भारतीय समाज की यह त्रासदी आज भी बनी हुई है कि एक बेटा हो बुढ़ापे का सहारा, बाप की नाम उजागर करने वाला। अब भी कुछ ऐसे वाकये अचानक आ कर खड़े हो जाते हैं कि सिर पीटने का मन करता है।
मेरी सहायिका सुबह आठ बजे आती है तो मैं गेट का ताला उससे पहले खोल देती हूँ। आज किसी ने गेट खटखटाया तो मैंने कहा - "खुला है।"
फिर खटखटाया तो मैं गेट की तरफ गई, एक इंसान खड़ा था , कुछ पहचानी शक्ल लगी , इससे पहले कि पहचान पाती वह बोला - "आँटी पहले मैं यहीं आपके पड़ोस में रहता था, मेरे पिताजी नहीं रहे, कुछ पैसों से मदद कर दीजिए।"
मैं जवान और स्वस्थ लोगों को भीख नहीं देती , सो मैंने उसे आगे जाने को कहा। मुझे उसकी शक्ल याद आ गई । उसका परिवार मेरे घर से दो तीन घर छोड़कर रहता था और वे लोग मुझसे पहले से रहते थे। तीन बहनों के बाद ये बेटा था और दादी का बेहद दुलारा।
बाबाजी फ्लैक्स कंपनी में काम करते थे। रिटायरमेंट के बाद यही छोटा सा मकान बनवा कर बहू बेटे परिवार सहित रहने लगे। अपने रहते दो पोतियों की शादी कर दी। बेटा चल बसा तो बहू ने एक स्कूल में आया की नौकरी कर ली।
पोता बड़ा होने के साथ साथ बिगड़ता जा रहा था । दादा की आँखें बंद होने के बाद दादी से पैसे लेकर पान मसाला, सिगरेट बहुत कम उम्र में सेवन करने लगा । पहले अच्छी तरह फिर मार पीट कर छीन ले जाता।
कुछ लालची लोगों की नजर उसके घर पर लगी थी । उसे उधार देने लगे। सामान और पैसा सब कुछ, बदले में उसके घर से सामान मँगवा लेते। उसने सारा सामान बेच दिया । भूखों मरने की नौबत आ गई। दबंगों ने उधार देना शुरू किया और मकान पर कब्जा कर लिया।
फिर कहाँ गये ? मुझे पता नहीं लेकिन कुछ खबर मिलती रहती। दादी भी गुजर गई।
इसके बाप को गुजरे हुए करीब बीस साल हो चके हैं और आज अपने नशे के लिए पिता के नाम पर भीख माँग रहा था। नाम ही तो चला रहा है ।
6 टिप्पणियां:
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (२१-०१ -२०२२ ) को
'कैसे भेंट करूँ? '(चर्चा अंक-४३१६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सुन्दर पोस्ट
बहुत सुंदर प्रस्तुति।
त्रासदी ही है ये समाज की ।
जबरदस्त रेखांकन।
वास्तविकता से रूबरू करवाया।
सही कहा नाम ही तो कमा रहा था...भीख माँगकर...।पुत्रमोह में अंधे लोगों के साथ यही होना बाकी है।
आँखें खोल देने वाला लाजवाब सृजन
बहुत सुन्दर
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