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सोमवार, 22 जुलाई 2013

गुरु पूर्णिमा : गुरु को नमन !

                          गुरु हमें वह सब देता है जिसकी हमें जरूरत होती है . मानव तो जीवन में दिशाहीन सा जीता रहता है कुछ  भौतिकता को ही जीवन का सत्य मान कर  आगे बढ़ जाते हैं .  वह गुरु जो मानव को  देता एक ऐसी दृष्टि   देता  है , जिससे वह ग्रहण करता है आध्यात्मिक ज्ञान , दिव्य ज्ञान और वह सब कुछ जो गुरु उसको  समझाता है .   ऐसे गुरु को इंसान  खुद नहीं खोज पाता है बल्कि गुरु अपने शिष्यों को खुद पहचानता है और   जब उन्हें योग्य पाता है तो वह सब कुछ सौंप देता है जिसको उसने  अर्जित किया होता है . वह जीवन में कई कसौटियों पर कसकर ही चुनता है और  तब अपने शिष्य को शिष्यत्व  प्रदान करता है. 

                                मैं अपने गुरु को नमन करते हुए विनम्र नमन के साथ कहती हूँ  कि मैं एक ऐसी शिष्या - मेरा जैसा सौभाग्य शायद ही किसी को मिला हो कि जो अपने गुरु की गोद में बचपन से खेलते  हुए बड़ी हुई और अंततः उनके लिए शिष्य बन गयी . वे  पितातुल्य मेरे फूफाजी "श्री जगदम्बा प्रसाद श्रीवास्तव " थे .  जब भी वे कानपूर से उरई जाते कुछ  सिखा  कर आते . प्रिय तो उनको पूरा परिवार था लेकिन मैं और मेरे भाई साहब विशेष प्रिय थे . 
                                मेरी शादी के निर्णय को अंतिम स्वीकृति देने वाले वही थे. उसके बाद भी पग पग पर सावधान करते रहे और इस तरह से बच  कर निकलना है  ये बताते रहे . जीवन में संघर्ष की परिभाषा और उससे जूझकर निकलने की शक्ति भी उन्ही से मिली . उन्होंने मुझे अपने पैमाने के अनुसार  कसौटियों पर कसते हुए जब इस योग्य पाया कि मैं कहीं भी उनकी दी गयी शिक्षाओं और मार्गों की अवमानना नहीं करूंगी तब मुझसे कहा था -- 'तुम अपने जीवन में कभी किसी का अहित मत सोचना , भले ही वह तुम्हारा हित न सोचे .'  मैंने इसे स्वीकार कर उनको वचन दिया था और उसको आज भी निभा रही हूँ . 
                           तब मैं ये नहीं जानती थी की दीक्षा क्या होती है औरकैसे ली जाती है ?  क्योंकि हमें इस विषय में कभी बताया ही नहीं गया था . मेरी हर मुसीबत से लड़ने के अस्त्र उन्होंने मन्त्रों के रूप में सहज ही  दे रखे थे . फूफाजी थे कोई बात नहीं थी . वे एक सीधे सादे गृहस्थ थे और उनके ज्ञान को मैं स्वयं अपने जीवन में नहीं समझ पायी थी . फिर एक दिन उन्होंने मुझसे कहा - "रेखा , अब तुम इस जीवन में किसी भी व्यक्ति से दीक्षा मत लेना ." मैं इस बारे में कुछ जानती नहीं थी सो कह दिया कि नहीं लूंगी
                           फिर १९९६ में मेरे परिवार में " आसाराम बापू " की दीक्षा लेने के लिए तैयार हुए . तब मुझे वह शब्द याद आये और मैंने मना कर दिया कि मेरे गुरु तो वही थे जिन्होंने मुझे सब कुछ ऐसे सिख दिया जैसे माँ अपने बच्चे को सिखाती है . वे हमें १९९५ में छोड़ कर चले गए थे . तब मुझे पता चला कि दीक्षा क्यों लेते हैं ? मेरे गुरु तो मुझे बचपन से दीक्षा देते रहे और मैं लेती रही . मेरे जैसे गुरु शायद ही किसी को  मिले होंगे .
                          उनके अपने गुरु कौन थे ? ये बात उन्होंने मुझे बताई थी की उनका गुरु भी कोई मानव नहीं था बल्कि  उन्होंने सूर्य की उपासना करके सम्पूर्ण ज्ञान अर्जित किया और मोक्षगामी आत्मा बने . आज भी अप्रत्यक्ष रूप से वे मेरा दिग्दर्शन करते हैं .

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

कब बदलेंगे हम ?

                                  अपने जीवन में बहुत सारे लोगों से  हुआ . बहुत से लोगों की गुत्थियों को सुलझाया , दिशा दी या फिर कुछ इस तरह से जीवन में शामिल हो गए कि जैसे वे मेरे बहुत अपने हों लेकिन इस बार कुछ ऐसा हुआ कि लग रहा है शायद एक आत्महत्या को बचा पाना मुश्किल है . कहेंगे हम इसे आत्महत्या लेकिन होगी ये ऑनर किलिंग ?

                                निधि ( काल्पनिक नाम ) मेरी बेटी की सहेली है बचपन से K G  से साथ पढ़ी और आगे जाकर उनकी दिशा तो बदल गयी लेकिन साथ नहीं बदला। जब भी बेटी कानपूर आती है वो जरूर मिलने आती है और सारा दिन एक साथ बीतता है  या फिर बेटी वहां जाती है . कुछ इत्तेफाक ऐसा है कि मेरी बड़ी बेटी की जितनी भी सहेलियां है हम सबके परिवार से जुड़े हैं लेकिन छोटी वाली की सहेलियों से तो जुड़े हैं उनके परिवार से कोई वास्ता नहीं है .  न मैं कभी गयी और न वे लोग कभी आये .
                             वैसे तो बिटिया रानी भी अच्छी काउंसलिंग कर लेती हैं लेकिन इस बार हार  कर मुझसे सलाह ली और मामला कुछ ऐसा निकला कि उनकी मित्र जो नौकरी भी करती है लेकिन वह जिससे शादी करना चाहती है वह उनके क्षेत्र का ही इंसान है लेकिन वह उनके बराबर की सजातीय  नहीं है . उसने इस बारे में अपने घर में बात की और परिणाम ये है कि  हमें कहते हुए शर्म आती है कि पढ़े लिखे उच्च शिक्षित लोग भी ऐसा कर सकते हैं . राजी होने तो दूर की बात उन्होंने बेटी को जिस तरीके से टार्चर कर सकते हैं किया , वह हमेशा चहकने वाली लड़की - खामोश हो चुकी है .  आज के ज़माने में जब की संकीर्णता की बेड़ियाँ टूट रही है हम अब भी वहीँ जी रहे हैं . मुझसे बात नहीं हुई लेकिन उनकी दलील सुनी तो लगा कि क्या कुछ लोगों  की विचारधारा कभी बदल नहीं सकतीहै .     इज्जत के नाम पर खुद अपनी दुनियां उजड़ जाए तो कोई बात नहीं है लेकिन इज्जत रहनी चाहिए . ये क्यों भूल जाते हैं कि  अगर अति संवेदनशील बच्चा अवसाद की स्थिति में कोई आत्मघाती कदम उठा  लेता है तो आप लोगों को क्या उत्तर देंगे ? उनके कितने कटाक्ष सुनेगें ? तब आपकी इज्जत बरक़रार रहेगी शायद नहीं,  आप अपने बच्चे को भी खो देंगे और इज्जत को भी . शादी के बाद कोई पूछने नहीं आता है कि आपकी बेटी कैसी है ? उसके और आपके सुख दुःख में साथ  देने वाले कोई नहीं होंगे आपके अपने बच्चे ही होंगे .
               अगर कल को वह लड़की इतने अवसाद के चलते आत्महत्या कर लेती है तो उनकी इज्जत के लिए कितने  सवाल पैदा होंगे ? ये बात उनकी समझ क्यों नहीं आती है ?
                     मान लीजिये कि उस लड़की ने आपकी इज्जत की दुहाई के लिए कहींऔर शादी कर भी ली और कल 
वह सामंजस्य न बिठा पाई तो आप उसके जीवन को कितने वर्षों तक साथ देंगे ?
            आपने अपनी जिन्दगी अपने अनुकूल जी और अब चाहते हैं कि बच्चे भी अपनी जिन्दगी आपके अनुरूप ही जियें . समझदारी इसी में है कि उनकी जिन्दगी उन्हें जीने दें . वे अब बच्चे नहीं रहे कि  हम उनकी अंगुली पकड़ कर या गाय बकरी की तरह से जहाँ चाहे जिस खूंटे से चाहे बांध दें और वे बंधे रहें .अगर जिद और हालत के चलते बड़ों ने निर्णय न बदला तो कल का इतिहास कुछ भी हो सकता है .  आप लोग भी कुछ राय दें कि हम क्या कर सकते हैं ?

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