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मंगलवार, 4 अगस्त 2020

कजरी महोत्सव !

               

बुन्देलखण्ड में सावन के महीने का एक विशेष पर्व होता है जिसे कजरी कहा जाता है।  इस पर्व का अपने आप में बहुत महत्व है और यह सिर्फ बुन्देलखण्ड की अपनी लोक संस्कृति का प्रतीक है।
                 वैसे तो पूरा का पूरा सावन मास  ही महिलाओं विशेष रूप से घर की बेटियों से सम्बंधित पर्वों का मास कहा जाता है। रक्षाबंधन तो बहन और बेटियों को मायके आकर पर्व मनाने का अवसर होता है।  रक्षाबंधन के दूसरे दिन कजरी महोत्सव होता है।  वैसे तो ये महोत्सव के रूप में महोबा नामक स्थान पर मनाया जाता है क्योंकि कजरी का पर्व रक्षाबंधन के एक दिन बाद मनाने के पीछे तथ्य है जो कि सदियों पहले की एक ऐतिहासिक घटना के परिणाम स्वरूप कजरी रक्षाबंंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है।



          नागपंचमी के दिन खेतों से मिटटी लाकर घर में गेंहू भिगो कर बोये जाते हैं , जिसकी संरचना भी विशेष होती है।  बीच में गोलाकार मिट्टी फैलाकर उसमें गेंहूं बोकर उसे फिर से मिट्टी से ढक दिया जाता है।  इस गोलाकार को खेत कहते हैं और इसके चारों  तरफ सकोरा या पत्ते के बने दोनों में भी मिटटी भर कर गेहूं बोकर उस खेत के चारों  तरफ रख कर एक डलिया  से ढक देते हैं।  कजरी के दिन तक इसमें बड़ी बड़ी कजरी उग आती हैं और कहीं कहीं पर इनको भुंजरियाँ भी कहते हैं। इन का रक्षाबंधन के दूसरे दिन तालाब या नदी में विसर्जन किया जाता है।  घर के बेटियाँँ या महिलायें इन कजरी को मिट्टी लेकर जाती हैं और कजरी को हाथ में पकड़ कर मिट्टी नदी या तालाब में प्रवाहित कर देती हैं।  कजरी वापस घर में लेकर आ जाती हैं और ये कजरी प्रेम और सौहाद्रता का प्रतीक मानी जाती है। छोटे अपने बड़े बुजुर्गों को कजरी देकर पैर छूते है और आशीष लेते हैं।  समवयस्क लोग आपस में कजरी का आदान प्रदान करके गले लगते हैं।  महिलाओं में भी यही होता है।  कजरी मिलन विशेष रूप से महत्व रखता है।
                 
                           कजरी विसर्जन स्थल पर चाहे वह नदी हो या तालाब मेले का आयोजन भी होता है , जहाँ पर खासतौर पर महिलाओं की वस्तुओं की बिक्री और खरीदारी होती है।  गाँव की महिलायें भी इस मेले में शामिल होने के लिए बैल गाड़ियों और ट्रैक्टर में बैठ कर आती हैं।  मेले स्थल पर झूले और कई ऐसे दर्शनीय या मनोरंजन के खेल होते हैं।  जिनसे मनोरंजन भी होता है और एक बंधे हुए माहौल से अलग तरह का सम्मिलन हो जाता है।
                         आज से 831 साल पहले दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने राजकुमारी चंद्रावल को पाने और पारस पथरी व नौलखा हार लूटने के इरादे से चंदेल शासक राजा परमाल देव के राज्य महोबा पर चढ़ाई की थी. युद्ध महोबा के कीरत सागर मैदान में हुआ था, जिसमें महोबा से निष्कासित  सेनापति आल्हा - उदल ने अपने देश पर आये संकट से निबटने के लिए वेश बदल कर पृथ्वीराज चौहान से युद्ध किया और उनको पराजित किया।  इस युद्ध के कारण  ही वहां पर कजरी का विसर्जन नियत दिन न हो सका और रक्षाबंधन के दूसरे दिन हुआ।  उसी विजय पर्व के प्रतीक के रूप में आज भी महोबा में सबसे बड़ा कजरी महोत्सव मनाया जाता है , जिसको सरकारी संरक्षण में आयोजित किया जाता है। 
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बुधवार, 25 दिसंबर 2019

हमारी सोच : आज भी वही क्यों है ?


                      नीता की एक सहेली वर्षों तक उसके  साथ काम करती आ रही थी।  उन्होंने  एक दूसरे के साथ करीब  सालों काम किया है।  उनकी मानसिकता से परिचित तो अच्छी तरह थी ।  उन्होंने अपनी बेटी की शादी अंतर्जातीय की और बेटे की खुद खोज कर सजातीय।  फिर शुरू हुआ उनके परिवार में शादी का सिलसिला।   साथ रही तो एक दूसरे के परिवार ससुराल और मायके पक्ष के  विषय में अच्छे से परिचित हैं।  हमने  हर सुख दुःख भी बांटा है - चाहे नीता के पापा का निधन हो या दीप्ति की माँ के निधन की घडी।
                          अब दोनों ही कम मिल पाते हैं लेकिन संपर्क में तो रहते ही हैं।  उनके परिवार में किसी लडके की शादी होनी है तो उन्होंने नीता से अप्रत्यक्ष रूप से कहा की - 'यार  कोई अच्छी सी ब्राह्मण  लड़की बताओ , देवर के बेटे के लिए खोज रहे हैं। '
                 दीप्ति ने सहज रूप से लिया लेकिन बाद में वही बोलीं कि  वह लोग लड़कियों की शादी तो कहीं भी कर सकते हैं, लेकिन अपने घर में सजातीय लड़की ही चाहते हैं क्योंकि वह अगर दूसरे जाति की होगी  तो उसके तौर तरीके , संस्कार सब  अलग होंगे। अपने परिवार में कैसे ले सकते हैं ? आखिर खून तो हर जाति का अलग अलग होता है। उसे  बड़ा आश्चर्य हुआ कि क्या हमारी मानसिकता शिक्षा, पद या फिर प्रगतिवादी होने के बाद भी बदलती नहीं है या फिर हम अवसरवादी हो जाते हैं कि अगर हमारी बेटी सुन्दर नहीं है और अपनी जाति में वर नहीं मिला तो बेटी की पसंद को प्राथमिकता दे दी जाय।  हाँ अगर बेटे वैसे हुए तो उनकी तो शादी हो ही जायेगी।

इसके बाद ढेर सारे प्रश्न खड़े हो जाते हैं --
- क्या संस्कार भी जाति के आधार पर होते हैं?
- क्या  नैतिकता , सामाजिकता और संस्कार की भी परिभाषा अलग हो जाती है?  
- क्या बड़ों को सम्मान देने का तरीका , अपने दायित्वों को संभालने का ,शिक्षा  ग्रहण करने का तरीका जाति के अनुसार बदल जाता है ?
- क्या शरीर का खून भी अलग अलग रंग का होता है ?
- क्या ब्राह्मण , कायस्थ , ठाकुर कही जाने वाली जातियों में अपराधी  जन्म नहीं लेते? 
- क्या इनके घर में षडयंत्र नहीं रचे जाते? 
- क्या इन परिवारों में महिला उत्पीड़न , घरेलू हिंसा नहीं होती , दहेज़ नहीं माँगा जाता है ? 
             आज सभी उच्च शिक्षित हो रहे हैं , परिवार का स्तर भी बहुत अच्छा हो चुका  है , उनके संस्कार भी हमसे कम नहीं है , फिर भी हम अपने मानसिकता को बदल नहीं पा रहे हैं , अपनी कमियों को छिपाने के लिए नयी नयी दलीलें खोज लेते हैं और दूसरे को उसी काम के लिए निकृष्ट घोषित कर देते हैं और अपने से कमतर समझते हैं।  आखिर हमारी सोच कब बदलेगी   या फिर कभी नहीं। बदलेगी। 
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                     अगर हम दूसरे पक्ष को देखे तो लोग कहते हैं ( अभी भी समाज में उच्च शिक्षित 75 प्रतिशत लोग इसको मानते हैं ) अगर निम्न जाति में शादी कर दी जाएगी तो बेटी उसी जाति  की हो जायेगी। अगर वह किसी नीची जाति  में शादी कर लेती  है तो फिर हम अपने घर कैसे बुला सकते हैं ? क्यों क्या सिर्फ शादी कर देने भर से उस बेटी के शरीर का खून बदल जाएगा या फिर  उसकी डी एन ए बदल जाएगा और वह आपके परिवार की बेटी न होकर उस परिवार की हो जाएगी ? कई बार ऐसी ऐसी दलीलें सुनने को मिल जाती हैं कि   आश्चर्य भी होता है और गहरा सदमा भी लगता है कि हम अपनी सोच कब बदल पायेंगे ? ये  जाति की परिभाषा कहाँ से गठित हुई ? उस इतिहास में जाकर उसके आधार को देखने की किसी को जरूरत नहीं है. बस लीक आज भी पीटने को तैयार है।  अगर नौकरी में कोई अफसर निम्न जाति का हुआ तो उसको घर बुला कर धन्य हो जाएंगे और मौका पड़ने पर उसके चरण भी छू लेंगे लेकिन बेटी को लेने या देने के वक़्त हम कट्टरवादी हो जाते हैं। 


कब बदलेगी ये सोच ?
 
                         ऐसी सोच अगर हम रख कर प्रोफेसर , डॉक्टर , अधिकारी हुए भी तो हमारी शिक्षा का , हमारे समाज के लिए दिग्दर्शन करने का कोई आधार रहेगा ? हम रूढ़िवादिता न छोड़ सके।  हम यथार्थ को समझने के लिए तैयार न हुए तो फिर हममें और हमारे पीछे की गुजरी पीढ़ियों में क्या अंतर हुआ ? हमने घर में चूल्हे को छोड़ कर गैस अपना ली , हाथ के पंखे झलने के जगह पर अब बिजली के उपकरण अपना लिए।  बेटियों को अपने पुराने परिधान के जगह पर नयें पाश्चात्य परिधान स्वीकार कर लिए।  उनको घर से बाहर भेज कर पढ़ाने के लिए भेजने पर भी कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि अब हम प्रगति कर रहे हैं लेकिन हमारी  वही प्रगति इस विषय पर कहाँ चली जाती है ? अगर आज भी हम दोहरे मानको को लेकर चलते रहेंगे तो हम इस समाज में कौन सा सन्देश दे सकेंगे ? 


ऑनर किलिंग ;

                       पहले ये काम बहुत कम होता था क्योंकि लड़कियों को घर से बाहर निकलने के अवसर काम थे और जो थे वह सिर्फ स्कूल या कॉलेज जाने तक ही थे और उसे पर भी समाज के कुछ ठेकेदारों की निगाह दूसरे की बेटियों पर लगी रहती थीं कि कहाँ जाती है ? किससे बात करती है ? किस तरह की लड़कियों से उसका उठाना बैठना है ? फिर गाहे बगाहे वही ठेकेदार लड़कियों के परिवार के पुरुषों के कान भरने का काम भी करते और फिर वह तथाकथित उच्च या रसूखदार परिवार का खून उबाल मारने लगता , परिणाम या तो लड़की पर पहरे बैठा दिए जाते , स्कूल /कॉलेज जाना बंद , या फिर एक बॉडीगॉर्ड साथ में लगा दिया जाता।  फिर भी मन की न हुई तो एक को ख़त्म कर दिया जाता।  तब ये काम मिलता था लेकिन अब ज्यादा मिलता है क्योंकि अब खुले आम ऐसे काम करते अपने को इज्जतदार महसूस करते हैं और रसूख के चलते कोई क़ानून उनका कुछ नहीं बिगड़ सकता है।  
                  सबको लगता है कि समाज में हमारा सम्मान हो और हम सिर उठा कर जियें लेकिन बच्चों के स्तर पर जी कर हम बड़े नहीं हो सकते हैं बल्कि अपनी सोच और अपने कार्यों से ही बड़े हो सकते हैं।  इस समाज में चाहे दलित हों या नारी लोगों की दृष्टि अभी भी वही बोल रही है।  और तो और नारियां भी इस बात पर  बदल पायीं हैं।  आज भी कहते सुने जा सकते हैं कि उनके घर का पानी पीने का धर्म नहीं है क्योंकि उनके यहाँ सभी जाति के लोगों का बराबरी से खाना पीना होता रहता है - चाहे मुसलमान हो , क्रिश्चियन हो या फिर नीच जाति का हो।  लोगों के यहाँ जाति के अनुसार अलग बर्तन रखते हुए हमने देखा है।  रसोई में एक अलग जगह जिसमें कुछ बर्तन लगे होते है कि बाहर के आने वालों को उसी में चाय नाश्ता देना हैं।  

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

माँ और मातृत्व का सुख !

                           बचपन कब हम जीते हैं ? कभी सोचा है हमने , नहीं अपना बचपन तो याद ही नहीं रहता और अपने बच्चों का बचपन तो आज की पीढ़ी में हो या हम लोगों की पीढ़ी में - संयुक्त परिवार की जिम्मेदारीयों में माँ और बच्चे का उतना ही संपर्क रहता है जितना की जरूरी होता है ।  दिन में सुबह से उठ कर वह काम में जुट जाती है और बच्चे को भूख लगे तो माँ के पास आता है।  वरना बच्चे की मालिश और बाकी काम तो घर की बड़ी बुजुर्ग महिलाएं कर ही लेती हैं।  कभी कभी माँ व्यस्त है और बच्चा भूखा रोते रोते सो जाता है। मैंने गाँव में देखा है , माँ घर के सदस्यों के लिए रसोई तैयार कर रही है और उसके आँचल से दूध  बह रहा है।  मजाल है कि वह बच्चे को  बाहर से मंगवा कर दूध पिला दे। बच्चे को बड़े बुजुर्ग घर के बाहर लेकर बैठ जाते थे ताकि माँ को काम में बाधा पैदा न हो। माँ ममताविहीन कब रही लेकिन उसको घर  रख दिया गया और वह बनी रही।  गाँव में तो बच्चे अपनी दादी या तै को माँ  माँ को कभी चची और कभी काकी भी कहते पाए गए हैं।  इसके कारणों की और कभी ध्यान ही नहीं दिया गया।
                       कमोबेश यही जिंदगी मैंने भी जी थी। तब गाँव की तरह से घर और बाहर में अंतर न था लेकिन मेरे समय में नौकरी और बच्चे दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करना आसान नहीं था। कामकाजी औरत और संहयुक्त परिवार के बीच पिसती एक माँ के भावों और उसकी मशीन सी जिंदगी को और कोई नहीं समझ सकता है शिव एक माध्यम वर्गीय परिवार की कामकाजी महिला के सिवा। पहले सबका नाश्ता बनाना , अपना लंच तैयार करना और फिर वक्त मिला तो बच्चे को दूध पिलाना। घर में रहने वाली महिलायें समझती हैं कि ये निकल जायेगी जितना काम करती जाए उतना अच्छा है। हाँ इतना जरूर होता था कि बच्चे को मेरे पीछे जैसे भी रखा जाता था रखा जरूर जाता था।  ऑफिस से लौटने ही सबसे पहले बच्चे को लेकर दूध पिलाना होता था और फिर रसोई शाम की चाय,  रात  का खाना।  बच्चे कब बड़े हो गए कब उन्होंने घुटने चलना सीख लिया और कब चलने लग गए कभी इसका सुख उठा ही न पाए और शायद आज की माँएं भी ये सुख नहीं उठा पाती वे है अगर वे कामकाजी हैं. वे मशीन बनी सिर्फ घर और बाहर के बीच सामंजस्य बिठाया करती हैं।
                            कब सुखी रही औरत ये तो हमें बताये कोई , हर समय ये सुनाने को मिलता है कि आजकल !तो लड़कियां और बहुएं आजाद है , जब चाहे जहाँ चली जा रही हैं और बच्चे आया या सास ससुर के सहारे छोड़ कर।  हमें कोई गिना दे कि  कितने प्रतिशत ये महिलायें हैं ?  उच्च वर्ग के परिवारों की बात आप छोड़ दीजिये , वह कितने प्रतिशत है लेकिन उनमें भी कितनी ही देखिये हाई प्रोफाइल अभिनेत्रियां भी माँ बनाने के बाद एक अंतराल ऐसा लेती हैं जब तक कि बड़े बड़े या समझदार न हो जाए।  शेष रहा निम्न , निम्न मध्यम , मध्यम या उच्च मध्यम वर्ग में कमोबेश यही स्थिति है। घर और बाहर की आपाधापी ने उन्हें मशीन ही तो बना रखा है। आज बच्चों के लिए बढ़ते शिक्षा व्यय ,  जीवन को चलने के लिए आने वाले खर्चे कैसे पूरे हों ? दोनों का कमाना जरूरी है।  हर माँ चाहती है अपने बच्चे को बड़ा होता हुआ देखना और उसकी बाल लीलाओं का सुख लेना।  हर माँ के अहसास बराबर ही होते हैं।फिर भी आज की माएँ ज्यादा संवेदनशील है क्योंकि आज समाज की जो स्थिति बन चुकी है तो बच्चे को आया या नौकरों के सहारे कोई नहीं  छोड़ना चाहता है।  नौकरी से विराम ले सकती हैं , कुछ समय के लिए नौकरी छोड़ सकती हैं लेकिन बच्चे को नहीं छोड़ती हैं। एक समय होता है जब कि बच्चे को माँ का ही संरक्षण चाहिए और वह उचित भी है. 
                              जब बच्चे बड़े हुए तो उनकी दुनियां पढाई , कॉम्पिटिशन , सोशल मीडिया में व्यस्त हो जाती है। माँ को अपने बच्चों को यह अहसास दिलाना जरूरी होता है कि वे उनकी सबसे अच्छी दोस्त हैं।  अपनी हर समस्या को शेयर करना माँ पर विश्वास होने की एक अच्छी सोचा है।  अलग थलग रहने से या फिर माँ के अपने रूचि के आगे उनकी परवाह न करने से वे भी अलग थलग पड़  जाते हैं  और न वे शेयर करना चाहते है और न माँ करती है यहीं हम गलत है - बड़े होते बच्चों को उनकी माँ के साथ एक अच्छी दोस्त होने का अहसास जरूर दिलाये रहें ताकि वे अपनी समस्या और जीवन के अच्छे पलों को आपके साथ शेयर कर सकें।  बस यही वो समय है जब आप अपने माँ होने के सुख को भोग सकती हैं।  कामकाजी होने पर भी उनके लिए समय रखें नहीं तो फिर ये माँ अकेले ही रहेगी।  जैसे ही बच्चे बाहर पढ़ने के लिए निकल गए फिर नौकरी , शादी या फिर विदेश गमन।  बस देखने और सुनने का सुख उठा सकती हैं।
                             अब संचार के साधनों की बढ़ती गति ने इतना जरूर कर दिया है कि अगर बच्चे चाहते हैं तो दिन में एक या दो बार वीडिओ चैट करके अपने से रूबरू हो लेते हैं और हमारी आत्मा सुखी हो लेती है।  बस जीवन के उत्तरार्द्ध में जो क्षण जी लें वह माँ और मातृत्व सुख है। भाग्यशाली है वो माँ बाप जिनके बच्चे उसी जगह नौकरी पा जाते हैं जहाँ पर वह पैदा हुए और बड़े हुए और  उनके साथ ही रह भी रहे हैं।  कामना तो यही है फिर से वह घर की रौनक बड़े बड़े अपार्टमेंट और बंगलों में बस जाए और माँ और मातृत्व का सुख फिर से जी उठे।  

बुधवार, 2 अगस्त 2017

राखी का तोहफा ! done

                   नितिन को निधि की बहुत चिंता हो रही थी कि प्रसव के बाद कैसे सभाँल पायेगी वह दो दो बच्चों को ? उसका दिमाग चारों तरफ दौड़ रहा था कि आखिर किसको बुलायें ?  माँ बीमार रहती है , बहनों के अपने परिवार हैं और बच्चे पढ़ने वाले हैं । संयुक्त परिवार में बचपन जिया था तो प्यार तो सभी को आपस में था लेकिन हालात की मजबूरी ! कई दिनों तक सोचने के बाद उसे अपनी चचेरी बहन निभा का ख्याल आया ।
            निभा दी की शादी को दस साल हो गये थे लेकिन वह माँ नहीं बन पायी । पति के सहयोग से वह उस घर में थी ,.नहीं तो ससुराल वालों ने तो कब का घर से निकाल दिया होता । बाँझ का तमगा पहने वह घर के बोझ को ढोने वाली एक नौकरानी थी । 
       नितिन ने अपने जीजाजी से बात की - 'दी बहुत दिनों से आई भी नहीं है और निधि को किसी बड़े की जरूरत भी है ।' 
        निभा के पति ने स्वीकृति दे दी । नितिन निभा को लेने गया तो निभा की सास का कटाक्ष - 'इस बाँझ को लिए जाते हो , अरे इससे तो अच्छा कोई नौकरानी रख लेते । '
       नितिन ये तो जानता था कि निभा दी की सास बहुत तेज हैं लेकिन उसके सामने ही उनके लिए ऐसा बोलेंगी उसे उम्मीद नहीं थी । वह निभा को लेकर चुपचाप चला आया ।
   समय पर निधि ने दो बेटों को जन्म  दिया , जिनमें एक बहुत कमजोर था उसके बचने की उम्मीद बहुत कम थी । डॉक्टर ने उसे वहीं अपनी देखरेख में रखा । निधि एक बच्चे को लेकर घर आ गयी । बच्चे के लिए निभा ने घर आने से इंकार कर दिया । वह अस्पताल में ही एक बेंच पर बैठी रहती , डॉक्टर से हालचाल पूछती रहती और भगवान से दुआ -- ' हे ईश्वर तूने मेरी नहीं सुनी लेकिन उस माँ के लिए , जिसने इतना कष्ट सहा है  , इस बच्चे को जीवनदान दे दे ।'
     पंद्रह दिन बाद उसकी प्रार्थना रंग लाई और बच्चे को घर भेज दिया गया । घर में सभी उसकी सराहना कर रहे थे । उस बच्चे की पूरी देखभाल निभा ही करती थी ।
       आखिर पति का संदेश आया कि अगर सब कुशल मंगल हो तो वह वापस आ जाये । नितिन बोला - ' अब एक हफ्ते बाद रक्षाबंधन है दी , बहुत दिनों से कोई नहीं आया । अब राखी बँधवा कर ही भेजूँगा ।
          नितिन ने रक्षाबंधन तक रोकने की अनुमति जीजाजी से भी ले ली । रक्षाबंधन के बाद निभा को छोड़ने के लिए नितिन तैयार हुआ तो निभा के बैग के अतिरिक्त एक बैग और था । निभा निकलने लगी तो निधि देवांश को लेकर आई और निभा की गोद में दे दिया । निभा उसे छोड़कर जाने की बेला आने पर  सीने से लगा कर रो पड़ी ।
    नितिन ने निभा की पीठ पर हाथ रखा और बोला - ' दी रोइए मत , देवांश आपकी राखी का तोहफा है , इसे जीवन आपने दिया है और अब आपका बेटा है ।' 
       निभा को लगा कि वह क्या सुन रही है ?  उसने देवांश को सीने से कस कर चिपका लिया ।

बुधवार, 19 अक्टूबर 2016

करवा चौथ !

                          रमेश बार के बाहर साहब का इन्तजार कर रहा था और बार बार घडी भी देख रहा था।  सुनीता ने कहा था कि  जल्दी आ जाना आठ बजे तक चाँद निकल आएगा तो पूजा तो तभी करेगी न जब वो वहां पहुँच जाएगा। रोज की बात होती तो चाहे जब पहुँच जाये।
                              सात बजने वाला था , साहब अभी मेम साहब के लिए कुछ खरीदने के लिए कह रहे थे सो बाजार में भी समय लगेगा।  साहब को फ़ोन लगाने का साहस तो उसमें न था लेकिन सुनीता की भी चिंता थी उसको।
                  रमेश गाड़ी से उतर कर बार में गया तो साहब एक मेम साहब के साथ ड्रिंक ले रहे थे।  उसके दिमाग में एकदम कौंधा  कि  मेम साहब भी तो करवा चौथ व्रत होंगी लेकिन वह व्यवधान भी नहीं डाल  सकता था।  जब बहुत देर होने लगी तो उसने फोन मिलाया --
" साहब आज जल्दी घर पहुँचना होगा आपको भी , करवा चौथ है न। "
" नहीं नहीं कोई जल्दी नहीं। ."
"लेकिन साहब मुझे तो जल्दी पहुँचना होगा। "
"ओह तेरी पत्नी व्रत होगी , तू ही अच्छा है कम से कम इसी बहाने पूजा करवा लेता है अपनी।  अच्छा सुन गाड़ी तो घर पर छोड़कर निकल जा, मैं आ जाऊँगा। '
                    रमेश गाड़ी गैरेज में खड़ी करके चाबी देने के लिए अंदर जाता वैसे ही मेमसाहब  सजी धजी आ गयीं - 'रमेश मुझे क्लब ले चलो , करवा चौथ स्पेशल का प्रोग्राम है। "
"मेम साहब मुझे भी घर जाना है , सुनीता मेरी रास्ता देख रही होगी। "
"अच्छा अच्छा  तू जा , चाबी मुझे दे मैं खुद चली जाऊँगी। " चाबी लेकर मेम साहब गार्ड से बोली - ' साहब आएं तो कह देना डिनर ले लें मुझे डिनर वहीँ करना है। "
                                   रमेश सोच रहा था कि शायद बड़े लोगों में ऐसा ही होता होगा।

गुरुवार, 5 नवंबर 2015

सिर्फ एक बच्चा !

                            जीवन में एक बच्चे का होना बहुत जरूरी है लेकिन अगर इसके  हम पीछे झांक कर देखें तो सिर्फ एक बच्चे का होना और न होना किसी की जिंदगी को बदल कर रख देता है।  ये हमारी अपरिपक्वता की निशानी ही कही जायेगी। जीवन में सिर्फ बच्चों के लिए रिश्तों की सारी  मर्यादा और गाम्भीर्य को हम कैसे नकार सकते हैं? वैसे तो हम पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण करने के लिए बिना सोचे समझे लग जाते हैं चाहे हम उसके पीछे की पृष्ठभूमि से अवगत हों या न हों लेकिन जहाँ हम अपने दकियानूसी विचारधारा के चलते इतना गंभीर फैसला कैसे ले सकता है ? 
                               कुछ दिन पहले की बात है वो मेरी परिचित की बेटी है।  उसको शादी के कई साल तक बच्चे नहीं हुए तो सब तरह की दवा और दुआ की गयी और तब भी सफलता न मिली तो बच्चे को गोद लेने की बात सोची।  यहाँ तक तो हम उनके व्यवहार को उचित दृष्टि से देख सकते हैं लेकिन गोद मिलना और न मिलने में उस लड़की का कोई अपराध तो नहीं है, फिर उनको पहली पसंद के अनुसार लड़का ही चाहिए था और न हो तो बहुत मजबूरी में लड़की भी ली जा सकती है।  ये उनकी प्राथमिकताएं थी।  उन्हें एक बच्ची की गोद देने वाले के विषय में ज्ञात हुआ और उससे संपर्क किया गया और वह महिला ६ लाख में बच्ची गोद देने के लिए राजी हो गयी लेकिन उसके परिवार को जैसे ही पता चला कि ये लोग बच्चे के लिए बहुत उत्सुक है तो उन लोगों ने अपनी मांग १२ लाख कर दी।  ६ लाख तक तो गोद लेने वाला परिवार तैयार था लेकिन १२ लाख की मांग पूरी करना शायद उनके वश की बात न थी तो उन्होंने मना कर दिया लेकिन सबसे बुरा उन्होंने ये किया कि उन्होंने अपनी बहू को मायके भेज दिया हमेशा के लिए।
                 मुझे जब ये ज्ञात हुए तो बहुत ही कष्ट हुआ लेकिन उन लोगों की सोच पर भी बहुत क्रोध आ रहा है कि क्या बच्चे न होने के बाद जीवन की इति है अगर नहीं तो कोई कैसे १२ साल तक किसी को घर में बहू और पत्नी के साथ रहने के बाद इस तरह से त्याग सकता है। हम किसी मुद्दों पर अभी भी इतने ही पिछड़े हुए हैं ? अगर नहीं तो उस लड़की का भविष्य क्या है ? नौकरी वह नहीं करती है और आत्मनिर्भर भी नहीं है।  घर में रखने को तैयार नहीं , उससे पहले भी उसको इतना प्रताड़ित किया जा चूका है कि वह खामोश हो चुकी है।  वह किसी से बोलने , मिलने या कहीं भी जाने में कोई रूचि नहीं रखती है। धीरे धीरे वह अवसाद की स्थिति में जा रही है। 
                                  उसकी काउंसलिंग करना भी आसान नहीं है क्योंकि वह किसी से भी मिलना ही नहीं चाहती है।  मैं तो समझती हूँ कि  काउंसलिंग की  जरूरत उस लड़की को नहीं बल्कि उसके पतिऔर घर   वालों को है। हम प्रगतिशील होने का दावा तो करते हैं लेकिन अगर ऊपरी आवरण उतार कर देखें तो हम आज भी सदियों पुराने मिथकों को अपने जीवन में गहराई से जड़ें जमाये हुए पाते हैं।  
                          

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

अजय ब्रह्मात्मज :जन्मदिन का तोहफा !

                   अजय की इच्छा है कि इस जन्मदिन पर कुछ अलग तरह से उनको जन्मदिन की शुभकामनाएं मिलें और उसको संचित कर रखा जा सके लेकिन यह जिन पलों को मैं यहाँ अंकित करने जा रही हूँ वह सिर्फ अजय के लिए नहीं मेरे लिए भी बहुत ही आत्मिक और अभिभूत  करने वाले पल थे. 
                          सबसे पहले मैं बता दूँ कि मेरा और अजय का रिश्ता जब बना था तो हम दोनों उस दौर से गुजर रहे थे जब पत्र ही संपर्क के साधन थे।  मीनाकुमारी के निधन पर एक फिल्मी पत्रिका "माधुरी" में मेरा संवेदना पत्र प्रकाशित हुआ और वहां से पता लेकर अजय ने मुझे पत्र लिखा था और फिर ये भाई बहन का रिश्ता बना और उस समय जब कि वह किशोर था तब भी उसमें फिल्मी दुनियां में रूचि थी और आज नहीं याद है कि  मैंने उसे कैसे और क्या समझाया होगा ? फिर भी मेरे उन और उस उम्र के सुझावों को कितना महत्व अजय देते  है ये मेरे लिए गर्व की नहीं बल्कि बहुत अधिक अभिभूत करने वाली बात है। अंतर्राष्ट्रीय पटल पर अपनी एक पहचान रखने वाला इंसान कितना सहज और शालीन है ये मैं बताती हूँ। 
                           मैं जून २०१३ में उनकी बेटी विधा सौम्या की शादी के अवसर पर मुंबई गयी थी।  उससे पहले शादी में आने के लिए अजय और विभा के असीम आग्रह को मैं ठुकरा तो नहीं सकती थी। मुझे जो सम्मान  और प्यार विभा और अजय से मिला वह अवर्णनीय है। जब मैं स्टेशन पर उतरी तो मुझे रिसीव करने अजय खुद आये थे।  जिसकी बेटी की शादी हो और वह खुद मुझे लेने आया हो समझने वाली बात है और ये बात बाद में मुझसे रश्मि रविजा ने कही भी। 
 
                          शादी में तो आने वाले मुंबई से थे या फिर अजय या विभा के रिश्तेदार और घर वाले थे। मैं सबसे अलग थी बस रश्मि रविजा से मेरी मित्रता थी। उससे भी मेरी वहाँ मुलाकात पहली थी। 
                               शादी के दूसरे दिन की बात है नाश्ते के समय सिर्फ सारे घर वाले रह गए थे जो आपस में परिचित थे और मैं सबसे अलग थी।  उनमें से कुछ लोगों ने सवाल किया कि ये (मैं) किस की तरफ से हैं , (क्योंकि पहले मुझे किसी ने देखा नहीं था) , यानि कि विभा की तरफ से या फिर अजय की तरफ से ? इस प्रश्न ने मुझे  असहज कर दिया था क्योंकि हमारे समाज में  रिश्तों की यही  परिभाषा है और  उसको मैं कहीं भी पूरा नहीं कर रही थी कि तभी तुरंत अजय बोले  -- 'मैं बताता हूँ सही अर्थों में ये मेरी प्रेरणा स्रोत हैं।  जब मैं बसंतपुर (अजय का घर )  पढता था।  उस समय अजय नवीं  कक्षा में थे।  तब मेरा परिचय दीदी से हुआ था और उन्होंने ही मुझे दिशा दिखाई थी जिस पर मैं आज चल रहा हूँ।'  
                              उस क्षण मुझे लगा कि रिश्ते बनाये और निभाए इस तरीके से जाते हैं। मेरी छोटी बेटी की शादी में जब विभा कीमो थेरेपी के दौर  गुजर रही थी , मैंने  अजय को मना किया था कि विभा को इस समय तुम्हारी ज्यादा जरूरत है , तब भी अजय कानपुर शादी में शामिल हुए थे , जितने घंटों की सफर करके आये थे उतने घंटे रुकना भी नहीं हुआ लेकिन मुझे कितना अच्छा लगा ये मैं व्यक्त नहीं कर सकती।  


       अजय मुझसे छोटे हैं लेकिन मैं उसकी बहुत इज्जत करती हूँ।