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मंगलवार, 23 अगस्त 2011

कल जो हम थे !

aन्ना के भ्रष्टाचार विरोध में पूरे देश को जागृत कर दिया तो कुछ वे भी जाग कर गुहार लगाने लगे जो कल दूसरों को चूस रहे थे। मैंने ये बात इस लिए कह सकती हूँ कि गुहार लगाने वाले को व्यक्तिगत तौर पर और एक कैम्पस में रहने के नाते पूरी तरह से जानती हूँ। २८ साल पहले हम भी विश्वविद्यालय कैम्पस में ही रहते थे। हमारे ससुर जी वहाँ की डिस्पेंसरी के इंचार्ज थे। अपने सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद वह चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े रहना चाहते सो उन्होंने यहाँ पर ज्वाइन कर लिया। विश्वविद्यालय के बाबुओं के जीवन स्तर को देख लें तो लगता था कि क्या आई ए एस का स्तर होगा?
ये सज्जन भी वहाँ पर रहते थे। एक बाबू होने के बाद भी उस समय वे कार के मालिक थे और बच्चों के कपड़े कोई देख ले तो निश्चित तौर पर उनकी ड्रेस बहुत महँगी होती थी। कमाई का कोई अंत तो था नहीं। चूंकि डिस्पेंसरी से सबको ही काम पड़ता था तो सबको जानती भी थी । अब दुर्भाग्य वश इनको वी आर एस लेना पड़ गया तो फिर वहाँ पर इनके जगह पर कोई और आ कर बैठ गया और इनसे खाने की जुगाड़ करने लगा तो इनका खून खौल उठा कि ये मुझसे भी खाने वाले आ गए लेकिन ये भूल गए कि इस पौध को पानी तो इन्होने ही दिया था। हो सकता है कि इनमें से किसी व्यक्ति से इन्हीं ने पैसा खा कर काम किया हो और अपनी बारी आई तो भ्रष्ट तंत्र के नाम पर अखबार में गुहार लगा दी। ये भूल गए कि इनके जानने वाले अभी कुछ लोग तो बाकी हैं कि इनका अपना चरित्र क्या रहा है? जब खुद थे तो तंत्र भ्रष्ट नहीं था और अब भ्रष्ट हो गया है।

जीवन भर खूब ऐश की। अब वे अपना कल भूल गये। शायद ये भूल गए कि तुम जोंक बन कर कल दूसरों का खून पीकर अपनी कार में पेट्रोल डलवा रहे थे तो यह नहीं सोचा होगा तुम्हारी जगह कोई और भी तो आएगा और अब तो पेट्रोल काफी महंगा cहुका है तो फिर वो जो आज तुम्हारी जगह पर बैठा है उसको भी तो कार में पेट्रोल डलवाना होगा। वैसे भी अब बच्चों की पढ़ाई बहुत महंगी हो चुकी है। ab रोना क्यों रो रहे हैं , जब खुद थे तो भ्रष्ट तंत्र नहीं था अब उसको ही भ्रष्ट कहते हुए गुहार लगा रहे हो। एक यही नहीं बल्कि जो भी इसका इस तरह से कमाई कर रहे हैं , कल वे भी इसका खामियाजा भुगतेंगे जब भ्रष्टाचार नहीं होगा तब भी उन्हें अपने काली कमाई को सहेजना मुश्किल पड़ जाएगा।

रविवार, 21 अगस्त 2011

अन्ना को अंगूठा !

जब पूरा देश एकजुट होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा है और इस समय भी जो तस्वीर मैंने देखी वो लगा कि पूरा तंत्र इतना सुदृढ़ किले की तरह से बना है कि इसको तोड़ना बहुत मुश्किल है।
अभी दो दिन पहले ही की बात है, एक बेटी का गरीब पिता उसकी शादी के लिए जद्दोजहद कर रहा था क्योंकि दिन बा दिन बढती मंहगाई ने उसके शादी के बजट को फेल कर दिया। बारात बुलाएगा तो कहाँ से खिलायेगा? उसे याद आया कि उसके पिता जो सरकारी मुलाजिम थे , दो महीने पहले गुजर गए और उनकी पेंशन अशक्त होने के कारण जीवित प्रमाण पत्र न देने के कारण ट्रेजरी में ही पड़ी है। कुछ लोगों ने सलाह दी कि उनका मृत्यु प्रमाण पत्र लेकर जाओ कुछ रास्ता वह लोग सुझा देंगे और अगर कुछ पैसा मिल गया तो इस समय तुम्हारे लिए संजीवनी बूटी की तरह से होगी।
मरता क्या न करता?रोजी रोटी के धंधे को बंद कर ट्रेजरी गया, वहाँ पता किया तो पता चला कि अमुक बाबू ये काम करवा सकते हैं। खोजते हुए उनके पास गया, उन्होंने हिसाब लगाकर बता दिया कि आपको १ लाख रूपया मिल सकता है। उस बेचारे की तो लाटरी निकल आई या कहो उसने बिटिया के भाग्य को खूब सराहा।
लेकिन उसको पाने के लिए उसके २५ हजार घूस भी देनी पड़ रही है लेकिन वह लाये कहाँ से? उसके जितने भी स्रोत थे सारे टटोल डाले लेकिन वे न काम आ सके। आखिर उसके लिए किसी तरह से इंतजाम इस विश्वास पर कर दिया गया कि जैसे ही पैसा मिलेगा वह इस राशि को चुका देगा। अब उस १ लाख की राशि उसको कितने दिन में मिलेगी ये नहीं पता है लेकिन २५ हजार के कर्ज में वह फँस चुका है। आप और हम क्या समझते है कि ये सरकारी मुलाजिम खुद को बदल पायेंगे।
ऐसे लोग ही अन्ना और हमारे संघर्ष को अंगूठा दिखा रहे हैं। देखते हैं कि ये कब गिरफ्त में आते हैं?

सोमवार, 8 अगस्त 2011

फायदे के लिए !

एक कहावत है न कि मौके को देखते हुए 'गधे को लोग बाप बना लेते हैं.' वह तो बात अलग हो गयी लेकिन ऐसा किस्सा अभी तक तो सामने नहीं आया है ( मैं सिर्फ अपनी बात कर रही हूँ, आप लोगों ने देखा या सुना हो तो बताएं) कानपुर में एक रिटायर्ड डॉक्टर जो कि उच्चतम पद से सेवा निवृत हुए । कुछ सामाजिक सरोकार के तहत पता चला कि उन्होंने जीवन भर सवर्ण बन कर नौकरी की और वह भी ब्राह्मण पिता की संतान थे। उनका नाम है डॉ राम बाबू।
अपने सेवानिवृत होने के पांच साल पहले उन्होंने कोर्ट में ये दावा किया कि उनकी माँ अनुसूचित जाति की थी , इस लिए उनको अनुसूचित जाति का घोषित किया जाय। अदालत ने उनको पांच साल पहले अनुसूचित घोषित कर दिया और वे ताबड़तोड़ पदोन्नति लेते हुए उच्चतम पद पर पहुँच गए।
वैसे तो अभी तक यही प्रावधान सुना है कि बच्चे के नाम के आगे पिता की जाति का उल्लेख होता है । यहाँ तक कि शादी के बाद पत्नी के नाम के साथ भी पति कि जाति जोड़ी जाने लगती है। वैसे अब एक विकल्प यह भी देखा जा रहा है कि लड़कियाँ अपनी जाति को हटाने के स्थान पर पति के नाम के अंतिम हिस्से को साथ में जोड़ लेती हैं।
लेकिन किसी ने माँ की जाति या उसके उपनाम को अपने साथ जोड़ा हो ऐसा नहीं मिला है क्योंकि अभी भी हमारे समाज में पितृसत्तात्मक परिवार ही पाए जाते हैं। वैसे तो यह एक अच्छा दृष्टिकोण है कि माँ को प्रमुखता देते हुए उनकी जाति का उल्लेख किया जाय लेकिन अपने जीवन के पूरे सेवा काल में ये बात डॉ राम बाबू को समझ क्यों नहीं आई? सिर्फ इस लिए कि अब उनके सेवानिवृत्ति के दिन करीब आ रहे थे और सवर्ण होते हुए उन्हें पदोन्नति की ये सीमा प्राप्त नहीं हो सकती थी तो पदोन्नति का शार्टकट उन्होंने खोज लिया। हमारी अदालत ने भी इस पर कोई सवाल नहीं किया कि अपने जीवन के ५५ साल उन्होंने ब्राह्मण बनकर काटे अब अचानक ये माँ के प्रति प्रेम उनमें कहाँ से जाग आया है ? सिर्फ निजी स्वार्थ के लिए सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाने के लिए इस तरह से जाति परिवर्तन की आज्ञा अदालत को भी नहीं देनी चाहिए। वैसे ये डॉ रामबाबू अब पूरी तरह से अनुसूचित जाति के हो चुके हैं क्योंकि अब वह अनुसूचित जाति के लिए किसी संस्था के पदाधिकारी भी हैं।
ये हमारी आरक्षण नीति के गलत रवैये को ही दिखाता है क्योंकि आगे डॉ रामबाबू के सभी बेटे इस आरक्षण के अधिकारी हो चुके हैं और आगे आने वाली पीढ़ी भी। ये पढ़े लिखे लोग अपनी मेधा का प्रयोग इसी लिए कर रहे हैं कि कैसे वे अधिक से अधिक इस सरकार की गलत नीतियों का फायदा उठा कर आगे बढ़ते रहें.इस आरक्षण ने समाज के बीच में ऐसी खाई खोद रखी है कि इससे समाज का हित नहीं बल्कि अहित हो रहा है या फिर डॉ रामबाबू जैसे लोग उसके लिए तिकड़म खोज कर अपने लिए मार्ग बनाते जा रहे हैं। यह न सरकार की और न ही अदालत के द्वारा अपनाये गए रवैये को स्वस्थ मानसिकता का प्रतीक नहीं कहा जा सकता है।

रविवार, 7 अगस्त 2011

ये दोस्ती हम नहीं ..........!

           बहुत सोचने पर ये घटना याद आई कि ऐसे भी दोस्त होते हैं जिन्हें अपने दोस्त के लिए कुछ भी कर गुज़रने में सोचने की जरूरत नहीं होती      
          विजय बहुत दिनों के बाद अपने कस्बे लौटा था क्योंकि अब उसके पिता या और घर वाले यहाँ पर नहीं रह गए थेबस एक दोस्त था और उसकी माँ थी जिसने अपनी माँ के मरने पर उसे दीपक की तरह ही प्यार दिया थास्टेशन पर लेने के लिए विजय को दीपक ही आया था क्योंकि उसे विजय से मिले हुए बहुत वर्ष बीत गए थेअब दोनों ही रिटायर्ड हो चुके हैंविजय ने ट्रेन से उतरते ही दोनों हाथ फैला दिए गले लगाने के लिए और यह भूल गया कि दीपक का एक हाथ कटे हुए तो वर्षों बीत चुके हैंएक पल में दीपक की कमीज की झूलती हुई आस्तीन ने उसको जमीन कर लेकर खड़ा कर दिया


       बीस साल से पहले की बात है दीपक ट्रेन से गिरा और उसका हाथ काट गयातब छोटी जगह में बहुत अधिक सुविधाएँ नहीं हुआ करती थीं और ही हर आदमी में इतनी जागरूकता थीवह कई महीने अस्पताल में पड़ा रहा और उसका इलाज चलता रहा घाव भरा नहीं रहा था । फिर पता चला कि सेप्टिक हो गया है। तब जाकर डॉक्टर सचेत हुए लेकिन उस कस्बे में वह इंजेक्शन नहीं मिल रहा था बल्कि कहो पास के शहर में भी उपलब्ध नहीं था। उस समय फ़ोन अधिक नहीं होते थे। विजय दूर कहीं चीफ इंजीनियर था , खबर उसके पास ट्रंक कॉल बुक करके भेजी गयी शायद वह वहाँ से कुछ कर सके। बस वही एक आशा बची थी। विजय ने खबर सुनते ही अपने एक मित्र को बम्बई में फ़ोन करके उस इंजेक्शन को हवाई जहाज से भेजने को कहा। जैसे ही उसे इंजेक्शन मिला वह अपनी गाड़ी और एक ड्राइवर लेकर निकल पड़ा। सफर बहुत लम्बा था इसलिए एक ड्राइवर साथ लिया था। १४ घंटे की सफर के बाद विजय दीपक के पास पहुंचा था।

            "डॉक्टर इसको कुछ नहीं होना चाहिए। अगर आप कुछ न कर सकें तो अभी बताएं मैं इसको बाहर ले जाता हूँ।"


         "नहीं, इस इंजेक्शन से हम कंट्रोल कर लेंगे। अगर ये अभी भी न मिलता तो हम नहीं बचा पाते।"
     
        दीपक बेहोशी में जा चुका था। दो दिन बाद वह होश में आया तब खतरे से बाहर घोषित किया गया। होश में आने पर उसने विजय को देखा - 


"अरे तू कब आया।"दो दिन पहले, तू अब ठीक है ?"

"अरे मैं तो तुझे आज ही देख रहा हूँ।"


"तूने इससे पहले आँखें कब खोली थीं।"  विजय उसका हाथ पकड़ कर बैठ गया था।

         विजय को दीपक की पत्नी , बच्चे और माँ ने दिल से दुआएं दी कि अगर उसने इतना न किया होता तो शायद दीपक????????।


ये भी यथार्थ सच है कि मित्र वही है, जो अपनी मित्रता को धन और स्तर से न आंके।

बुधवार, 27 जुलाई 2011

सौदा ऐसा भी!

कई बार हम मध्यम वर्गीय लोग कुछ ऐसे निर्णय ले बैठते हैं की उसके दुष्परिणामों से वाकिफ नहींहोते हैंहमारी आँखों पर सिर्फ पैसे का इतना मोटा पर्दा होता है की और कुछ दिखाई ही नहीं देता है और अगर कोईदिखाने का प्रयास भी करे तो हमें लगता है की ये हमसे जलता हैइससे हमारी आने वाली सम्पन्नता देखी नहीं जारही है
आज हमारे एक कुछ दूर के रिश्तेदार स्वर्ग सिधार गएवह डिग्री कॉलेज में प्रोफेसर थेदो बेटे औरएक बेटी के पिताबड़ा बेटा पढ़ाने में उतना तेज था तो उसको प्रभाव से किसी कॉलेज में लगवा दियादूसरा बेटाएम सी करके किसी कंपनी में नौकरी पा गयाउन्होंने सोच रखा था कि उसके पैदा होने से लेकर अपने शेष जीवनभर का खर्च इसकी शादी में ही वसूलना हैवैसे ये आम बात है कि हम मध्यमवर्गीय परिवारों में- मैंने भी इसकेलिए बहुत खाक छानी है अगर लड़की की योग्यता के अनुसार वर खोजना है तो काम से काम १५ लाख लड़के वालोंको दे जाइए फिर अपना देखिये क्या करना है? लेकिन मैं ऐसा सौभाग्य प्राप्त कर सकी कि इतना पैसा दहेज़ में देसकती और ही मेरे पास इतना पैसा हैफिर बेटियों की ही हिदायत थी कि अगर दहेज़ देकर ही शादी करनी थी तोहै स्कूल करवा कर कर देती सारा पैसा इकठ्ठा तो रहताअब तो पैसा पढ़ाई में भी लग गया
उनको एक बेटी वाला मिल ही गया , उसकी अकेली बेटी थी उसे घर जमाई चाहिए था उसने इनको२१ लाख रुपये दिए शादी के पहले ही और इन्होने बढ़िया बंगला बनवा लिया और आधुनिक सुविधायों से युक्त जीवनजीने लगेबेटा शादी के बाद जो गया तो फिर कभी बहन की शादी में ही आया
            बहुत दिनों से बीमार चल रहे थे, बार बार बेटे को खबर जा रही थी कि पापा की इच्छा देखने की हैलेकिन उसको समय नहीं था उसके ससुर भी बीमार चल रहे थेफिर बेचीं हुई चीज पर अपना अधिकार नहीं रहजाता हैवह महीनों बीमार रहे लेकिन बेटे का मुँह देखने के लिए तरस गए और आख़िर बगैर मुँह देखे ही स्वर्गसिधार गएसारे रिश्तेदार लड़के के लिए थू थू कर रहे हैं कि ऐसा भी क्या की बाप के आखिरी समय भी नहीं सकाबाप बेटे की शक्ल देखने की हसरत लिए चला गया
इसमें दोष किसका है ? बेटे का या बाप काआपने अपने बेटे का सौदा किया - मुंहमांगी रकम ली औरऐश का जीवन जीने लगे ये भी नहीं पूछा की बेटा कहाँ है? और कैसा है? तब उसकी याद नहीं आई क्योंकि उनके पासमें एक बेटा था बहू थीये सौदा करने वाले ये भूल जाते हैं कि इस सौदे से बेटे को कभी कभी कितनी तकलीफहोती हैउससे बगैर पूछे आप ने बेच दिया और उसने आपकी इच्छा का सम्मान कियाकभी लड़कियाँ गाय बकरीकी तरह से भेज दी जाती थीं और वे चली जाती थी एक खूंटे से छूट कर दूसरे खूंटे पर बंधने के लिए . अब बेटे भीजाने लगे हैंबेटियों की सौदा नहीं होती थी लेकिन बेटे की खुले आम सौदा होती है
अगर हम कहें की अब दहेज़ कानून के कारण दहेज़ नहीं लिया जाता तो ये शत प्रतिशत गलत हैक्यानहीं लिया जाता है? लड़के वालों को फाइव स्टार होटल से शादी चाहिएगाड़ी भी चाहिए महँगी वालीलड़का अगरसरकारी नौकर है तो फिर तो ब्लैंक चैक है उसमें रकम भरने का हक़ उनका ही होता हैये हकीकत है इस समाज की
वह समाज जिसमें हम रहते हैंलोगों को दिखाने के लिए चाहिए कि इतना हमें मिला हैकितने प्रतिशत हैं जो दहेज़के नाम पर नहीं लेते हैं लेकिन इतर तरीकों से लेते हैंमेरी एक कलीग हैं , पतिदेव उनके आई आई टी में प्रोफेसर हैएक बेटा और एक बेटी दोनों इंजीनियरबेटी की शादी की तो आई आई टी के ही कम्युनिटी सेंटर से की जो किलगभग मुफ्त ही रहता हैसब कुछ बढ़िया कियालेकिन जब लड़के की शादी की तो कानपुर के बढ़िया होटल सेएंगेजमेंट की और शादी दूसरे होटल से क्योंकि खर्च तो लड़की वाले को ही करना था यद्यपि लड़की वाले भी मेरे हीपरिचित थे लेकिन बेटे और बेटी दोनों की शादी में प्रबुद्ध कहे जाने वाले लोग भी इस तरह से दोहरे प्रतिमान अपनातेहैंहम समझ नहीं पाते हैं कि हमारे दोहरे चेहरे क्या हमें कभी खुद को धिक्कारते नहीं हैअब भी हम ऐसी घटनाओंसे कोई सबक नहीं लेंगे

रविवार, 24 जुलाई 2011

ख़ुशी मिली इतनी .........

आदित्य, राहुल , कल्पना और मैं

कुछ खुशियाँ ऐसी होती हैं कि जिन्हें हम बयान नहीं कर सकते हैं। ऐसी ही ख़ुशी मिली मुझे भी १५ जुलाई को जबमेरी पुत्री सम कल्पना की सगाई हुई। वह धरोहर थी मेरे पास अपनी माँ जो आखिरी में वक़्त मुझसे कह कर गयी थीकि इसका ध्यान रखना मुझे इसकी बहुत चिंता है। तीन साल पहले अचानक उनको हार्ट अटैक पड़ा , सारी जानकारीमुझे थी कि उनके शरीर के कई अंग काम करना बंद कर चुके थे लेकिन दिए की आखिरी लौ की तरह से वह शाम जबठीक लग रही थी. तब अपनी बेटी के बारे में चिंता व्यक्त कर गयी थी और फिर वह चली गयी। वह मेरी सहेली बाद मेंबनी थी पहले हमारे बच्चे साथ साथ पढ़े १५ साल का एक लम्बा अरसा होता है जब से साथ मिला साथ साथकोचिंग फिर एक ही संस्थान में चयन और होस्टल का एक ही कमरा। साथ साथ पढ़ाई और वहाँ से निकल कर भीआज तक साथ साथ रहना ऐसा साथ तो सगी बहनों को भी नहीं मिलता है और फिर इतनी अच्छी समझ।
जब नेट पर मैंने अपनी बेटी का प्रोफाइल डाला तो उसका भी साथ साथ डाला था। मैं ही सबसे बातचीत करती औरफिर उसके पिता को बता देती कि आप उनके घर जाकर बात करिए। तीन साल तक प्रयास किये लेकिन दोनों में सेकिसी के लिए सफलता नहीं मिली। पिछली दिसम्बर में जब मेरी बेटी की सगाई हुई तो लगा कि ये अकेली कैसेरहेगी? अचानक माँ के चले जाने का गम वह अगर सहन कर पाई थी तो अपनी सहेली के दम पर। फिर मैं माँ बनगयी। अपनी नौकरी के बाद जो उसने माँ के लिए करना चाहा था मेरे लिए करती रही। मेरी भी दोनों आँख का तारा हैं।
जैसे जैसे बेटी की शादी का समय पास रहा था लग रहा था कि कल्पना की भी कहीं हो जाये तो अच्छा है और मनकहता था कि इन दोनों का हर काम साथ साथ हुआ है तो शादी भी साथ साथ ही होगी।
कभी मजाक में दोनों कहती कि अगर पहले हममें से किसी की भी शादी हो गयी तो गौना तब तक नहीं किया जायेगाजब तक दूसरी की शादी नहीं हो जाती।
फिर अचानक वक्त ने पलटा खाया और सिर्फ १५ दिन के अन्दर देखने और सगाई तक का सफर तय हो गया।
मैं कितनी खुश और भार मुक्त हूँ इसका अहसास सिर्फ मैं ही कर सकती हूँ। मेरी दोनों बेटियों की शादी बस होने हीवाली है। सिर्फ मैंने ही किया ऐसा नहीं है। मैं नौकरी करती थी और उसकी माँ घर में रहती थी बच्चे सुबह कोचिंग केलिए निकलते और मुझे सख्त हिदायत थी कि ठंडा खाना बच्चे नहीं खायेंगे। जब कोचिंग का ब्रेक होता दोनों उसकेघर जाते और अम्मा गरम थाली तैयार रखती कि जल्दी से खाओ और फिर कोचिंग के लिए भागो। दो साल तकउन्होंने बच्चों के लिए बहुत किया और उसके तुलना में मैं कुछ भी कर पाऊं तो शायद उनके ऋण से उरिण होपाऊँगी।
बस तभी तो कह रही हूँ ख़ुशी मिली इतनी की मन में समाये।

दूसरों की रोटी !

             रुचि बहुत दिनों से सोच रही थी कि कभी किसी वृद्धाश्रम में जाऊं और वहाँ रहने वाले बुजुर्गों से मिलूँ - कुछ पल उनके साथ बैठ कर शायद कुछ पा सकूं और कुछ दे सकूं। पता चला कि घर से कुछ ही किलोमीटर की दूर पर एक वृद्धाश्रम है। उस दिन निकल ही ली। वृद्धाश्रम के परिसर में गुट बनाकर बैठे बुजुर्ग हँस रहे थे , बातें कर रहे थे पुरुष और महिलायें दोनों ही थे। लग रहा था कि जैसे एक परिवार जैसा हो।
वही देखा दूर बेंच पर एक माई खामोश और अकेली बैठी थीं। गयी तो ये सोच कर थी कि हो सका तो सबसे परिचय करके और कभी कभी उनके बीच बैठ कर , कभी किसी कि पसंद जान कर उनके लिए कुछ बना कर ले जाऊँगी । उनको अच्छा लगेगा तो उसे भी अच्छा लगेगा। लेकिन अकेली बैठी माई ने मुझे अपनी ओर खींच लिया। वह उनके पास पहुंची तो देख कर उन्होंने उसे अपने पास बेंच पर बैठने के लिए इशारा किया और वह उनके पास ही बैठ गयी। अभी सोच ही रही थी कि उनसे बात कहाँ से शुरू करे ? उन्होंने पहले ही बोलना शुरू कर मुश्किल आसान कर दी।
"तुम भी यहाँ रहने आई हो?"
"नहीं, मैं तो आप सबसे मिलने आई हूँ।"
"कहीं नौकरी करती हो?
"हाँ ।"
"कितने बच्चे हैं?"
"दो बेटे हैं ।" 

"शादी कर दी।"
"अभी नहीं, बड़े की जल्दी ही होने वाली है। "
"फिर मेरी एक बात मानो - अपना पैसा अपने पास ही रखना, ताकि किसी पर कभी भी आश्रित न होना पड़े। बहुत मुश्किल है
दूसरों की रोटियों पर जीना।"
बिना परिचय इतनी बड़ी नसीहत देने वाली वह माई क्या क्या सह कर यहाँ आई उसे नहीं पता था, लेकिन अर्थमय जीवन में हो रहे अर्थहीन रिश्तों की कहानी तो बयान कर ही दी।
फिर उस दिन और कुछ जानने की या किसी और से मिलने कि इच्छा हुई ही नहीं। वह घर वापस आ गयीऔर सोचती रही उस मर्म को - क्या वाकई ऐसा ही है?

       लेकिन कुछ हद तक ये सच होता दिख रहा है ।