आप देख रहे हैं कि हर सौ घर में से ४० घरों के बच्चे बाहर जाने को लालायित रहते है और जाते भी है लेकिन उनमेंसे कितने वहाँ की चकाचौंध में ऐसे फँस जाते हैं कि उन्हें लगता है कि यहाँ रखा ही क्या है? अपनी दुनियाँ भी वहींबसा लेते हैं। इसमें नया कुछ भी नहीं है, हम भी बड़े शान से कहते हैं कि बेटी या बेटा हमारा वहाँ पर है और वहीं परसेटल हो गया है। बड़े नाजों और आशाओं से पले अपने जिगर के टुकड़े के निर्णय के साथ माता-पिता भी समझौताकर लेते हैं कि जिसमें बच्चों की ख़ुशी उसी में हमारी भी है। ऐसा नहीं कि जिगर के टुकड़े याद नहीं आते हैं लेकिनबच्चों की दुनियाँ कहीं और बसी होती है और इनकी दुनियाँ तो अपने बच्चों के गिर्द ही तो बसी है।
एक दिन हमारे परिचित दंपत्ति ने हमें अपने यहाँ बुलाया था और हम वही पर बैठे थे । वैसे तो उम्र के इस मोड परसभी अकेले रह जाते हैं। हम लोगों की बात और थी कि अपनी दुनियाँ माँ बाप के गिर्द ही समेट कर रखी। इसकेलिए अपने भविष्य कि संभावनाओं को भी दांव पर लगा दिया। फिर भी खुश रहे। आज कल सिमटी भी हो तो नहींसिमट पाती है सात समंदर पार से ज्यादा फासले देहलीज के भीतर पलने लगे हैं।
अचानक वर्मा जी का फ़ोन घनघना उठा - 'इस वक़्त कौन होगा?' चश्मा निकल कर नंबर देखा तो बोले - 'प्रेरक काहै।'
'बात करो न।' पत्नी उतावली होते हुए बोली ।
उनके बेटे को गए ६-७ साल हो रहे हैं । फ़ोन महीने में दो बार ही आता है। उसमें भी अगर दोनों में से कोई सो गयातो दूसरा जगाता नहीं है क्योंकि नीद खुल जाने पर दुबारा मुश्किल से आती है।
बात करके फ़ोन रख दिया और उसके बाद उन्होंने एक शेर कहा --
तेरी आवाज सुनी तो सुकून आया दिल को,
वर्ना तुझको देखे हुए तो जमाना गुजर गया।
उनके दर्द को बांटने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि चंद मिनटों कि बात दुःख बांटने के लिए नहीं होते। अबतो सवाल ये है कि पता नहीं कौन सा पल मौत की अमानत हो। फिर दूसरा कैसे रहेगा? ये तो शाश्वत सत्य है किसाथ कम ही जाते हैं। फिर इस घर में पसरे दर्द को बांटने वाला कौन? ऐसे कितने घर की जहाँ बीमार भी हो जाएँ तोफिर देखने वाला कोई नहीं।
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बुधवार, 23 मार्च 2011
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