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सोमवार, 9 मई 2011

ये कैसा मदर्स डे?

कल सबने अपनी अपनी माँ को विश किया और जिन माओं के बच्चे दूर थे उनकी आँखें छलक आई लेकिन मन को वह ख़ुशी और संतोष मिला की अन्दर तक समां गयीउस ख़ुशी कको बयान करने के लिए हमारे पास कोई शब्द नहीं होते हैंभले ही ये पश्चिमी संस्कृति की दें है लेकिन जिसमें कुछ अच्छा है अपनाने में कोई हर्ज तो नहीं है मिले माँ से उन्हें याद तो कियाजो पास थे उन्होंने तो विश किया ही और जो दूर थे उन्होंने भी माँ को विश करके अपना प्यार लुटा दियापर सारी माँओं को ये सौभाग्य नहीं मिल पाया
वह चार बेटियों और एक बेटे की ७० वर्षीय माँ हैं और आज वह घर में बिल्कुल अकेली बैठी रहीं क्योंकि बहू और बेटा जो साथ में रहता है आज सुबह सुबह अपनी ससुराल निकाल गया वहाँ एक माँ है उसको विश करने के लिए और अपनी माँ पर पहरे लगा दिए
उनकी चारों बेटियाँ हर बार विश करती हैं ये सबको पता है लेकिन शायद ये ख़ुशी उनके भाग्य में थीउन्हें आँखों से कम दिखाई देता है वह नंबर नहीं मिला पति फिर मोबाइल के दस नंबर मिलते कहीं कहीं गलती हो जाती तो मिलता ही नहीं हैकभी घर खाली हुआ तो उन्हें अपनी देवरानी का नंबर जो बेसिक फ़ोन का ही याद है मिलाकर उनसे कह देती की आज वह घर में नहीं है बेटियों से कह दो की फ़ोन मिलाकर बात कर लें
आज उनकी किसी भी बेटी का फ़ोन सुबह से नहीं आया और वे इन्तजार करा रही थी. उन्होंने देवरानी को मिलना चाहा तो फ़ोन लगा ही नहीं. चुपचाप मुँह ढक कर लेट गयी घर में आज तो कोई भी नहीं था कि वे किसी की आवाज भी सुन लेती. बस इधर उनकी तड़प और उधर उनकी बेटियाँ परेशान होंगी कि आखिर हो क्या गया है कि फ़ोन ही नहीं मिलता है.. माँ बेटी की तड़प का अनुमान शायद उस भगवान को भी नहीं हुआ नहीं तो ऐसे निष्ठुर लोग और निर्णय कैसे लिए जा सकते हैं? कुछ इत्तेफाक कि शाम को मैंने उनसे मिलने की सोची क्योंकि कुछ तो अंदाजा मैं लगा ही सकती हूँ न उनकी बेटी सही फिर भी कोई और आकर हिल हल्का कर देता है. मुझे ये पता नहीं था कि वे घर में अकेली हैं. मुझे देख कर तो वे फफक ही पड़ी . मैंने उनसे पूछा कि क्या आपके पास बेटियों के मोबाइल नंबर है तो उन्होंने एक छोटी सी डायरी निकाल कर दी उसमें उनके खास लोगों के नंबर लिखे थे. वैसे तो उनको जरूरत ही नहीं पड़ती थी क्योंकि बेटियाँ खुद ही मिलाकर बात कर लेती थीं. मैंने बेसिक फ़ोन देखा तो वह डिस्कनेक्ट पड़ा था उसका वायर निकाल कर अलग कर दिया गया था. बेसिक से किसी तरह से बात कर लें तो फिर कॉल बेक करके देख लेती और अब तो कालर आई डी लगवा लिया था.
मैंने उनकी बेटियों के नंबर अपने मोबाइल पर मिलाकर उनसे बात करवाई तो पता चला कि बेटियाँ सुबह से traai कर रही हैं और हार कर जब भाई के मोबाइल पर किया तो पता चला कि वे तो घर में नहीं है और कहा कि बेसिक पर मिला कर बात कर लो. उस समय उन्होंने अपनी सारी बेटियों से बात की . उन्हें जो सुकून मिला यह तो उनकी आत्मा ही जानती है लेकिन मुझे जो सुकून मिला वह मैं बयान नहीं कर सकती . मैंने ईश्वर से यही कहा कि हे ईश्वर ऐसी मजबूरी किसी माँ को न दे.

शनिवार, 7 मई 2011

माँ तुम्हें प्रणाम !


हमको जन्म देने वाली माँ और फिर जीवनसाथी के साथ मिलने वाली दूसरी माँ दोनों ही सम्मानीय हैं। दोनों
का ही हमारेजीवन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
इस मदर्स डे पर 'अम्मा' नहीं है - पिछली बार मदर्स डे पर उनके कहे बगैर ही ऑफिस जाने से पहले उनकी पसंदीदाडिश बना कर दी तो बोली आज क्या है? शतायु होने कि तरफ उनके बड़ते कदमों ने श्रवण शक्ति छीन ली थी।इशारेसे ही बात कर लेते थे। रोज तो उनको जो नाश्ता बनाया वही दे दिया और चल दिए ऑफिस।
वे अपनी बहुओं के लिए सही अर्थों में माँ बनी। उनके बेटे काफी उम्र में हुए तो आँखों के तारे थे और जब बहुएँ आयींतो वे बेटियाँ हो गयीं। अगर हम उन्हें माँ न कहें तो हमारी कृतघ्नता होगी। वे दोनों बहुओं को बेटी ही मानती थीं।
मैं अपने जीवन की बात करती हूँ। जब मेरी बड़ी बेटी हुई तभी मेरा बी एड में एडमिशन हो गया। मेरा घरऔरकॉलेज में बहुत दूरी थी । ६-८ घंटे लग जाते थे। कुछ दिन तो गयी लेकिन यह संभव नहीं हो पा रहा था। कालेज के
पास घर देखा लेकिन मिलना मुश्किल था। किसी तरह से एक कमरा और बरामदे का घर मिला जिसमें न खिड़कीथी और न रोशनदान लेकिन मरता क्या न करता? मेरी अम्मा ने विश्वविद्यालय की सारी सुख सुविधा वाले घर कोछोड़कर मेरे साथ जाना तय कर लिया क्योंकि बच्ची को कौन देखेगा?
कालेज से लंच में घर आती और जितनी देर में बच्ची का पेट भरती वे कुछ न कुछ बनाकर रखे होती और मेरेसामने रख देती कि तू भी जल्दी से कुछ खाले और फिर दोनों काम साथ साथ करके मैं कॉलेज के लिए भागती।बेटी को सुला कर ही कुछ खाती और कभी कभी तो अगर वह नहीं सोती तो मुझे शाम को ऐसे ही गोद में लिए हुएमिलती . मैं सिर्फ पढ़ाई और बच्ची को देख पाती ।
मैं सिर्फ
पढ़ाई और बच्ची को देख पाती थी । घर की सारी व्यवस्था मेरे कॉलेज से वापस आने के बाद कर लेती थी।मुझे कुछ भी पता नहीं लगता था कि घर में क्या लाना है? क्या करना है? वह समय भी गुजर गया। मेरी छोटी बेटी६ माह की थी जब मैंने आई आई टी में नौकरी शुरू की। ८ घंटे होते थे काम के और इस बीच में इतनी छोटी को bachchi कों कितना मुश्किल होता है एक माँ के लिए शायद आसान हो लेकिन इस उम्र में उनके लिए आसान न था लेकिन कभी कुछ कहा नहीं। ऑफिस के लिए निकलती तो बेटी उन्हें थमा कर और लौटती तो उनकी गोद से लेती।
मैं आज इस दिन जब वो नहीं है फिर भी दिए गए प्यार और मेरे प्रति किये गए त्याग से इस जन्म
में हम उरिण नहीं हो सकते हैं । मेरे सम्पूर्ण श्रद्धा सुमन उन्हें अर्पित हैं।

सोमवार, 2 मई 2011

बोली बड़ी अनमोल !

मानव स्वभाव ऐसा ही सदैव से रहा है कि न वह सुख में सुखी ओर दुःख में सुखी होनेका तो कोई सवाल ही नहीं पैदा होता है।
माना आज समाज में तमाम संस्थाएं अपने मूल्यों को खो चुकी हैं और खोती चली जा रही है। युवा पीढ़ी कीसोच बदल रही है किन्तु क्या हमारी पीढ़ी भी कहीं अपनी विकृत सोच का परिचय नहीं दे रही है। आज से पांचदशक पहले भी परिवार में नालायक कहे जाने वाले सदस्य होते थे। पर संयुक्त परिवार की बहुलता के करण ऐसेलोगों का बाहुल्य नहीं हो पाया। आज जब लाइफ स्टाइल बदल रही है। हमारे बच्चे हमारे जीवन काल में झेले गएसंघर्षों की छाया तले खुद नहीं जीना चाहते हैं और सही भी है। हमारे समय और आज के समय में कई दशकों काअंतर है। वे उन सबसे बचने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। क्या हम उनके लिए कुछ भी नहीं कर सकतेहैं । अगर हम कुछ करते हैं तो ये हमारी ममता और स्नेह का ही रूप होता है और माता पिता का यह रूप तो विषमपरिस्थिति में बदल जाए वो बात अलग हैं अन्यथा बच्चे उनकी जान होते हैं ।
मैं अपनी एक अभिन्न मित्र के यहाँ गयी , वह अपनी पुत्री के पास बैंगलोर जा रही थीं। पति घर परही रहने वाले थे क्योंकि वे अपने व्यवसाय के कारण साथ नहीं जा सकते थे, लेकिन उनकी नौकरानी सब तैयारकरके दे सकती थी सो कोई परेशानी नहीं थी। उन्होंने बताया कि उनका १० दिन रहने का इरादा है। श्रुति का बेटाअभी छोटा है और उसके घर में इस समय कोई नहीं है। दामाद भी एक हफ्ते के लिए विदेश जाने वाला था। इसतरह से उसका भी कुछ चेंज हो जायेगा और उसके बच्चे को भी अच्छा लगेगा।
उनके पति तपाक से बोले - क्यों नहीं ? आजकल आया तो बड़े शहरों में मिलती नहीं है। किसी को अपनेबच्चे के लिए आया की जरूरत होगी, इन्हें बुला लिया जायेगा या खुद चली जाएगी ।
मुझे यह सुनकर बहुत ही दुःख हुआ क्योंकि यही वह बेटी है जिसने दो साल पहले अपनी माँ केएक्सीडेंट होने पर ३ महीने यही रहकर और माँ के सारे काम अपने हाथ से किये किसी नर्स को नहीं रखा किसीआया को नहीं रखा। वह अपनी माँ के दोनों हाथ के दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण कभी भी परेशान नहीं हुई। उसने माँकों नहलाने धुलाने से लेकर उसकी चोटी बनाने से लेकर समय समय पर दवा और खाने तक को अकेले संभालरखा था। आज जब माँ उसके पास जा रही है तो इतना तीखा बोल। मुझे इतना बुरा लगा अगर वह बेटी या बेटा सुनेकों उनको कितना बुरा लगेगा? हमारी वाणी और सोच ही हमें उजागर करती है।
बच्चों कों हम रोज ही आरोप लगा कर निन्दित करते हैं कि आजकल के बच्चे बदल गए हैं माँबाप की उपेक्षा करने लगे हैं और उन्हें सिर्फ अपना ही परिवार दिखलाई देता है। ये तो बेटी है , माँ की ममता औरस्नेह का कोई मोल नहीं होता और वह अपने बच्चों के लिए कभी कम नहीं होता। अगर उसने अपने बच्चों केरात की नींद और दिन का चैन खोया तो वह आया नहीं बनीं । अगर बच्चा तकलीफ में रोया तों उसके साथ उसकीमाँ भी रो पड़ती है तब वह आया नहीं बनी। आपके घर वालों के लिए वह रात दिन नौकरानी बनकर काम करतीरही वे उसके दायित्व बना कर उसके ऊपर थोप दिए थे तब उसको नौकरानी नहीं कहा । तब आप आज्ञाकारी बेटेऔर अपनी पत्नी कों आज्ञाकारी बहू बनाये रहे। फिर वह अपनी बेटी के पास जा रही है तों ये व्यंग्य क्यों?
कल कों हमारे बच्चे कुछ गलत करें तों फिर औरों के मुँह से ही नहीं बल्कि खुद हमारे मुँह से भी ऐसेडायलाग निकलने लगते हैं -
-औलाद नालायक निकल गयी।
-अरे हमारे पास इतना पैसा है कि हमें किसी की जरूरत नहीं।
-वे हमारे लिए क्या करेंगे? हम खुद उनके लिए कर देंगे।
-शादी के बाद बच्चे बदल जाते हैं।
ये कुछ लोगों के आम जुमले हैं जो अगर संवेदनशील संतान सुनती है तों उनका कलेजा चीर कर रख देते हैं। कलेजे सभी के बराबर होते हैं और कटाक्ष भी सबके लिय बराबर होते हैं। ऐसे कटाक्ष किसी भी अच्छी सोच वालेव्यक्ति के परिचायक नहीं है। पैसे का अहंकार - बैंक में रखा हुआ पैसा आपको अस्पताल नहीं ले जा सकता है। आपके बीमार होने पर अपने बच्चों की तरह सर पर रखा हुआ हाथ नहीं बन सकता है। जो सुकून वह हाथ देता है वह पैसा नहीं दे सकता है। पैसे या दौलत का अहंकार स्थायी नहीं होता न जाने कौन सा पल हमारी जीवन दिशाकों बदल कर रख दे। इस लिए वाणी संयम और संतुलित बोल जीवन की अमूल्य निधि है। अपने शत्रु से भीसंयमित बोलिए और संतुलित रहिये। इसी में आपका बड़प्पन है और आपकी सही छवि आपके व्यक्तित्व कीगरिमा है ।

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

अर्थ में छुपा दर्द !

बहुत कुछ ऐसा घट जाता है कि उसे कहा भी नहीं जाता और सहा भी नहीं जाता। आज वटवृक्ष पर रश्मि प्रभाजी नेमेरी एक कविता मेरे ब्लॉग से खोजकर ली। यह तब लिखी गयी थी जब मेरा ब्लॉग था और मैं ब्लॉग के बारेमें जानती थी। किसी ने कहा अर्थ पर तो अपने यमक अलंकर का उदाहरण बना दिया है। क्या वाकई ये अर्थरिश्ते , संवेदनाओं और भावनाओं को हर नहीं लेता है? जिस घटना ने इस कविता को लिखने के लिए विवश कियावह मेरे बहुत करीब घटी थी। वह घटी इतने करीब थी कि उसमें लहूलुहान मेरी आत्मा भी हुई थी।
कई साल पहले कि घटना है - वह मेरी आत्मीय थी, पता चला कि उनके गिरने से उनको चोट आई है। वे चल नहींपा रही हैं। जब मुझे पता चला तो मैंने फ़ोन करके कहा कि उनका एक्स रे करवा लें ताकि पता चले कि चोट कहाँलगी है?
वहाँ से कहा गया अभी तो सिकाई करवा रहे है, बस खड़ी नहीं हो पा रही हैं वैसे तो कोई तकलीफ नहीं है। 'मुझे पताथा कि ऐसा ही कुछ होगा जिसको पता नहीं चल पा रहा है और एक्स रे
, से जरूर पता चल जायेगा एक्स रेकरवाया तो पता चला कि कुल्हे की हड्डी टूट गयी छोटी जगह है और उतनी सुविधाएँ भी नहीं इसलिए मैंनेउनको कानपुर लाने की बात कही की यहाँ पर हमारे अपने संबंध है और ठीक से केयर भी हो जाएगी। उनकोकानपुर लाये और ऑपरेशन के दूसरे ही दिन वह चले गए इस समय सीजन चल रहा है तो मेरा घर पर होना जरूरीहै। मैंने भी इसको इतर नहीं लिया क्योंकि वे हमारी भी आत्मीय हैं। अस्पताल हमारे घर जैसा था और उनकीकेयर भी सबने अपने जैसे ही की। १० दिन बाद हम उनको घर लाये। इस बीच कोई समाचार लेने वाला नहीं था।एक महीने बाद जब वे चलने के काबिल हो गयी हम एम्बुलेंस से उनको छोड़ने गए।
सबसे पहले पूछा कि जो भी खर्च हुआ है उसकी रसीद बनवाई है या नहीं। वास्तव में हमने ऐसा कुछ सोचा ही नहींथा क्योंकि हमारे जीवन में ऐसा कभी हुआ ही नहीं था। अपने घर में भी कभी ऐसा देखा नहीं था और किया भी नहींथा। फिर अस्पताल से लेकर डॉक्टर और दवाएं तक हमने अपने तरीके से हैंडिल की थीं। जिसको जो देना था दियाफिर नर्सिंग होम के भी चार्जेज हमने अपने मुताबिक दिए रसीद हम किससे और क्यों लेते?
मेरे मना करने पर बड़ा बवाल मच गया कि अगर रसीद होती तो हमें इनकम टैक्स में रिबेट मिल जाता। ऐसे तोकुछ भी नहीं मिलेगा। बात उनकी भी सही थी लेकिन रिबेट तो तब लेते जब पैसे उन्होंने खर्च किये होते। शायदरसीद होती तो वे भुगतान करने की सोचते।
मैं दूसरे दिन चली आई लेकिन इस वाकये से इतना दुःख हुआ की पैसे से तौलने वाले रिश्ते क्या इंसान होने काद्योतक होता है शायद नहीं। हम उनकी देखभाल नहीं कर सकते , उनकी सेवा नहीं कर सकते फिक्र हमें इनकमटैक्स की है। वाह रे इंसान - अब कुछ कहने के लिए नहीं बचा है।

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

कैसे कैसे मन?

कल एक लघु कथा पढ़ी अखबार में - पिता के घनिष्ठ मित्र की मृत्यु पर बेटा टीवी बंद नहीं कर रहा हैक्योंकि मैच रहा हैपिता ने सोचा की शायद कल ये होगा कि मेरी मृत्यु पर भी टीवी बंद नहीं होगा अगर ऐसेही कोई कार्यक्रम आता हुआ
ये तो नई पीढ़ी को हम दोष दे रहे हैं लेकिन अगर हम ही या हम से भी कुछ साल पहले वाली पीढ़ी कुछऐसा ही करे तो क्या हम विश्वास करेंगे ? शायद नहीं क्यों हम समझते हैं कि हम और हमारी पीढ़ी अधिकसंवेदनशील और सामाजिक रही है , रही नहीं है आज भी है लेकिन इसके भी कुछ अपवाद जब देखने को मिलजाते हैं तो शर्म तो ही जाती है.
हमारे एक बहुत ही करीब के पारिवारिक सदस्य के साढू भाई बीमार थे और हम लोग उनके घर नहींपहुँच पा रहे थेअभी जवान थे उनके साढू दो छोटे छोटे बच्चे हैंहम दोनों लोग बैठे ही थे कि फ़ोन आया - उनकीमृत्यु हो गयीउनकी पत्नी रोने लगी और पतिदेव एकदम से बेहाल नजर आने लगे कि दिल बैठा जा रहा है, मेरेपति ने कहा कि मैं अभी दवा लेकर देता हूँ आप ले लीजिये आराम जायेगावे जल्दी से गए और दवा लेकरआये उनको खिलाईफिर वह सज्जन बोले कि मैं तो जा नहीं सकता हूँ, ऐसा करो कि रेखा को यही रहने दो औरतुम अपनी भाभी को अस्पताल छोड़ आओमेरे पति उनकी पत्नी को लेकर चले गएमैं वही रही पत्नी के जाते हीवह उठे और किचेन में गए वहाँ से उन्होंने कुछ खाने को लिया और खायामेरी तो ये समझ नहीं रहा था कि येइंसान थोड़ी देर पहले लग रहा था कि साढू के सदमे से कहीं कुछ हो जाएखा पी कर बोले - थोड़ी चाय बना दोमैंने चाय बना कर दीचाय पीकर वह हमसे बोले - "टीवी तो देखा जा सकता है।"
मुझे लगा कि ये कुछ और कह रहे हैं और मुझे सुनाई कुछ और दे रहा है , लेकिन बोल तो वह वहीरहे थेमैं क्या कहती? मैंने कह दिया - क्यों नहीं अगर आप देखना चाहें तो खोल लीजियेवह वही पड़े दीवान परलेट गए और टीवी देखने लगेअब मैं यह नहीं समझ पा रही थी कि ये जो थोड़ी देर पहले तबियत घबराने कानाटक कर रहे थे या फिर वाकई ऐसा कुछ थाया फिर अपनी पत्नी को दिखाने के लिए ऐसा कुछ कर रहे थेजबपतिदेव वापस आये तो चलने के लिए कहाबोले हो तो तुम लोग आज यही रुक जाओ वह तो अब वापस क्या पाएंगी? मैं अकेला रात बिरात कोई समस्या हो गयी तो कोई देखने वाला नहीं
मुझे इतना तेज गुस्सा रहा था की मैं बता नहीं सकतीमैंने अकेले में इनसे कहा कि घर चलतेहैं अगर कोई प्रॉब्लम होती भी है तो भाई साहब फ़ोन कर देंगे हम लोग जायेंगेफिर सुबह तो हम लोग भीउनके घर जायेंगे ही तो यहाँ से कैसे जाना होगा?
घर आकर मैंने इनको सारी बात कही. तो इन्होने बताया कि हाँ वे ऐसे ही हैं . इनको अपने और सिर्फअपने आराम और सुख से मतलब है बाकी किसी से नहीं. फिर मुझे यही लगता रहा कि क्या इंसान इतनाबेमुरव्वत हो सकता है

रविवार, 10 अप्रैल 2011

सुखद निर्णय !

जीवन संध्या अकेले गुजरना कितना भयावह हो जाती है? इसके विषय में सिर्फ वही बता सकता है जो इसको गुजर रहा होता है लेकिन उनके इस दर्द को अगर बच्चों ने समझ कर कुछ अच्छे निर्णय लिए तो वे सराहनीय होते हैं।
डॉ तिवारी की पत्नी की मृत्यु जब उनके दोनों बच्चे बहुत छोटे थे तभी हो गयी। उन बच्चों को उनकी दादी ने आकर संभाला । लेकिन जब तक दादी रही वे बच्चों के लिए माँ बनी रहीं और बेटे के लिए तो माँ थीं ही। जब उनका निधन हुआ तो बच्चे बड़े हो चुके थे। उनकी अपनी अपनी पढ़ाई और जॉब के लिए घर से बाहर निकल गए । अब डॉ तिवारी के लिए बच्चों के घर बसने के लिए चिंता तैयार हो चुकी थी। माँ के होते हुए निर्णय लेना अधिक आसान होता है लेकिन बगैर माँ के बच्चों के विषय में अकेले निर्णय लेना कुछ दुष्कर लगता था। लेकिन बगैर माँ के जीते हुए बच्चे भी पिता के कंधे से कन्धा मिला कर चलने को तैयार हो चुके थे।
डॉ तिवारी ने दोनों बच्चों की शादी कर दी। अब वे अकेले रह गए। अकेले तो वे वर्षों से ही थे लेकिन अब उम्र के उस पड़ाव पर आ गए थे की पचास से ऊपर आने के बाद ही लगता है की अब कोई जीवन में होना चाहिए था। अब इस बारे में सोचने की उनके बच्चों की बारी थी। दोनों बच्चों ने अपने अपने जीवनसाथी के साथ मशविरा करके पापा के लिए एक संगिनी खोनाने की बात सोची और उन्हें मिल भी गयी। वह उन बच्चों के कॉलेज में ही एक टीचर थी। संयोग वश उनका विवाह न हो पाया था। बच्चों ने पापा से बात की तो पापा ने उनको डांट दिया क्या तुम लोग तमाशा फैला कर खड़े हुए हो ? मेरी अब शादी की उम्र है।
"नहीं पापा, आपकी शादी की उम्र नहीं है , लेकिन अब आपकी उम्र है की कोई घर में हो जो आपको खाना बना कर दे और आपके सुख और दुःख को बाँट सके। "
"हाँ पापा अब हम सब अपने अपने घर बसा कर उसमें व्यस्त हो गए हैं और जितनी आपने हम लोगों के लिए त्याग किया है अगर हम उसके मुकाबले आपके लिए कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए सोचा है की हमारी मैम भी अकेली हैं वे आपके साथ के लिए बिल्कुल ठीक रहेंगी । "
"अगर आप राजी हों तो हम उनसे बात कर सकते हैं।"
"बेटा लोग क्या कहेंगे?"
"पापा लोग तब भी कुछ कहते जब आप हमारे बचपन में ही दूसरी शादी कर लेते। अब भी कहेंगे लेकिन लोग आपके बीमार होने पर आपको आक़र खाना नहीं खिला जायेंगे। दवा नहीं दे जायेंगे। "
बच्चों के इतना कहने पर डॉ तिवारी ने भी कुछ सोचा और फिर अपनी मंजूरी दे दी। बच्चों ने मंदिर में पापा की शादी रचाई और फिर एक छोटी सी पार्टी भी दी।
आज शादी के ५ साल बाद डॉ तिवारी रिटायर हो रहे हैं और इस इंसान और उस पांच साल पहले वाले इंसान में जमीन आसमान का फर्क है। तब वे अधिक बूढ़े नजर आते थे और आज तो वे लग ही नहीं रहे हैं कि वे सेवानिवृत्त हो रहे हैं।
मुझे ये सुखद निर्णय बहुत अच्छा लगा कि बच्चे अगर खुद कुछ न कर पाए तो उन लोगों ने पापा के लिए बहुत अच्छा निर्णय लिया। उन्हें पापा की संपत्ति से नहीं बल्कि अपने पापा के एक सुखद भविष्य से वास्ता था जो उन्होंने अपने बच्चों के लिए अपनी पूरी जिन्दगी न्योछावर कर दी थी। उसका बहुत अच्छा सिला दिया उनके बच्चों ने। समाज में ऐसे निर्णय वह भी बच्चों के द्वारा लिए हुए कम ही नजर आते हैं लेकिन ये सोच सराहनीय है।

बुधवार, 23 मार्च 2011

दर्द प्रवासी के घर का!

आप देख रहे हैं कि हर सौ घर में से ४० घरों के बच्चे बाहर जाने को लालायित रहते है और जाते भी है लेकिन उनमेंसे कितने वहाँ की चकाचौंध में ऐसे फँस जाते हैं कि उन्हें लगता है कि यहाँ रखा ही क्या है? अपनी दुनियाँ भी वहींबसा लेते हैं। इसमें नया कुछ भी नहीं है, हम भी बड़े शान से कहते हैं कि बेटी या बेटा हमारा वहाँ पर है और वहीं परसेटल हो गया है। बड़े नाजों और आशाओं से पले अपने जिगर के टुकड़े के निर्णय के साथ माता-पिता भी समझौताकर लेते हैं कि जिसमें बच्चों की ख़ुशी उसी में हमारी भी है। ऐसा नहीं कि जिगर के टुकड़े याद नहीं आते हैं लेकिनबच्चों की दुनियाँ कहीं और बसी होती है और इनकी दुनियाँ तो अपने बच्चों के गिर्द ही तो बसी है।
एक दिन हमारे परिचित दंपत्ति ने हमें अपने यहाँ बुलाया था और हम वही पर बैठे थे वैसे तो उम्र के इस मोड परसभी अकेले रह जाते हैं। हम लोगों की बात और थी कि अपनी दुनियाँ माँ बाप के गिर्द ही समेट कर रखी। इसकेलिए अपने भविष्य कि संभावनाओं को भी दांव पर लगा दिया। फिर भी खुश रहे। आज कल सिमटी भी हो तो नहींसिमट पाती है सात समंदर पार से ज्यादा फासले देहलीज के भीतर पलने लगे हैं।
अचानक वर्मा जी का फ़ोन घनघना उठा - 'इस वक़्त कौन होगा?' चश्मा निकल कर नंबर देखा तो बोले - 'प्रेरक काहै।'
'बात करो न।' पत्नी उतावली होते हुए बोली
उनके बेटे को गए - साल हो रहे हैं फ़ोन महीने में दो बार ही आता है। उसमें भी अगर दोनों में से कोई सो गयातो दूसरा जगाता नहीं है क्योंकि नीद खुल जाने पर दुबारा मुश्किल से आती है।
बात करके फ़ोन रख दिया और उसके बाद उन्होंने एक शेर कहा --
तेरी आवाज सुनी तो सुकून आया दिल को,
वर्ना तुझको देखे हुए तो जमाना गुजर गया।
उनके दर्द को बांटने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि चंद मिनटों कि बात दुःख बांटने के लिए नहीं होते। अबतो सवाल ये है कि पता नहीं कौन सा पल मौत की अमानत हो। फिर दूसरा कैसे रहेगा? ये तो शाश्वत सत्य है किसाथ कम ही जाते हैं। फिर इस घर में पसरे दर्द को बांटने वाला कौन? ऐसे कितने घर की जहाँ बीमार भी हो जाएँ तोफिर देखने वाला कोई नहीं।