गुरु हमें वह सब देता है जिसकी हमें जरूरत होती है . मानव तो जीवन में दिशाहीन सा जीता रहता है कुछ भौतिकता को ही जीवन का सत्य मान कर आगे बढ़ जाते हैं . वह गुरु जो मानव को देता एक ऐसी दृष्टि देता है , जिससे वह ग्रहण करता है आध्यात्मिक ज्ञान , दिव्य ज्ञान और वह सब कुछ जो गुरु उसको समझाता है . ऐसे गुरु को इंसान खुद नहीं खोज पाता है बल्कि गुरु अपने शिष्यों को खुद
पहचानता है और जब उन्हें योग्य पाता है तो वह सब कुछ सौंप देता है जिसको
उसने अर्जित किया होता है . वह जीवन में कई कसौटियों पर कसकर ही चुनता है और तब
अपने शिष्य को शिष्यत्व प्रदान करता है.
मैं अपने गुरु को नमन करते हुए विनम्र नमन के साथ कहती हूँ कि मैं एक ऐसी शिष्या - मेरा जैसा सौभाग्य शायद ही किसी को मिला हो कि जो अपने गुरु की गोद में बचपन से खेलते हुए बड़ी हुई और अंततः उनके लिए शिष्य बन गयी . वे पितातुल्य मेरे फूफाजी "श्री जगदम्बा प्रसाद श्रीवास्तव " थे . जब भी वे कानपूर से उरई जाते कुछ सिखा कर आते . प्रिय तो उनको पूरा परिवार था लेकिन मैं और मेरे भाई साहब विशेष प्रिय थे .
मेरी शादी के निर्णय को अंतिम स्वीकृति देने वाले वही थे. उसके बाद भी पग पग पर सावधान करते रहे और इस तरह से बच कर निकलना है ये बताते रहे . जीवन में संघर्ष की परिभाषा और उससे जूझकर निकलने की शक्ति भी उन्ही से मिली . उन्होंने मुझे अपने पैमाने के अनुसार कसौटियों पर कसते हुए जब इस योग्य पाया कि मैं कहीं भी उनकी दी गयी शिक्षाओं और मार्गों की अवमानना नहीं करूंगी तब मुझसे कहा था -- 'तुम अपने जीवन में कभी किसी का अहित मत सोचना , भले ही वह तुम्हारा हित न सोचे .' मैंने इसे स्वीकार कर उनको वचन दिया था और उसको आज भी निभा रही हूँ .
तब मैं ये नहीं जानती थी की दीक्षा क्या होती है औरकैसे ली जाती है ? क्योंकि हमें इस विषय में कभी बताया ही नहीं गया था . मेरी हर मुसीबत से लड़ने के अस्त्र उन्होंने मन्त्रों के रूप में सहज ही दे रखे थे . फूफाजी थे कोई बात नहीं थी . वे एक सीधे सादे गृहस्थ थे और उनके ज्ञान को मैं स्वयं अपने जीवन में नहीं समझ पायी थी . फिर एक दिन उन्होंने मुझसे कहा - "रेखा , अब तुम इस जीवन में किसी भी व्यक्ति से दीक्षा मत लेना ." मैं इस बारे में कुछ जानती नहीं थी सो कह दिया कि नहीं लूंगी
फिर १९९६ में मेरे परिवार में " आसाराम बापू " की दीक्षा लेने के लिए तैयार हुए . तब मुझे वह शब्द याद आये और मैंने मना कर दिया कि मेरे गुरु तो वही थे जिन्होंने मुझे सब कुछ ऐसे सिख दिया जैसे माँ अपने बच्चे को सिखाती है . वे हमें १९९५ में छोड़ कर चले गए थे . तब मुझे पता चला कि दीक्षा क्यों लेते हैं ? मेरे गुरु तो मुझे बचपन से दीक्षा देते रहे और मैं लेती रही . मेरे जैसे गुरु शायद ही किसी को मिले होंगे .
उनके अपने गुरु कौन थे ? ये बात उन्होंने मुझे बताई थी की उनका गुरु भी कोई मानव नहीं था बल्कि उन्होंने सूर्य की उपासना करके सम्पूर्ण ज्ञान अर्जित किया और मोक्षगामी आत्मा बने . आज भी अप्रत्यक्ष रूप से वे मेरा दिग्दर्शन करते हैं .
मैं अपने गुरु को नमन करते हुए विनम्र नमन के साथ कहती हूँ कि मैं एक ऐसी शिष्या - मेरा जैसा सौभाग्य शायद ही किसी को मिला हो कि जो अपने गुरु की गोद में बचपन से खेलते हुए बड़ी हुई और अंततः उनके लिए शिष्य बन गयी . वे पितातुल्य मेरे फूफाजी "श्री जगदम्बा प्रसाद श्रीवास्तव " थे . जब भी वे कानपूर से उरई जाते कुछ सिखा कर आते . प्रिय तो उनको पूरा परिवार था लेकिन मैं और मेरे भाई साहब विशेष प्रिय थे .
मेरी शादी के निर्णय को अंतिम स्वीकृति देने वाले वही थे. उसके बाद भी पग पग पर सावधान करते रहे और इस तरह से बच कर निकलना है ये बताते रहे . जीवन में संघर्ष की परिभाषा और उससे जूझकर निकलने की शक्ति भी उन्ही से मिली . उन्होंने मुझे अपने पैमाने के अनुसार कसौटियों पर कसते हुए जब इस योग्य पाया कि मैं कहीं भी उनकी दी गयी शिक्षाओं और मार्गों की अवमानना नहीं करूंगी तब मुझसे कहा था -- 'तुम अपने जीवन में कभी किसी का अहित मत सोचना , भले ही वह तुम्हारा हित न सोचे .' मैंने इसे स्वीकार कर उनको वचन दिया था और उसको आज भी निभा रही हूँ .
तब मैं ये नहीं जानती थी की दीक्षा क्या होती है औरकैसे ली जाती है ? क्योंकि हमें इस विषय में कभी बताया ही नहीं गया था . मेरी हर मुसीबत से लड़ने के अस्त्र उन्होंने मन्त्रों के रूप में सहज ही दे रखे थे . फूफाजी थे कोई बात नहीं थी . वे एक सीधे सादे गृहस्थ थे और उनके ज्ञान को मैं स्वयं अपने जीवन में नहीं समझ पायी थी . फिर एक दिन उन्होंने मुझसे कहा - "रेखा , अब तुम इस जीवन में किसी भी व्यक्ति से दीक्षा मत लेना ." मैं इस बारे में कुछ जानती नहीं थी सो कह दिया कि नहीं लूंगी
फिर १९९६ में मेरे परिवार में " आसाराम बापू " की दीक्षा लेने के लिए तैयार हुए . तब मुझे वह शब्द याद आये और मैंने मना कर दिया कि मेरे गुरु तो वही थे जिन्होंने मुझे सब कुछ ऐसे सिख दिया जैसे माँ अपने बच्चे को सिखाती है . वे हमें १९९५ में छोड़ कर चले गए थे . तब मुझे पता चला कि दीक्षा क्यों लेते हैं ? मेरे गुरु तो मुझे बचपन से दीक्षा देते रहे और मैं लेती रही . मेरे जैसे गुरु शायद ही किसी को मिले होंगे .
उनके अपने गुरु कौन थे ? ये बात उन्होंने मुझे बताई थी की उनका गुरु भी कोई मानव नहीं था बल्कि उन्होंने सूर्य की उपासना करके सम्पूर्ण ज्ञान अर्जित किया और मोक्षगामी आत्मा बने . आज भी अप्रत्यक्ष रूप से वे मेरा दिग्दर्शन करते हैं .