चिट्ठाजगत www.hamarivani.com

सोमवार, 14 जुलाई 2014

बस स्टॉप से ……(नीरू शर्मा ) !

                        बरसों की सफर ने इतने  लोगों से मिलाया और अलग कर दिया।  कुछ चहरे आज भी याद है और कुछ ऐसे लोग थे कि वे जीवन भर याद रहेंगे।  अपनी जीवन शैली , जीवटता और संघर्ष के माद्दे को लेकर।  एक थी नीरू शर्मा - वो मेरी बस से नहीं जाती थी क्योंकि मैंने कभी बस पास नहीं बनवाया इतने सालों में और मैंने कभी कर्मचारी बस का प्रयोग भी नहीं किया था क्योंकि मुझे कुछ ही दूर जाना होता था  और कर्मचारी बस अलग अलग रुट की अलग अलग होती थी।  ये भी था कि  सब पढ़े लिखे लोग लेकिन अपने अपने साथियों के लिए सीट घेर कर बैठ जाते थे।  उन बसों में जाने वाले परमानेंट होते थे। सो अगर आप गलती से जाना भी चाहें तो खड़े खड़े जाइये।  
                       नीरू शर्मा कभी कभी अगर  बच्चे को डे  केयर सेंटर से लाने में देर हो जाती और उसको लगता कि अब वह एम टी सेक्शन नहीं पहुँच पाएगी तो मेरे बस स्टॉप पर रुक जाती। नीरु - हर समय उसके चेहरे पर हंसी खिली  रहती थी।  पास में बैठती तो बात करना शुरू हो जाता था।  उसने एक साइकिल अपने ऑफिस के पास रखी थी क्योंकि उसका ऑफिस एरोनॉटिक्स के पास था जहाँ कोई बस नहीं पहुंचती थी। वह दिन में साईकिल से ही कहीं भी आना जाना होता था तो जल्दी से चल देती।  
                        वह अपने ३ साल के बेटे को लेकर सुबह ७ बजे घर छोड़ देती थी, वह ऑफिस की बस की बजाय बड़े बेटे की स्कूल बस से आ जाती थी।  समय से पहले ऑफिस तो नहीं पहुंचती लेकिन बच्चे के साथ आकर उसको डे केयर सेंटर छोड़ती उसका सारा सामान वहां रख देती फिर उसको सारी हिदायतें देकर अपने ऑफिस के लिए निकल जाती।  अगर इस बस से न आये तो बच्चे को छोड़ना और समय से ऑफिस पहुँचना संभव न था।  वह सुबह ४ बजे उठती।  घर में ससुर , पति , देवर सबके लिए नाश्ता और खाना बना कर रखती और दोनों बच्चों का और अपना लंच लेकर आती।  उसका बड़ा बेटा सेंट्रल स्कूल में पढता था सो उसकी बस से ही आ जाती थी।  दिन में साइकिल उठा कर बच्चे को देखने आती और फिर उसके साथ खुद भी लंच कर लेती और फिर साइकिल से अपने ऑफिस वापस। शाम पौने छह बजे की बस से घर के लिए निकलती और फिर ७ या उसके बाद ही  पहुँचती।  पूरे १२ घंटे उसके आई आई टी में ही गुजरते थे लेकिन फिर भी कभी चेहरे पर थकन  या फिर उसको उदास नहीं देखा।  नौकरी भी उसकी स्थायी नहीं थी लेकिन कभी उसके पिता यहाँ नौकरी करते थे  तो उन्होंने लगवा दी थी और फिर अपने काम और स्वभाव के कारण  कभी किसी विभाग  और कभी विभाग में उसको काम मिलता ही रहा।
                     उसके बाद की कड़ी जुडी तो उसके जीवन की तस्वीर पूरी तरह से साफ हो गयी।  मेरी चचेरी बहन की सगाई में मुझे उसका बेटा मिला तो मैंने पूछा मम्मी कहाँ ? उसने बताया कि वह आ रही है।  यानि उसके पति और मेरे होने वाले बहनोई दोनों  बचपन के साथी थे और आमने सामने घर था। 
                      फिर उसके इस भाग दौड़ की कहानी बिलकुल आईने की तरह साफ हो गयी।  पिता ने एक पैसे वाले घर देख कर वकील लडके से उसकी शादी कर दी थी।  कुछ साल जिंदगी के यूं ही गुजर जाते हैं , वह एक बेटे की माँ बनी।  पति की वकालत कुछ चलती तो थी नहीं , बड़े बाप ने शादी हो जाए सो करवा दी थी।  वह दिन भर आवारागर्दी करते और पिता ने बाकी  सब घर में संभाल ही रखा था  सिवा अपने बेटों के ।  कोई जिम्मेदारी न थी।  धीरे धीरे वकील साहब को पीने की लत लग गयी।  माँ उनकी बचपन में गुजर गयीं थी सो पिता ने बहुत  नाजों से पाला था।  न किसी बात के लिए रोका  न टोका ।  नीरू उस समय भी ऐसी ही थी।  पिता की संपत्ति अगर इसी तरह खर्च होती रही तो एक दिन ख़त्म तो होनी है।  दूसरे बेटे के होने से ही उसने  सोचना शुरू कर दिया - अपने पापा को कुछ भी नहीं बताया लेकिन स्थानीय होने के नाते कुछ शोहरत अपने आप ही फैलने लगती है और उनको भी अपने दामाद के रंग ढंग पता चल गए।  अपनी बेटी के और दो मासूम बच्चों  भविष्य की चिंता उनको सताने लगी थी।  उन्होंने संविदा पर बेटी को नौकरी में लगाने का निर्णय लिया।  लेकिन बच्चा छोटा था सो वहां के डे केयर सेंटर में रखने की बात सोची। 
                          चिंता , भागदौड़ और नौकरी की अनिश्चित ने उसको थायरॉइड और शुगर का मरीज बना दिया।  मोटापा उसका बढ़ने लगा।  चेहरा उसका अभी भी उतना ही भोला और हंसमुख रहता था।  धीरे धीरे छोटा बेटा भी सेंट्रल स्कूल में आ गया और फिर उसकी भागदौड़ कुछ कम हुई।  दोनों भाई स्कूल बस से आ जाते और चले जाते।  कभी कभी बच्चे मम्मी के साथ जाने के लिए रुक जाते।  आगे के पढाई और उसकी व्यवस्था करना आसान न था।  कभी पूछती कि आगे किस दिशा में डालूँ बच्चे को ? मेरी सलाह थी कि पहले उसकी रूचि देखो और हाई स्कूल के मार्क्स के आधार पर निश्चय करना।  मेरी बेटियां कुछ साल पहले पढ़ कर निकल गयीं थी लेकिन उनके मेडिकल की कोचिंग के नोट्स मैंने संभल कर रखे थे और उसके बेटे को अभी २ साल समय बाकि थी लेकिन मैंने उसको वो नोट्स दे दिए थे कि इन्हें संभल कर रखना।  बच्चे को आगे काम आयेगे।  
                      उसके ससुर का निधन  हो गया। पति के हाल देख कर देवर भी उसी दिशा में चल निकला।  वो कभी कभी कहती कि देवर की शादी तो होनी नहीं है और होगी भी तो मैं किसी दूसरी लड़की को इस नरक में नहीं आने दूँगी।  पति, देवर और अपने खुद के दो बच्चों सहित  पांच लोगों की जिम्मेदारी उस पर आ गयी।  घर के सामान उसके ऑफिस में रहने के समय बिकने शुरू हो गए।  उसने मकान ही बेचने का निर्णय लिया ताकि उस माहौल से निकल कर कुछ सुधार हो।  उसने एक अपार्टमेंट खरीद लिया।  उस पुराने घर और मोहल्ले को बिलकुल छोड़ दिया। 
                      फिर हमारी मुलाकात हुई तो  बताया कि बेटे ने फार्मेसी में एडमिशन लिया है।   पढाई अभी जारी है और नीरू का संघर्ष भी।  कभी वो इस संघर्ष से मुक्त होगी कि नहीं इस सवाल पर मैं कह देती - देखो जीवन भर दिन एक जैसे नहीं होते हैं . जरूर एक दिन ये संघर्ष ख़त्म होगा और तुम भी औरों की तरह से आराम करोगी।  हम उसे इतना ही सांत्वना दे सकते थे।  बहन के पास रहने और दोस्ती के रिश्ते से वह मुझे भी दी कहती थी।  मुझे इन्तजार है नीरू के एक सुखद भविष्य का।

कोई टिप्पणी नहीं: