कल एक लघु कथा पढ़ी अखबार में - पिता के घनिष्ठ मित्र की मृत्यु पर बेटा टीवी बंद नहीं कर रहा हैक्योंकि मैच आ रहा है। पिता ने सोचा की शायद कल ये होगा कि मेरी मृत्यु पर भी टीवी बंद नहीं होगा अगर ऐसेही कोई कार्यक्रम आता हुआ।
ये तो नई पीढ़ी को हम दोष दे रहे हैं लेकिन अगर हम ही या हम से भी कुछ साल पहले वाली पीढ़ी कुछऐसा ही करे तो क्या हम विश्वास करेंगे ? शायद नहीं क्यों हम समझते हैं कि हम और हमारी पीढ़ी अधिकसंवेदनशील और सामाजिक रही है , रही नहीं है आज भी है लेकिन इसके भी कुछ अपवाद जब देखने को मिलजाते हैं तो शर्म तो आ ही जाती है.
हमारे एक बहुत ही करीब के पारिवारिक सदस्य के साढू भाई बीमार थे और हम लोग उनके घर नहींपहुँच पा रहे थे। अभी जवान थे उनके साढू दो छोटे छोटे बच्चे हैं। हम दोनों लोग बैठे ही थे कि फ़ोन आया - उनकीमृत्यु हो गयी। उनकी पत्नी रोने लगी और पतिदेव एकदम से बेहाल नजर आने लगे कि दिल बैठा जा रहा है, मेरेपति ने कहा कि मैं अभी दवा लेकर देता हूँ आप ले लीजिये आराम आ जायेगा। वे जल्दी से गए और दवा लेकरआये उनको खिलाई। फिर वह सज्जन बोले कि मैं तो जा नहीं सकता हूँ, ऐसा करो कि रेखा को यही रहने दो औरतुम अपनी भाभी को अस्पताल छोड़ आओ। मेरे पति उनकी पत्नी को लेकर चले गए। मैं वही रही पत्नी के जाते हीवह उठे और किचेन में गए वहाँ से उन्होंने कुछ खाने को लिया और खाया। मेरी तो ये समझ नहीं आ रहा था कि येइंसान थोड़ी देर पहले लग रहा था कि साढू के सदमे से कहीं कुछ हो न जाए। खा पी कर बोले - थोड़ी चाय बना दो। मैंने चाय बना कर दी। चाय पीकर वह हमसे बोले - "टीवी तो देखा जा सकता है।"
मुझे लगा कि ये कुछ और कह रहे हैं और मुझे सुनाई कुछ और दे रहा है , लेकिन बोल तो वह वहीरहे थे। मैं क्या कहती? मैंने कह दिया - क्यों नहीं अगर आप देखना चाहें तो खोल लीजिये। वह वही पड़े दीवान परलेट गए और टीवी देखने लगे । अब मैं यह नहीं समझ पा रही थी कि ये जो थोड़ी देर पहले तबियत घबराने कानाटक कर रहे थे या फिर वाकई ऐसा कुछ था। या फिर अपनी पत्नी को दिखाने के लिए ऐसा कुछ कर रहे थे। जबपतिदेव वापस आये तो चलने के लिए कहा। बोले न हो तो तुम लोग आज यही रुक जाओ वह तो अब वापस क्याआ पाएंगी? मैं अकेला रात बिरात कोई समस्या हो गयी तो कोई देखने वाला नहीं।
मुझे इतना तेज गुस्सा आ रहा था की मैं बता नहीं सकती । मैंने अकेले में इनसे कहा कि घर चलतेहैं अगर कोई प्रॉब्लम होती भी है तो भाई साहब फ़ोन कर देंगे हम लोग आ जायेंगे। फिर सुबह तो हम लोग भीउनके घर जायेंगे ही तो यहाँ से कैसे जाना होगा?
घर आकर मैंने इनको सारी बात कही. तो इन्होने बताया कि हाँ वे ऐसे ही हैं . इनको अपने और सिर्फअपने आराम और सुख से मतलब है बाकी किसी से नहीं. फिर मुझे यही लगता रहा कि क्या इंसान इतनाबेमुरव्वत हो सकता है ।
मंगलवार, 12 अप्रैल 2011
रविवार, 10 अप्रैल 2011
सुखद निर्णय !
जीवन संध्या अकेले गुजरना कितना भयावह हो जाती है? इसके विषय में सिर्फ वही बता सकता है जो इसको गुजर रहा होता है लेकिन उनके इस दर्द को अगर बच्चों ने समझ कर कुछ अच्छे निर्णय लिए तो वे सराहनीय होते हैं।
डॉ तिवारी की पत्नी की मृत्यु जब उनके दोनों बच्चे बहुत छोटे थे तभी हो गयी। उन बच्चों को उनकी दादी ने आकर संभाला । लेकिन जब तक दादी रही वे बच्चों के लिए माँ बनी रहीं और बेटे के लिए तो माँ थीं ही। जब उनका निधन हुआ तो बच्चे बड़े हो चुके थे। उनकी अपनी अपनी पढ़ाई और जॉब के लिए घर से बाहर निकल गए । अब डॉ तिवारी के लिए बच्चों के घर बसने के लिए चिंता तैयार हो चुकी थी। माँ के होते हुए निर्णय लेना अधिक आसान होता है लेकिन बगैर माँ के बच्चों के विषय में अकेले निर्णय लेना कुछ दुष्कर लगता था। लेकिन बगैर माँ के जीते हुए बच्चे भी पिता के कंधे से कन्धा मिला कर चलने को तैयार हो चुके थे।
डॉ तिवारी ने दोनों बच्चों की शादी कर दी। अब वे अकेले रह गए। अकेले तो वे वर्षों से ही थे लेकिन अब उम्र के उस पड़ाव पर आ गए थे की पचास से ऊपर आने के बाद ही लगता है की अब कोई जीवन में होना चाहिए था। अब इस बारे में सोचने की उनके बच्चों की बारी थी। दोनों बच्चों ने अपने अपने जीवनसाथी के साथ मशविरा करके पापा के लिए एक संगिनी खोनाने की बात सोची और उन्हें मिल भी गयी। वह उन बच्चों के कॉलेज में ही एक टीचर थी। संयोग वश उनका विवाह न हो पाया था। बच्चों ने पापा से बात की तो पापा ने उनको डांट दिया क्या तुम लोग तमाशा फैला कर खड़े हुए हो ? मेरी अब शादी की उम्र है।
"नहीं पापा, आपकी शादी की उम्र नहीं है , लेकिन अब आपकी उम्र है की कोई घर में हो जो आपको खाना बना कर दे और आपके सुख और दुःख को बाँट सके। "
"हाँ पापा अब हम सब अपने अपने घर बसा कर उसमें व्यस्त हो गए हैं और जितनी आपने हम लोगों के लिए त्याग किया है अगर हम उसके मुकाबले आपके लिए कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए सोचा है की हमारी मैम भी अकेली हैं वे आपके साथ के लिए बिल्कुल ठीक रहेंगी । "
"अगर आप राजी हों तो हम उनसे बात कर सकते हैं।"
"बेटा लोग क्या कहेंगे?"
"पापा लोग तब भी कुछ कहते जब आप हमारे बचपन में ही दूसरी शादी कर लेते। अब भी कहेंगे लेकिन लोग आपके बीमार होने पर आपको आक़र खाना नहीं खिला जायेंगे। दवा नहीं दे जायेंगे। "
बच्चों के इतना कहने पर डॉ तिवारी ने भी कुछ सोचा और फिर अपनी मंजूरी दे दी। बच्चों ने मंदिर में पापा की शादी रचाई और फिर एक छोटी सी पार्टी भी दी।
आज शादी के ५ साल बाद डॉ तिवारी रिटायर हो रहे हैं और इस इंसान और उस पांच साल पहले वाले इंसान में जमीन आसमान का फर्क है। तब वे अधिक बूढ़े नजर आते थे और आज तो वे लग ही नहीं रहे हैं कि वे सेवानिवृत्त हो रहे हैं।
मुझे ये सुखद निर्णय बहुत अच्छा लगा कि बच्चे अगर खुद कुछ न कर पाए तो उन लोगों ने पापा के लिए बहुत अच्छा निर्णय लिया। उन्हें पापा की संपत्ति से नहीं बल्कि अपने पापा के एक सुखद भविष्य से वास्ता था जो उन्होंने अपने बच्चों के लिए अपनी पूरी जिन्दगी न्योछावर कर दी थी। उसका बहुत अच्छा सिला दिया उनके बच्चों ने। समाज में ऐसे निर्णय वह भी बच्चों के द्वारा लिए हुए कम ही नजर आते हैं लेकिन ये सोच सराहनीय है।
डॉ तिवारी की पत्नी की मृत्यु जब उनके दोनों बच्चे बहुत छोटे थे तभी हो गयी। उन बच्चों को उनकी दादी ने आकर संभाला । लेकिन जब तक दादी रही वे बच्चों के लिए माँ बनी रहीं और बेटे के लिए तो माँ थीं ही। जब उनका निधन हुआ तो बच्चे बड़े हो चुके थे। उनकी अपनी अपनी पढ़ाई और जॉब के लिए घर से बाहर निकल गए । अब डॉ तिवारी के लिए बच्चों के घर बसने के लिए चिंता तैयार हो चुकी थी। माँ के होते हुए निर्णय लेना अधिक आसान होता है लेकिन बगैर माँ के बच्चों के विषय में अकेले निर्णय लेना कुछ दुष्कर लगता था। लेकिन बगैर माँ के जीते हुए बच्चे भी पिता के कंधे से कन्धा मिला कर चलने को तैयार हो चुके थे।
डॉ तिवारी ने दोनों बच्चों की शादी कर दी। अब वे अकेले रह गए। अकेले तो वे वर्षों से ही थे लेकिन अब उम्र के उस पड़ाव पर आ गए थे की पचास से ऊपर आने के बाद ही लगता है की अब कोई जीवन में होना चाहिए था। अब इस बारे में सोचने की उनके बच्चों की बारी थी। दोनों बच्चों ने अपने अपने जीवनसाथी के साथ मशविरा करके पापा के लिए एक संगिनी खोनाने की बात सोची और उन्हें मिल भी गयी। वह उन बच्चों के कॉलेज में ही एक टीचर थी। संयोग वश उनका विवाह न हो पाया था। बच्चों ने पापा से बात की तो पापा ने उनको डांट दिया क्या तुम लोग तमाशा फैला कर खड़े हुए हो ? मेरी अब शादी की उम्र है।
"नहीं पापा, आपकी शादी की उम्र नहीं है , लेकिन अब आपकी उम्र है की कोई घर में हो जो आपको खाना बना कर दे और आपके सुख और दुःख को बाँट सके। "
"हाँ पापा अब हम सब अपने अपने घर बसा कर उसमें व्यस्त हो गए हैं और जितनी आपने हम लोगों के लिए त्याग किया है अगर हम उसके मुकाबले आपके लिए कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए सोचा है की हमारी मैम भी अकेली हैं वे आपके साथ के लिए बिल्कुल ठीक रहेंगी । "
"अगर आप राजी हों तो हम उनसे बात कर सकते हैं।"
"बेटा लोग क्या कहेंगे?"
"पापा लोग तब भी कुछ कहते जब आप हमारे बचपन में ही दूसरी शादी कर लेते। अब भी कहेंगे लेकिन लोग आपके बीमार होने पर आपको आक़र खाना नहीं खिला जायेंगे। दवा नहीं दे जायेंगे। "
बच्चों के इतना कहने पर डॉ तिवारी ने भी कुछ सोचा और फिर अपनी मंजूरी दे दी। बच्चों ने मंदिर में पापा की शादी रचाई और फिर एक छोटी सी पार्टी भी दी।
आज शादी के ५ साल बाद डॉ तिवारी रिटायर हो रहे हैं और इस इंसान और उस पांच साल पहले वाले इंसान में जमीन आसमान का फर्क है। तब वे अधिक बूढ़े नजर आते थे और आज तो वे लग ही नहीं रहे हैं कि वे सेवानिवृत्त हो रहे हैं।
मुझे ये सुखद निर्णय बहुत अच्छा लगा कि बच्चे अगर खुद कुछ न कर पाए तो उन लोगों ने पापा के लिए बहुत अच्छा निर्णय लिया। उन्हें पापा की संपत्ति से नहीं बल्कि अपने पापा के एक सुखद भविष्य से वास्ता था जो उन्होंने अपने बच्चों के लिए अपनी पूरी जिन्दगी न्योछावर कर दी थी। उसका बहुत अच्छा सिला दिया उनके बच्चों ने। समाज में ऐसे निर्णय वह भी बच्चों के द्वारा लिए हुए कम ही नजर आते हैं लेकिन ये सोच सराहनीय है।
बुधवार, 23 मार्च 2011
दर्द प्रवासी के घर का!
आप देख रहे हैं कि हर सौ घर में से ४० घरों के बच्चे बाहर जाने को लालायित रहते है और जाते भी है लेकिन उनमेंसे कितने वहाँ की चकाचौंध में ऐसे फँस जाते हैं कि उन्हें लगता है कि यहाँ रखा ही क्या है? अपनी दुनियाँ भी वहींबसा लेते हैं। इसमें नया कुछ भी नहीं है, हम भी बड़े शान से कहते हैं कि बेटी या बेटा हमारा वहाँ पर है और वहीं परसेटल हो गया है। बड़े नाजों और आशाओं से पले अपने जिगर के टुकड़े के निर्णय के साथ माता-पिता भी समझौताकर लेते हैं कि जिसमें बच्चों की ख़ुशी उसी में हमारी भी है। ऐसा नहीं कि जिगर के टुकड़े याद नहीं आते हैं लेकिनबच्चों की दुनियाँ कहीं और बसी होती है और इनकी दुनियाँ तो अपने बच्चों के गिर्द ही तो बसी है।
एक दिन हमारे परिचित दंपत्ति ने हमें अपने यहाँ बुलाया था और हम वही पर बैठे थे । वैसे तो उम्र के इस मोड परसभी अकेले रह जाते हैं। हम लोगों की बात और थी कि अपनी दुनियाँ माँ बाप के गिर्द ही समेट कर रखी। इसकेलिए अपने भविष्य कि संभावनाओं को भी दांव पर लगा दिया। फिर भी खुश रहे। आज कल सिमटी भी हो तो नहींसिमट पाती है सात समंदर पार से ज्यादा फासले देहलीज के भीतर पलने लगे हैं।
अचानक वर्मा जी का फ़ोन घनघना उठा - 'इस वक़्त कौन होगा?' चश्मा निकल कर नंबर देखा तो बोले - 'प्रेरक काहै।'
'बात करो न।' पत्नी उतावली होते हुए बोली ।
उनके बेटे को गए ६-७ साल हो रहे हैं । फ़ोन महीने में दो बार ही आता है। उसमें भी अगर दोनों में से कोई सो गयातो दूसरा जगाता नहीं है क्योंकि नीद खुल जाने पर दुबारा मुश्किल से आती है।
बात करके फ़ोन रख दिया और उसके बाद उन्होंने एक शेर कहा --
तेरी आवाज सुनी तो सुकून आया दिल को,
वर्ना तुझको देखे हुए तो जमाना गुजर गया।
उनके दर्द को बांटने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि चंद मिनटों कि बात दुःख बांटने के लिए नहीं होते। अबतो सवाल ये है कि पता नहीं कौन सा पल मौत की अमानत हो। फिर दूसरा कैसे रहेगा? ये तो शाश्वत सत्य है किसाथ कम ही जाते हैं। फिर इस घर में पसरे दर्द को बांटने वाला कौन? ऐसे कितने घर की जहाँ बीमार भी हो जाएँ तोफिर देखने वाला कोई नहीं।
एक दिन हमारे परिचित दंपत्ति ने हमें अपने यहाँ बुलाया था और हम वही पर बैठे थे । वैसे तो उम्र के इस मोड परसभी अकेले रह जाते हैं। हम लोगों की बात और थी कि अपनी दुनियाँ माँ बाप के गिर्द ही समेट कर रखी। इसकेलिए अपने भविष्य कि संभावनाओं को भी दांव पर लगा दिया। फिर भी खुश रहे। आज कल सिमटी भी हो तो नहींसिमट पाती है सात समंदर पार से ज्यादा फासले देहलीज के भीतर पलने लगे हैं।
अचानक वर्मा जी का फ़ोन घनघना उठा - 'इस वक़्त कौन होगा?' चश्मा निकल कर नंबर देखा तो बोले - 'प्रेरक काहै।'
'बात करो न।' पत्नी उतावली होते हुए बोली ।
उनके बेटे को गए ६-७ साल हो रहे हैं । फ़ोन महीने में दो बार ही आता है। उसमें भी अगर दोनों में से कोई सो गयातो दूसरा जगाता नहीं है क्योंकि नीद खुल जाने पर दुबारा मुश्किल से आती है।
बात करके फ़ोन रख दिया और उसके बाद उन्होंने एक शेर कहा --
तेरी आवाज सुनी तो सुकून आया दिल को,
वर्ना तुझको देखे हुए तो जमाना गुजर गया।
उनके दर्द को बांटने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि चंद मिनटों कि बात दुःख बांटने के लिए नहीं होते। अबतो सवाल ये है कि पता नहीं कौन सा पल मौत की अमानत हो। फिर दूसरा कैसे रहेगा? ये तो शाश्वत सत्य है किसाथ कम ही जाते हैं। फिर इस घर में पसरे दर्द को बांटने वाला कौन? ऐसे कितने घर की जहाँ बीमार भी हो जाएँ तोफिर देखने वाला कोई नहीं।
मंगलवार, 8 मार्च 2011
मुसीबत में साया भी साथ नहीं देता !
कल शाम आते वक्त एक झोपड़ी में आग लगी थी। उसकी गृहस्वामिनी चिल्ला रही थी कि कोई मेरेघर को बचा ले लेकिन ईंटों के ऊपर रखे बांस के टट्टर के ऊपर पड़ी पालीथीन से ढके घर को कौन बचा सकताथा? घर के बाहर एक चारपाई पर चिप्स सूख रहे थे। पालीथीन गल गल कर नीचे गिर रही थी ऐसे सब कुछ स्वाहाहोना तय ही था। कुछ पल रुकने के लिए मन हुआ लेकिन वहाँ कुछ भी नहीं हो सकता था बस शुक्र इतना था किउसके बच्चे सब बाहर थे। फिर उस जले हुए घर के रहने वालों कि मनःस्थिति मैं बखूबी समझ रही थी।
घर आते आते दिमाग में न जाने कितने वर्षों पहले का घटनाक्रम घूमने लगा। अपने बचपन की बात मैंउस समय नवें में पढ़ रही थी। हमारा घर काफी ऊंचाई पर था। एक शाम जब पापा घर आ चुके थे तो दूर से आगकी लपटें दिखाएँ दीं और पापा तुरंत ही उस तरफ भागे जैसे कि उनको कोई अहसास था। जब काफी देर तक पापान आये तो भैया को भेजा गया। वहाँ हमारी ही advertising agency थी और हमारी ही दुकान में आग लग गयीथी और बहुत कुछ जल कर रख हो गया था। वहाँ पर सब कुछ ऐसा ही होता है कि आग पकड़ ले। लोगों ने पानीडाल कर बुझाया भी लेकिन कुछ भी ऐसा न था कि दुबारा काम आ सके।
पापा घर आ गए हम सब एक ही आवाज में बोले - 'अब क्या होगा?' पापा ने हम सब को अपने सेचिपका लिया और बोले - 'कुछ नहीं, फिर सब ठीक हो जायेगा।' उनका ये विश्वास हमें भी संबल दे गया। सब कुछतो ख़त्म हो चुका था। कितने काम पूरे रखे थे, कितने अभी अधूरे थे और कितना सारा सामान।
होली आने ही वाली थी। संयुक्त परिवार में सभी त्यौहार एक साथ ही मनाये जाते थे। दोनों चाचानौकरी बाहर करते थे लेकिन पर्वों पर सपरिवार यही आते और त्यौहार मनाया जाता। ढेरों पकवान बनाये जातेऔर के हफ्ते बाद जब सब जाते तो सबको बाँध कर दिए जाते । हमने सोचा कि हर बार तो पापा ही सब करते हैंइस बार चाचा लोग कर लेंगे लेकिन ये क्या? होली के ३ दिन पहले एक चाचा आये और बोले हम तो आ नहीं पायेंगे। कोई परेशानी हो तो ये पैसे रख लीजिये उन्होंने १०० रुपये माँ को दिए। दूसरे चाचा ने आने की जरूरत ही नहींसमझी। हाँ दादी के लिए खबर भेज दी कि आना चाहें तो होली में यहाँ आ जाएँ।
दादी न्याय प्रिय थी - 'तुम लोगों ने क्या समझा? सिर्फ यहाँ आराम और ऐश करने की जगह है कि चले आये त्यौहार मनाने करने वाले तो कर ही रहे हैं । जब घर में आग लगी होती है तो माँ अपने बच्चों को बचा हीलेती है चाहे वो खुद क्यों न जल जाए।'
वह होली दादी ने पूरा खर्च करके मनाई और वैसे ही जैसे कि मनाते थे। उस समय बहुत छोटी थीलेकिन संवेदनशील तो तब भी थी। तभी जाना था कि मुसीबत में साया भी साथ छोड़ देता है। अगले साल फिर सबआये लेकिन एक दरार जो पड़ गयी वो दिल से ख़त्म न हुई।
घर आते आते दिमाग में न जाने कितने वर्षों पहले का घटनाक्रम घूमने लगा। अपने बचपन की बात मैंउस समय नवें में पढ़ रही थी। हमारा घर काफी ऊंचाई पर था। एक शाम जब पापा घर आ चुके थे तो दूर से आगकी लपटें दिखाएँ दीं और पापा तुरंत ही उस तरफ भागे जैसे कि उनको कोई अहसास था। जब काफी देर तक पापान आये तो भैया को भेजा गया। वहाँ हमारी ही advertising agency थी और हमारी ही दुकान में आग लग गयीथी और बहुत कुछ जल कर रख हो गया था। वहाँ पर सब कुछ ऐसा ही होता है कि आग पकड़ ले। लोगों ने पानीडाल कर बुझाया भी लेकिन कुछ भी ऐसा न था कि दुबारा काम आ सके।
पापा घर आ गए हम सब एक ही आवाज में बोले - 'अब क्या होगा?' पापा ने हम सब को अपने सेचिपका लिया और बोले - 'कुछ नहीं, फिर सब ठीक हो जायेगा।' उनका ये विश्वास हमें भी संबल दे गया। सब कुछतो ख़त्म हो चुका था। कितने काम पूरे रखे थे, कितने अभी अधूरे थे और कितना सारा सामान।
होली आने ही वाली थी। संयुक्त परिवार में सभी त्यौहार एक साथ ही मनाये जाते थे। दोनों चाचानौकरी बाहर करते थे लेकिन पर्वों पर सपरिवार यही आते और त्यौहार मनाया जाता। ढेरों पकवान बनाये जातेऔर के हफ्ते बाद जब सब जाते तो सबको बाँध कर दिए जाते । हमने सोचा कि हर बार तो पापा ही सब करते हैंइस बार चाचा लोग कर लेंगे लेकिन ये क्या? होली के ३ दिन पहले एक चाचा आये और बोले हम तो आ नहीं पायेंगे। कोई परेशानी हो तो ये पैसे रख लीजिये उन्होंने १०० रुपये माँ को दिए। दूसरे चाचा ने आने की जरूरत ही नहींसमझी। हाँ दादी के लिए खबर भेज दी कि आना चाहें तो होली में यहाँ आ जाएँ।
दादी न्याय प्रिय थी - 'तुम लोगों ने क्या समझा? सिर्फ यहाँ आराम और ऐश करने की जगह है कि चले आये त्यौहार मनाने करने वाले तो कर ही रहे हैं । जब घर में आग लगी होती है तो माँ अपने बच्चों को बचा हीलेती है चाहे वो खुद क्यों न जल जाए।'
वह होली दादी ने पूरा खर्च करके मनाई और वैसे ही जैसे कि मनाते थे। उस समय बहुत छोटी थीलेकिन संवेदनशील तो तब भी थी। तभी जाना था कि मुसीबत में साया भी साथ छोड़ देता है। अगले साल फिर सबआये लेकिन एक दरार जो पड़ गयी वो दिल से ख़त्म न हुई।
शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011
बेहतरीन अदाकारी !
उस दिन एक मेल मिली कि प्रो. साहब की माँ का निधन हो गया. जो उनसे परिचित थे सब ने कहा - 'बहुत अच्छा हुआ , अब प्रो. साहब को अपने जीवन में चैन मिलेगा.' वैसे तो बेटे और बहुओं का माँ बाप के प्रति दुर्व्यवहार अब समाज में स्वीकार्य हो चुका है. कोई बात नहीं ऐसा अब हर दूसरे घर में होता है. पहले कहा जाता था कि पैसा बुढ़ापे का सहारा होता है , न होने पर बहू बेटे दुर्व्यवहार करते हैं लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है. पैसे से इंसान सब कुछ नहीं कर सकता है. सुख और शांति पैसे नहीं खरीद सकते हैं.
६ कमरों के बड़े मकान में प्रो. साहब , उनकी पत्नी और माताजी रहती थी. पता नहीं क्या बात थी? उनकी पत्नी को माताजी की शक्ल देखना तक गवारा नहीं था. माताजी का सारा काम वे खुद करते थे. जब क्लास के लिए जाते तो एक नर्स की भी व्यवस्था कर रखी थी. अपने घर पर होने पर वे ही सब करते . माँ को खाना खिलाने से लेकर उनको व्हील चेयर पर लेकर बाहर बिठाना और अन्दर करना वे खुद ही करते थे. इस उम्र में कई बार उनको अस्पताल में भर्ती भी करना पड़ा तो प्रो. साहब के छात्र उनका पूरा पूरा साथ देते रहे. पर पत्नी से इस बारे में उन्हें कभी कोई सहयोग नहीं मिला. उन्होंने कभी किसी से कोई शिकायत भी नहीं की.
उनके पड़ोसी उनके प्रति पत्नी के व्यवहार के साक्षी थे और माताजी के प्रति भी. पड़ोसी इस बात के गवाह थे कि जो समर्पण, सेवा और श्रद्धा प्रो. साहब में थी ठीक इसके विपरीत उनकी श्रीमती जी थी.
उनके निधन के बाद विभाग के लोग और उनकी पत्नियाँ प्रो. साहब के घर गयीं तो मिसेज प्रो. सफेद साड़ी में बैठी थीं. माताजी की तस्वीर पर फूल मालाएं चढ़ी हुई थी. उनके घर में उनकी देवरानी और जेठानी भी आई हुईं थी. आने वाले में कैम्पस के तमाम लोग , उनके अगल बगल के पड़ोसी जो गवाह थे सब लोग मौजूद थे. और वे अपनी लम्बी चौड़ी बातें सुना रहीं थी.
-सारे दिन मुझे ही बुलाया करती थीं.
- उन्हें मुझसे बहुत प्यार था, लाडली बहू जो थी , उन्होंने मुझे हमेशा बेटी समझा -और मैंने माँ.
--माताजी सारे दिन मेरे बिना रहती ही नहीं थी.
--सभी भाइयों में उन्हें प्रो. साहब से बहुत प्यार था.
--खाली घर अब खाने को दौड़ता है.
--घर में बुजुर्गों से रौनक रहती है. आदि आदि ....
सब लोगों के बीच उनकी ऐसी बातें सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था क्योंकि पड़ोसी होने के नाते मैं बहुत सी बातों की मूक गवाह थी किन्तु कोई इंसान इतना बड़ा नाटक कर सकता है ऐसा मैंने अपने जीवन में नहीं देखा था. वैसे भी जमाना ऐसे ही लोगों का है. चिल्ला चिल्ला कर गलत को भी सच साबित करने वाले लोग ऐसे ही होते हैं और उनकी बेहतरीन अदाकारी के लिए वे पुरुस्कृत भी किये जाने चाहिए.
६ कमरों के बड़े मकान में प्रो. साहब , उनकी पत्नी और माताजी रहती थी. पता नहीं क्या बात थी? उनकी पत्नी को माताजी की शक्ल देखना तक गवारा नहीं था. माताजी का सारा काम वे खुद करते थे. जब क्लास के लिए जाते तो एक नर्स की भी व्यवस्था कर रखी थी. अपने घर पर होने पर वे ही सब करते . माँ को खाना खिलाने से लेकर उनको व्हील चेयर पर लेकर बाहर बिठाना और अन्दर करना वे खुद ही करते थे. इस उम्र में कई बार उनको अस्पताल में भर्ती भी करना पड़ा तो प्रो. साहब के छात्र उनका पूरा पूरा साथ देते रहे. पर पत्नी से इस बारे में उन्हें कभी कोई सहयोग नहीं मिला. उन्होंने कभी किसी से कोई शिकायत भी नहीं की.
उनके पड़ोसी उनके प्रति पत्नी के व्यवहार के साक्षी थे और माताजी के प्रति भी. पड़ोसी इस बात के गवाह थे कि जो समर्पण, सेवा और श्रद्धा प्रो. साहब में थी ठीक इसके विपरीत उनकी श्रीमती जी थी.
उनके निधन के बाद विभाग के लोग और उनकी पत्नियाँ प्रो. साहब के घर गयीं तो मिसेज प्रो. सफेद साड़ी में बैठी थीं. माताजी की तस्वीर पर फूल मालाएं चढ़ी हुई थी. उनके घर में उनकी देवरानी और जेठानी भी आई हुईं थी. आने वाले में कैम्पस के तमाम लोग , उनके अगल बगल के पड़ोसी जो गवाह थे सब लोग मौजूद थे. और वे अपनी लम्बी चौड़ी बातें सुना रहीं थी.
-सारे दिन मुझे ही बुलाया करती थीं.
- उन्हें मुझसे बहुत प्यार था, लाडली बहू जो थी , उन्होंने मुझे हमेशा बेटी समझा -और मैंने माँ.
--माताजी सारे दिन मेरे बिना रहती ही नहीं थी.
--सभी भाइयों में उन्हें प्रो. साहब से बहुत प्यार था.
--खाली घर अब खाने को दौड़ता है.
--घर में बुजुर्गों से रौनक रहती है. आदि आदि ....
सब लोगों के बीच उनकी ऐसी बातें सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था क्योंकि पड़ोसी होने के नाते मैं बहुत सी बातों की मूक गवाह थी किन्तु कोई इंसान इतना बड़ा नाटक कर सकता है ऐसा मैंने अपने जीवन में नहीं देखा था. वैसे भी जमाना ऐसे ही लोगों का है. चिल्ला चिल्ला कर गलत को भी सच साबित करने वाले लोग ऐसे ही होते हैं और उनकी बेहतरीन अदाकारी के लिए वे पुरुस्कृत भी किये जाने चाहिए.
बुधवार, 26 जनवरी 2011
२६ जनवरी १९८० : कुछ मीठी यादें !
गणतंत्र दिवस हमें पूर्ण रूप से अपने देश को अपने शासन के लिए तैयार संविधान के लागू होने कि याद दिलाता है . इसके लिए सम्पूर्ण देशवासी आज के लिए शुभकामनायों के हक़दार हैं और मेरी भी हार्दिक शुभकामना.
लेकिन ऊपर लिखी गयी तिथि वाला गणतंत्र दिवस मेरे लिए कुछ और ही अर्थों में शुभकामनाएं देने वाला दिवस बना. इस दिन मेरे जीवन में एक नए परिवार और एक नए परिवेश में प्रविष्ट होने का अवसर मिला था, अर्थात इस लिए मेरा विवाह हुआ था. उस समय एक कस्बे और शहर की संस्कृति के बीच का द्वंद्व कैसे निबटाया गया अब याद करती हूँ तो हंसी आती है कि विकल्प खोज लिए जाते हैं और सामंजस्य बिठाया जाता है.
बारात कानपुर से आई थी और स्वाभाविक है कि उरई उस समय काफी पिछड़ा था खासतौर पर कानपुर की अपेक्षा , इसके साथ भी हमारा परिवार भी बहुत आधुनिक नहीं था या कहिये कि वहाँ कि संस्कृति के विपरीत कुछ करने में विश्वास नहीं रखता था. शायद उन लोगों को कुछ ऐसा आभास हो तो बारात के आते ही कहला दिया गया कि हम जयमाल कानपुर से लेकर आये हैं. इसका मतलब कि जयमाल की रस्म होनी चाहिए. हमारे यहाँ तो ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं था तो इस बारे में सोचा ही नहीं गया था. इसलिए खबर भेजी गयी कि हमारे यहाँ जयमाल नहीं होती. बस फिर क्या था? दुल्हे के दोस्त भड़क गए -
'ये क्या बात है, जयमाल नहीं होती हम बेकार ही यहाँ आये हैं.' क्योंकि दोस्तों को रात में भी वापस हो जाना था. उनको आश्वासन दिया गया कि इंतजाम करते हैं . उस समय आजकल की तरह से ब्यूटी पार्लर तो होते नहीं थे कि वहाँ से सारी व्यवस्था कर लेते . ज्यूलरी और लहंगे का इंतजाम कर लिया जाता. मेरे अधिकांश रिश्तेदार गाँव से थे. बस मेरी सहेली प्रतिमा का परिवार और मेरे फूफाजी कानपुर से थे, सो कानपुर वालों ने अपनी बुद्धि दौड़ाई कि क्या किया जा सकता है. स्टेज का काम मेरे फूफाजी और प्रतिमा के भाई जिन्हें हम दद्दा कहते थे उन लोगों ने लिया. बड़ी बड़ी तख़्त निकली गयी और उनको पहले चादर डाल कर अच्छे से ढंका गया उसके ऊपर सोफा डाल कर बैठने का इंतजाम किया गया. स्टेज को फूलों की लड़ियों से सजा कर तैयार कर लिया गया. बाहर की शोभा तो बन गयी लेकिन अन्दर मेरे लिए क्या होना चाहिए?
मेरे पास पहनने के लिए साड़ी तो थी लेकिन उसके ऊपर सुंदर सी चुनरी कहाँ से आये? प्रतिमा ने जो और लड़कियाँ थी उनसे उनके सूट के साथ की चुन्नी देखी तो एक लाल चुन्नी मिल गयी. बस दौड़ कर बाजार गयी और गोटा, किरण, सितारे और फेविकोल खरीद कर ले आई. पूरी चुनरी को सितारे फेविकोल से चिपका कर सजा डाला और दुल्हन की चुनरी तैयार. जेवर तो ससुराल से आता था सो मेरे पास जेवर के नाम पर कुछ भारी जेवर भी न था बस नाक की नथ थी. और मेकअप के लिए भी कुछ इंतजाम ऐसा न था कि जयमाल जैसी लगे. कलात्मक वृत्ति वालों ने फिर अपनी अक्ल का प्रयोग किया और पेस्ट से सफेद बिंदियाँ लगायीं गयी, रोली में पानी डाल कर लाल बिंदियाँ लगायीं गयी.जेबर के लिए एक पेंडेंट वाली जंजीर लेकर बेंदी बनायीं गयी और जो भी लड़किया गले में पहने के लिए लायी थीं सब मेरे गले में पहना कर तैयार कर दिया गया. बस दुल्हन जयमाल के लिए तैयार हो गयी.
इस तरह से जयमाल कि रस्म पूरी हुई. इस वाकये को लिखने का विचार त्वरित है इसलिए इसके साक्ष्य फोटो लगाना संभव नहीं है वैसे भी हमारे ज़माने में ब्लैक एंड व्हाईट फोटो ही चलती थीं सो वही हैं मेरे पास. आज भी उस वाकये को हम , प्रतिमा और अपनी बहनों के साथ याद करते हैं तो बहुत हंसी आती है.
लेकिन ऊपर लिखी गयी तिथि वाला गणतंत्र दिवस मेरे लिए कुछ और ही अर्थों में शुभकामनाएं देने वाला दिवस बना. इस दिन मेरे जीवन में एक नए परिवार और एक नए परिवेश में प्रविष्ट होने का अवसर मिला था, अर्थात इस लिए मेरा विवाह हुआ था. उस समय एक कस्बे और शहर की संस्कृति के बीच का द्वंद्व कैसे निबटाया गया अब याद करती हूँ तो हंसी आती है कि विकल्प खोज लिए जाते हैं और सामंजस्य बिठाया जाता है.
बारात कानपुर से आई थी और स्वाभाविक है कि उरई उस समय काफी पिछड़ा था खासतौर पर कानपुर की अपेक्षा , इसके साथ भी हमारा परिवार भी बहुत आधुनिक नहीं था या कहिये कि वहाँ कि संस्कृति के विपरीत कुछ करने में विश्वास नहीं रखता था. शायद उन लोगों को कुछ ऐसा आभास हो तो बारात के आते ही कहला दिया गया कि हम जयमाल कानपुर से लेकर आये हैं. इसका मतलब कि जयमाल की रस्म होनी चाहिए. हमारे यहाँ तो ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं था तो इस बारे में सोचा ही नहीं गया था. इसलिए खबर भेजी गयी कि हमारे यहाँ जयमाल नहीं होती. बस फिर क्या था? दुल्हे के दोस्त भड़क गए -
'ये क्या बात है, जयमाल नहीं होती हम बेकार ही यहाँ आये हैं.' क्योंकि दोस्तों को रात में भी वापस हो जाना था. उनको आश्वासन दिया गया कि इंतजाम करते हैं . उस समय आजकल की तरह से ब्यूटी पार्लर तो होते नहीं थे कि वहाँ से सारी व्यवस्था कर लेते . ज्यूलरी और लहंगे का इंतजाम कर लिया जाता. मेरे अधिकांश रिश्तेदार गाँव से थे. बस मेरी सहेली प्रतिमा का परिवार और मेरे फूफाजी कानपुर से थे, सो कानपुर वालों ने अपनी बुद्धि दौड़ाई कि क्या किया जा सकता है. स्टेज का काम मेरे फूफाजी और प्रतिमा के भाई जिन्हें हम दद्दा कहते थे उन लोगों ने लिया. बड़ी बड़ी तख़्त निकली गयी और उनको पहले चादर डाल कर अच्छे से ढंका गया उसके ऊपर सोफा डाल कर बैठने का इंतजाम किया गया. स्टेज को फूलों की लड़ियों से सजा कर तैयार कर लिया गया. बाहर की शोभा तो बन गयी लेकिन अन्दर मेरे लिए क्या होना चाहिए?
मेरे पास पहनने के लिए साड़ी तो थी लेकिन उसके ऊपर सुंदर सी चुनरी कहाँ से आये? प्रतिमा ने जो और लड़कियाँ थी उनसे उनके सूट के साथ की चुन्नी देखी तो एक लाल चुन्नी मिल गयी. बस दौड़ कर बाजार गयी और गोटा, किरण, सितारे और फेविकोल खरीद कर ले आई. पूरी चुनरी को सितारे फेविकोल से चिपका कर सजा डाला और दुल्हन की चुनरी तैयार. जेवर तो ससुराल से आता था सो मेरे पास जेवर के नाम पर कुछ भारी जेवर भी न था बस नाक की नथ थी. और मेकअप के लिए भी कुछ इंतजाम ऐसा न था कि जयमाल जैसी लगे. कलात्मक वृत्ति वालों ने फिर अपनी अक्ल का प्रयोग किया और पेस्ट से सफेद बिंदियाँ लगायीं गयी, रोली में पानी डाल कर लाल बिंदियाँ लगायीं गयी.जेबर के लिए एक पेंडेंट वाली जंजीर लेकर बेंदी बनायीं गयी और जो भी लड़किया गले में पहने के लिए लायी थीं सब मेरे गले में पहना कर तैयार कर दिया गया. बस दुल्हन जयमाल के लिए तैयार हो गयी.
इस तरह से जयमाल कि रस्म पूरी हुई. इस वाकये को लिखने का विचार त्वरित है इसलिए इसके साक्ष्य फोटो लगाना संभव नहीं है वैसे भी हमारे ज़माने में ब्लैक एंड व्हाईट फोटो ही चलती थीं सो वही हैं मेरे पास. आज भी उस वाकये को हम , प्रतिमा और अपनी बहनों के साथ याद करते हैं तो बहुत हंसी आती है.
मंगलवार, 25 जनवरी 2011
सास की सेवा !
आज चोखेर बाली ब्लॉग पर कुमारेन्द्र भाई का लड़कियों के द्वारा की गयी माँ की अन्त्येष्टि का आलेख पढ़ा . ऐसी घटनाएँ अब यदा कदा होने लगी हैं और हमें इस पर नाज होना चाहिए. पर इस पर ही एक टिप्पणी भी देखी कि यही लड़कियाँ जब बहू बन जाती हैं तो अपने दायित्वों से विमुख क्यों हो जाती हैं?
इस बारे में कहना है कि पाँचों अंगुलियाँ बराबर नहीं होती , हाँ अगर आजकल ऐसा हो रहा है तो इसलिए कि हमारी अपनी बेटियों को दी जा रही शिक्षा में कुछ कमी है या फिर हम खुद कहीं गलत कर रहे हैं. हमारे बच्चे हमको ही देख कर सीखते हैं. अगर हम अपने माता पिता या सास ससुर को सम्मान देते हैं तो शायद ही घर ही बच्चे उनका तिरस्कार करें या फिर बेटियाँ अपने घर में तिरस्कार करें. संभव ही नहीं है. अपवाद इसके भी हो सकते हैं.
मेरी शुरू से ईश्वर से यही कामना थी कि जैसा मैं अपनी ससुराल में सास ससुर के साथ अपने व्यवहार को करूँ वैसा ही मेरे माँ पापा को उनकी बहू से भी मिले . शायद मेरी धारणा सही थी और मुझे अपनी धारणा पर फख्र है. मेरे इसी व्यवहार से शायद मेरी बेटियों में भी ऐसे ही संस्कार आये हैं. सिर्फ लड़कियाँ ही क्यों? बेटों पर भी ये बात लागू होती है. अगर वे अपने माता पिता और सास ससुर को समानता से देखें तो शायद कोई कारण नहीं कि बहू उनसे इसके विपरीत अपेक्षा रखे या फिर उनको उनके कार्य से च्युत करे. कुछ साल पहले मेरी माँ की कूल्हे की हड्डी टूट गयी और उरई में उनका आपरेशन हम नहीं करवाना चाहते थे इसलिए भाई साहब को कहा कि वे कानपुर ले आयें. उनका आपरेशन जिस अस्पताल से मेरे पति जुड़े थे उसी में करवाया गया. वैसे भी वे कोई भी बीमार हो उसकी देखभाल पूरे मन से करते हैं . इसके लिए परिवार , पड़ोस या मित्र की सीमा निर्धारित नहीं है. मेरी माँ के लिए भी वे हर चीज में बहुत सावधानी बरत रहे थे. वहाँ अस्पताल में किसी ने व्यंग्य किया - 'सास है इसलिए इतनी केयर हो रही है, माँ की चाहे न करते ?'
उनका जवाब था - मेरे लिए दोनों बराबर हैं और अपनी माँ की तो मैं पिछले ३९ साल से बराबर सेवा कर रहा हूँ. (मेरी सास जी का इतने वर्ष पहले एक भयानक एक्सीडेंट हुआ था, जिसमें वे ३ वर्ष अस्पताल में रहीं और फिर शारीरिक तौर पर विकलांग हो गयीं थीं. ) ये बात बिल्कुल सच है और उन्होंने कभी जरूरत पड़ने पर मेरे परिवार की उपेक्षा नहीं की.मुझसे भी कभी ये कहने कि जरूरत नहीं पड़ी कि तुम्हें ऐसा करना चाहिए. जिसको इस सम्बन्ध में जो भी सहायता जरूरी हुई . उसको तन मन और धन से पूरा किया.
बेटों की सोच में परिवर्तन अपने आप नहीं आता है. अक्सर सुना जाता है कि शादी के पहले मेरा बेटा ऐसा नहीं था. शादी के बाद बदल गया. इसमें सीधे सीधे पत्नी पर आरोप आता है. इसके पीछे सिर्फ पत्नी ही नहीं होती है बल्कि उसके पीछे उसकी वे शिक्षाएं भी होती हैं जो उसको अपने घर से मिली होती हैं. हर माँ का यही प्रयास होना चाहिए कि उन्हें अच्छी संस्कारित बेटी दें और उनसे संस्कारित बेटा अपने घर में लें. माँ बाप से उनका बेटा छीने नहीं.
इस बारे में कहना है कि पाँचों अंगुलियाँ बराबर नहीं होती , हाँ अगर आजकल ऐसा हो रहा है तो इसलिए कि हमारी अपनी बेटियों को दी जा रही शिक्षा में कुछ कमी है या फिर हम खुद कहीं गलत कर रहे हैं. हमारे बच्चे हमको ही देख कर सीखते हैं. अगर हम अपने माता पिता या सास ससुर को सम्मान देते हैं तो शायद ही घर ही बच्चे उनका तिरस्कार करें या फिर बेटियाँ अपने घर में तिरस्कार करें. संभव ही नहीं है. अपवाद इसके भी हो सकते हैं.
मेरी शुरू से ईश्वर से यही कामना थी कि जैसा मैं अपनी ससुराल में सास ससुर के साथ अपने व्यवहार को करूँ वैसा ही मेरे माँ पापा को उनकी बहू से भी मिले . शायद मेरी धारणा सही थी और मुझे अपनी धारणा पर फख्र है. मेरे इसी व्यवहार से शायद मेरी बेटियों में भी ऐसे ही संस्कार आये हैं. सिर्फ लड़कियाँ ही क्यों? बेटों पर भी ये बात लागू होती है. अगर वे अपने माता पिता और सास ससुर को समानता से देखें तो शायद कोई कारण नहीं कि बहू उनसे इसके विपरीत अपेक्षा रखे या फिर उनको उनके कार्य से च्युत करे. कुछ साल पहले मेरी माँ की कूल्हे की हड्डी टूट गयी और उरई में उनका आपरेशन हम नहीं करवाना चाहते थे इसलिए भाई साहब को कहा कि वे कानपुर ले आयें. उनका आपरेशन जिस अस्पताल से मेरे पति जुड़े थे उसी में करवाया गया. वैसे भी वे कोई भी बीमार हो उसकी देखभाल पूरे मन से करते हैं . इसके लिए परिवार , पड़ोस या मित्र की सीमा निर्धारित नहीं है. मेरी माँ के लिए भी वे हर चीज में बहुत सावधानी बरत रहे थे. वहाँ अस्पताल में किसी ने व्यंग्य किया - 'सास है इसलिए इतनी केयर हो रही है, माँ की चाहे न करते ?'
उनका जवाब था - मेरे लिए दोनों बराबर हैं और अपनी माँ की तो मैं पिछले ३९ साल से बराबर सेवा कर रहा हूँ. (मेरी सास जी का इतने वर्ष पहले एक भयानक एक्सीडेंट हुआ था, जिसमें वे ३ वर्ष अस्पताल में रहीं और फिर शारीरिक तौर पर विकलांग हो गयीं थीं. ) ये बात बिल्कुल सच है और उन्होंने कभी जरूरत पड़ने पर मेरे परिवार की उपेक्षा नहीं की.मुझसे भी कभी ये कहने कि जरूरत नहीं पड़ी कि तुम्हें ऐसा करना चाहिए. जिसको इस सम्बन्ध में जो भी सहायता जरूरी हुई . उसको तन मन और धन से पूरा किया.
बेटों की सोच में परिवर्तन अपने आप नहीं आता है. अक्सर सुना जाता है कि शादी के पहले मेरा बेटा ऐसा नहीं था. शादी के बाद बदल गया. इसमें सीधे सीधे पत्नी पर आरोप आता है. इसके पीछे सिर्फ पत्नी ही नहीं होती है बल्कि उसके पीछे उसकी वे शिक्षाएं भी होती हैं जो उसको अपने घर से मिली होती हैं. हर माँ का यही प्रयास होना चाहिए कि उन्हें अच्छी संस्कारित बेटी दें और उनसे संस्कारित बेटा अपने घर में लें. माँ बाप से उनका बेटा छीने नहीं.
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