घर से कहीं बाहर जाने के लिए निकलते हैं तो सोचते हैं कि यात्रा सुखद ही होगी. लेकिन हम ये नहीं सोच पाते हैं कि ये कैसे किसकी कृपा से जद्दोजहद में बदल जाती है. इस बार तो हमारे रेलवे के भेंट ही चढ़ गयी हमारी यात्रा और हम जिन्दगी भर नहीं भूल पायेंगे. किसी खेल के तरीके से या मैच के दौरान जब हमारी जीत और हार कुछ ही रनों के ऊपर निर्भर होती है और हम सब खेल प्रेमी हाथ जोड़ कर भगवान से मनाते हैं कि ये मैच हम जीत जाएँ. उनका हो तो उनका ये विकेट जल्दी से गिरे और हमारा हो तो बचा रहे. बस एक छक्का लग जाये . रन और बाल के बीच के अंतर को तौलते हुए चलते रहते हैं ठीक वैसे ही हम भी दो ट्रेनों के बीच के अंतर को तौलते हुए चल रहे थे.
हम कानपुर से चले कि किसी भी ट्रेन से झाँसी पहुँच जायेंगे और वहाँ से हमारा रिजर्वेशन गौंडवाना एक्सप्रेस में था, जो कि रात ९:५७ पर नागपुर के लिए जाती है. हम १ बजे स्टेशन पहुंचे तो पता चला कि झाँसी के लिए ८ बजे से कोई ट्रेन नहीं आई. राप्ती-सागर आने वाली है लेकिन वह भी ३ घंटे लेट है. हम ने बीच का अंतर निकल कर मन को समझा लिया कि अगर ५ घंटे में भी पहुंचा दिया तो हम समय से पहुँच जायेंगे. किसी तरह से राप्ती-सागर आई और हम उसमें बैठे. अभी तक तो निश्चिन्त थे कि हमारी ट्रेन मिल ही जाएगी. अब गाड़ी कि गति धीरे धीरे कम होने लगी . कानपुर से उरई के बीच के लड़के जहाँ उतरना हुआ आराम से चेन खींची और उतर गए. हम अभी भी मन में समय का तालमेल बैठाये दिल को तसल्ली दे रहे थे कि ट्रेन तो हमको मिल ही जाएगी. हम झाँसी के किनारे तक पहुँच गए और हमें आशा थी कि अभी भी हमें दस मिनट का समय मिल जायेगा और हम ट्रेन पकड़ ही लेंगे लेकिन ये क्या? ट्रेन एक नए बने स्टेशन पर खड़ी हो गयी और हमारे दिल की धडकनें भी तेज हो गयीं किअब हमें हमारी ट्रेन नहीं मिल पायेगी. पता नहीं कितने सारे भगवान याद कर लिए कि किसी तरह से ये ट्रेन समय से पहुँच जाये नहीं तो हम क्या करेंगे? वैसे भी तत्काल में लिया हुआ रिजर्वेशन उसके बाद कोई और सूरत नहीं होगी. लेकिन अब भगवान भी कोई सहायता नहीं कर सकता था क्योंकि झाँसी outar पर आ कर ट्रेन खड़ी हो गयी. अब हम कोई और सूरत तो सोच ही नहीं पा रहे थे. हमारी ट्रेन जो ६:४५ पर झाँसी स्टेशन आनी थी ठीक ९:५६ पर आ कर खड़ी हुई और हमारी ट्रेन का समय था ९:५७. दो प्लेटफार्म पार करके ट्रेन पकड़ना आसान नहीं था. फिर कोशिश कर ली जाये और हम लोग भागे. जब प्लेटफार्म की सीढियां उतर रहे थे तो सामने ट्रेन खिसकने लगी और B1 कोच एकदम सामने थी. पतिदेव बोले कि अपनी कोच सामने है जल्दी से चढ़ लो. हम दोनों ही गिरते पड़ते उसमें चढ़ गए. उसमें खड़े लोगों ने पूछा कि कहाँ जाना है? हमने बता दिया कि इस कोच में हमारा रिजर्वेशन है और हमें नागपुर जाना है.
"ये तो जबलपुर जा रही है." उनमें से एक ने बताया. हमें तो काटो खून नहीं.
"लेकिन ये गोंडवाना एक्सप्रेस है न."
"जी, लेकिन ये आगे दो भागों में बाँट जायेगी और आगे वाला नागपुर जाएगा और ये जबलपुर. "
अब समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें? ट्रेन पूरी गति पर थी. और उन लोगों ने ये भी बताया कि ये ट्रेन ठीक समय से चल दी थी लेकिन पता नहीं क्यों २ मिनट के बाद रुक गयी नहीं तो आप को मिल ही नहीं सकती थी.
अब ट्रेन आगे बीना में ही रुकेगी तब ही कुछ हो सकता है, अब ये डर कि हमारे न पहुँचने पर TT हमारी सीट किसी और को न दे दे. खैर AC का टिकेट लेकर हम दरवाजे के पास दो घंटे खड़े रहे. बीना में हम १२ बोगी पार करके अपनी कोच में पहुंचे तो TT महाशय हमारे ही इन्तजार में खड़े थे क्योंकि वे तो रोज ही हम जैसे गलती करने वालों से दो चार होते होंगे.
"आपको कहाँ जहाँ है? " उन्होंने हमें देखते ही सवाल दगा.
"हमें नागपुर जाना है और हमारा इसी में रिजर्वेशन है." हमने बताया.
"आप दो स्टेशन तक नहीं आये तो हमने वो सीट RAC वालों को दे दी. अब ये तो नियम है तो हम कुछ नहीं कर सकते हैं.
"ठीक है, फिर हमें क्या करना होगा? हम नीचे उतर जाएँ." मैं पहले से ही मानसिक रूप से इस बात के लिए तैयार थी कि ये स्थिति जरूर आएगी क्योंकि TT महोदय हमारी सीट किसी और के बेच चुके होंगे.
"ठीक है, आप हमारे टिकेट पर लिख दीजिये कि हमारी सीट नियमानुसार दूसरे को दे दी गयीं हैं और हमारी टिकेट अब अवैध है." मैंने उनसे कहा.
"जी, ये तो मैं लिख कर नहीं दे सकता हूँ."
"फिर हम क्या करें? नीचे उतर जाएँ या फिर इतने पैसे खर्च करने के बाद जमीन पर बैठ कर जाएँ." मामला बिगड़ता देख कर उन्होंने इसी में भलाई समझी कि हमें कुछ व्यवस्था करके बैठा दिया जाय. फिर उन्होंने हमें दूसरी सीट पर जाने की व्यवस्था की और हम रात १२:३० पर किसी भी सीट पर जाकर लेट सकें.
रेलवे कि ये सौगात जीवन में पहली और आखिरी सौगात बन गयी. लेकिन एक प्रश्न जरूर छोड़ गयी कि अगर रेलवे की गलती से लिंक ट्रेन देरी से आती है या उसके ३-४ घंटे देरी से आने पर अगर किसी कि ट्रेन छूट जाती है तो रेलवे को इसके लिए कोई विकल्प सोचना होगा. फिर ऐसे यात्रियों का टिकट दूसरी ट्रेन में वैध मान कर उनको यात्रा करने की अनुमति प्रदान की जानी चाहिए. उस समय जब कि यात्री कि कोई भी गलती न हो.
बुधवार, 29 दिसंबर 2010
मंगलवार, 21 दिसंबर 2010
'फंसा लिया होगा'!
क्या आर्थिक दृष्टि से कमजोर कहे जाने वाले लोग (ये दृष्टिकोण है तथाकथित पैसे वाले होने का दंभ रखने वालों का ) लोगों को एक सुखद और सुंदर भविष्य का सपना देखने का भी हक़ नहीं है और अगर वे बेहतर जीवन की ओर कदम बढ़ाते हैं तो लोगों को लगता है कि 'फंसा लिया होगा'!
पिछले हफ्ते मेरी एक परिचित अपनी बेटी कि शादी का कार्ड लेकर आयीं , शादी उन्होंने काफी महंगे होटल से करने का संकेत दिया था. अन्दर जब कार्ड में पढ़ा तो पता चला कि वे लड़की की शादी अंतरजातीय कर रही थीं. लड़की उनकी एक बैंक में नौकरी कर रही थी. पहले तो लोगों ने कार्ड देख कर ही कहा - ' इनकी तो औकात नहीं कि इस होटल से शादी करें. जरूर लड़के वालों ने पूरा खर्चा उठाया होगा. अच्छे घर का लड़का फंसा लिया होगा. '
अभी तक न लड़का सामने था और न ही उसका घर, लेकिन लोगों के व्यंग्य चलने लगे थे. ऐसा नहीं ये सिर्फ लड़की के लिए ही व्यंग्य चलता है , इसके विपरीत भी होता है अगर लड़की पैसे वाले परिवार की या फिर अच्छी नौकरी वाली हुई तब भी लोग ऐसे ही बोलते हैं. खुद मैंने कई बार सुना है. इस बार तो सुन कर लगा कि क्या दो लोगों का आपसी सामंजस्य की धुरी पैसा ही होता है. अगर आज लड़के और लड़की अपनी रूचि या फिर अपने जॉब के अनुरुप लड़के देख रहे हैं तो बुरा क्या है? जीवन उनको बिताना होता है और ये तो अभिभावकों कि समझदारी होती है कि वे बच्चों कि पसंद पर अपनी स्वीकृति कि मुहर लगा देते हैं. ऐसा नहीं पहले भी ऐसा ही होता था हाँ बहुत अधिक न था किन्तु गुण और रूप के कद्रदान लड़की या लड़के के घरवालों के पैसे को नहीं बल्कि उस व्यक्तित्व को महत्व देते थे. वही आज भी है. घर वाले चाहे इस बात को न सोचें लेकिन ये तथाकथित शुभचिंतक जरूर ऐसे संबंधों को शोध विषय बना देते हैं. मैंने तो इस विषय में भी लड़के के घर वालों कि विनम्रता देखी कि वे कह रहे थे कि हम नहीं आप अधिक बड़ी हैं क्योंकि आप हमें अपनी बेटी दे रहे हैं. लेने वाला कभी बड़ा हो ही नहीं सकता है.
तब लगा कि बेकार में लोगों के पेट में दर्द होने लगता है कि अगर शादी अंतरजातीय है तो जरूर किसी ने किसी को फंसाया ही होगा.
पिछले हफ्ते मेरी एक परिचित अपनी बेटी कि शादी का कार्ड लेकर आयीं , शादी उन्होंने काफी महंगे होटल से करने का संकेत दिया था. अन्दर जब कार्ड में पढ़ा तो पता चला कि वे लड़की की शादी अंतरजातीय कर रही थीं. लड़की उनकी एक बैंक में नौकरी कर रही थी. पहले तो लोगों ने कार्ड देख कर ही कहा - ' इनकी तो औकात नहीं कि इस होटल से शादी करें. जरूर लड़के वालों ने पूरा खर्चा उठाया होगा. अच्छे घर का लड़का फंसा लिया होगा. '
अभी तक न लड़का सामने था और न ही उसका घर, लेकिन लोगों के व्यंग्य चलने लगे थे. ऐसा नहीं ये सिर्फ लड़की के लिए ही व्यंग्य चलता है , इसके विपरीत भी होता है अगर लड़की पैसे वाले परिवार की या फिर अच्छी नौकरी वाली हुई तब भी लोग ऐसे ही बोलते हैं. खुद मैंने कई बार सुना है. इस बार तो सुन कर लगा कि क्या दो लोगों का आपसी सामंजस्य की धुरी पैसा ही होता है. अगर आज लड़के और लड़की अपनी रूचि या फिर अपने जॉब के अनुरुप लड़के देख रहे हैं तो बुरा क्या है? जीवन उनको बिताना होता है और ये तो अभिभावकों कि समझदारी होती है कि वे बच्चों कि पसंद पर अपनी स्वीकृति कि मुहर लगा देते हैं. ऐसा नहीं पहले भी ऐसा ही होता था हाँ बहुत अधिक न था किन्तु गुण और रूप के कद्रदान लड़की या लड़के के घरवालों के पैसे को नहीं बल्कि उस व्यक्तित्व को महत्व देते थे. वही आज भी है. घर वाले चाहे इस बात को न सोचें लेकिन ये तथाकथित शुभचिंतक जरूर ऐसे संबंधों को शोध विषय बना देते हैं. मैंने तो इस विषय में भी लड़के के घर वालों कि विनम्रता देखी कि वे कह रहे थे कि हम नहीं आप अधिक बड़ी हैं क्योंकि आप हमें अपनी बेटी दे रहे हैं. लेने वाला कभी बड़ा हो ही नहीं सकता है.
तब लगा कि बेकार में लोगों के पेट में दर्द होने लगता है कि अगर शादी अंतरजातीय है तो जरूर किसी ने किसी को फंसाया ही होगा.
शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010
मुँह छिपाना पड़ता है!
पिछली पोस्ट में तो अपने बीच रहने वाले कुछ अनजाने चेहरे की छवि को देखा लेकिन ऐसे काम हमें तब शर्मिंदा कर देते हैं जब कि हम उसमें कोई भागीदारी नहीं रखते हैं. पर अपना चेहरा नहीं दिखा पाते हैं दूसरों के कर्मों से. जिनसे हमारा कोई लेना देना नहीं है लेकिन वे हमारे भाई हैं इसलिए और सिर्फ इसलिए शर्मिंदगी हमें घेर लेती है.
कुछ साल पहले तक कानपुर में दंगे हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी. इधर कुछ वर्षों से शांति है और ईश्वर करे कि ये शांति हमेशा बरक़रार रहे. एक बार के दंगों के बाद की बात है - दंगे ख़त्म हो गए लेकिन मेरे पति के एक बचपन के दोस्त है - जावेद हुसैन वारसी. वे बैंक में काम करते हैं . मैंने तो अपनी शादी के बाद ही जाना कि ऐसी दोस्ती होती है, जावेद भाई की अम्मी जब तक रही मुझे बहू माना (जावेद भाई की शादी काफी बाद में हुई) . हर सुख दुःख बाँटते रहे हैं. अम्मी को कैंसर हुआ तो जावेद भाई को चिंता नहीं थी सब आदित्य देख लेंगे दिन में कुछ घंटे मुक़र्रर थे कि इनको अम्मी के पास रहना ही है. कभी तकलीफ बढ़ी तो फ़ोन आ जाता और फिर हम लोग हाजिर. अगर मेरे ससुर जी अस्पताल में हैं तो फिर खाना घर से नहीं बल्कि जावेद भाई के घर से आता. बाकी सारी चीजें भी वही से. ऐसा नहीं जावेद भाई भी मेरी सास के दुलारे हैं और अब जब कि उनको दिखाई कम देता है सुनाई भी नहीं देता लेकिन अगर जावेद भाई आ कर खड़े हो जाएँ तो तुरंत पहचान लेंगी.
कोई भी सुख दुःख हो रिश्तेदारों को बाद में पहले इधर की खब़र जावेद भाई को और वहाँ की खबर हमारे घर आती है.
एक बार दंगों के बाद बहुत दिनों तक जावेद भाई का कोई फ़ोन नहीं कोई खबर नहीं. मेरे पतिदेव को अधिकारवश गुस्सा जल्दी आता है तो कहने लगे कि इसने इतने दिनों से कोई खबर नहीं ली. मैं भी नहीं करूंगा फ़ोन. मुझे लगा कि हो सकता है कुछ गड़बड़ न हो.
मैंने इनसे चुपचाप जावेद भाई को फ़ोन किया तो पता चला कि बेटे कि तबियत ख़राब है और हम लोगों को खबर नहीं , ये पूरी दोस्ती में पहली बार हुआ और वह भी तब जब कि उनका बेटा इनका बहुत दुलारा है. मैंने इनको बताया. हम दोनों जावेद भाई के घर पहुंचे. इनकी तो गुस्सा काबू में नहीं - 'तुमने समझ क्या रखा है. ताबिश की इतनी तबियत ख़राब और मुझे खबर तक नहीं दी. तुमने क्या सोचा? क्यों नहीं दी मुझको खबर अगर इसके तकलीफ होती है तो मुझे नहीं होती. ये तुम्हें पता है कि मेरा बेटा है. ( जावेद भाई का बेटा उनकी बड़ी बेटी के १४ साल बाद हुआ और उनकी पत्नी की बीमारी के लिए उन्हें मेरे पति के सहयोग से ही रोग का पता चला और उसके बाद बेटा हुआ सो वह इनका बेटा कहा जाता है.)
जावेद भाई सिर झुकाए कुछ बोले नहीं, फिर हिम्मत करके बोले - 'आदित्य इस दौरान जो हादसे हुए उसके बाद मेरी हिम्मत तुमसे बात करने की नहीं हुई , पता नहीं तुम क्या सोचो मेरे बारे में.' उनका गला भर्रा गया था. ' और फिर दोनों मित्र गले लग कर रो पड़े.
'अरे , तुमने ये सोचा भी कैसे ? हम दो कब हैं, फिछले ५० साल की दोस्ती में बस इतना ही समझा तुमने.'
उन लोगों कि प्यार भरी लड़ाई और रोना देख कर हमारी भी आँखें भर आयीं थी. तब से आज तक चाहे कुछ भी हो, उनकी दोस्ती वहीं है. बस एक बार कैसे जावेद भाई को ये अहसास हुआ? ये मैं नहीं जानती लेकिन ईश्वर ये प्रार्थना है की ऐसा प्यार सभी दोस्तों में हो.
कुछ साल पहले तक कानपुर में दंगे हो जाना कोई बड़ी बात नहीं थी. इधर कुछ वर्षों से शांति है और ईश्वर करे कि ये शांति हमेशा बरक़रार रहे. एक बार के दंगों के बाद की बात है - दंगे ख़त्म हो गए लेकिन मेरे पति के एक बचपन के दोस्त है - जावेद हुसैन वारसी. वे बैंक में काम करते हैं . मैंने तो अपनी शादी के बाद ही जाना कि ऐसी दोस्ती होती है, जावेद भाई की अम्मी जब तक रही मुझे बहू माना (जावेद भाई की शादी काफी बाद में हुई) . हर सुख दुःख बाँटते रहे हैं. अम्मी को कैंसर हुआ तो जावेद भाई को चिंता नहीं थी सब आदित्य देख लेंगे दिन में कुछ घंटे मुक़र्रर थे कि इनको अम्मी के पास रहना ही है. कभी तकलीफ बढ़ी तो फ़ोन आ जाता और फिर हम लोग हाजिर. अगर मेरे ससुर जी अस्पताल में हैं तो फिर खाना घर से नहीं बल्कि जावेद भाई के घर से आता. बाकी सारी चीजें भी वही से. ऐसा नहीं जावेद भाई भी मेरी सास के दुलारे हैं और अब जब कि उनको दिखाई कम देता है सुनाई भी नहीं देता लेकिन अगर जावेद भाई आ कर खड़े हो जाएँ तो तुरंत पहचान लेंगी.
कोई भी सुख दुःख हो रिश्तेदारों को बाद में पहले इधर की खब़र जावेद भाई को और वहाँ की खबर हमारे घर आती है.
एक बार दंगों के बाद बहुत दिनों तक जावेद भाई का कोई फ़ोन नहीं कोई खबर नहीं. मेरे पतिदेव को अधिकारवश गुस्सा जल्दी आता है तो कहने लगे कि इसने इतने दिनों से कोई खबर नहीं ली. मैं भी नहीं करूंगा फ़ोन. मुझे लगा कि हो सकता है कुछ गड़बड़ न हो.
मैंने इनसे चुपचाप जावेद भाई को फ़ोन किया तो पता चला कि बेटे कि तबियत ख़राब है और हम लोगों को खबर नहीं , ये पूरी दोस्ती में पहली बार हुआ और वह भी तब जब कि उनका बेटा इनका बहुत दुलारा है. मैंने इनको बताया. हम दोनों जावेद भाई के घर पहुंचे. इनकी तो गुस्सा काबू में नहीं - 'तुमने समझ क्या रखा है. ताबिश की इतनी तबियत ख़राब और मुझे खबर तक नहीं दी. तुमने क्या सोचा? क्यों नहीं दी मुझको खबर अगर इसके तकलीफ होती है तो मुझे नहीं होती. ये तुम्हें पता है कि मेरा बेटा है. ( जावेद भाई का बेटा उनकी बड़ी बेटी के १४ साल बाद हुआ और उनकी पत्नी की बीमारी के लिए उन्हें मेरे पति के सहयोग से ही रोग का पता चला और उसके बाद बेटा हुआ सो वह इनका बेटा कहा जाता है.)
जावेद भाई सिर झुकाए कुछ बोले नहीं, फिर हिम्मत करके बोले - 'आदित्य इस दौरान जो हादसे हुए उसके बाद मेरी हिम्मत तुमसे बात करने की नहीं हुई , पता नहीं तुम क्या सोचो मेरे बारे में.' उनका गला भर्रा गया था. ' और फिर दोनों मित्र गले लग कर रो पड़े.
'अरे , तुमने ये सोचा भी कैसे ? हम दो कब हैं, फिछले ५० साल की दोस्ती में बस इतना ही समझा तुमने.'
उन लोगों कि प्यार भरी लड़ाई और रोना देख कर हमारी भी आँखें भर आयीं थी. तब से आज तक चाहे कुछ भी हो, उनकी दोस्ती वहीं है. बस एक बार कैसे जावेद भाई को ये अहसास हुआ? ये मैं नहीं जानती लेकिन ईश्वर ये प्रार्थना है की ऐसा प्यार सभी दोस्तों में हो.
गुरुवार, 9 दिसंबर 2010
मैं भी थी उनके बीच .....
सब कहते हैं कि आतंकवादियों का कोई मजहब या ईमान नहीं होता. हम पहचान भी नहीं पाते हैं उनको और वे हमारे साथ रहते हैं. ऐसे ही लोगों के बीच में भी रही और नहीं पहचान पाई. पहचानने की कोई गुंजाईश भी नहीं थी क्योंकि पढ़े लिखे इंजीनियर आप उनसे क्या उम्मीद कर सकते हैं?
आई आई टी में भी २००२ की बात हम सब अपने लैब में काम कर रहे थे कि हमारे साथियों में से एक बोला - 'आज शहर में कुछ होने वाला है.'
"क्या होने वाला है?" सबने पूछा.
"कुछ गड़बड़ हो सकती है."
उस समय बात आई गयी हो गयी और हमने अधिक ध्यान भी नहीं दिया. दिन में २:३० पर शहर से उसके पास फ़ोन आया कि शहर में दंगा हो गया और कर्फ्यू लगा दिया गया है. शहर के कुछ इलाके बेहद संवेदनशील हैं. उनमें से एक उसी इलाके में रहता था. सभी जगह ये होने लगा कि किस तरह से सुरक्षित घर पहुंचा जा सकता है. मेरे भतीजी की एक सहेली उस समय आई आई टी में प्रोजेक्ट कर रही थी. उसकी माँ ने फ़ोन किया कि आप इंदु को अपने साथ घर लेती जाएँ क्योंकि मेरा घर आई आई टी से पास भी था और सुरक्षित रास्ते थे. उसका घर बहुत दूर था.
मैं उसके साथ बस स्टॉप पर खड़ी थी कि किसी तरह यहाँ से निकला जाय. तभी मेरे साथ काम करने वाले एक युवक जो कि इंदु के इलाके में ही रहता था. अपनी गाड़ी से निकला. दरअसल कर्फ्यू के बाद उसका मित्र उसको लेने आ गया था. चूँकि इंदु उसी बस से आती थे जिससे वह आता था. मुझसे बोला कि आप इनको मेरे साथ भेज दीजिये. फिक्र न करें मैं इसको सुरक्षित घर पहुंचा दूंगा. उसने गाड़ी रोक दी . मैं संशय में पड़ी कि दो लड़को और वे भी दूसरे संप्रदाय से जुड़े क्या अकेली लड़की को उनके साथ भेजना उचित है? मुझे तुरंत निर्णय लेना था क्योंकि उसने गाड़ी रोक रखी थी.
"नहीं, इसको मैं अपने घर ले जा रही हूँ, सुबह इसको घर भेज दूँगी या फिर मेरे घर पर ही एक दो दिन बनी रहेगी. "
"नहीं , आप परेशान न हों, मैं सुरक्षित पहुंचा दूंगा."
मैंने उसको मना कर दिया और वह चला गया. उसको लेकर मैं घर आ गयी और दूसरे दिन उसका भाई आकर ले गया.
चार दिन तक कर्फ्यू लगा रहा. बहुत बवाल शहर में मचा रहा कितनी जाने गयीं और कितना नुक्सान हुआ. शांति होने बाद ऑफिस खुला और हम सब लोग पहुंचें. उनमें से करीब सभी आई आई टी के रहने वाले या फिर होस्टल के रहने वाले थे. मैं और वे दोनों शहर से आते थे. अपना लंच साथ लाते थे. इसलिए हम लोग लैब में ही रहते थे. लंच लेने के बाद मैंने अपनी टेबल पर सिर रख कर रेस्ट करती थी.
शायद उन लोगों में से एक ने सोचा कि मैं सो गयी हूँ. कहने लगा - 'तीन दिन बाद हमारे पास सारी बारूद ख़त्म हो चुकी थी और हम पैसे लिए घूम रहे थे लेकिन हमें न बम मिले और न बारूद. नहीं तो ये लड़ाई अभी कई दिन तक चलती. '
मेरा दिमाग तेजी से काम करने लगा कि कितना अच्छा हुआ उसदिन मैं इंदु को इन लोगों के कहने पर नहीं भेजा. नहीं तो कुछ भी संभव था. उस दिन मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा कर रही थी कि उसने ऐन वक्त पर मुझे संशय से बाहर निकल लिया और मैं किसी के विश्वास की रक्षा कर सकी.
इस तरह से हम नहीं पहचान पाते हैं ऐसे लोगों के असली चेहरे. वे हमारे बीच ही रहते हैं और हमें सोया समझ कर सामने आ जाते हैं.
आई आई टी में भी २००२ की बात हम सब अपने लैब में काम कर रहे थे कि हमारे साथियों में से एक बोला - 'आज शहर में कुछ होने वाला है.'
"क्या होने वाला है?" सबने पूछा.
"कुछ गड़बड़ हो सकती है."
उस समय बात आई गयी हो गयी और हमने अधिक ध्यान भी नहीं दिया. दिन में २:३० पर शहर से उसके पास फ़ोन आया कि शहर में दंगा हो गया और कर्फ्यू लगा दिया गया है. शहर के कुछ इलाके बेहद संवेदनशील हैं. उनमें से एक उसी इलाके में रहता था. सभी जगह ये होने लगा कि किस तरह से सुरक्षित घर पहुंचा जा सकता है. मेरे भतीजी की एक सहेली उस समय आई आई टी में प्रोजेक्ट कर रही थी. उसकी माँ ने फ़ोन किया कि आप इंदु को अपने साथ घर लेती जाएँ क्योंकि मेरा घर आई आई टी से पास भी था और सुरक्षित रास्ते थे. उसका घर बहुत दूर था.
मैं उसके साथ बस स्टॉप पर खड़ी थी कि किसी तरह यहाँ से निकला जाय. तभी मेरे साथ काम करने वाले एक युवक जो कि इंदु के इलाके में ही रहता था. अपनी गाड़ी से निकला. दरअसल कर्फ्यू के बाद उसका मित्र उसको लेने आ गया था. चूँकि इंदु उसी बस से आती थे जिससे वह आता था. मुझसे बोला कि आप इनको मेरे साथ भेज दीजिये. फिक्र न करें मैं इसको सुरक्षित घर पहुंचा दूंगा. उसने गाड़ी रोक दी . मैं संशय में पड़ी कि दो लड़को और वे भी दूसरे संप्रदाय से जुड़े क्या अकेली लड़की को उनके साथ भेजना उचित है? मुझे तुरंत निर्णय लेना था क्योंकि उसने गाड़ी रोक रखी थी.
"नहीं, इसको मैं अपने घर ले जा रही हूँ, सुबह इसको घर भेज दूँगी या फिर मेरे घर पर ही एक दो दिन बनी रहेगी. "
"नहीं , आप परेशान न हों, मैं सुरक्षित पहुंचा दूंगा."
मैंने उसको मना कर दिया और वह चला गया. उसको लेकर मैं घर आ गयी और दूसरे दिन उसका भाई आकर ले गया.
चार दिन तक कर्फ्यू लगा रहा. बहुत बवाल शहर में मचा रहा कितनी जाने गयीं और कितना नुक्सान हुआ. शांति होने बाद ऑफिस खुला और हम सब लोग पहुंचें. उनमें से करीब सभी आई आई टी के रहने वाले या फिर होस्टल के रहने वाले थे. मैं और वे दोनों शहर से आते थे. अपना लंच साथ लाते थे. इसलिए हम लोग लैब में ही रहते थे. लंच लेने के बाद मैंने अपनी टेबल पर सिर रख कर रेस्ट करती थी.
शायद उन लोगों में से एक ने सोचा कि मैं सो गयी हूँ. कहने लगा - 'तीन दिन बाद हमारे पास सारी बारूद ख़त्म हो चुकी थी और हम पैसे लिए घूम रहे थे लेकिन हमें न बम मिले और न बारूद. नहीं तो ये लड़ाई अभी कई दिन तक चलती. '
मेरा दिमाग तेजी से काम करने लगा कि कितना अच्छा हुआ उसदिन मैं इंदु को इन लोगों के कहने पर नहीं भेजा. नहीं तो कुछ भी संभव था. उस दिन मैं ईश्वर का शुक्रिया अदा कर रही थी कि उसने ऐन वक्त पर मुझे संशय से बाहर निकल लिया और मैं किसी के विश्वास की रक्षा कर सकी.
इस तरह से हम नहीं पहचान पाते हैं ऐसे लोगों के असली चेहरे. वे हमारे बीच ही रहते हैं और हमें सोया समझ कर सामने आ जाते हैं.
मंगलवार, 30 नवंबर 2010
सामान सौ बरस का ..........
एक हप्ते बाद जब वापस आई तो सोचा पहले सबको पढ़ लूंगी तब कुछ लिखूंगी लेकिन अभी खोल कर बैठी और कुछ पढ़ा ही था कि खबर मिली कि मेरी लेखन क्षमता को पहचानने वाली मेरी मित्र कम बहन अधिक प्रतिमा श्रीवास्तव हर मध्यम वर्गीय परिवार के संघर्ष से जूझती हुई अभी अभी स्थापित हुई है. नौकरी , घर , बच्चे और पति के बीच सामंजस्य बिठाते हुए सुकून कि सांस ले भी नहीं पाई थी कि वो कुछ इस लड़ाई में ऐसी घायल हुई कि अभी मेरे ऑपरेशन के बाद मुझे देखने आई और आज वही किसी व्याधि के कारण व्हील चेयर पर हॉस्पिटल लायी गयी.
अपने इस दर्द को शब्दों में ढाल दिया और अब चलती हूँ. अब उसके पैरों पर खड़े होने के लिए दुआ करती हूँ. और उसके ठीक होने तक तो वापस आना मुश्किल है. फिर मिलती हूँ. और सबसे कहती हूँ कि उसके लिए दुआ करें.
अपने इस दर्द को शब्दों में ढाल दिया और अब चलती हूँ. अब उसके पैरों पर खड़े होने के लिए दुआ करती हूँ. और उसके ठीक होने तक तो वापस आना मुश्किल है. फिर मिलती हूँ. और सबसे कहती हूँ कि उसके लिए दुआ करें.
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
संस्कारों का ढोंग !
हमारी संस्कृति में मनुष्य के गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक सोलह संस्कार होते हैं. आज के जीवन में और बदलते मूल्यों के अनुसार पूरे सोलह संस्कार तो कोई भी नहीं कर पाता है लेकिन कुछ महत्वपूर्ण संस्कार जीवन में पूरे किये ही जाते हैं. इनमें से अब कुछ ही रह गए हैं जैसे - जन्म पर होने वाले, नामकरण , मुंडन, कर्णछेदन, विद्यारम्भ, विवाह और अंत्येष्टि एवं उसके बाद त्रयोदशी आदि.
ये सारे संस्कार हमारी अपनी मान्यताओं के अनुरुप होते हैं और इस बात पर भी कि हम इनको कितना महत्व देते हैं. अब कुछ नए संस्कार भी जुड़ गए हैं जैसे बर्थडे , एनिवर्सरी जैसे कार्यक्रम. बड़े धूमधाम से मनाते हैं. अपनी हैसियत के अनुसार लोगों को भी बुलाते हैं. लेकिन पुराने संस्कारों के प्रति हमारा दृष्टिकोण पुरातन पंथी कह कर बदलता जा रहा है. उसको भी हम सुविधानुसार ढाल कर पूरा करने लगे हैं.
कल मैं अपने पति के एक मित्र के पिता की तेहरवी में गयी थी. तीन बेटे और तीनों बहुएँ एकदम आधुनिक लेकिन कुछ अवसर ऐसे होते हैं कि आधुनिकता हमें ये नहीं सिखाती है कि हम अपनी कुछ परम्पराओं को भूल कर चलें या तो हम कुछ भी नहीं करें. हम इस वैदिक रीति के कार्यक्रम को मानते ही नहीं है और होता भी है आर्यसमाज रीति से आप संस्कार कीजिये और उसकी विधि के अनुसार शांति हवन कीजिये. वह भी सर्वमान्य पद्धति है. लेकिन अगर वैदिक रीति से चले तो फिर उसके प्रत्येक नियम को कुछ हद तक तो पालन करना अनिवार्य है.
सुबह हवन होना था और पंडितों को खिलाना भी था. पंडित जी से पूछ कर सारा समान पैकेट बना कर उनको सौप दिया गया कि आप ब्राह्मण खोज कर उनको दे दें. सारी चीजों के पैकेट थे साथ ही खाने के पैकेट भी थे. कुछ काम घर में बहुओं के द्वारा भी किये जाते हैं तो वह कौन करे? खुद खाना घर में तो बनाती नहीं है तो यहाँ पूरियां कौन तलेगा? बड़ी ने छोटी से कहा और छोटी ने और छोटी से . फिर छोटी ने एप्रन पहना और डरते डरते गैस तक गयीं सिर्फ ७-८ पूरियां ताली . बस हो गया भाभी जी.
हम काफी अंतरंगता रखते हैं तो वहाँ हम दिन भर थे. शाम को जिन्हें कार्ड दिया गया था तो लोग आने शुरू हो गए. दोपहर में ही मुझसे पूछा गया कि इतने लोगों को कार्ड दिया गया है तो किस हिसाब से हलवाई को आर्डर दें कि क्या चीज कितनी होनी चाहिए?फिर सोचा गया कि अलग अलग चीजों के आने से झंझट बढेगा और फिर थाली कटोरी का भी काम बढ़ जाएगा. फिर पैक्ड थालियों का व्यक्तियों के हिसाब से आर्डर कर दिया गया. पैक्ड थालियाँ आ गयी और जैसे जैसे लोग आते जा रहे थे. मेजों पर थालियाँ रख दी जाती और लोग खाकर चलते जा रहे थे. हम भी उनमें से एक थे और खा पीकर हम भी घर आ गए. रात में देर तक नीद नहीं आई कि क्या इस तरह से भी होने लगा है. क्या सिर्फ एक संस्कार हम पूरी श्रद्धा से और नियमानुसार नहीं कर सकते हैं. पुरुष वर्ग शायद ऐसा करता भी लेकिन स्त्रियाँ जब कुछ करने के लिए राजी ही नहीं तो वे क्या करें? उनके लिए बर्थडे पार्टी और तेरहवी बराबर हो गयी . बाहर से आर्डर कर दिया और खुद तैयार होकर होस्ट बनी सबको अटैंड कर रहीं है. वही यहाँ था, सारी बहुएँ तैयार पूरे मेकअप में बाबूजी के गुणगान कर रही थी. और कुछ हम जैसी दकियानूसी महिलायें इस संस्कार की परंपरागत तरीके पर रो रही थीं.
गुरुवार, 11 नवंबर 2010
ऐसा भी होता है !
जीवन में मूल्य और सिद्धांतों की बलि चढ़ा मेरा करियर में एक महत्वपूर्ण घटना यह भी है , मुझे इससे कोई शिकायत नहीं है लेकिन ये आज भी मुझे कसक दे जाती है तो सोचा आप सबसे बाँट लूं.
मैं उस समय एक डिग्री कॉलेज में राजनीति शास्त्र विभाग में मानदेय पर प्रवक्ता पद पर कार्य कर रही थी. शायद विभाग में सबसे अधिक डिग्री मेरे पास ही थीं लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था. क्योंकि मानदेय प्रवक्ता किस दृष्टि से देखे जाते हैं ये इसके मुक्तभोगी अधिक अच्छी तरह से बता सकते है. मेरे विभागाध्यक्ष ने कहा कि मैं इस साल रिसर्च का पेपर लगवाना चाहता हूँ क्योंकि अभी तक इसको पढ़ाने वाला कोई नहीं था और आप रिसर्च पढ़ा सकती हैं. पेपर भी स्कोरिंग होता है रिजल्ट भी अच्छा रहेगा. मुझे रिसर्च में अधिक रूचि थी तो मैंने उनसे सहमति व्यक्त कर दी. जब कि मुझे मालूम था कि इस पेपर को लेने वाले बच्चों को पढ़ाई से लेकर उनके लघुशोध तक का काम मुझे ही अकेले देखना होगा . पर मेरा अपने काम के प्रति समर्पण कभी भी कम नहीं रहा. मैंने जो भी काम किया पूरी लगन और रूचि से ही किया.
करीब २० बच्चों ने रिसर्च का पेपर लिया और उन सबको मैंने उनके लघुशोध के लिए पूरा पूरा सहयोग किया. उनको उनके काम के लिए अगर कहीं और लेकर जाना पड़ा तो मैं बराबर उनके साथ जाकर काम करवाने का प्रयास किया. ऐसा नहीं है कि मेरे इस सहयोग और प्रयास के लिए मेरे छात्र आज भी अगर कहीं मिल जाते हैं तो पूरा सम्मान देते हैं. बात उनके लघुशोध के वायवा की है. परीक्षक ने छात्रों के प्रयास को काफी सराहा. उस समय विभाग के सभी शिक्षकों के अतिरिक्त एक अन्य विभाग के प्रवक्ता जो कि मेरे विभाग के एक प्रवक्ता के मित्र थे वह भी उपस्थित थे. उन्होंने वे लघुशोध उठा कर देखे उनमें पर्यवेक्षक के स्थान पर सभी में मेरा ही नाम था. ये बात उनको कुछ ठीक नहीं लगी. इससे पहले हमारे विभाग के किसी भी शिक्षक को इस बात पर कोई आपत्ति नहीं लगी क्योंकि सभी को कार्य मैंने ही करवाया था.
परीक्षक के जाने के बाद उन प्रवक्ता महोदय ने अपने मित्र को सुझाव दिया कि ये तो मानदेय पर हैं इस शोध कार्य से इनको कोई लाभ नहीं मिलेगा लेकिन अगर इन सभी शोधों पर आप लोगों के नाम पड़ जाएँ तो ये कार्य आगे आपके वेतनमान के लिए और शोध की दिशा में लाभकारी सिद्ध होगा. फिर क्या था. रातों रात विश्वविद्यालय जाने वाली प्रतियों पर कवर बदले गए और उन पर वहाँ पर स्थायी रूप से काम करने वाले लोगों के नाम डाल दिए गए. ये काम मेरे सामने जब आया तो कहा गया कि विश्वविद्यालय में मानदेय प्रवक्ताओं के शोध मान्य नहीं होंगे. इसके आगे मैं कुछ कह नहीं सकती थी वैसे मुझे वास्तविकता का ज्ञान तो था ही. कॉलेज में रखी गयीं प्रतियों पर आज भी मेरा ही नाम पड़ा हुआ है क्योंकि अगर ये बात छात्रों को पता लग जाती तो शायद बहुत बड़ा बवाल हो सकता था. इस लिए कॉलेज की प्रतियों को जैसे के तैसे ही रहने दिया गया.
ये बात छोटी थी या फिर बड़ी मैं नहीं जानती लेकिन मेरे सिद्धांतों के खिलाफ थी सो मैंने वह कॉलेज छोड़ दिया. फिर भी कॉलेज की इस राजनीति से मेरा मन बहुत दुखी हुआ. क्यों छात्र शिक्षकों के प्रति सम्मान का दृष्टिकोण नहीं रखते हैं शायद ऐसी ही कोई बात उनके सामने भी आ जाती होगी और अपने गुरु के इस तरह से नैतिक रूप से गिरा हुआ देख कर वे सम्मान भी नहीं कर पाते हैं. हम दोष छात्रों को देते हैं.
मैं उस समय एक डिग्री कॉलेज में राजनीति शास्त्र विभाग में मानदेय पर प्रवक्ता पद पर कार्य कर रही थी. शायद विभाग में सबसे अधिक डिग्री मेरे पास ही थीं लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था. क्योंकि मानदेय प्रवक्ता किस दृष्टि से देखे जाते हैं ये इसके मुक्तभोगी अधिक अच्छी तरह से बता सकते है. मेरे विभागाध्यक्ष ने कहा कि मैं इस साल रिसर्च का पेपर लगवाना चाहता हूँ क्योंकि अभी तक इसको पढ़ाने वाला कोई नहीं था और आप रिसर्च पढ़ा सकती हैं. पेपर भी स्कोरिंग होता है रिजल्ट भी अच्छा रहेगा. मुझे रिसर्च में अधिक रूचि थी तो मैंने उनसे सहमति व्यक्त कर दी. जब कि मुझे मालूम था कि इस पेपर को लेने वाले बच्चों को पढ़ाई से लेकर उनके लघुशोध तक का काम मुझे ही अकेले देखना होगा . पर मेरा अपने काम के प्रति समर्पण कभी भी कम नहीं रहा. मैंने जो भी काम किया पूरी लगन और रूचि से ही किया.
करीब २० बच्चों ने रिसर्च का पेपर लिया और उन सबको मैंने उनके लघुशोध के लिए पूरा पूरा सहयोग किया. उनको उनके काम के लिए अगर कहीं और लेकर जाना पड़ा तो मैं बराबर उनके साथ जाकर काम करवाने का प्रयास किया. ऐसा नहीं है कि मेरे इस सहयोग और प्रयास के लिए मेरे छात्र आज भी अगर कहीं मिल जाते हैं तो पूरा सम्मान देते हैं. बात उनके लघुशोध के वायवा की है. परीक्षक ने छात्रों के प्रयास को काफी सराहा. उस समय विभाग के सभी शिक्षकों के अतिरिक्त एक अन्य विभाग के प्रवक्ता जो कि मेरे विभाग के एक प्रवक्ता के मित्र थे वह भी उपस्थित थे. उन्होंने वे लघुशोध उठा कर देखे उनमें पर्यवेक्षक के स्थान पर सभी में मेरा ही नाम था. ये बात उनको कुछ ठीक नहीं लगी. इससे पहले हमारे विभाग के किसी भी शिक्षक को इस बात पर कोई आपत्ति नहीं लगी क्योंकि सभी को कार्य मैंने ही करवाया था.
परीक्षक के जाने के बाद उन प्रवक्ता महोदय ने अपने मित्र को सुझाव दिया कि ये तो मानदेय पर हैं इस शोध कार्य से इनको कोई लाभ नहीं मिलेगा लेकिन अगर इन सभी शोधों पर आप लोगों के नाम पड़ जाएँ तो ये कार्य आगे आपके वेतनमान के लिए और शोध की दिशा में लाभकारी सिद्ध होगा. फिर क्या था. रातों रात विश्वविद्यालय जाने वाली प्रतियों पर कवर बदले गए और उन पर वहाँ पर स्थायी रूप से काम करने वाले लोगों के नाम डाल दिए गए. ये काम मेरे सामने जब आया तो कहा गया कि विश्वविद्यालय में मानदेय प्रवक्ताओं के शोध मान्य नहीं होंगे. इसके आगे मैं कुछ कह नहीं सकती थी वैसे मुझे वास्तविकता का ज्ञान तो था ही. कॉलेज में रखी गयीं प्रतियों पर आज भी मेरा ही नाम पड़ा हुआ है क्योंकि अगर ये बात छात्रों को पता लग जाती तो शायद बहुत बड़ा बवाल हो सकता था. इस लिए कॉलेज की प्रतियों को जैसे के तैसे ही रहने दिया गया.
ये बात छोटी थी या फिर बड़ी मैं नहीं जानती लेकिन मेरे सिद्धांतों के खिलाफ थी सो मैंने वह कॉलेज छोड़ दिया. फिर भी कॉलेज की इस राजनीति से मेरा मन बहुत दुखी हुआ. क्यों छात्र शिक्षकों के प्रति सम्मान का दृष्टिकोण नहीं रखते हैं शायद ऐसी ही कोई बात उनके सामने भी आ जाती होगी और अपने गुरु के इस तरह से नैतिक रूप से गिरा हुआ देख कर वे सम्मान भी नहीं कर पाते हैं. हम दोष छात्रों को देते हैं.
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