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मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

बेटे की माँ !

                      आज केवल राम जी का नारी विषयक लेख की श्रृंखला पढ़ रही थी और उसमें ही पढ़ा कि आज भी परिवार चाहे जितनी आधुनिकता का दम भरते हों और चाहे जितनी सभा और मंच पर बेटी और बेटे की समानता की बातें करते हों लेकिन अन्दर से हम आज भी वैसे ही हैं और खास तौर पर महिलायें भी . जिन्हें शायद अपने महिला होने पर गर्व होना चाहिए और बेटियों से मिल रहे प्रेम और समर्पण को मानना चाहिए .

                       नाम तो मैं उजागर नहीं करूंगी लेकिन बहुत करीब के लोगों के परिवार में दो बेटियां माँ  बनने वाली थी और दोनों के प्रति घर में सभी सदस्यों को उत्सुकता थी .उन दोनों के अलावा  परिवार की एक बेटी बाहर रहती हैं।  वह भारत आ रही थी तो उसने सोचा की दोनों के होने वाले बच्चों के लिए कुछ ड्रेसेज लेती चलूँ और वह दोनों के होने वाले बच्चों के लिए ड्रेसेज का सेट बना कर पैक करके रख गयी कि जब जिसके घर आप लोगों का जाना हो तो आप लोग मेरा पैक भी लेती जाएँ . 
                       इत्तेफाक से दोंनों ही बेटियों के लडके हुए और पैक यथा समय जाते वक्त लोग लेते चले गए . 
             कुछ दिनों बाद उनमें से एक कानपुर आई और उसके लाये हुए कपड़ों से एक ड्रेस जो लड़कियों की तो नहीं थी लेकिन दोनों के पहनने काबिल थी . वापस करती हुई बोली - ये ड्रेस न लड़कियों की है और मेरा बेटा लड़कियों की ड्रेस क्यों पहनेगा  ? इसको रख लीजिये , आगे किसी और के काम आ जायेगा . उस लड़की में मैंने बेटा को जन्म देने का जो दर्प देखा तो लगा कि अपनी माँ के कोई बेटा न होने का दंश या फिर उस मानसिकता को बदल न पाने का प्रतीक . इसको क्या कहा जाएगा ? मुझे तो लगा कि शिक्षा , प्रगतिशीलता या फिर आधुनिकता का जामा पहन भर लेने से हमारी मानसिकता में बसे पुरातनता के कीड़े कभी मर नहीं सकते हैं . ये फर्क ख़त्म करने कि  हम हामी भर रहे हैं और खुद को इससे ऊपर ले जाने का दम भर रहे हैं लेकिन वह दम सिर्फ जबान से बोलने भर के लिए है  . हम आज भी वही हैं जहाँ सदियों पहले थे और आज भी दिल से यही चाहते हैं की घर में पहला बेटा  जो जाये फिर चाहे दूसरी संतान हो न हो क्योंकि आज कल एक की परवरिश ही कठिन हो रही हैं .

16 टिप्‍पणियां:

Pallavi saxena ने कहा…

काफी हद तक सहमत हूँ आपकी बातों से,ऐसे मामलों में ज़्यादातर परिवारों में यह बात आसानी से देखी जा सकती है। कई तो ऐसे भी हैं जो बेटी को हमेशा बेटे अर्थात लड़कों के कपड़े पहनाकर अपनी इस दमित इच्छा की पूर्ति करते हैं और जहां तक रही पहली संतान लड़का हो जाये वाली बात तो वह बात मैंने माता-पिता से ज्यादा होने वाले बच्चों के दादा-दादी या नाना-नानी में देखी है।
तो हो सकता है उनकी ऐसी मानसिकता के चलते माता-पिता का नज़रिया भी उन्हें ऐसा सोचने पर विवश कर देता हो।
लेकिन अंतिम बात बिलकुल सही है आज कि तारीख में एक ही बच्चे की परवरिश करना बहुत मुश्किल काम है मगर इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि पहला बच्चा लड़का ही हो यह सोच सारा-सर गलत थी, गलत है, और गलत ही रहेगी...विचारणीय आलेख।

shikha varshney ने कहा…

:(:( और दोष हम देते हैं सरकार को ...व्यवस्था को.

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

आपका यही अवलोकन हमारे समाज का सच है ..... कटु पर सच

रचना दीक्षित ने कहा…

आधुनिकता मानसिकता को नहीं बदलती.

वाणी गीत ने कहा…

बड़ी बेटी के जन्म पर डॉक्टर ने सांत्वना देते हुए कहा कि कोई बात नहीं ,पहला बच्चा है . जब मैंने कहा कि बेटी का ही इन्तजार था , तब एकदम से प्रसन्न हो गयी . अब जब महिला चिकित्सकों को भी बधाई देने से पहले सोचना पड़े तो बाकी समाज का क्या कहा जाए .एक दूसरी महिला चिकित्सक ने दो बड़ी बेटियों के बाद तीसरे बच्चे को जन्म दिया क्योंकि उनके पति खानदान के इकलौते वारिस थे .
इतनी बार सुना और देखा है यह सब कि अब कुछ प्रतिक्रिया देने का मन नहीं करता , बस यही दुआ करती हूँ कि ईश्वर ही उन्हें समझाएगा :)

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

आप ठीक कह रही हैं ,बेटे और बेटी के प्रति व्यवहार को ले कर माँ के मन का तराजू भी बेटे की ओर झुकने लगता है.

PAWAN VIJAY ने कहा…

जब तक सोच नही बदलेगी तब तक कोई भी कानून बना दो समाज नही बदलने वाला

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

आधुनिकता का सिर्फ जामा पहने हुए हम लोग...आज भी रूढ़िवादी ही हैं ||

रेखा श्रीवास्तव ने कहा…

वाणी जी , अपने बिलकुल सही कहा , मानसिकता का शिक्षा या व्यवसाय से कोई सम्बन्ध नहीं है . अभी एक शादी में मुझे अपने परिचित की डॉक्टर बेटी से मुलाकात हुई और पता चला कि वह ३ बेटियों की माँ है . यानि की ऐसे व्यवसाय से जुड़े लोग भी न तो जनसंख्या के प्रति जागरूक है और न ही बेटे और बेटी के फर्क को मिटाने के लिए और वह भी अगर एक डॉक्टर हो तो वाकई शर्म का विषय बन जाता है.

vandana gupta ने कहा…

बिल्कुल सही आकलन किया है सिर्फ़ ऊपरी दिखावा बदला है अन्दर से सोच नहीं , मानसिकता नहीं और जब तक ये ना बदले सब दिखावा है खुद को भुलावा देना ही है।

Sadhana Vaid ने कहा…

बिलकुल सही कह रही हैं रेखा जी ! आज के युग में भी जब नारी सशक्तिकरण की बातें बहुत ज़ोर शोर से उठाई जाती हैं ! समाज में कुछ स्त्रियों ने अपनी पहचान भी अपने दमखम पर बनाई है और लडकियाँ खूब आगे बढ़ भी रही हैं और पढ़ भी रही हैं लेकिन जब इन्हीं लड़कियों के माँ बनने का वक्त आता है सारी आधुनिक सोच हवा हो जाती है और ये भी बेटे के लिये अधिक आग्रहशील दिखाई देती हैं !

राज चौहान ने कहा…

सही कह रही हैं रेखा जी

कविता रावत ने कहा…

सच समाज और व्यक्ति का नजरिया बदलना आसान नहीं ....
एकदम सही अवलोकन किया है आपने ...

अरुणा ने कहा…

एक दम सही बात है ..लोगो का अपना नज़रिया अभी वही है .............जिसे स्वयं बदलना होगा ...........

दिगम्बर नासवा ने कहा…

समाज का कडुआ सच है ... पर है ओर बदलाव आज भी नज़र नहीं आता ...

Saras ने कहा…

मरने के बाद भी जीवित रहने की चाह बड़े बड़े फारोह ..बादशाहों को रही .....बस एक नाम लेवा ...एक वंश को चलानेवाले......इस एक वजह ने एक बहुत बड़ी खाई पैदा कर दी है ..हमारी सोच में ...हमारे आचरण में .....जिसको कोई बदलना नहीं चाहता ...