२२ वर्ष बाबूजी को गए हुए , लेकिन वे अपने स्वभाव और सिद्धांतों से हमारे साथ आज भी हैं। आत्मनिर्भर , कर्मठ और स्पष्टवादी होने के कारण वे अपनी अलग छवि रखते थे। कानपूर के उर्सला हॉर्समैन हॉस्पिटल में फार्मासिस्ट के पद पर जीवन भर काम किया। कई बार स्टोर इंचार्ज बने लेकिन मजाल है कि कोई एक गोली भी बगैर डॉक्टर के पर्चे के बगैर ले जाय। परिणाम वही अपने जीवन में सिर्फ यापन ही कर सके। मित्रों के शौक़ीन बाबूजी ने कभी बेईमानी की बात नहीं जानी। अपने जीवन में ये भी नहीं सोचा कि यहाँ से रिटायर्ड होकर कहाँ रहेंगे ? कोई घर नहीं , कोई जमीन नहीं और रिटायर होने के बाद नियमानुसार जितने दिन का समय मिला रहे और फिर तुरंत बेटों को आदेश के किराये का मकान खोजो। जब की उनके साथियों में उनसे पहले अपने एक नहीं दो दो मकान तैयार करवा लिए थे। वैसे इस समय तक मैं उनके परिवार में शामिल भी नहीं हुई थी।
किराये के मकान में कभी रहे नहीं थे सो मकान मालिक की दखल से परेशान और उनके भाग्य ने साथ दिया और उनको कानपूर विश्वविद्यालय में डिस्पेंसरी संभालने का काम मिल गया और वे फिर सरकारी आवास में आ गए। मैं उनके परिवार में यही शामिल हुई थी। उनके बेटी नहीं थी सो उनकी बहुएँ ही उनकी बेटियां बनी लेकिन सख्त अनुशासन ने हमें अनुशासित कर दिया था। वैसे अपने मायके में कौन इतना अनुशासित रहता है ? समय से चाय , दूध और खाना इसमें कोई ढील पसंद नहीं थी।
वे अपनी 80 वर्ष की आयु तक अपने सारे काम स्वयं करते थे। अपने कपडे धोने से लेकर बागवानी तक। बस जीवन के ४ महीने उन्होंने आश्रित होकर गुजारे क्योंकि उनको कैंसर हुआ था और आखिरी चार महीने वे खुद कुछ कर पाने में असमर्थ रहे। मुझे याद है कि उनसे कुछ महीने पहले १० अगस्त को मेरे पापा का अकस्मात् निधन हो गया था और मुझे खबर तक नहीं मिली क्योंकि टेलीग्राम आया ही नहीं था। जब मैं लौट कर आई तो उन्होंने गले से लगा लिया मैं बहुत रोई तो उन्होंने सिर पर हाथ फिरते हुए कहा - "जाने के दिन तो हमारे थे वो कैसे चले गए ? मैं तो ये भी नहीं कह सकता कि मैं तो हूँ , मेरा क्या ठिकाना ? "
शायद मैं दुनियां में अकेली होऊँगी जिसके सिर से दोनों पिताओं का साया एक साथ उठ गया। अब बस यादें हैं - आज दिन तो रुला ही जाती है।
2 टिप्पणियां:
भावभीनी यादें.
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सादर श्रधांजली।
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