हमारी दी परवरिश ही गलत हो तो कुछ नहीं कहा जा सकता है.
माँ -बाप सदैव सही करते हों , ऐसा भी नहीं है. अपने ही दो बेटों के बीच में भेदभाव रखने वाले माता पिता की कमी नहीं है. वह भी अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ करने लगते हैं किन्तु ये भूल जाते हैं कि अगर हम अपने ही पौधों की जड़ में विष डालेंगे तो उसके फूल और फल सुखदायी कैसे हो सकते हैं? वे अपने स्वार्थ में लिप्त ये भी नहीं सोच पाते हैं कि उनकी जिन्दगी अब समाप्तप्राय हो चुकी है और ये हमारे बच्चे अपना जीवन आरम्भ कर रहे हैं.
मेरे बाद इस दुनियाँ में मेरी ही तरह से इन सबका परिवार भी अलग बस जाएगा लेकिन जीवन में सुख और दुःख सभी क्षणों में हर व्यक्ति ये कामना करता है कि कोई उसका अपना उसके साथ हो. अगर बड़ा हो तो सिर पर हाथ रख देने भर से एक विश्वास और सहारा अनुभव होता है और अगर छोटा भी होता है तो कंधे पर रखे हुए हाथ तब भी अपने होने के साक्षी होते हैं. वैसे बहुत अपने होते हैं, मित्र होते हैं, पड़ोसी होते हैं, सहकर्मी होते हैं किन्तु जो भाई या बहन होते हैं - उनके बीच पलने वाले प्यार या जीवन के बचपन के पलों का जो अहसास होता है वह जुड़ा होता है. उस साथ में ज्यादा विश्वास और अपनत्व होता है.
यहाँ पर सबसे महत्वपूर्ण भूमिका विवेक की होती है, ये विवेक मनुष्य के श्रेष्ठ प्राणी होने का प्रतीक है, उसके अतिरिक्त ये गुण किसी में नहीं होता, जीवन के कुछ निर्णय विवेक से लिए जाएँ तो बहुत सी घटनाएँ , दुर्घटनाएं और त्रासदियों को बचाया जा सकता है. अगर आप एक अच्छे माता पिता हैं तो स्वयं विवेक का प्रयोग करके अपने जीवन के निर्णय और अपने बच्चों में भी इस गुण की नींव डालें ताकि ये समाज और भारतीय संस्कृति किसी ऐसी रोली के प्रकरण को दुबारा न दुहराए.
परिवार संस्था की टूटती हुई एक कड़ी हाल ही में देखी - एक युवक की अस्वाभाविक मृत्यु पर - उसी जगह रहने वाले उसके भाई और माँ का अंतिम क्षण तक इन्तजार किया गया कि रक्त - सम्बन्ध इतने गहरे होते हैं कि कितना ही विवाद सही इस जीवन के अंतिम संस्कार में तो साथ होते हैं. श्मशान में बहुत देर तक सबकी आँखें यह देखती रही कि शायद अब माँ और भाई आएगा, अपने बेटे और भाई के अंतिम दर्शन के लिए.
किन्तु शायद दुर्भावनाएं अधिक बलवती थीं और उस बेटे और भाई को , जो उनका भार वहन कर रहा था अपनों का साथ मिलना नसीब नहीं था. सबकी आँखें मुड़कर देख रही थीं की अंतिम संस्कार कौन करेगा?
उसकी २८ वर्षीय पत्नी रोली ने बहुत देर रो लिया था और घर वालों की रास्ता भी देख ली थी, उसने अपनी दो वर्षीय पुत्री को पिता की गोद में देकर मुखाग्नि के लिए खुद को तैयार कर लिया था. अपने पति को मुखाग्नि देते समय उसकी मनःस्थिति तो शायद ही कोई समझ सकता हो लेकिन वहाँ पर इकट्ठे लोगों की आँखें बरसने लगीं.
बहुत छोटी सी घटना लग रही होगी किन्तु क्या हमारी संवेदनाएं इतनी मर चुकी है या फिर हमारे संस्कार बिलकुल ही समाप्त हो चुके हैं. ये हम कहाँ से ले रहे हैं? दोष यह दिया जाता है की बच्चों को TV बरवाद कर रहा है. पश्चिमी संस्कृति ने हमारे समाज , संस्कृति और संस्कारों पर कुठाराघात किया है - नहीं वे संस्कार जो हमें विरासत में मिलते हैं कभी भी ख़त्म नहीं होते- हाँ हमारी दी परवरिश ही गलत हो तो कुछ नहीं कहा जा सकता है.
माँ -बाप सदैव सही करते हों , ऐसा भी नहीं है. अपने ही दो बेटों के बीच में भेदभाव रखने वाले माता पिता की कमी नहीं है. वह भी अपने स्वार्थ के लिए सब कुछ करने लगते हैं किन्तु ये भूल जाते हैं कि अगर हम अपने ही पौधों की जड़ में विष डालेंगे तो उसके फूल और फल सुखदायी कैसे हो सकते हैं? वे अपने स्वार्थ में लिप्त ये भी नहीं सोच पाते हैं कि उनकी जिन्दगी अब समाप्तप्राय हो चुकी है और ये हमारे बच्चे अपना जीवन आरम्भ कर रहे हैं.
मेरे बाद इस दुनियाँ में मेरी ही तरह से इन सबका परिवार भी अलग बस जाएगा लेकिन जीवन में सुख और दुःख सभी क्षणों में हर व्यक्ति ये कामना करता है कि कोई उसका अपना उसके साथ हो. अगर बड़ा हो तो सिर पर हाथ रख देने भर से एक विश्वास और सहारा अनुभव होता है और अगर छोटा भी होता है तो कंधे पर रखे हुए हाथ तब भी अपने होने के साक्षी होते हैं. वैसे बहुत अपने होते हैं, मित्र होते हैं, पड़ोसी होते हैं, सहकर्मी होते हैं किन्तु जो भाई या बहन होते हैं - उनके बीच पलने वाले प्यार या जीवन के बचपन के पलों का जो अहसास होता है वह जुड़ा होता है. उस साथ में ज्यादा विश्वास और अपनत्व होता है.
यहाँ पर सबसे महत्वपूर्ण भूमिका विवेक की होती है, ये विवेक मनुष्य के श्रेष्ठ प्राणी होने का प्रतीक है, उसके अतिरिक्त ये गुण किसी में नहीं होता, जीवन के कुछ निर्णय विवेक से लिए जाएँ तो बहुत सी घटनाएँ , दुर्घटनाएं और त्रासदियों को बचाया जा सकता है. अगर आप एक अच्छे माता पिता हैं तो स्वयं विवेक का प्रयोग करके अपने जीवन के निर्णय और अपने बच्चों में भी इस गुण की नींव डालें ताकि ये समाज और भारतीय संस्कृति किसी ऐसी रोली के प्रकरण को दुबारा न दुहराए.
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