बीमार पति की दवा और १ साल के बच्चे का दूध यही तो उसकी प्राथमिकता थी. सास मालकिन थीं लेकिन लाकर देने वाली वह अकेली थी . मीलों पैदल चलकर मोजा फैक्ट्री की बस मिलती थी तब वह फैक्ट्री पहुँचती थी. घर से निकलने से पहले सास और पति के लिए रोटियां भी तो बना कर रखनी होती थीं और लौटकर फिर वही काम. वह बैल की तरह दौड़ती रही किन्तु कोई उसकी पीठ पर हाथ फिराकर पुचकारने वाला न था. सात फेरों का बंधन निभा रही थी. हाते में रहने वाले सभी तो उसकी तारीफ करते लेकिन जब सास हाते में बैठ कर कमियों की झड़ी लगा देती न तो सब उठकर चल देते.
फिर एक दिन फैक्ट्री से लौटते समय दुर्घटना का शिकार हो गयी. एक हाथ और दोनों पैर में फ्रैक्चर . बस सब कुछ वही रुक गया. बैल की सी दौड़ और सबकी सेवा सुश्रुषा . कुछ मुआवजा मिल गया और सास की जेब में चला गया - मालकिन जो थी. उसके हिस्से में आया -- 'भैंसे कि तरह पड़ी रहती है, दोनों टाइम खाने को चाहिए. तेरे बाप ने नौकर नहीं भेज दिए हैं , जो तुझे बिस्तर पर लिटा कर खिलाएं.'
वही पति भी अलग - 'ठीक से सड़क पर चलती होती तो ये दिन न देखना पड़ता . सारी देह पिराती है ये नहीं कि पूछ ही ले. कौन कब तक लेटे लेटे खिलायेगा?
सुनती और चादर में मुँह ढक कर रो लेती. उसका बैल से जुटे रहना किसी को नहीं दिखा अब बेबस हैं तो भेंसे सी लगने लगी और फिर एक दिन उठी ही नहीं - सात फेरों के बंधन से खुद को मुक्त कर लिया था. जितनी दवाये उसको १५ दिन के लिए दीं गयीं थी. उसने सब एक साथ खा लीं. और कुछ तो कर नहीं सकती थी. अब न भैंसे सा जीवन रहा न बाप का ताना. कुछ बोले उसने गलत किया और कुछ ने कहा - 'आखिर कहाँ तक अकेले लड़ती, लड़ाई तो लड़ी जा सकती है अगर कोई एक भी उसके आंसुओं को पोंछने वाला होता. '
गुरुवार, 9 सितंबर 2010
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25 टिप्पणियां:
बहुत मार्मिक ...
यही तो स्त्री की वेदना है……………………ये सात फ़ेरों का बंधन ना जीने देता और ना मरने और अगर कुछ कर ले तो यही हाल होता है…………………स्त्री मनोदशा और जीवन का सटीक चित्रण्।
उसका बैल से जुटे रहना किसी को नहीं दिखा अब बेबस हैं तो भेंसे सी लगने लगी और फिर एक दिन उठी ही नहीं - सात फेरों के बंधन से खुद को मुक्त कर लिया था.
बहुत दर्दनाक !!
बहुत ही दर्दनाक लेकिन शानदार प्रस्तुती ,आज इस देश की जनता का हाल कुछ ऐसा ही है ...
मार्मिक ... स्त्री की सामाजिक परिस्थिति को बाखूबी लिखा है आपने ....
मार्मिक ... स्त्री की सामाजिक परिस्थिति को बाखूबी लिखा है आपने ....
बहुत मार्मिक !!! लेकिन यह किसी एक स्त्री की कहानी नही, बहुत से अलग अलग लोगो को कहानी है, बस पात्र बदल जाते है, नाम बदल जाते है.... कहां गई मानविया भावनाये? इंसानियत? बहुत दर्द है आप की इस कहानी मै जिसे मै सच ही मानता हुं, फ़िर हम मंदिर मस्जिद जाते है, हरिदुवार जाते है, क्या यहां जाने से उन दुखी आत्माओ को सुख मिल जायेगा?? काद्पि नही
धन्यवाद
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Nice story. Beautifully written.
I regularly get your mails to visit your blog but i never see you on my posts. kingly visit and give your blessings.
zealzen.blogspot.com
ZEAL
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कभी गाय ,कभी बैल, कभी भैसे ,कभी कभी तो नागिन की संज्ञा दी जाती है सात फेरो के बंधन के बाद |
बहुत मार्मिक लघु कथा |
हम नारी सशक्तिकरण और जागरूकता की बातें कर लेटे हैं लेकिन ये इससे बहुत दूर हैं, वे आज भी औरत के दायित्वों को अपना धर्म समझ कर निभा रही हैं और फिर जब न थक गए तो इसी तरह से कोई निर्णय लेने को मजबूर हो जातीहैं.
सुबह सुबह यह मार्मिक कथा पढ़ मन दुखित हो गया. कितनी महिलाओं की यही कहानी होगी.
मार्मिक लघु कथा। औरत की त्रास्दी देखो फिर भी उसे ही दोशी माना जाता है। आभार।
jitna karo, utna hi bharo phie maro.....kahani khatm aur kuch din ke liye do aansu, aur kya !
जी ये तो हर जगह होता है यहाँ मुंबई में देखिये ना हर दुसरे घर में महिलाए घर के बाहर काम करती है पर घर का भी सारा जिम्मा उन्ही पर होता है यदि कभी बीमार पड़ जाये तो बस यहाँ रह कर क्या करोगी आराम नहीं मिलेगा मायके चली जाओ उसे तुरंत मायके भेज दिया जाता है | जब पति बीमार पड़ता है तो क्या पत्निया भी उन्हें उनके माँ के घर भेज दिया करे |
:( अत्यंत मार्मिक कथा :(
आपको आभार इसे हम सब तक पहुंचाने के लिए ,क्या किसी प्रकार से ऐसी चीज़ों को होने से रोका जा सकता है ??
महक
यह कथा तो हम दुखी मानस मन की है
मार्मिक प्रस्तुति।
हिन्दी, भाषा के रूप में एक सामाजिक संस्था है, संस्कृति के रूप में सामाजिक प्रतीक और साहित्य के रूप में एक जातीय परंपरा है।
हिन्दी का विस्तार-मशीनी अनुवाद प्रक्रिया, राजभाषा हिन्दी पर रेखा श्रीवास्तव की प्रस्तुति, पधारें
बेहद मार्मिक और बेहतरीन प्रस्तुतीकरण हैं. आखिर लोग इतने निर्दयी क्यों हो जाते हैं?
अंशुमाला जी,
इसको रोका तभी जा सकता है जब कि सबकी बुद्धि जाग्रत हो. हमारे देश में आज ६० प्रतिशत महिलाएं जो मध्यम या निम्न मध्यम वर्ग से हैं. खुद को घर और काम की चक्की के बीच में पीसती हुईं जिन्दगी में कहीं सुकून खोज रही हैं और वह सुकून कहीं भी नहीं है. घर वालों की अपेक्षाओं का वृक्ष बढ़ता ही रहता है. जब तक सह सकती हैं सहती हैं , हाँ अगर घर में कोई भी उसके आंसूं पोंछने वाला है तो वो वह जी लेती है और शक्ति का संचार भी हो जाता है लेकिन अगर सभी उसको दुधारू गाय समझ कर दुहते ही रहें तो वह दम तोड़ ही देगी. लोगों की मानसिकता को बदलने का प्रयास तो किया ही जा सकता है. बस दो बोल प्यार या सहानुभूति के उनका संबल बन जाते हैं. जहाँ ऐसी मिल जाती हैं तो उन्हें कुछ न सही मेरा तो यही ध्येय है कि उन्हें इस लड़ाई में जीत का विश्वास और दो बोल प्यार के जरूर बोलें ताकि वे अपने अस्तित्व को खोनेकी न सोचें.
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बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
मार्मिक और यथार्थ के करीब ।
आपने मेरी भी आँखें खोल दीं। बीवी का ध्यान कम रख पाता हूँ। आपाधापी और आलस्य के कारण। कभी-कभार बीमार होती है तो मेरी अक्ल ठिकाने आ जाती है। आखिर वह भी इंसान है।
.क्या और कोई रास्ता नहीं था..मार्मिक अंत दोनों का कहानी का भी और....
स्त्री की वेदना .....बहुत दर्दनाक मार्मिक लेकिन बाखूबी लिखा है आपने ....
बहुत ही मार्मिक पर सत्य उजागर करती रचना...कितनी ही नारियाँ अपने परिवार का ख़याल रखने को अपना खून-पसीना बहा देती हैं और बदले में प्रताड़ित होती हैं...बहुत हो दुखद स्थिति है यह,और यह कोरी कल्पना से उपजी कहानी नही...कई घरों का सच है.
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