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गुरुवार, 17 जुलाई 2014

क्या ये हद है ?

                     हम अगर चाहें कि किसी चीज की हद बना दें तो उसको तोड़ने वाले बहुत  मिल जाते हैं।  एक हकीकत कही  थी मैंने  विडम्बना ( http://kriwija.blogspot.in/2014/07/blog-post.html ) लेकिन उसके आगे की हदें आज देखी तो लगा कि कोई हद नहीं इंसान के खून को सफेद होने की।
                      कल रात उनकी हालत बिगड़ी और उनको दूसरे नर्सिंग होम में शिफ्ट कर दिया गया और उनको वेंटीलेटर पर रखा गया।  मेरे घर फ़ोन आया कि  ऐसा हुआ है और उनको यहाँ लेकर आये हैं।  मैं तो नहीं पतिदेव वहां गए।  करीब ३ घंटे वह वेंटीलेटर रहीं और उसके बाद चिर निद्रा में लीन हो गयीं. वह रात ९ बजे नहीं रहीं। 

                     इन्होने उनके बेटों से कहा कि घर ले चलने के लिए कार्यवाही करवाऊं।  वे बोले - भाई साहब अभी तो पूरे पेमेंट  पैसे साथ में नहीं है।सोचते हैं कल सुबह यहाँ से ले जाते हैं।  

            इन्होने कहा - 'यहाँ पेमेंट की चिंता मत करो।  मैं यहाँ कह देता हूँ , पेमेंट दो दिन बाद भी कर सकते हो।'
                भाई साहब अब इतनी रात को कहाँ ले जाएँ ? यहीं कह दीजिये सुबह ले जाएंगे।  घर में ले जाकर और लोग भी डिस्टर्ब होंगे। वैसे भी हम लोग हर बात से वाकिफ तो हैं ही।  सब चले आये।  उतनी रात को किसी को खबर भी नहीं दी।  उनके और चाचा चाची और कजिन जिन्हें आना था सुबह खबर दी गयी।  अब जब कुछ लोग आ जाएँ तो पार्थिव शरीर नर्सिंग होम से लाया जाय।  आखिर दिन के ग्यारह बजे वहां से उनके पार्थिव शरीर को लाया गया।  कुछ लोग वहां पहुंच गए थे।  उनके पिता के परिचित भी आने लगे थे। हम भी उन लोगों से सिर्फ उनके पापा और माँ के कारण ही जुड़े हैं।   
                सोच ये रहे होंगे कि  क्या कोई अपने परिजन का पार्थिव शरीर बिना किसी कारण के नर्सिंग होम  में क्यों रखेगा? अगर इस जीवन की कटु सत्यता को हम देख पाते हैं तो ये है कि धन का मद ऐसा होता है कि वह अपने बराबर किसी को नहीं समझता।  बेटे भी रइस बाप के बेटे लेकिन उनकी बहुएं तो अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझतीं तो न उन्हें किसी के यहाँ जाना आना और न किसी को उनके यहाँ।  जो स्वर्ग सिधार गयीं - हमेशा सबसे मिलनसार रहीं क्योंकि उन्होंने इस स्थिति में आने से पहले एक सामान्य जीवन जिया था और वे जमीन से जुडी रहीं।  जब तक उनसे संभव था  वे दोनों ही सबके सुख और दुःख में शामिल हुए । अगर  वे  पार्थिव शरीर को घर ले आते तो सारी रात उसके पास बैठता कौन ? किसी  सुख - दुःख में शामिल नहीं रहे तो कोई और तो आने से रहा।  खबर मिली भी तो सुबह ही आएंगे लोग। बस इसी लिए शव घर बाद में लाया गया उनके कफन दफन का सामान पहले आ चूका था।  
                  सोचती हूँ , उन्होंने कुछ किया था तो उनके गाँव से और दूसरे भाई लोग आ गए लेकिन जिन चाचा और चाची को बहुएं पहचानती नहीं है , गाँव का कभी मुंह नहीं देखा तो सब के सब तुरंत ही वापस हो गए।  क्या चार कन्धों के बिना भी कोई जा सकता है।  क्या वे उस पैसे से पार्थिव शरीर के गिर्द बैठने वाले चार लोग खरीद पाएंगे ? क्या किराये के कंधे भी मिल सकेंगे ? अगर नहीं तो फिर कल उनका  क्या होगा ?

सोमवार, 14 जुलाई 2014

बस स्टॉप से ……(नीरू शर्मा ) !

                        बरसों की सफर ने इतने  लोगों से मिलाया और अलग कर दिया।  कुछ चहरे आज भी याद है और कुछ ऐसे लोग थे कि वे जीवन भर याद रहेंगे।  अपनी जीवन शैली , जीवटता और संघर्ष के माद्दे को लेकर।  एक थी नीरू शर्मा - वो मेरी बस से नहीं जाती थी क्योंकि मैंने कभी बस पास नहीं बनवाया इतने सालों में और मैंने कभी कर्मचारी बस का प्रयोग भी नहीं किया था क्योंकि मुझे कुछ ही दूर जाना होता था  और कर्मचारी बस अलग अलग रुट की अलग अलग होती थी।  ये भी था कि  सब पढ़े लिखे लोग लेकिन अपने अपने साथियों के लिए सीट घेर कर बैठ जाते थे।  उन बसों में जाने वाले परमानेंट होते थे। सो अगर आप गलती से जाना भी चाहें तो खड़े खड़े जाइये।  
                       नीरू शर्मा कभी कभी अगर  बच्चे को डे  केयर सेंटर से लाने में देर हो जाती और उसको लगता कि अब वह एम टी सेक्शन नहीं पहुँच पाएगी तो मेरे बस स्टॉप पर रुक जाती। नीरु - हर समय उसके चेहरे पर हंसी खिली  रहती थी।  पास में बैठती तो बात करना शुरू हो जाता था।  उसने एक साइकिल अपने ऑफिस के पास रखी थी क्योंकि उसका ऑफिस एरोनॉटिक्स के पास था जहाँ कोई बस नहीं पहुंचती थी। वह दिन में साईकिल से ही कहीं भी आना जाना होता था तो जल्दी से चल देती।  
                        वह अपने ३ साल के बेटे को लेकर सुबह ७ बजे घर छोड़ देती थी, वह ऑफिस की बस की बजाय बड़े बेटे की स्कूल बस से आ जाती थी।  समय से पहले ऑफिस तो नहीं पहुंचती लेकिन बच्चे के साथ आकर उसको डे केयर सेंटर छोड़ती उसका सारा सामान वहां रख देती फिर उसको सारी हिदायतें देकर अपने ऑफिस के लिए निकल जाती।  अगर इस बस से न आये तो बच्चे को छोड़ना और समय से ऑफिस पहुँचना संभव न था।  वह सुबह ४ बजे उठती।  घर में ससुर , पति , देवर सबके लिए नाश्ता और खाना बना कर रखती और दोनों बच्चों का और अपना लंच लेकर आती।  उसका बड़ा बेटा सेंट्रल स्कूल में पढता था सो उसकी बस से ही आ जाती थी।  दिन में साइकिल उठा कर बच्चे को देखने आती और फिर उसके साथ खुद भी लंच कर लेती और फिर साइकिल से अपने ऑफिस वापस। शाम पौने छह बजे की बस से घर के लिए निकलती और फिर ७ या उसके बाद ही  पहुँचती।  पूरे १२ घंटे उसके आई आई टी में ही गुजरते थे लेकिन फिर भी कभी चेहरे पर थकन  या फिर उसको उदास नहीं देखा।  नौकरी भी उसकी स्थायी नहीं थी लेकिन कभी उसके पिता यहाँ नौकरी करते थे  तो उन्होंने लगवा दी थी और फिर अपने काम और स्वभाव के कारण  कभी किसी विभाग  और कभी विभाग में उसको काम मिलता ही रहा।
                     उसके बाद की कड़ी जुडी तो उसके जीवन की तस्वीर पूरी तरह से साफ हो गयी।  मेरी चचेरी बहन की सगाई में मुझे उसका बेटा मिला तो मैंने पूछा मम्मी कहाँ ? उसने बताया कि वह आ रही है।  यानि उसके पति और मेरे होने वाले बहनोई दोनों  बचपन के साथी थे और आमने सामने घर था। 
                      फिर उसके इस भाग दौड़ की कहानी बिलकुल आईने की तरह साफ हो गयी।  पिता ने एक पैसे वाले घर देख कर वकील लडके से उसकी शादी कर दी थी।  कुछ साल जिंदगी के यूं ही गुजर जाते हैं , वह एक बेटे की माँ बनी।  पति की वकालत कुछ चलती तो थी नहीं , बड़े बाप ने शादी हो जाए सो करवा दी थी।  वह दिन भर आवारागर्दी करते और पिता ने बाकी  सब घर में संभाल ही रखा था  सिवा अपने बेटों के ।  कोई जिम्मेदारी न थी।  धीरे धीरे वकील साहब को पीने की लत लग गयी।  माँ उनकी बचपन में गुजर गयीं थी सो पिता ने बहुत  नाजों से पाला था।  न किसी बात के लिए रोका  न टोका ।  नीरू उस समय भी ऐसी ही थी।  पिता की संपत्ति अगर इसी तरह खर्च होती रही तो एक दिन ख़त्म तो होनी है।  दूसरे बेटे के होने से ही उसने  सोचना शुरू कर दिया - अपने पापा को कुछ भी नहीं बताया लेकिन स्थानीय होने के नाते कुछ शोहरत अपने आप ही फैलने लगती है और उनको भी अपने दामाद के रंग ढंग पता चल गए।  अपनी बेटी के और दो मासूम बच्चों  भविष्य की चिंता उनको सताने लगी थी।  उन्होंने संविदा पर बेटी को नौकरी में लगाने का निर्णय लिया।  लेकिन बच्चा छोटा था सो वहां के डे केयर सेंटर में रखने की बात सोची। 
                          चिंता , भागदौड़ और नौकरी की अनिश्चित ने उसको थायरॉइड और शुगर का मरीज बना दिया।  मोटापा उसका बढ़ने लगा।  चेहरा उसका अभी भी उतना ही भोला और हंसमुख रहता था।  धीरे धीरे छोटा बेटा भी सेंट्रल स्कूल में आ गया और फिर उसकी भागदौड़ कुछ कम हुई।  दोनों भाई स्कूल बस से आ जाते और चले जाते।  कभी कभी बच्चे मम्मी के साथ जाने के लिए रुक जाते।  आगे के पढाई और उसकी व्यवस्था करना आसान न था।  कभी पूछती कि आगे किस दिशा में डालूँ बच्चे को ? मेरी सलाह थी कि पहले उसकी रूचि देखो और हाई स्कूल के मार्क्स के आधार पर निश्चय करना।  मेरी बेटियां कुछ साल पहले पढ़ कर निकल गयीं थी लेकिन उनके मेडिकल की कोचिंग के नोट्स मैंने संभल कर रखे थे और उसके बेटे को अभी २ साल समय बाकि थी लेकिन मैंने उसको वो नोट्स दे दिए थे कि इन्हें संभल कर रखना।  बच्चे को आगे काम आयेगे।  
                      उसके ससुर का निधन  हो गया। पति के हाल देख कर देवर भी उसी दिशा में चल निकला।  वो कभी कभी कहती कि देवर की शादी तो होनी नहीं है और होगी भी तो मैं किसी दूसरी लड़की को इस नरक में नहीं आने दूँगी।  पति, देवर और अपने खुद के दो बच्चों सहित  पांच लोगों की जिम्मेदारी उस पर आ गयी।  घर के सामान उसके ऑफिस में रहने के समय बिकने शुरू हो गए।  उसने मकान ही बेचने का निर्णय लिया ताकि उस माहौल से निकल कर कुछ सुधार हो।  उसने एक अपार्टमेंट खरीद लिया।  उस पुराने घर और मोहल्ले को बिलकुल छोड़ दिया। 
                      फिर हमारी मुलाकात हुई तो  बताया कि बेटे ने फार्मेसी में एडमिशन लिया है।   पढाई अभी जारी है और नीरू का संघर्ष भी।  कभी वो इस संघर्ष से मुक्त होगी कि नहीं इस सवाल पर मैं कह देती - देखो जीवन भर दिन एक जैसे नहीं होते हैं . जरूर एक दिन ये संघर्ष ख़त्म होगा और तुम भी औरों की तरह से आराम करोगी।  हम उसे इतना ही सांत्वना दे सकते थे।  बहन के पास रहने और दोस्ती के रिश्ते से वह मुझे भी दी कहती थी।  मुझे इन्तजार है नीरू के एक सुखद भविष्य का।

शुक्रवार, 11 जुलाई 2014

बस स्टॉप से …(रजनी खन्ना ) !

                                         ये कहानी बनी तो बस स्टॉप से नहीं लेकिन  इसके बारे में सब कुछ बस स्टॉप से ही सुनाने वाले मिलते रहे क्योंकि रजनी को तो मैंने वर्षों बाद जाना।  वो एक सीधी सादी महिला थी। उनके बारे में बताने के लिए बहुत साल पीछे जाना पड़ेगा --! 
                                         रजनी नहीं रही और वह भी उस समय जब कि वह हार्ट की मरीज  थी और उसका गैर जिम्मेदार बेटा उसे बीमार छोड़ कर शादी में चला गया हो ।  उसको हफ़्तों हेल्थ सेंटर में रहना  पड़ता था। प्रमिला ने  उस दिन बताया कि उस दिन रजनी घर पर अकेली थी।  सुपुत्र ससुराल में किसी शादी में गए थे , माँ  को ऐसी हालत में छोड़ कर।  अचानक एक रात रजनी की तबियत बिगड़ी तो उसने पडोसीको  फ़ोन से बुलाया। उन्होंने ही एम्बुलेंस बुला कर हेल्थ सेंटर में भर्ती करवाया।  पुत्र को फ़ोन किया गया तो उठा ही नहीं।  जब उठाया तो कहा अभी बारात आ चुकी है काम ख़त्म होते ही चलता हूँ।  फिर चलने की नौबत ही नहीं आई और रजनी चली गयी।  ऑफिस वालों ने सहयोग किया उसके सास ससुर को सूचना दी।  छोटा बेटा भी पहुँच गया उसके बाद  उनका आना हुआ। रजनी तो जा चुकी थी न।  उसके इस कृत्य के लिए सबने बहुत धिक्कारा।  मुझे ये सब कुछ पता न था , कभी अगर फेसबुक पर नजर आता और उसको मैसेज देती तो  क्विट कर जाता था।


                   मैंने उसको जब से जाना वो  सफर बहुत लम्बा है ----

                                         मैंने  कंप्यूटर साइंस विभाग में ज्वाइन किया तो उसके कुछ ही साल बाद राज खन्ना ने ऑफिस में एक क्लर्क की तरह नौकरी ज्वाइन की।  हमारा काम ऑफिस  से नहीं पड़ता था लेकिन हम जानते तो सबको थे।  हाँ मेरे साथ काम करने वाली सहेलियां जो कैंपस में रहती थी , उनसे सबके बारे में पता चलता रहता था क्योंकि कुछ लोगों का ब्लॉक एक ही था। फिर अचानक पता चला कि राज खन्ना बीमार हैं और कुछ दिन बाद नहीं रहे।  दो छोटे छोटे बेटे थे उनके --  फिर एक लम्बा अंतराल ! ससुराल वालों ने साथ नहीं दिया ,  तैयार थे कि सारा सामान लेकर उनके साथ चले और सारे पैसे उनको सौंप दे. लेकिन इस दुनियां में कुछ ऐसे भी लोग भी होते हैं जो निःस्वार्थ दूसरे की भलाई चाहते हैं और  उनकी भलाई करते भी हैं. ऑफिस के कुछ लोगों ने रजनी से कैंपस छोड़ने के लिए मना किया क्योंकि यहाँ रहने से उनके लिए नौकरी दिलाने का काम आसान रहेगा।
                                       वर्षों संघर्ष चला , बेटा कुछ बड़ा हुआ उसके लिए ऑफिस वालों ने प्रोजेक्ट में नौकरी लगवा दी। कई दूसरे प्रोजेक्ट में काम करने के बाद वह हमारे प्रोजेक्ट में काम करने आया।  वैसे वह बहुत इज्जत देता था क्योंकि उसे पता था कि हम सब उसके पापा के समय से उसके परिवार  जानते हैं।   वह अपनी शिक्षा इग्नू से करता रहा।  उसने MCA किया।  उसी बीच एक लम्बे संघर्ष के बाद , वहां के कर्मचारी संगठन को संस्थान  से लड़कर रजनी के लिए उसी विभाग में नौकरी की अनुमति मिली।  वह अधिक पढ़ी न थी सो उसको चतुर्थ श्रेणी में नौकरी मिली लेकिन विभाग के लोग उसकी मजबूरी और राज की पत्नी के रूप में देख कर उसको बहुत सम्मान देते।  काम उन्हें सिर्फ फाइल संभालने और फोटो कॉपी आदि करने दिया जाता था .  कभी कभी उनसे मेरी मुलाकात होती थी।  अपने बेटे के काम के बारे में पूछा करती थी।
                                       उनका बेटा भटकने लगा था , वह अंतर्मुखी तो था ही , कभी कभी काम  छोड़ कर बिना बताये हफ़्तों के लिए गायब हो जाता।  फिर आता तो हमारे बॉस सिर्फ उसकी माँ के कारण फिर से रख लेते थे।  लेकिन माँ उसकी इन हरकतों से बहुत परेशान थी ,  जवानी में पति के चले जाने से टूटी हुई महिला अंदर से कितनी कमजोर हो चुकी थी इसका प्रमाण उनकी क्षीण काया थी।  वह ह्रदय रोग की भी शिकार हो गयीं।  कभी डिप्रेशन और कभी हार्ट प्रॉब्लम के  कारण हेल्थ सेंटर में भर्ती होना पड़ता था ।  उस के गायब होने के दौरान ही एक बार मैंने उनसे मिली तो बस रोने लगी कि कुछ बताता नहीं है कि  जाता कहाँ है ? आप अबकी बार आये तो  उसको समझाइये।
                                       बाद में पता चला कि वह अपनी मर्जी से शादी करना चाह  रहा था।  माँ ने उसके लिए भी अपनी अनुमति दे दी। शादी हो गयी और उसको बेटा भी हो गया। मेरे साथ काम करने के कारण  उसकी शादी में मैं भी शामिल हुई थी।  करीब दो साल तक वह काम करता रहा।  फिर प्रोजेक्ट CDAC नॉएडा भेज दिया गया।  मुझे जाना नहीं था सो मैं घर पर रहने लगी लेकिन वह भी माँ के कारण  किसी दूसरे प्रोजेक्ट में काम करने  लगा था।  फिर कोई खबर नहीं - जब ३ साल बाद बस स्टॉप पर पहुंची तो ये एक जिंदगी के ख़त्म होने की कहानी मिली।  

बुधवार, 9 जुलाई 2014

बस स्टॉप से.…………… !

आई आई टी सैक बस स्टॉप



                     
  

                      एक मध्यम वर्गीय इंसान के लिए बस स्टॉप एक  ऐसी जगह है , जहाँ से सब चल देते है गंतव्य को और फिर वापस अपने घर को।  हाँ आने और जाने के ये  बस स्टॉप अलग अलग होते हैं और जाने के समय का मूड और लौटने के समय का मूड भी अलग अलग होता है।  ऑफिस या स्कूल या कॉलेज कहीं भी जाना हो।  जाते समय बस एक मन केंद्रित होता है कि जल्दी से पहुँच जाय।  कल का कुछ काम बाकी  है   उसको पूरा कर लेंगे - आज के लेक्चर पर कुछ खास देख लेंगे।  प्रेजेंटेशन है तो कुछ और खोज कर उसमें शामिल  कर लेंगे. 
                               यही बस स्टॉप नए नए रिश्तों के गढ़ने का एक स्थान भी बन जाता है।  हम एक  दूसरे को अच्छी तरह से जानने लगते हैं।  घर की , बाहर की , रिश्तों की और बच्चों की सारी बातें शेयर होने लगती हैं।  अब जब कि मैं बस स्टॉप छोड़ चुकी हूँ लेकिन फिर मन हुआ कि  ३ साल बाद फिर  बस स्टॉप से बस में चढ़ कर आया जाय कितने लोग अभी तक हैं  कितने कहीं और चले गए।  
                                  मैं आई आई टी कभी बस से गयी नहीं क्योंकि बस बहुत जल्दी जाती है और मेरे घर के रुट पर कोई बस आती ही नहीं  इसलिए मैंने हमेशा जाने के लिए खुद का साधन चुना और लौटने में स्टाफ बस लेती रही क्योंकि वहां से लौटने समय तो निश्चित होता था।   दिन में एक फ्रेंड के घर गयी थी , उनके पतिदेव ने कहा कि वो गाड़ी से छोड़ देते हैं मैंने मना कर दिया।  सोचा  बहुत दिन बाद फिर एक बार बस से जाते हैं और वह भी समय से पहले बस स्टॉप पहुंचा जाय।  बस स्टॉप की ओर  बढ़ते बढ़ते कितने साथी मिलने लगे --
- 'अरे मैडम आज कहाँ से दर्शन हो गए  ?' 
-' मैडम जी कैसे आप बिलकुल से गायब हो गयीं ?'
-'आंटी हम आपको बहुत मिस करते हैं। '
-'आपको पता है आपके डिपार्टमेंट के ऑफिस में जो रजनी थी न , जिसका बेटा आपकी लैब में था , अचानक नहीं रही। '
-मिसेज बहरानी भी ऐसे ही अचानक नहीं रहीं। ' 
                               मुझे साथ आने वाली सभी वर्ग की महिलायें , स्टूडेंट्स , रिसर्च से जुड़े लोग सब से एक लगाव था।  जब कि  उनमें से मेरे साथ काम करे वाला कोई भी नहीं था।  इन तीन सालों में किसी के बच्चे का सिलेक्शन हो चूका था , किसी की पढाई पूरी हो चुकी थी और किसी की शादी हो चुकी थी।  जिनके बच्चे छोटे थे वे स्कूल जाने लगे थे।  सबके डिटेल्स ले नहीं  सकती थी।  फिर भी कुछ कहानियां बन चुकी थी और जिनके बारे में शुरू से जुडी थी , सुनकर दुःख हुआ।  वे कहानियां जो बस स्टॉप से जन्मी  हो  -  सिलसिला सा बना और फिर उस सिलसिले को आगे ले चलने का मन हो रहा है।  कुछ नाम , कुछ जीवन और कुछ लोग जिन्हें कभी किसी ने तवज्जो दी ही नहीं कुछ तो ऐसा था जो लिखा जाय। कुछ नाम जिनके जीवन के संघर्ष , झंझावातों से झूझते हुए अपनी कश्ती खींचते हुए लोगों की एक तस्वीर , एक झलक प्रस्तुत करने का मन हुआ सो आगे उनके बारे में  लिखना है जो यथार्थ है और कटु भी।  फिर मिलते हैं इसी बस स्टॉप पर ……………\\

शनिवार, 5 जुलाई 2014

विडम्बना !

                                             जीवन कर्मभूमि है और इस पर कर्म सभी करते हैं - फिर चाहे वे धर्म और नीति संगत हों या फिर असंगत।  सब अपने घर परिवार के लिए ही कमाते हैं भले ही उनका तरीका कोई भी हो लेकिन वह तरीका इस रूप में फलित होगा ये अगर इंसान जान ले तो फिर गलत रस्ते पर चलने की सोचे ही नहीं। 
                                            हमारे परिवार से जुड़ा एक परिवार , आज  से नहीं बल्कि हमारे ससुर जी के ज़माने से - मुखिया उम्र में बहुत बड़े हैं लेकिन कुछ ऐसा है कि  हम उन्हें बड़े भाई की तरह मानते हैं  और उनके बच्चे हमें भाई तरह।  जीवन तो उन्होंने गाँव से निकल कर एक स्कूल टीचर की तरह  शुरू किया और ख़त्म भी किया लेकिन बीच में जो रास्ते दूसरी और मुड़  गए तो फिर पलट कर नहीं देखा।  वे भाग्यवश एक हाउसिंग सोसायटी के सचिव बन बैठे और फिर वारे न्यारे होने दीजिये।  करोड़ों  की कमाई तीन बेटे अच्छी शिक्षा का प्रयास किया लेकिन कोई कुछ कर नहीं नहीं पाया जरूरत भी नहीं थी।  करोड़ों की कमाई आखिर थी किसके लिए ? हर एक का ये प्रयास की पिताजी हमें ज्यादा दें।  खैर सबके खर्चे वह उठाते रहे और बेटे दलाली में फंसे कारनामे करते रहे।  फिर भी घर में आने वाले किसी भी रिश्तेदार को उस कोठी में रहने की जगह तो दूर एक कप चाय भी नसीब नहीं थी।  बेचारे सड़क से ढाबे से चाय माँगा कर पिलाते और खाने के लिए होटल ले जाते। 
                                       सारे भाई इस बात में उसको ज्यादा देते हो , एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगते रहते और इसके बाद भी खाना उन लोगों को कौन  दे?  या फिर एक माँ को दे और दूसरा उनको दे , जबकि सबकी घर गृहस्थी का इंतजाम वह ही करते थे .  उनका ये सफर उस समय ठिठक गया जब एक दिन कहीं  जाते वक़्त उनको ब्रेन हैमरेज हो गया और वह भी किसी नर्सिंग होम के  करीब।  खैर पैसे की कमी न थी या फिर कर्मों के कुछ फल देखने बाकि रहे होंगे - चार महीने कोमा में रहने के बाद भी वह बच गए और घर आ गए।   पिछले तीन साल से बिस्तर पर हैं।  पैसे ख़त्म होते चले जा रहे हैं फिर भी कहते हैं न कि  मरा हुआ हाथी भी सवा लाख का होता है।  पत्नी और एक नौकर के सहारे गुजर रहे थे दिन - इसी बीच एक बेटा अचानक कैंसर के शिकार हुआ और चल बसा।  पत्नी  के लिए तो सदमा सहन करने के काबिल न था और फिर पति की हालत से चिंतित रहती।  वह आधी स्मरण शक्ति खो चुके हैं लेकिन फिर भी बेटों की चिंता रहती है। 
                                     फिर अचानक एक दिन पत्नी बेहोश हो गयीं और उनकी चेकअप हुआ तो पता चला कि उनको ब्रेन ट्यूमर है।  उनका ऑपरेशन किया गया वह कैंसर  बन चूका था।  कल जब उनको देखने हॉस्पिटल गयी तो उनके पास किराए की एक नर्स थी और दूसरी रात में रहती है।  बेटा दिन में एक दो बार आ जाता है।  बताते चले की उनके परिवार में उनकी ही कमाई से पलने वाले दो बेटे बहुएं , एक युवा पोता , पोती हैं लेकिन माँ के लिए किसी के पास वक़्त नहीं है।  किराए की नर्सों के सहारे अपने दिन पूरे कर रही हैं।  अब इस समय में पति घर में नौकर के सहारे और पत्नी अस्पताल में दूसरों के सहारे।करोड़ों रुपये कमाए , एक प्लाट दो दो लोगों को बेच कर जालसाजी की।  सब कुछ ख़त्म हो रहा है।  हाँ इतना जरूर है कि बेटों के लिए इतना कमा कर रख दिया कि वे  जीवन ऐसे ही गुजार  सकते हैं।  उनके हिस्से में क्या आया ? अपने बेटे भी तो नहीं आये। 
                                    
   यही तो कहा जाएगा -- 'जो औरों की खातिर जिए मर मिटे पूछती हूँ उन्हें क्या मिला ?'

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

अम्मा की तृतीय पुण्यतिथि !

           
                         आज अम्मा की तृतीय पुण्यतिथि है लेकिन लगता है कि कल तक तो अम्मा हमारे साथ थी।  वह नहीं हैं तो क्या कुछ बातें ऐसी हैं जो हमें उनकी याद उस अवसर पर जरूर ही दिला जाती है। 
                          नए नोटों को रखने की आदत थी पुराने नोट उनके पर्स में जा ही नहीं सकते थे अगर कभी पेंशन में पुराने नोट आ गए तो वह उन्हें अपने तकिये के नीचे रख लेती और जब जेठ जी की  तनख्वाह मिलती तो उनसे खरे खरे नोटों में बदलवा लेती थी।  एक नयें नोटों का पर्स और दूसरा रेजगारी का।  उन्हें बड़ी ख़ुशी होती जब वह किसी को भी अपने पर्स से नए नोट निकल कर देती। 
                           जब  हमारी बेटियां घर से बाहर पढने के लिए गयी तो उनके जाने से पहले दादी टीका जरूर करती और उनको नोट देती और साथ ही कुछ रेजगारी भी देती कि रास्ते  में चाय पी लेना ये पैसे काम आयेंगे।  उनके सामने हमारी पाँचों बेटियां घर से बाहर पढने के लिए जा चुकी थी।  मजाल है कि कोई भी बेटी आये और दादी उसके जाने के पहले टीका न करें।  अगर लेट नाइट की ट्रेन है तो वह बैठी रहती जब जायेगी तब टीका करेंगी उसके बिना तो जाना सम्भव ही नहीं था।  जब उनकी उम्र नब्बे के ऊपर हो गयी तो  बेटियां कहतीं कि दादी आप टीका कर दीजिये हम अभी जा रहे हैं ताकि उन्हें बहुत रात तक बैठ कर इन्तजार न करना पड़े।  
                               हमारी कोई भी बेटी घर से बाहर बगैर टीके के तो  गयी ही नहीं।  अब जब भी बेटियां आती हैं और जाती हैं तो हमारी टीका करने की हिम्मत ही नहीं होती है कि ये काम तो अम्मा ही करती थी।  फिर ये  ख़त्म ही हो गया।  उन्हें अपनी पोतियों की शादी देखने का बड़ा शौक था लेकिन उनके सामने सिर्फ एक बेटी की शादी हो पायी और वह भी हमने बेंगलोर जा कर की थी तो अम्मा उतने दूर नहीं जा सकती थीं और उसके एक साल बाद वो चली गयीं।  लेकिन वो हमारे साथ आज भी हैं यादों में - अपनी आदतों के साथ और आशीर्वाद के साथ।  आज उन्हें अपने श्रद्धा सुमन इसी तरह अर्पित करती हूँ। 

रविवार, 20 अक्टूबर 2013

बाबूजी की 22 वीं पुण्यतिथि !




            २२ वर्ष  बाबूजी को गए हुए ,  लेकिन वे अपने स्वभाव और सिद्धांतों से हमारे साथ आज भी हैं।  आत्मनिर्भर , कर्मठ और स्पष्टवादी  होने के कारण वे अपनी अलग छवि रखते थे।  कानपूर के उर्सला हॉर्समैन हॉस्पिटल में फार्मासिस्ट के पद पर जीवन भर काम किया।  कई बार स्टोर इंचार्ज बने लेकिन मजाल है कि कोई एक गोली भी बगैर डॉक्टर के पर्चे के बगैर ले जाय।  परिणाम वही अपने जीवन में सिर्फ यापन ही कर सके।  मित्रों के शौक़ीन बाबूजी ने कभी बेईमानी की बात नहीं जानी।  अपने जीवन में ये भी नहीं सोचा कि  यहाँ से रिटायर्ड होकर कहाँ रहेंगे ? कोई घर नहीं , कोई जमीन नहीं और रिटायर होने के बाद नियमानुसार जितने दिन का समय मिला रहे और फिर तुरंत बेटों को आदेश के किराये का मकान  खोजो। जब की उनके साथियों में उनसे पहले अपने एक नहीं दो दो मकान तैयार करवा लिए थे।  वैसे इस समय तक मैं उनके परिवार में शामिल भी नहीं हुई थी। 
                        किराये के मकान में कभी रहे नहीं थे सो मकान मालिक की दखल से परेशान और उनके भाग्य ने साथ दिया और उनको कानपूर विश्वविद्यालय में डिस्पेंसरी संभालने का काम मिल गया और वे फिर सरकारी आवास में आ गए।  मैं उनके परिवार में यही शामिल हुई थी।  उनके बेटी नहीं थी सो उनकी बहुएँ  ही उनकी बेटियां बनी लेकिन सख्त अनुशासन ने हमें अनुशासित कर दिया था।  वैसे अपने मायके में कौन इतना अनुशासित रहता है ? समय से चाय , दूध और खाना इसमें कोई ढील पसंद नहीं थी।

                          वे अपनी 80 वर्ष की आयु तक अपने सारे  काम स्वयं करते थे।  अपने कपडे धोने से लेकर बागवानी तक।  बस जीवन के ४ महीने उन्होंने आश्रित होकर गुजारे  क्योंकि उनको कैंसर हुआ था और आखिरी चार महीने वे खुद कुछ कर पाने में असमर्थ रहे।  मुझे याद है कि उनसे कुछ महीने पहले १० अगस्त को मेरे पापा का अकस्मात् निधन हो गया था और मुझे खबर तक नहीं मिली क्योंकि टेलीग्राम आया ही नहीं था।  जब मैं लौट कर आई तो उन्होंने गले से लगा लिया मैं बहुत रोई तो उन्होंने सिर  पर हाथ  फिरते हुए कहा - "जाने के दिन तो हमारे थे वो कैसे चले गए ? मैं तो ये भी नहीं कह सकता कि मैं तो हूँ , मेरा क्या ठिकाना ? "
                            शायद मैं दुनियां में अकेली होऊँगी जिसके सिर से दोनों पिताओं का साया एक साथ उठ गया।  अब बस यादें हैं - आज दिन तो रुला ही जाती है।