मंगलवार, 24 अगस्त 2010
क़ानून और जिन्दगी !
कुछ हादसे ऐसे हो जाते हैं जो कि सोचने पर ही नहीं लिखने पर भी मजबूर कर देते हैं, वह भी जब कोई बहुत अपना हो.
घटना कल ही रात की है, रात १२ बजे हमारे मोबाइल की घंटी बजी - हम सो चुके थे - 'अंकल मेरा एक्सिडेंट हो गया है और मेरे दोस्त मुझे कुलवंती हॉस्पिटल ले गए उन्होंने वापस कर दिया कि पुलिस केस है. पहले FIR दर्ज करवाओ फिर आना. अब main रीजेंसी पहुंचा हूँ, बतलाइए मैं क्या करूँ?'
मेरे पति ने उससे पूछा कि कोई ब्लीडिंग तो नहीं है, ब्लीडिंग नहीं थी उसको शायद fracture हुआ था लेकिन वह बहुत डरा हुआ था. मेरे पति ने कहा कि तुम घर आ जाओ, अगर वहाँ भी गए तो वे लोग तुमसे २-४ हजार रुपये ऐंठ लेंगे और कुछ भी नहीं करेंगे. मैं घर पर देख लूँगा. वह जब घर आया तो उसको काफी चोट थी. उसकी फर्स्ट ऐड करके दवा दे दी गयी और हम घर वापस आ गए.
इसके ठीक एक दिन पहले की बात है, एक विधवा परिचित का बेटा अपनी बहन को लेकर शहर में जा रहा था और किसी दूसरी बाइक ने गलत मोड़ लेकर उसको टक्कर मार दी. वह गाड़ी से घिसटता हुआ २ मीटर तक चला गया. उसके दोनों हाथ चेहरा और पैर बुरी तरह से जख्मी हो चुके थे और वह बाइक के नीचे दबा बेहोश हो गया. उसकी छोटी बहन ने बाइक उठा कर निकालने की कोशिश की लेकिन बेकार गयी उसकी कोशिश. उसके चारों ओर काफी भीड़ लग गयी थी. लेकिन कोई भी उस लड़की की सहायता करके उसे गाड़ी के नीचे से निकालने वाला नहीं था. . इतने में कोई दो लड़के वहाँ आये और उन्होंने बाइक हटा कर उसे बाहर निकला और सामने नर्सिंग होम ले गये कि इसकी पट्टी कर दो. लेकिन उन लोगों ने पट्टी करने से भी इंकार कर दिया कि ये पुलिस केस है उसको थाने में लेकर जाओ और FIR करवाओ तब करेंगे. और भी एक दो जगह गए पर सब ने इंकार कर दिया . लड़के की बेहोशी और बहता हुआ खून देख कर लग रहा था कि अगर और देर हुई तो ये बच नहीं पायेगा. उन लड़कों ने कहा कि हम अपने इलाके में ले जाकर पट्टी कराएँगे नहीं तो ये मर जाएगा. उन दोनों ने भाई बहन को रिक्शे में बैठा कर अपने साथ ले गए और फिर उसकी मरहम पट्टी करवा कर उनके घर छोड़ गए.
क़ानून अपने स्थान पर सही है लेकिन ये कैसा कानून ki मरते हुए की सहायता करने में भी परेशान किया जाय. कोई भी आदमी कोर्ट और थाने के चक्कर लगाना नहीं चाहता है. इंसानियत होते हुए भी कानून उससे हाथ बांध देता है. इतनी जिंदगियां सिर्फ इसी झंझट के कारण ख़त्म हो जाती हैं कि कोई उनको हाथ नहीं लगाता. ऐसी स्थिति के लिए कानून को कुछ ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि कुछ ऐसे सचल ट्रौमा सेंटर और उनके साथ पुलिस हो जो FIR दर्ज करे और फिर उसको त्वरित मेडिकल सहायता उपलब्ध करवा सके . इन ट्रामा सेंटर के लिए कानून कुछ ढीले होने चाहिए. आदमी की को सही ढंग से चलाने के लिए कानून है. कानून की बलि चढ़ने के लिए इंसानी जिन्दगी नहीं है. इसके साथ ही सभी नर्सिंग होम और अस्पतालों में घायलों की मरहम पट्टी के लिए कानून के दायरे में रखने की जरूरत नहीं होनी चाहिए. अगर ऐसा है तो ये औपचारिकताएं उस महरम पट्टी के बाद की जा सकती हैं.
एक तो अनियंत्रित वाहनों ने इंसां की जिन्दगी को खिलौना बना रखा है, पता नहीं कब किसका आखिरी क्षण किसी ट्रक या बस के नीचे आकर आ जाय, इस बात को घर से निकलने वाला खुद नहीं जानता है. और अगर उसके बचने की कोई उम्मीद भी हो तो कानून सबके हाथ बाँध देता है. इसके लिए कोई सार्थक हल निकालने की जरूरत है. ये एक सुझाव नहीं बल्कि कार्यरूप देने के लिए एक प्रस्ताव है और ये जितनी जल्दी कार्यान्वित हो उतनी जल्दी कुछ जिंदगियों के दिन बढ़ने लगेंगे.
शनिवार, 21 अगस्त 2010
माटी का मोह !
जिस धरती और जिस देश में हमने जन्म लिया है, वह हमें क्यों इतना प्यारा होता है? हम कहीं भी रहें उसकी बुराई न सुन सकते हैं और कर सकते हैं. आखिर करें भी क्यों ? जिस मिट्टी और धरती पर हम पैदा हुए और हमने उसको अपने तन पर लपेट कर जीवन जिया है, उससे अलग कब हो सकते हैं. वक्त हमें कहीं भी पहुंचा दे लेकिन उससे मोह कभी ख़त्म नहीं होता. ये घटना सबक है उन लोगों के लिए जो कहते हैं कि इंडिया में रखा ही क्या है? जो यहाँ है वो कहीं भी नहीं मिलेगा, यहाँ की हवा और मिट्टी में जो प्यार है जो सात समुन्दर पर जाकर भी बरक़रार रहता है.
आज सुबह मेरे पास न्यूयार्क से एक फ़ोन आया - 'रेखा तुम मुझे अपने ब्लॉग मत भेजा करो , जिनमें की देश की राजनैतिक गतिविधियाँ , भ्रष्टाचार और ख़राब हालात के बारे में लिखा गया हों. भैया इसके लिए मना करते हैं क्योंकि सभी बच्चे तुम्हारे ब्लॉग पढ़ते हैं और इससे उनके मन में एक निगेटिव इमेज बन जाएगी और बच्चे फिर इससे सम्बंधित सवाल करने लगते हैं. '
ये फ़ोन मेरे चचेरे ननदोई का था , जो कि उम्र में मुझसे बहुत बड़े हैं , उनका सबसे छोटा बेटा हमारा हमउम्र है. वह मुझसे बहुत लगाव रखते हैं और मेरे लिखने को शुरू से ही पसंद करते थे. जब मैंने ब्लॉग बनाये तो उन्होंने कहा कि मैं उनकी लिंक दे दूं जिससे कि उनको मेरे ब्लॉग की सारी गतिविधियों से जानकारी मिलती रहे.
मेरे नन्द और ननदोई दोनों ही यही पर नौकरी करते थे. उनका बड़ा बेटा बहुत पहले एम टेक करने के बाद अमेरिका चला गया था और बाद में यही शादी की और परिवार सहित चला गया. जब जक इन लोगों की नौकरी रही छोटा बेटा यही था और retirement के बाद सभी लोग वही चले गए और बस गए. जीजाजी बड़े बेटे के साथ रहते हैं. उनके बच्चे कभी कभी घूमने के लिए ही यहाँ आते हैं. मेरे ब्लॉग उनके घर में सभी लोग पढ़ते हैं. बच्चे अब छोटे तो नहीं हैं लेकिन उनके पोते पोतियाँ जो वही पले और बढे हैं, यहाँ के सारे माहौल से परिचित नहीं है लेकिन ब्लॉग में जो तस्वीर उनको मिल जाती है तो वे सवाल करने लगते हैं कि 'आप तो ऐसा कहते हैं, और इससे ऐसा पता चलता है. ' बहुत सारे सवाल जिनका जबाव उन लोगों के पास होता भी है और नहीं भी होता है. बच्चों के दिमाग में देश के प्रति ख़राब छवि न बने इस लिए वे चाहते हैं कि देश की निगेटिव इमेज वाले ब्लॉग न भेजू.
बहुत साधारण सी बात है लेकिन अगर इसको गहराई से सोचा जाय तो अपनी माटी की कमियों को वे अपने बच्चों(पोते पोतिओं ) के सामने भी उजागर नहीं करना चाहते हैं. वे अस्सी साल के हैं फिर भी समय और साथ मिलने पर अपनों से मिलने और अपनी माटी से मिलने चले आते हैं.
आज सुबह मेरे पास न्यूयार्क से एक फ़ोन आया - 'रेखा तुम मुझे अपने ब्लॉग मत भेजा करो , जिनमें की देश की राजनैतिक गतिविधियाँ , भ्रष्टाचार और ख़राब हालात के बारे में लिखा गया हों. भैया इसके लिए मना करते हैं क्योंकि सभी बच्चे तुम्हारे ब्लॉग पढ़ते हैं और इससे उनके मन में एक निगेटिव इमेज बन जाएगी और बच्चे फिर इससे सम्बंधित सवाल करने लगते हैं. '
ये फ़ोन मेरे चचेरे ननदोई का था , जो कि उम्र में मुझसे बहुत बड़े हैं , उनका सबसे छोटा बेटा हमारा हमउम्र है. वह मुझसे बहुत लगाव रखते हैं और मेरे लिखने को शुरू से ही पसंद करते थे. जब मैंने ब्लॉग बनाये तो उन्होंने कहा कि मैं उनकी लिंक दे दूं जिससे कि उनको मेरे ब्लॉग की सारी गतिविधियों से जानकारी मिलती रहे.
मेरे नन्द और ननदोई दोनों ही यही पर नौकरी करते थे. उनका बड़ा बेटा बहुत पहले एम टेक करने के बाद अमेरिका चला गया था और बाद में यही शादी की और परिवार सहित चला गया. जब जक इन लोगों की नौकरी रही छोटा बेटा यही था और retirement के बाद सभी लोग वही चले गए और बस गए. जीजाजी बड़े बेटे के साथ रहते हैं. उनके बच्चे कभी कभी घूमने के लिए ही यहाँ आते हैं. मेरे ब्लॉग उनके घर में सभी लोग पढ़ते हैं. बच्चे अब छोटे तो नहीं हैं लेकिन उनके पोते पोतियाँ जो वही पले और बढे हैं, यहाँ के सारे माहौल से परिचित नहीं है लेकिन ब्लॉग में जो तस्वीर उनको मिल जाती है तो वे सवाल करने लगते हैं कि 'आप तो ऐसा कहते हैं, और इससे ऐसा पता चलता है. ' बहुत सारे सवाल जिनका जबाव उन लोगों के पास होता भी है और नहीं भी होता है. बच्चों के दिमाग में देश के प्रति ख़राब छवि न बने इस लिए वे चाहते हैं कि देश की निगेटिव इमेज वाले ब्लॉग न भेजू.
बहुत साधारण सी बात है लेकिन अगर इसको गहराई से सोचा जाय तो अपनी माटी की कमियों को वे अपने बच्चों(पोते पोतिओं ) के सामने भी उजागर नहीं करना चाहते हैं. वे अस्सी साल के हैं फिर भी समय और साथ मिलने पर अपनों से मिलने और अपनी माटी से मिलने चले आते हैं.
सोमवार, 9 अगस्त 2010
१० अगस्त १९९१ !
आज का ही वह मनहूस दिन था जब कि मेरे पापा हमें छोड़ कर अचानक चले गए थे. उन्नीस साल के इस लम्बे अन्तराल में उनकी कमी हमेशा खाली है , लेकिन वे अपने आदर्शों , कृत्यों और बनाये गए प्रतिमानों के साथ आज भी मेरे प्रेरणास्रोत बन कर मेरे साथ साथ चल रहे हैं.
मैं उन दुर्भाग्यशाली बेटियों में से हूँ, जिन्हें अपने पिता के अंतिम दर्शन भी नसीब नहीं हुए. उनके निधन की सूचना तक नहीं मिल सकी समय से. उनका निधन अचानक किडनी फेल होने के कारण हुआ था. उस समय उनकी आयु ६१ वर्ष की ही थी, बहुत से कार्य बाकी थे. मेरी उनसे बहुत दिनों से मुलाकात नहीं हुई थी. मेरे ससुर भी उस समय कैंसर की, अंतिम अवस्था में पड़े थे और मेरे ऊपर ही पूरी तरह से निर्भर थे. भाई साहब ने टेलीग्राम दिया क्योंकि उस समय त्वरित सूचना का यही एक साधन था. जो मुझे आज तक नहीं मिला. फ़ोन उस समय कॉमन न थे और हमारे दोनों ही घरों में फ़ोन नहीं थे. उनके जाने के ४ दिन तक जब मैं नहीं पहुँची तो भाई साहब ने किसी को भेजा की रेखा को खबर नहीं मिली है, मिलती तो वह आ जाती जाकर उसको खबर करो. वह दिन वह क्षण भी मुझे अच्छी तरह से याद है - उस दिन नागपंचमी का दिन था और मेरे ससुर का जन्मदिन भी , मैं उनको खाना खिला रही थी, हम इस बात से वाकिफ थे की हम उनका अंतिम जन्मदिन मना रहे हैं. इतने में मेरी चचेरी बहन आई और बाहर ही मेरे पतिदेव से बोली कि ताऊ जी की तबियत ख़राब है दीदी को लेकर चले जाइए. मेरे कानों में ये शब्द पड़े तो मेरे हाथ से खाने की प्लेट छूट गयी . मुझे पूरा आभास हुआ कि पापा अब है ही नहीं और मैं जोर जोर से रोने लगी. किसी तरह से समझा कर पतिदेव मुझे उसी समय बस से उरई ले गए. रास्ते भर मेरी ख़ामोशी के बाद भी आँखों से आंसूं बंद नहीं थे.
लोग कहते हैं कैसे गंवारों की तरह से रोने लगी लेकिन जब कोई बहुत अपना जाता है तो दिमाग का सारे शरीर से नियंत्रण ख़त्म हो जाता है और हर अंग बेकाबू हो जाता है - आंसू, आवाज और ह्रदय सब कुछ. मेरे इम्तिहान की सीमा यही तक नहीं थी. पतिदेव मुझे छोड़ कर शाम को जब वापस हुए क्योंकि ससुर के लिए उनकी उपस्थिति जरूरी थी. चलते समय कहा - 'देखो एक पिता तो चले ही गए हैं, जो हैं उन्हें तुम्हारी बहुत जरूरत है . उनके बारे में सोचना और परसों कानपुर वापस आ जाना.'
ये उन्हें शब्द कहने में और मुझे सुनने में कितना जो कष्ट हुआ वो सोच से परे था किन्तु समय और हालात का तकाजा यही था. मैं सिर्फ एक दिन माँ के पास रुक कर वापस आ गयी. वह मेरी परीक्षा का समय था. मैं अपनी माँ को छोड़ कर कैसे आई? मेरी माँ उससे भी महान बोली - 'जाओ बेटा अपने ससुर को देखो उनको तुम्हारी ज्यादा जरूरत है.'
और फिर २० अक्तूबर को हमने अपने दूसरे पिता को भी खो दिया. हम दोनों ही एक साथ पित्र शोक का सामना कर रहे थे.
मैं उन दुर्भाग्यशाली बेटियों में से हूँ, जिन्हें अपने पिता के अंतिम दर्शन भी नसीब नहीं हुए. उनके निधन की सूचना तक नहीं मिल सकी समय से. उनका निधन अचानक किडनी फेल होने के कारण हुआ था. उस समय उनकी आयु ६१ वर्ष की ही थी, बहुत से कार्य बाकी थे. मेरी उनसे बहुत दिनों से मुलाकात नहीं हुई थी. मेरे ससुर भी उस समय कैंसर की, अंतिम अवस्था में पड़े थे और मेरे ऊपर ही पूरी तरह से निर्भर थे. भाई साहब ने टेलीग्राम दिया क्योंकि उस समय त्वरित सूचना का यही एक साधन था. जो मुझे आज तक नहीं मिला. फ़ोन उस समय कॉमन न थे और हमारे दोनों ही घरों में फ़ोन नहीं थे. उनके जाने के ४ दिन तक जब मैं नहीं पहुँची तो भाई साहब ने किसी को भेजा की रेखा को खबर नहीं मिली है, मिलती तो वह आ जाती जाकर उसको खबर करो. वह दिन वह क्षण भी मुझे अच्छी तरह से याद है - उस दिन नागपंचमी का दिन था और मेरे ससुर का जन्मदिन भी , मैं उनको खाना खिला रही थी, हम इस बात से वाकिफ थे की हम उनका अंतिम जन्मदिन मना रहे हैं. इतने में मेरी चचेरी बहन आई और बाहर ही मेरे पतिदेव से बोली कि ताऊ जी की तबियत ख़राब है दीदी को लेकर चले जाइए. मेरे कानों में ये शब्द पड़े तो मेरे हाथ से खाने की प्लेट छूट गयी . मुझे पूरा आभास हुआ कि पापा अब है ही नहीं और मैं जोर जोर से रोने लगी. किसी तरह से समझा कर पतिदेव मुझे उसी समय बस से उरई ले गए. रास्ते भर मेरी ख़ामोशी के बाद भी आँखों से आंसूं बंद नहीं थे.
लोग कहते हैं कैसे गंवारों की तरह से रोने लगी लेकिन जब कोई बहुत अपना जाता है तो दिमाग का सारे शरीर से नियंत्रण ख़त्म हो जाता है और हर अंग बेकाबू हो जाता है - आंसू, आवाज और ह्रदय सब कुछ. मेरे इम्तिहान की सीमा यही तक नहीं थी. पतिदेव मुझे छोड़ कर शाम को जब वापस हुए क्योंकि ससुर के लिए उनकी उपस्थिति जरूरी थी. चलते समय कहा - 'देखो एक पिता तो चले ही गए हैं, जो हैं उन्हें तुम्हारी बहुत जरूरत है . उनके बारे में सोचना और परसों कानपुर वापस आ जाना.'
ये उन्हें शब्द कहने में और मुझे सुनने में कितना जो कष्ट हुआ वो सोच से परे था किन्तु समय और हालात का तकाजा यही था. मैं सिर्फ एक दिन माँ के पास रुक कर वापस आ गयी. वह मेरी परीक्षा का समय था. मैं अपनी माँ को छोड़ कर कैसे आई? मेरी माँ उससे भी महान बोली - 'जाओ बेटा अपने ससुर को देखो उनको तुम्हारी ज्यादा जरूरत है.'
और फिर २० अक्तूबर को हमने अपने दूसरे पिता को भी खो दिया. हम दोनों ही एक साथ पित्र शोक का सामना कर रहे थे.
रविवार, 1 अगस्त 2010
Happy Friendship Day!
मेरे सभी प्रिय मित्रों को इस दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं?
इस दोस्ती से बढ़कर कोई नेमत नहीं होती,
ये वो जज्बा है जिसकी कोई कीमत नहीं होती,
मिला न बढ़कर तुमसे जिन्दगी में कोई ए दोस्त,
क्योंकि हर एक की मेरी सी किस्मत नहीं होती.
इस दोस्ती से बढ़कर कोई नेमत नहीं होती,
ये वो जज्बा है जिसकी कोई कीमत नहीं होती,
मिला न बढ़कर तुमसे जिन्दगी में कोई ए दोस्त,
क्योंकि हर एक की मेरी सी किस्मत नहीं होती.
शनिवार, 31 जुलाई 2010
विदेश में नौकरी : एक खूबसूरत धोखा !
आज कल ही नहीं बल्कि कई महीनों से पढ़ती आ रही हूँ, इस तरह के विज्ञापन:
कनाडा, दुबई, खाड़ी देशों में नौकरी के लिए अनपढ़/हाईस्कूल/ग्रेजुएट चाहिए. . बिना वीजा फीस , टिकट आदि का कोई पैसा नहीं. अच्छी तनख्वाह, रहना + खाना मुफ्त. संपर्क करें? कमीशन वहाँ पहुँचने के बाद दें. और कुछ फ़ोन नंबर.
इन विज्ञापनों की हकीकत कोई नहीं जानता, अख़बार को पैसे चाहिए और फिर उनको इससे क्या लेना देना कि इसके पीछे क्या है? एक बहुत बड़ा रैकेट काम कर रहा है? मेरी मृग मरीचिका कविता उसकी ही अभिव्यक्ति है.
यहीं कानपुर के कितने लड़के गरीबी के और बेकारी के मारे इन झांसों में आ जाते हैं कि अच्छा वेतन मिलेगा और खाना रहना मुफ्त तो फिर घर में माँ की बीमारी , बहन की शादी और छोटे भाई बहनों की परवरिश में माँ बाप का हाथ बँटवा लेंगे. लेकिन उन्हें नहीं मालूम कि वे किस दलदल में फंसे जा रहे हैं. यहाँ से हर विज्ञापन में कुछ न कुछ तो लड़के फँस ही जाते हैं.
पिछले दिनों वहाँ मई में गए एक लड़के का फ़ोन आपने घर आया कि मुझे यहाँ से किसी भी तरह से निकलवा लीजिये. यहाँ पर १२ घंटे काम करवाते हैं और उसके बाद मालिक के घर पर भी काम करना पड़ता है. खाना माँगने पर पिटाई होती है. कई कई दिन भूखा रख कर काम करवाते हैं.
दो महीने से कोई पैसा भी नहीं दिया है. पैसा माँगने पर पिटाई करता है. वीसा और पासपोर्ट सभी मालिक ने अपने कब्जे में कर रखे हैं. इस तरह से तो ये लोग मुझे यहाँ मार डालेंगे. खाने को भी नहीं देते हैं और पैसे भी नहीं देते हैं.
यहाँ से गए युवकों को वहाँ बंधुआ मजदूर बनाकर रखा जाता है. देश में फैली बेकारी, भुखमरी और महंगाई ने इतना त्रस्त कर रखा है कि युवकों कि कहीं से भी पैसे मिलने की उम्मीद जगती है तो वे उसी तरफ दौड़ पड़ते हैं. आखिर वे क्या करें? हमारी सरकार तो इतना भी नहीं कर सकती है कि अपने देश कि प्रतिभा और इन गरीबों के लिए इतनी व्यवस्था कर सके कि वे घर छोड़ कर भागें नहीं.
जो भी इसको पढ़े कम से कम अपने जानने वालों को अवश्य बताएं इन विज्ञापनों की हकीकत कि ये कितने घातक है? इनकी सोने से मढ़ी भाषा बेचारे मुसीबत के मारे युवकों को आकर्षित कर लेती है. उनके पास ऐसा कोई स्रोत भी नहीं होता है कि वे इसके बारे में किसी से कुछ पता भी कर सकें. सरकार को इस तरह कि एजेंसियों के बारे में पता लगाया जाय और उनके खिलाफ कम से कम जांच तो करवा ही सकती है..
मृग मरीचिका में फंसे युवकों के प्रति हम लोग तो सिर्फ आवाज उठा कर जानकारी दे सकते हैं.
विदेश में नौकरी
कनाडा, दुबई, खाड़ी देशों में नौकरी के लिए अनपढ़/हाईस्कूल/ग्रेजुएट चाहिए. . बिना वीजा फीस , टिकट आदि का कोई पैसा नहीं. अच्छी तनख्वाह, रहना + खाना मुफ्त. संपर्क करें? कमीशन वहाँ पहुँचने के बाद दें. और कुछ फ़ोन नंबर.
इन विज्ञापनों की हकीकत कोई नहीं जानता, अख़बार को पैसे चाहिए और फिर उनको इससे क्या लेना देना कि इसके पीछे क्या है? एक बहुत बड़ा रैकेट काम कर रहा है? मेरी मृग मरीचिका कविता उसकी ही अभिव्यक्ति है.
यहीं कानपुर के कितने लड़के गरीबी के और बेकारी के मारे इन झांसों में आ जाते हैं कि अच्छा वेतन मिलेगा और खाना रहना मुफ्त तो फिर घर में माँ की बीमारी , बहन की शादी और छोटे भाई बहनों की परवरिश में माँ बाप का हाथ बँटवा लेंगे. लेकिन उन्हें नहीं मालूम कि वे किस दलदल में फंसे जा रहे हैं. यहाँ से हर विज्ञापन में कुछ न कुछ तो लड़के फँस ही जाते हैं.
पिछले दिनों वहाँ मई में गए एक लड़के का फ़ोन आपने घर आया कि मुझे यहाँ से किसी भी तरह से निकलवा लीजिये. यहाँ पर १२ घंटे काम करवाते हैं और उसके बाद मालिक के घर पर भी काम करना पड़ता है. खाना माँगने पर पिटाई होती है. कई कई दिन भूखा रख कर काम करवाते हैं.
दो महीने से कोई पैसा भी नहीं दिया है. पैसा माँगने पर पिटाई करता है. वीसा और पासपोर्ट सभी मालिक ने अपने कब्जे में कर रखे हैं. इस तरह से तो ये लोग मुझे यहाँ मार डालेंगे. खाने को भी नहीं देते हैं और पैसे भी नहीं देते हैं.
यहाँ से गए युवकों को वहाँ बंधुआ मजदूर बनाकर रखा जाता है. देश में फैली बेकारी, भुखमरी और महंगाई ने इतना त्रस्त कर रखा है कि युवकों कि कहीं से भी पैसे मिलने की उम्मीद जगती है तो वे उसी तरफ दौड़ पड़ते हैं. आखिर वे क्या करें? हमारी सरकार तो इतना भी नहीं कर सकती है कि अपने देश कि प्रतिभा और इन गरीबों के लिए इतनी व्यवस्था कर सके कि वे घर छोड़ कर भागें नहीं.
जो भी इसको पढ़े कम से कम अपने जानने वालों को अवश्य बताएं इन विज्ञापनों की हकीकत कि ये कितने घातक है? इनकी सोने से मढ़ी भाषा बेचारे मुसीबत के मारे युवकों को आकर्षित कर लेती है. उनके पास ऐसा कोई स्रोत भी नहीं होता है कि वे इसके बारे में किसी से कुछ पता भी कर सकें. सरकार को इस तरह कि एजेंसियों के बारे में पता लगाया जाय और उनके खिलाफ कम से कम जांच तो करवा ही सकती है..
मृग मरीचिका में फंसे युवकों के प्रति हम लोग तो सिर्फ आवाज उठा कर जानकारी दे सकते हैं.
विदेश में नौकरी
बुधवार, 28 जुलाई 2010
आनर किलिंग का विकल्प !
'आनर किलिंग ' के प्रति समाज जागरुक हो उठा है और इसके खिलाफ आवाजें उठने लगीं हैं - समाज के हर तबके और कोने से. पर क्या ऐसा करने वाले डर गए हैं नहीं और विकल्प खोज लिए. खरीद लिया उसने पैरोकारों को और सब शांत. बिना मौत कि खबर और पोस्टमार्टम के वो जमीदोश कर दी गयी और उसके साथ ही एक वह शख्सियत ख़त्म हो गयी जिससे कभी किसी को शिकायत नहीं हुई.
वह एक संस्थान में HR थी और उससे करीब करीब रोज का मिलना जुलना था. परसों ही शाम को उससे मुलाकात हुई - अपने चैंबर में बैठी थी कि मैं पहुँच गयी , वह फ़ोन पर बात कर रही थी और उसने यह कह कर कि "कल शाम को मिलते हैं." फ़ोन रख दिया. मुझे पता था कि वह किसी से प्रेम करती है और शादी करना चाहती है. अन्य जाति का होना आज सामान्य सी बात है. वह लड़की बेहद प्यारी थी - हंसमुख, मिलनसार और संवेदनशील.
कल जब संस्थान जाना हुआ तो पता लगा कि उसने फाँसी लगा ली. संस्थान में सन्नाटा पसरा था. हर चेहरा ग़मगीन और शोक सभा के बाद सब अपने अपने काम में लग गए क्योंकि उसे बंद नहीं किया जा सकता है.
मैं सोच रही थी कि निश्चित रूप से यह घटना कल के पेपर में देखने को मिलेगी कि ऐसा क्यों किया? वह उस दिन मिली थी तो कोई तनाव नहीं था, अच्छी तरह से बात कर रही थी और दूसरे दिन शाम मिलने की बात कह कर फ़ोन रखा था. दूसरे दिन अखबार में कोई कहीं खबर नहीं थी. मामला पुलिस तक गया ही नहीं था या फिर पुलिस बिक गयी. ऐसा तो संभव ही नहीं कि इतने बड़े हादसे की खबर घर वाले छिपा जाएँ लेकिन क्या उसके आसपास कोई ऐसा नहीं होगा कि ये खबर पुलिस तक पहुँच जाती. संस्थान में भी सभी स्तब्ध थे कि ये किस्सा आत्महत्या का नहीं हो सकता क्योंकि वह निराशावादी नहीं थी. सबसे लड़ने का हौसला रखने वाली लड़की थी.
'आनर किलिंग ' का ये विकल्प जो सामने आया वह पहले भी होता रहा है लेकिन इसके प्रति जागरूकता के बाद खरीदार और बिकाऊ लोगों के आगे मानवता, जागरूकता और रिश्ते सब शर्मसार हैं. उन्होंने सोचा कि इज्जत बच गयी. मामला मीडिया में पहुंचकर निरुपमा जैसा बन जाता किन्तु अपराधी तो वे हैं ही और इसके लिए जीवन भर इस अपराध बोध से ग्रस्त रहेंगे. हम अपनी सोच कब बदल पायेंगे और कब उस लड़की जैसे लोगों को अपना जीवन जीने देंगे.
वह एक संस्थान में HR थी और उससे करीब करीब रोज का मिलना जुलना था. परसों ही शाम को उससे मुलाकात हुई - अपने चैंबर में बैठी थी कि मैं पहुँच गयी , वह फ़ोन पर बात कर रही थी और उसने यह कह कर कि "कल शाम को मिलते हैं." फ़ोन रख दिया. मुझे पता था कि वह किसी से प्रेम करती है और शादी करना चाहती है. अन्य जाति का होना आज सामान्य सी बात है. वह लड़की बेहद प्यारी थी - हंसमुख, मिलनसार और संवेदनशील.
कल जब संस्थान जाना हुआ तो पता लगा कि उसने फाँसी लगा ली. संस्थान में सन्नाटा पसरा था. हर चेहरा ग़मगीन और शोक सभा के बाद सब अपने अपने काम में लग गए क्योंकि उसे बंद नहीं किया जा सकता है.
मैं सोच रही थी कि निश्चित रूप से यह घटना कल के पेपर में देखने को मिलेगी कि ऐसा क्यों किया? वह उस दिन मिली थी तो कोई तनाव नहीं था, अच्छी तरह से बात कर रही थी और दूसरे दिन शाम मिलने की बात कह कर फ़ोन रखा था. दूसरे दिन अखबार में कोई कहीं खबर नहीं थी. मामला पुलिस तक गया ही नहीं था या फिर पुलिस बिक गयी. ऐसा तो संभव ही नहीं कि इतने बड़े हादसे की खबर घर वाले छिपा जाएँ लेकिन क्या उसके आसपास कोई ऐसा नहीं होगा कि ये खबर पुलिस तक पहुँच जाती. संस्थान में भी सभी स्तब्ध थे कि ये किस्सा आत्महत्या का नहीं हो सकता क्योंकि वह निराशावादी नहीं थी. सबसे लड़ने का हौसला रखने वाली लड़की थी.
'आनर किलिंग ' का ये विकल्प जो सामने आया वह पहले भी होता रहा है लेकिन इसके प्रति जागरूकता के बाद खरीदार और बिकाऊ लोगों के आगे मानवता, जागरूकता और रिश्ते सब शर्मसार हैं. उन्होंने सोचा कि इज्जत बच गयी. मामला मीडिया में पहुंचकर निरुपमा जैसा बन जाता किन्तु अपराधी तो वे हैं ही और इसके लिए जीवन भर इस अपराध बोध से ग्रस्त रहेंगे. हम अपनी सोच कब बदल पायेंगे और कब उस लड़की जैसे लोगों को अपना जीवन जीने देंगे.
शुक्रवार, 23 जुलाई 2010
सिर्फ वंश के लिए ?
वह मेरे पास मेरे काउंसलर होने के नाते सलाह लेने आया था. प्रथम श्रेणी अधिकारी था लेकिन उसकी सोच का कहीं भी उसके पद और जिम्मेदारियों के साथ मेल नहीं खा रहा था. उससे बात करने पर और उसकी समस्या सुनने पर उसको सलाह देने के स्थान पर मेरी इच्छा हो रही थी कि मैं उसको धक्के मार कर निकाल दूं, लेकिन अपने काम के अनुरुप मुझे संयम और धैर्य से काम लेना था और इस काम के लिए शायद मेरा जमीर अनुमति नहीं दे रहा था.
बकौल उसके - मैं अमुक स्थान पर प्रथम श्रेणी अधिकारी हूँ. मेरे दो बेटियाँ हैं और मेरी पत्नी की उम्र ३५ वर्ष है. वह बहुत समझदार और उच्च शिक्षित है. मेरी दोनों बेटियाँ सिजेरियन हुई हैं. मैं अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता हूँ और उसका दिल नहीं दुखाना चाहता. वह अगले गर्भ के लिए तैयार तो है लेकिन गर्भ परिक्षण से बिल्कुल भी सहमत नहीं है. अगर मेरे एक बेटी और हो गयी तो मेरे घर वाले मेरी दूसरी शादी करवा देंगे.
"दूसरा विवाह किस लिए?" मुझे सब समझ आ चुका था लेकिन मैं उससे ही सुनना चाहती थी.
"मेरे माँ बाप चाहते हैं कि वंश का नाम चलने के लिए एक बेटा तो होना ही चाहिए."
"इसके लिए आप दूसरा विवाह करेंगे, आपको पता है कि आप सरकारी नौकरी करते हैं और जो आपको इस बात अनुमति नहीं देगी."
"क्या ये जरूरी है की दोसरे विवाह के बाद आपको बेटा मिल ही जाएगा?" मैं उससे जानना चाहती थी की इसकी सोच कहाँ तक जाती है?
"क्या उसको भी लड़कियाँ ही होती रहेंगी?"
"माँ लीजिये, तब आप क्या करेंगे?"
"मैं दूसरी शादी नहीं करना चाहता. तभी तो मैं चाहता हूँ कि सरोगेट मदर के जरिये बेटा हो जाए."
"क्या बेटा बहुत जरूरी है?"
"हाँ, इतनी जमीन जायदाद है - सब कुनबे वालों को देनी पड़ेगी."
"और ये जो आपकी बेटियां है?"
"बेटियां अपने अपने घर चली जाएँगी, घर की जायदाद दूसरों को तो नहीं दे दूंगा."
"मतलब? दूसरा कौन है? आपकी बेटियां आपकी संतान नहीं हैं?"
"वो बात नहीं - हम ठाकुरों में वंश का नाम बेटे से ही चलता है और दामाद तो दूसरे का बेटा होता तो मेरा नाम कैसे चलेगा?"
"फिर आप बेटे के लिए कुछ भी करेंगे?"
"हाँ, दो चार लाख रुपये खर्च भी हो जाए तो कोई बात नहीं." उसने अपनी मंशा कि हद जाहिर कर दी थी.
"आप किसी अनाथालय से बच्चा गोद ले सकते हैं."
"कैसी सलाह दे रही हैं? पता नहीं किसका खून हो और किस जात का होगा?"
"तब मेरे पास आप जैसो के लिए कोई सलाह है ही नहीं. आप जा सकते हैं."
मैं उसकी दलीलों से झुंझला गयी थी. वह किसी गाँव के परिवेश से जुड़ा था. जिससे शादी हुई वह Ph . D थी और शहरी परिवेश में पली थी. घर वालो ने लड़के कि नौकरी देखी और कुछ जानने की जरूरत नहीं समझी. किसी की सोच की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि शिक्षा और परिवेश उसके आगे बौना हो जाता है. ये उदहारण मैंने कोई नया नहीं देखा था लेकिन उच्च पदस्थ लोग भी ऐसा सोच सकते हैं ये पहली बार देखा था. सिर्फ वंश का नाम चलाने के लिए उसे सरोगेसी या दूसरा विवाह स्वीकार्य था. लेकिन बेटा जरूर होना चाहिए. मुझे तरस आता है कि ये आज की पीढ़ी है जो वंश के नाम पर बेटे होने के पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं? कब इनको पता चलेगा कि वंश बेटे या बेटियों से नहीं चलता है. अपने ही कर्मों से चलता है.
अगर आपके पास बहुत दौलत है तो आप अपने नाम से स्कूल, मंदिर या ट्रस्ट बनवा दीजिये. सदियों तक ये आपके नाम को जीवित रखेंगे. बेटे ऐसा न हो कि इस दौलत के मद में आपका नाम रोशन करने के स्थान पर कलंकित ही न कर दें. मेरी तो यही सलाह है कि वंश का नाम न बेटे चलाते हैं और न ही बेटियां. आपके अपने सत्कर्म ही आपको जीवित रखेंगे. अपनी सोच बदलिए और यथार्थ के साथ जुड़िये.
बकौल उसके - मैं अमुक स्थान पर प्रथम श्रेणी अधिकारी हूँ. मेरे दो बेटियाँ हैं और मेरी पत्नी की उम्र ३५ वर्ष है. वह बहुत समझदार और उच्च शिक्षित है. मेरी दोनों बेटियाँ सिजेरियन हुई हैं. मैं अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता हूँ और उसका दिल नहीं दुखाना चाहता. वह अगले गर्भ के लिए तैयार तो है लेकिन गर्भ परिक्षण से बिल्कुल भी सहमत नहीं है. अगर मेरे एक बेटी और हो गयी तो मेरे घर वाले मेरी दूसरी शादी करवा देंगे.
"दूसरा विवाह किस लिए?" मुझे सब समझ आ चुका था लेकिन मैं उससे ही सुनना चाहती थी.
"मेरे माँ बाप चाहते हैं कि वंश का नाम चलने के लिए एक बेटा तो होना ही चाहिए."
"इसके लिए आप दूसरा विवाह करेंगे, आपको पता है कि आप सरकारी नौकरी करते हैं और जो आपको इस बात अनुमति नहीं देगी."
"क्या ये जरूरी है की दोसरे विवाह के बाद आपको बेटा मिल ही जाएगा?" मैं उससे जानना चाहती थी की इसकी सोच कहाँ तक जाती है?
"क्या उसको भी लड़कियाँ ही होती रहेंगी?"
"माँ लीजिये, तब आप क्या करेंगे?"
"मैं दूसरी शादी नहीं करना चाहता. तभी तो मैं चाहता हूँ कि सरोगेट मदर के जरिये बेटा हो जाए."
"क्या बेटा बहुत जरूरी है?"
"हाँ, इतनी जमीन जायदाद है - सब कुनबे वालों को देनी पड़ेगी."
"और ये जो आपकी बेटियां है?"
"बेटियां अपने अपने घर चली जाएँगी, घर की जायदाद दूसरों को तो नहीं दे दूंगा."
"मतलब? दूसरा कौन है? आपकी बेटियां आपकी संतान नहीं हैं?"
"वो बात नहीं - हम ठाकुरों में वंश का नाम बेटे से ही चलता है और दामाद तो दूसरे का बेटा होता तो मेरा नाम कैसे चलेगा?"
"फिर आप बेटे के लिए कुछ भी करेंगे?"
"हाँ, दो चार लाख रुपये खर्च भी हो जाए तो कोई बात नहीं." उसने अपनी मंशा कि हद जाहिर कर दी थी.
"आप किसी अनाथालय से बच्चा गोद ले सकते हैं."
"कैसी सलाह दे रही हैं? पता नहीं किसका खून हो और किस जात का होगा?"
"तब मेरे पास आप जैसो के लिए कोई सलाह है ही नहीं. आप जा सकते हैं."
मैं उसकी दलीलों से झुंझला गयी थी. वह किसी गाँव के परिवेश से जुड़ा था. जिससे शादी हुई वह Ph . D थी और शहरी परिवेश में पली थी. घर वालो ने लड़के कि नौकरी देखी और कुछ जानने की जरूरत नहीं समझी. किसी की सोच की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि शिक्षा और परिवेश उसके आगे बौना हो जाता है. ये उदहारण मैंने कोई नया नहीं देखा था लेकिन उच्च पदस्थ लोग भी ऐसा सोच सकते हैं ये पहली बार देखा था. सिर्फ वंश का नाम चलाने के लिए उसे सरोगेसी या दूसरा विवाह स्वीकार्य था. लेकिन बेटा जरूर होना चाहिए. मुझे तरस आता है कि ये आज की पीढ़ी है जो वंश के नाम पर बेटे होने के पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं? कब इनको पता चलेगा कि वंश बेटे या बेटियों से नहीं चलता है. अपने ही कर्मों से चलता है.
अगर आपके पास बहुत दौलत है तो आप अपने नाम से स्कूल, मंदिर या ट्रस्ट बनवा दीजिये. सदियों तक ये आपके नाम को जीवित रखेंगे. बेटे ऐसा न हो कि इस दौलत के मद में आपका नाम रोशन करने के स्थान पर कलंकित ही न कर दें. मेरी तो यही सलाह है कि वंश का नाम न बेटे चलाते हैं और न ही बेटियां. आपके अपने सत्कर्म ही आपको जीवित रखेंगे. अपनी सोच बदलिए और यथार्थ के साथ जुड़िये.
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