आज कल ही नहीं बल्कि कई महीनों से पढ़ती आ रही हूँ, इस तरह के विज्ञापन:
कनाडा, दुबई, खाड़ी देशों में नौकरी के लिए अनपढ़/हाईस्कूल/ग्रेजुएट चाहिए. . बिना वीजा फीस , टिकट आदि का कोई पैसा नहीं. अच्छी तनख्वाह, रहना + खाना मुफ्त. संपर्क करें? कमीशन वहाँ पहुँचने के बाद दें. और कुछ फ़ोन नंबर.
इन विज्ञापनों की हकीकत कोई नहीं जानता, अख़बार को पैसे चाहिए और फिर उनको इससे क्या लेना देना कि इसके पीछे क्या है? एक बहुत बड़ा रैकेट काम कर रहा है? मेरी मृग मरीचिका कविता उसकी ही अभिव्यक्ति है.
यहीं कानपुर के कितने लड़के गरीबी के और बेकारी के मारे इन झांसों में आ जाते हैं कि अच्छा वेतन मिलेगा और खाना रहना मुफ्त तो फिर घर में माँ की बीमारी , बहन की शादी और छोटे भाई बहनों की परवरिश में माँ बाप का हाथ बँटवा लेंगे. लेकिन उन्हें नहीं मालूम कि वे किस दलदल में फंसे जा रहे हैं. यहाँ से हर विज्ञापन में कुछ न कुछ तो लड़के फँस ही जाते हैं.
पिछले दिनों वहाँ मई में गए एक लड़के का फ़ोन आपने घर आया कि मुझे यहाँ से किसी भी तरह से निकलवा लीजिये. यहाँ पर १२ घंटे काम करवाते हैं और उसके बाद मालिक के घर पर भी काम करना पड़ता है. खाना माँगने पर पिटाई होती है. कई कई दिन भूखा रख कर काम करवाते हैं.
दो महीने से कोई पैसा भी नहीं दिया है. पैसा माँगने पर पिटाई करता है. वीसा और पासपोर्ट सभी मालिक ने अपने कब्जे में कर रखे हैं. इस तरह से तो ये लोग मुझे यहाँ मार डालेंगे. खाने को भी नहीं देते हैं और पैसे भी नहीं देते हैं.
यहाँ से गए युवकों को वहाँ बंधुआ मजदूर बनाकर रखा जाता है. देश में फैली बेकारी, भुखमरी और महंगाई ने इतना त्रस्त कर रखा है कि युवकों कि कहीं से भी पैसे मिलने की उम्मीद जगती है तो वे उसी तरफ दौड़ पड़ते हैं. आखिर वे क्या करें? हमारी सरकार तो इतना भी नहीं कर सकती है कि अपने देश कि प्रतिभा और इन गरीबों के लिए इतनी व्यवस्था कर सके कि वे घर छोड़ कर भागें नहीं.
जो भी इसको पढ़े कम से कम अपने जानने वालों को अवश्य बताएं इन विज्ञापनों की हकीकत कि ये कितने घातक है? इनकी सोने से मढ़ी भाषा बेचारे मुसीबत के मारे युवकों को आकर्षित कर लेती है. उनके पास ऐसा कोई स्रोत भी नहीं होता है कि वे इसके बारे में किसी से कुछ पता भी कर सकें. सरकार को इस तरह कि एजेंसियों के बारे में पता लगाया जाय और उनके खिलाफ कम से कम जांच तो करवा ही सकती है..
मृग मरीचिका में फंसे युवकों के प्रति हम लोग तो सिर्फ आवाज उठा कर जानकारी दे सकते हैं.
विदेश में नौकरी
शनिवार, 31 जुलाई 2010
बुधवार, 28 जुलाई 2010
आनर किलिंग का विकल्प !
'आनर किलिंग ' के प्रति समाज जागरुक हो उठा है और इसके खिलाफ आवाजें उठने लगीं हैं - समाज के हर तबके और कोने से. पर क्या ऐसा करने वाले डर गए हैं नहीं और विकल्प खोज लिए. खरीद लिया उसने पैरोकारों को और सब शांत. बिना मौत कि खबर और पोस्टमार्टम के वो जमीदोश कर दी गयी और उसके साथ ही एक वह शख्सियत ख़त्म हो गयी जिससे कभी किसी को शिकायत नहीं हुई.
वह एक संस्थान में HR थी और उससे करीब करीब रोज का मिलना जुलना था. परसों ही शाम को उससे मुलाकात हुई - अपने चैंबर में बैठी थी कि मैं पहुँच गयी , वह फ़ोन पर बात कर रही थी और उसने यह कह कर कि "कल शाम को मिलते हैं." फ़ोन रख दिया. मुझे पता था कि वह किसी से प्रेम करती है और शादी करना चाहती है. अन्य जाति का होना आज सामान्य सी बात है. वह लड़की बेहद प्यारी थी - हंसमुख, मिलनसार और संवेदनशील.
कल जब संस्थान जाना हुआ तो पता लगा कि उसने फाँसी लगा ली. संस्थान में सन्नाटा पसरा था. हर चेहरा ग़मगीन और शोक सभा के बाद सब अपने अपने काम में लग गए क्योंकि उसे बंद नहीं किया जा सकता है.
मैं सोच रही थी कि निश्चित रूप से यह घटना कल के पेपर में देखने को मिलेगी कि ऐसा क्यों किया? वह उस दिन मिली थी तो कोई तनाव नहीं था, अच्छी तरह से बात कर रही थी और दूसरे दिन शाम मिलने की बात कह कर फ़ोन रखा था. दूसरे दिन अखबार में कोई कहीं खबर नहीं थी. मामला पुलिस तक गया ही नहीं था या फिर पुलिस बिक गयी. ऐसा तो संभव ही नहीं कि इतने बड़े हादसे की खबर घर वाले छिपा जाएँ लेकिन क्या उसके आसपास कोई ऐसा नहीं होगा कि ये खबर पुलिस तक पहुँच जाती. संस्थान में भी सभी स्तब्ध थे कि ये किस्सा आत्महत्या का नहीं हो सकता क्योंकि वह निराशावादी नहीं थी. सबसे लड़ने का हौसला रखने वाली लड़की थी.
'आनर किलिंग ' का ये विकल्प जो सामने आया वह पहले भी होता रहा है लेकिन इसके प्रति जागरूकता के बाद खरीदार और बिकाऊ लोगों के आगे मानवता, जागरूकता और रिश्ते सब शर्मसार हैं. उन्होंने सोचा कि इज्जत बच गयी. मामला मीडिया में पहुंचकर निरुपमा जैसा बन जाता किन्तु अपराधी तो वे हैं ही और इसके लिए जीवन भर इस अपराध बोध से ग्रस्त रहेंगे. हम अपनी सोच कब बदल पायेंगे और कब उस लड़की जैसे लोगों को अपना जीवन जीने देंगे.
वह एक संस्थान में HR थी और उससे करीब करीब रोज का मिलना जुलना था. परसों ही शाम को उससे मुलाकात हुई - अपने चैंबर में बैठी थी कि मैं पहुँच गयी , वह फ़ोन पर बात कर रही थी और उसने यह कह कर कि "कल शाम को मिलते हैं." फ़ोन रख दिया. मुझे पता था कि वह किसी से प्रेम करती है और शादी करना चाहती है. अन्य जाति का होना आज सामान्य सी बात है. वह लड़की बेहद प्यारी थी - हंसमुख, मिलनसार और संवेदनशील.
कल जब संस्थान जाना हुआ तो पता लगा कि उसने फाँसी लगा ली. संस्थान में सन्नाटा पसरा था. हर चेहरा ग़मगीन और शोक सभा के बाद सब अपने अपने काम में लग गए क्योंकि उसे बंद नहीं किया जा सकता है.
मैं सोच रही थी कि निश्चित रूप से यह घटना कल के पेपर में देखने को मिलेगी कि ऐसा क्यों किया? वह उस दिन मिली थी तो कोई तनाव नहीं था, अच्छी तरह से बात कर रही थी और दूसरे दिन शाम मिलने की बात कह कर फ़ोन रखा था. दूसरे दिन अखबार में कोई कहीं खबर नहीं थी. मामला पुलिस तक गया ही नहीं था या फिर पुलिस बिक गयी. ऐसा तो संभव ही नहीं कि इतने बड़े हादसे की खबर घर वाले छिपा जाएँ लेकिन क्या उसके आसपास कोई ऐसा नहीं होगा कि ये खबर पुलिस तक पहुँच जाती. संस्थान में भी सभी स्तब्ध थे कि ये किस्सा आत्महत्या का नहीं हो सकता क्योंकि वह निराशावादी नहीं थी. सबसे लड़ने का हौसला रखने वाली लड़की थी.
'आनर किलिंग ' का ये विकल्प जो सामने आया वह पहले भी होता रहा है लेकिन इसके प्रति जागरूकता के बाद खरीदार और बिकाऊ लोगों के आगे मानवता, जागरूकता और रिश्ते सब शर्मसार हैं. उन्होंने सोचा कि इज्जत बच गयी. मामला मीडिया में पहुंचकर निरुपमा जैसा बन जाता किन्तु अपराधी तो वे हैं ही और इसके लिए जीवन भर इस अपराध बोध से ग्रस्त रहेंगे. हम अपनी सोच कब बदल पायेंगे और कब उस लड़की जैसे लोगों को अपना जीवन जीने देंगे.
शुक्रवार, 23 जुलाई 2010
सिर्फ वंश के लिए ?
वह मेरे पास मेरे काउंसलर होने के नाते सलाह लेने आया था. प्रथम श्रेणी अधिकारी था लेकिन उसकी सोच का कहीं भी उसके पद और जिम्मेदारियों के साथ मेल नहीं खा रहा था. उससे बात करने पर और उसकी समस्या सुनने पर उसको सलाह देने के स्थान पर मेरी इच्छा हो रही थी कि मैं उसको धक्के मार कर निकाल दूं, लेकिन अपने काम के अनुरुप मुझे संयम और धैर्य से काम लेना था और इस काम के लिए शायद मेरा जमीर अनुमति नहीं दे रहा था.
बकौल उसके - मैं अमुक स्थान पर प्रथम श्रेणी अधिकारी हूँ. मेरे दो बेटियाँ हैं और मेरी पत्नी की उम्र ३५ वर्ष है. वह बहुत समझदार और उच्च शिक्षित है. मेरी दोनों बेटियाँ सिजेरियन हुई हैं. मैं अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता हूँ और उसका दिल नहीं दुखाना चाहता. वह अगले गर्भ के लिए तैयार तो है लेकिन गर्भ परिक्षण से बिल्कुल भी सहमत नहीं है. अगर मेरे एक बेटी और हो गयी तो मेरे घर वाले मेरी दूसरी शादी करवा देंगे.
"दूसरा विवाह किस लिए?" मुझे सब समझ आ चुका था लेकिन मैं उससे ही सुनना चाहती थी.
"मेरे माँ बाप चाहते हैं कि वंश का नाम चलने के लिए एक बेटा तो होना ही चाहिए."
"इसके लिए आप दूसरा विवाह करेंगे, आपको पता है कि आप सरकारी नौकरी करते हैं और जो आपको इस बात अनुमति नहीं देगी."
"क्या ये जरूरी है की दोसरे विवाह के बाद आपको बेटा मिल ही जाएगा?" मैं उससे जानना चाहती थी की इसकी सोच कहाँ तक जाती है?
"क्या उसको भी लड़कियाँ ही होती रहेंगी?"
"माँ लीजिये, तब आप क्या करेंगे?"
"मैं दूसरी शादी नहीं करना चाहता. तभी तो मैं चाहता हूँ कि सरोगेट मदर के जरिये बेटा हो जाए."
"क्या बेटा बहुत जरूरी है?"
"हाँ, इतनी जमीन जायदाद है - सब कुनबे वालों को देनी पड़ेगी."
"और ये जो आपकी बेटियां है?"
"बेटियां अपने अपने घर चली जाएँगी, घर की जायदाद दूसरों को तो नहीं दे दूंगा."
"मतलब? दूसरा कौन है? आपकी बेटियां आपकी संतान नहीं हैं?"
"वो बात नहीं - हम ठाकुरों में वंश का नाम बेटे से ही चलता है और दामाद तो दूसरे का बेटा होता तो मेरा नाम कैसे चलेगा?"
"फिर आप बेटे के लिए कुछ भी करेंगे?"
"हाँ, दो चार लाख रुपये खर्च भी हो जाए तो कोई बात नहीं." उसने अपनी मंशा कि हद जाहिर कर दी थी.
"आप किसी अनाथालय से बच्चा गोद ले सकते हैं."
"कैसी सलाह दे रही हैं? पता नहीं किसका खून हो और किस जात का होगा?"
"तब मेरे पास आप जैसो के लिए कोई सलाह है ही नहीं. आप जा सकते हैं."
मैं उसकी दलीलों से झुंझला गयी थी. वह किसी गाँव के परिवेश से जुड़ा था. जिससे शादी हुई वह Ph . D थी और शहरी परिवेश में पली थी. घर वालो ने लड़के कि नौकरी देखी और कुछ जानने की जरूरत नहीं समझी. किसी की सोच की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि शिक्षा और परिवेश उसके आगे बौना हो जाता है. ये उदहारण मैंने कोई नया नहीं देखा था लेकिन उच्च पदस्थ लोग भी ऐसा सोच सकते हैं ये पहली बार देखा था. सिर्फ वंश का नाम चलाने के लिए उसे सरोगेसी या दूसरा विवाह स्वीकार्य था. लेकिन बेटा जरूर होना चाहिए. मुझे तरस आता है कि ये आज की पीढ़ी है जो वंश के नाम पर बेटे होने के पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं? कब इनको पता चलेगा कि वंश बेटे या बेटियों से नहीं चलता है. अपने ही कर्मों से चलता है.
अगर आपके पास बहुत दौलत है तो आप अपने नाम से स्कूल, मंदिर या ट्रस्ट बनवा दीजिये. सदियों तक ये आपके नाम को जीवित रखेंगे. बेटे ऐसा न हो कि इस दौलत के मद में आपका नाम रोशन करने के स्थान पर कलंकित ही न कर दें. मेरी तो यही सलाह है कि वंश का नाम न बेटे चलाते हैं और न ही बेटियां. आपके अपने सत्कर्म ही आपको जीवित रखेंगे. अपनी सोच बदलिए और यथार्थ के साथ जुड़िये.
बकौल उसके - मैं अमुक स्थान पर प्रथम श्रेणी अधिकारी हूँ. मेरे दो बेटियाँ हैं और मेरी पत्नी की उम्र ३५ वर्ष है. वह बहुत समझदार और उच्च शिक्षित है. मेरी दोनों बेटियाँ सिजेरियन हुई हैं. मैं अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता हूँ और उसका दिल नहीं दुखाना चाहता. वह अगले गर्भ के लिए तैयार तो है लेकिन गर्भ परिक्षण से बिल्कुल भी सहमत नहीं है. अगर मेरे एक बेटी और हो गयी तो मेरे घर वाले मेरी दूसरी शादी करवा देंगे.
"दूसरा विवाह किस लिए?" मुझे सब समझ आ चुका था लेकिन मैं उससे ही सुनना चाहती थी.
"मेरे माँ बाप चाहते हैं कि वंश का नाम चलने के लिए एक बेटा तो होना ही चाहिए."
"इसके लिए आप दूसरा विवाह करेंगे, आपको पता है कि आप सरकारी नौकरी करते हैं और जो आपको इस बात अनुमति नहीं देगी."
"क्या ये जरूरी है की दोसरे विवाह के बाद आपको बेटा मिल ही जाएगा?" मैं उससे जानना चाहती थी की इसकी सोच कहाँ तक जाती है?
"क्या उसको भी लड़कियाँ ही होती रहेंगी?"
"माँ लीजिये, तब आप क्या करेंगे?"
"मैं दूसरी शादी नहीं करना चाहता. तभी तो मैं चाहता हूँ कि सरोगेट मदर के जरिये बेटा हो जाए."
"क्या बेटा बहुत जरूरी है?"
"हाँ, इतनी जमीन जायदाद है - सब कुनबे वालों को देनी पड़ेगी."
"और ये जो आपकी बेटियां है?"
"बेटियां अपने अपने घर चली जाएँगी, घर की जायदाद दूसरों को तो नहीं दे दूंगा."
"मतलब? दूसरा कौन है? आपकी बेटियां आपकी संतान नहीं हैं?"
"वो बात नहीं - हम ठाकुरों में वंश का नाम बेटे से ही चलता है और दामाद तो दूसरे का बेटा होता तो मेरा नाम कैसे चलेगा?"
"फिर आप बेटे के लिए कुछ भी करेंगे?"
"हाँ, दो चार लाख रुपये खर्च भी हो जाए तो कोई बात नहीं." उसने अपनी मंशा कि हद जाहिर कर दी थी.
"आप किसी अनाथालय से बच्चा गोद ले सकते हैं."
"कैसी सलाह दे रही हैं? पता नहीं किसका खून हो और किस जात का होगा?"
"तब मेरे पास आप जैसो के लिए कोई सलाह है ही नहीं. आप जा सकते हैं."
मैं उसकी दलीलों से झुंझला गयी थी. वह किसी गाँव के परिवेश से जुड़ा था. जिससे शादी हुई वह Ph . D थी और शहरी परिवेश में पली थी. घर वालो ने लड़के कि नौकरी देखी और कुछ जानने की जरूरत नहीं समझी. किसी की सोच की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि शिक्षा और परिवेश उसके आगे बौना हो जाता है. ये उदहारण मैंने कोई नया नहीं देखा था लेकिन उच्च पदस्थ लोग भी ऐसा सोच सकते हैं ये पहली बार देखा था. सिर्फ वंश का नाम चलाने के लिए उसे सरोगेसी या दूसरा विवाह स्वीकार्य था. लेकिन बेटा जरूर होना चाहिए. मुझे तरस आता है कि ये आज की पीढ़ी है जो वंश के नाम पर बेटे होने के पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं? कब इनको पता चलेगा कि वंश बेटे या बेटियों से नहीं चलता है. अपने ही कर्मों से चलता है.
अगर आपके पास बहुत दौलत है तो आप अपने नाम से स्कूल, मंदिर या ट्रस्ट बनवा दीजिये. सदियों तक ये आपके नाम को जीवित रखेंगे. बेटे ऐसा न हो कि इस दौलत के मद में आपका नाम रोशन करने के स्थान पर कलंकित ही न कर दें. मेरी तो यही सलाह है कि वंश का नाम न बेटे चलाते हैं और न ही बेटियां. आपके अपने सत्कर्म ही आपको जीवित रखेंगे. अपनी सोच बदलिए और यथार्थ के साथ जुड़िये.
सोमवार, 14 जून 2010
विश्व रक्त दान दिवस !
आज विश्व रक्त दान दिवस है , रक्त जो जीवन का आधार है और इसके निर्माण की प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है. यदि इसका उपयोग दूसरे के लिए कर दिया जाय तो एक जीवन को बचा लिया जाता है किन्तु क्या इसके लिए रक्त सम्बन्ध की सीमा निश्चित की जा सकती है ? नहीं - कहते हैं न कि आखिर खून ही खून के काम आता है लेकिन ऐसा भी नहीं है. कहीं कहीं अपना खून होता है और पराया खून उसको बचा ले जाता है. तब इसको यही कहेंगे न कि खून को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता है, वह तो जिसमें मिल जाए उसका ही खून बन कर दौड़ने लगता है और जीवन की साँसें फिर से चलने लगती है.
आज इस दिवस पर मैं कुछ उन अनजाने बच्चों को धन्यवाद देती हूँ जिन्होंने न मुझे देखा और नहीं उन्हें मैंने देखा बल्कि हम तो जानते ही नहीं है एक दूसरे को. बात आज से करीब ५-६ साल पहले की है. मेरी बेटी की तबियत भी उस समय बहुत ख़राब चल रही थी और ठीक उसी समय मेरी छोटी बहन के पति को कैंसर हो गया. उस समय उसके मात्र एक ४ साल की बेटी थी और मेरी बहन एक गृहिणी. उनको मुंबई टाटा मेमोरिअल ले जाया गया , उनका ऑपरेशन होना था और उसके लिए उन्हें खून की जरूरत थी. एक अनजानी जगह में खून कहाँ से लाया जा सकता है? कुछ ईश्वर की कृपा हुई और मुझे यह विचार आया कि मेरे साथ कुछ साल पहले एक इंजीनियर काम करता था और उस समय वह मोहाली में जॉब कर रहा था. वह भी मुझे बहुत मानता था ( आज भी वैसे ही मानता है) मैंने उसको सारे डिटेल के साथ मेल की - और उससे कहा कि वह ये मेल अपने मित्रों को फॉरवर्ड कर दे जिससे यदि उनके कोई मित्र मुंबई में हों और सहायता कर सकें तो उनके लिए हम कुछ कर सकते हैं. उसने वैसा ही किया और मेरी मेल अपने मित्रों को फॉरवर्ड कर दी. उसमें मैंने अपनी बहन का मुंबई का मोबाइल नंबर भी दे दिया था.
जब मेरे बहनोई का ऑपरेशन होना था तो बहन के पास कई फ़ोन आये कि वे खून देने के लिए तैयार है और जैसे ही जरूरत हो उनको कॉल कर लिया जाय. उनकी खून की जरूरत पूरी हो गयी और ईश्वर की कृपा से आज वे पूर्ण रूप से स्वस्थ होकर अपने परिवार के साथ खुशहाल हैं. मेरी उन अनदेखे और अनजाने बच्चों के लिए आज यही दुआ है कि ईश्वर उनको हमेशा सुखी रखे और मानवता का ये जज्बा जो उनको दिया है वो हमेशा हमेशा बुलंद रहे.
आज इस दिवस पर मैं कुछ उन अनजाने बच्चों को धन्यवाद देती हूँ जिन्होंने न मुझे देखा और नहीं उन्हें मैंने देखा बल्कि हम तो जानते ही नहीं है एक दूसरे को. बात आज से करीब ५-६ साल पहले की है. मेरी बेटी की तबियत भी उस समय बहुत ख़राब चल रही थी और ठीक उसी समय मेरी छोटी बहन के पति को कैंसर हो गया. उस समय उसके मात्र एक ४ साल की बेटी थी और मेरी बहन एक गृहिणी. उनको मुंबई टाटा मेमोरिअल ले जाया गया , उनका ऑपरेशन होना था और उसके लिए उन्हें खून की जरूरत थी. एक अनजानी जगह में खून कहाँ से लाया जा सकता है? कुछ ईश्वर की कृपा हुई और मुझे यह विचार आया कि मेरे साथ कुछ साल पहले एक इंजीनियर काम करता था और उस समय वह मोहाली में जॉब कर रहा था. वह भी मुझे बहुत मानता था ( आज भी वैसे ही मानता है) मैंने उसको सारे डिटेल के साथ मेल की - और उससे कहा कि वह ये मेल अपने मित्रों को फॉरवर्ड कर दे जिससे यदि उनके कोई मित्र मुंबई में हों और सहायता कर सकें तो उनके लिए हम कुछ कर सकते हैं. उसने वैसा ही किया और मेरी मेल अपने मित्रों को फॉरवर्ड कर दी. उसमें मैंने अपनी बहन का मुंबई का मोबाइल नंबर भी दे दिया था.
जब मेरे बहनोई का ऑपरेशन होना था तो बहन के पास कई फ़ोन आये कि वे खून देने के लिए तैयार है और जैसे ही जरूरत हो उनको कॉल कर लिया जाय. उनकी खून की जरूरत पूरी हो गयी और ईश्वर की कृपा से आज वे पूर्ण रूप से स्वस्थ होकर अपने परिवार के साथ खुशहाल हैं. मेरी उन अनदेखे और अनजाने बच्चों के लिए आज यही दुआ है कि ईश्वर उनको हमेशा सुखी रखे और मानवता का ये जज्बा जो उनको दिया है वो हमेशा हमेशा बुलंद रहे.
शनिवार, 12 जून 2010
कुछ ऐसे भी हैं?
जिन्दगी के मेले में कितने तरह से लोग मिलते हैं और हम सबसे दो चार हो कर या तो उन्हें भूल जाते हैं या फिर ऐसा कुछ घटित हो जाता है कि हम उन्हें भूल ही नहीं पाते हैं बल्कि एक अजीब से वितृष्णा मन में पैदा हो जाती है कि उनको शिक्षित और सभ्य लोगों की श्रेणी में रखने के लायक भी नहीं समझा जाता है.
मैं अपना एम एड पूरा करके निवृत हुई थी कि मेरे पति के मित्र , जिनका कि एक स्कूल चल रहा था , इनसे बोले कि रेखा तो फ्री ही है क्यों न मेरे स्कूल में प्रिंसिपल कि जगह पर आ जाये. मुझे प्रिंसिपल की जरूरत है. वह दोनों लोग किसी महाविद्यालय में प्रवक्ता थे सो उन्हें कोई परिचित व्यक्ति ही चाहिए था जो कि स्कूल देख सके. उनमें पतिदेव तो काफी सज्जन पुरुष थे लेकिन पत्नी किसी पहुँच के कारण महाविद्यालय तक पहुँच गयी थी सो उनमें अपने पद और धन दोनों का भी बहुत घमंड था.
मेरी एक परिचित अचानक आर्थिक परेशानी में फँस गयीं - पति की नौकरी छूट गयी , वह तो गृहिणी ही थी लेकिन उच्च शिक्षित थी. उनको मदद की जरूरत थी सो मैंने उन्हें प्राइमरी टीचर की तरह से नियुक्त कर लिया. यद्यपि वो उस काम से लिहाज से काफी अधिक शिक्षित थी लेकिन मेरे पास और कोई विकल्प उस समय नहीं था. वे सीधी सादी महिला थीं सबसे बड़ी बात कि उनके पास सीमित साड़ियाँ थी. वे उन्हीं को बदल बदल कर पहन कर आती थी. मेरी दृष्टि में ऐसी कोई बात नहीं थी और न ही मैंने इसको ध्यान दिया क्योंकि मुझे ये अपराध बोध होता था कि इनकी विद्वता का उपयोग नहीं हो पा रहा है.
एक दिन श्रीमती मैनेजर साहिबा ने स्टाफ रूम में सभी के सामने उनसे कहा - 'देखो तुम्हारी यह साड़ियाँ अब अच्छी नहीं लगती हैं - तुम इनको अब गद्दे या रजाई पर चढ़ा दो. तुम्हें ऊब नहीं होती वही साड़ियाँ पहनते हुए.'
(उनके ये शब्द मुझे आज भी जस के टस याद हैं.)
हो सकता है कि उन्होंने वह बात मजाक के लहजे में कही हो या फिर अपने दंभ में. वह महिला इस बात को सहन नहीं कर सकी और वह सभी के सामने अपमानित महसूस करके रो पड़ी. श्रीमती मैनेजर एकदम सकपका गयी और तुरंत बोली - मेरा यह मतलब था कि एक ही साड़ी पहन कर हम ऊब जाते हैं तो उठाकर रख देते हैं और फिर कुछ महीनों के बाद निकल लेते हैं. तो तबियत उबती नहीं हैं.
उनको ये पता था कि वह महिला किस समस्या का सामना कर रही है? फिर अगर हम ये महसूस न कर सके कि कोई किस तरह से अपनी जिन्दगी अपनी समस्याओं के साथ गुजर रहा है. वह एक प्राध्यापिका है , उनमें वह गरिमा और दूसरों को प्रभावित करने का गुण होना चाहिए न कि किसी को अपमानित करने का . फिर हम किसी के व्यक्तिगत मामलों में सार्वजनिक टिप्पणी करें तो ये हमारी समझदारी नहीं है. लेकिन मैं खुद बहुत अधिक दिन वहाँ नहीं रह पायी और मैंने उनका स्कूल छोड़ दिया.
वक्त ने अपना दूसरा रूप दिखाया और वह परेशान महिला आज एक सफल व्यवसायी बन चुकी हैं और उनके जीवन का रूप ही बदल गया है लेकिन आज भी वह उतनी ही विनम्र है. पैसे से इंसान अपना स्तर तो बड़ा सकता है लेकिन उसका मानसिक स्तर और सोच सिर्फ और सिर्फ उसके संस्कारों से ही बनती है.
मैं अपना एम एड पूरा करके निवृत हुई थी कि मेरे पति के मित्र , जिनका कि एक स्कूल चल रहा था , इनसे बोले कि रेखा तो फ्री ही है क्यों न मेरे स्कूल में प्रिंसिपल कि जगह पर आ जाये. मुझे प्रिंसिपल की जरूरत है. वह दोनों लोग किसी महाविद्यालय में प्रवक्ता थे सो उन्हें कोई परिचित व्यक्ति ही चाहिए था जो कि स्कूल देख सके. उनमें पतिदेव तो काफी सज्जन पुरुष थे लेकिन पत्नी किसी पहुँच के कारण महाविद्यालय तक पहुँच गयी थी सो उनमें अपने पद और धन दोनों का भी बहुत घमंड था.
मेरी एक परिचित अचानक आर्थिक परेशानी में फँस गयीं - पति की नौकरी छूट गयी , वह तो गृहिणी ही थी लेकिन उच्च शिक्षित थी. उनको मदद की जरूरत थी सो मैंने उन्हें प्राइमरी टीचर की तरह से नियुक्त कर लिया. यद्यपि वो उस काम से लिहाज से काफी अधिक शिक्षित थी लेकिन मेरे पास और कोई विकल्प उस समय नहीं था. वे सीधी सादी महिला थीं सबसे बड़ी बात कि उनके पास सीमित साड़ियाँ थी. वे उन्हीं को बदल बदल कर पहन कर आती थी. मेरी दृष्टि में ऐसी कोई बात नहीं थी और न ही मैंने इसको ध्यान दिया क्योंकि मुझे ये अपराध बोध होता था कि इनकी विद्वता का उपयोग नहीं हो पा रहा है.
एक दिन श्रीमती मैनेजर साहिबा ने स्टाफ रूम में सभी के सामने उनसे कहा - 'देखो तुम्हारी यह साड़ियाँ अब अच्छी नहीं लगती हैं - तुम इनको अब गद्दे या रजाई पर चढ़ा दो. तुम्हें ऊब नहीं होती वही साड़ियाँ पहनते हुए.'
(उनके ये शब्द मुझे आज भी जस के टस याद हैं.)
हो सकता है कि उन्होंने वह बात मजाक के लहजे में कही हो या फिर अपने दंभ में. वह महिला इस बात को सहन नहीं कर सकी और वह सभी के सामने अपमानित महसूस करके रो पड़ी. श्रीमती मैनेजर एकदम सकपका गयी और तुरंत बोली - मेरा यह मतलब था कि एक ही साड़ी पहन कर हम ऊब जाते हैं तो उठाकर रख देते हैं और फिर कुछ महीनों के बाद निकल लेते हैं. तो तबियत उबती नहीं हैं.
उनको ये पता था कि वह महिला किस समस्या का सामना कर रही है? फिर अगर हम ये महसूस न कर सके कि कोई किस तरह से अपनी जिन्दगी अपनी समस्याओं के साथ गुजर रहा है. वह एक प्राध्यापिका है , उनमें वह गरिमा और दूसरों को प्रभावित करने का गुण होना चाहिए न कि किसी को अपमानित करने का . फिर हम किसी के व्यक्तिगत मामलों में सार्वजनिक टिप्पणी करें तो ये हमारी समझदारी नहीं है. लेकिन मैं खुद बहुत अधिक दिन वहाँ नहीं रह पायी और मैंने उनका स्कूल छोड़ दिया.
वक्त ने अपना दूसरा रूप दिखाया और वह परेशान महिला आज एक सफल व्यवसायी बन चुकी हैं और उनके जीवन का रूप ही बदल गया है लेकिन आज भी वह उतनी ही विनम्र है. पैसे से इंसान अपना स्तर तो बड़ा सकता है लेकिन उसका मानसिक स्तर और सोच सिर्फ और सिर्फ उसके संस्कारों से ही बनती है.
बुधवार, 9 जून 2010
ये दर्द न होगा कम !
सदियों से बेटियों को हाशिये में रखने वालों के लिए - वे देखे कि एक बेटी की कमी कितनी दर्द देने वाली होती है. खोजते तो हम बेटी को बहू में भी हैं लेकिन क्या बहू बेटी बन पाती है? या सास माँ सी हो तो उसे वो अहसास दिला पाती है जो उसे अपनी बेटी से मिलता.
मैं अपने एक मित्र परिवार में मिलने के लिए गयी थी. हम तब से मित्र है जब मेरी शादी हुई थी. पतिदेव की मित्रता ने हमें भी मित्र बना दिया और फिर कुछ शौक और स्वभाव समान रहा तो कुछ ज्यादा ही निकट आ गए. वो मंजू उसके आज दो बेटे और दोनों डॉक्टर हैं, बहुएं भी डॉक्टर हैं. आज से ३५ वर्ष पूर्व एक मध्यमवर्गीय परिवार के संघर्ष कि गाथा एक जैसी ही थी. उसने भी अपनी सीमित आमदनी में सब कुछ किया. बच्चों की पढ़ाई , सास ससुर की देखभाल और अंत में अपनी माँ की १२ साल तक बीमारी में अपने पास रखा कर सेवा.
बहुत दिन बाद में उससे मिली थी. अब पतिदेव भी उसके रिटायर हो चुके हैं , दोनों बेटे बाहर नौकरी कर रहे हैं और छोटी बहू भी. सिर्फ बड़ी बहू यहाँ पर है. उसकी बच्ची के साथ समय काट लेती है. सारे सुख हैं लेकिन मानसिक शांति नहीं. वह भी बहुत संवेदन शील है. लिखने का शौक है पर लिख नहीं पाई कभी . इस मुलाकात पर तो जैसे बस भरी बैठी थी कि विस्फोट हो गया. पतिदेव उनके अंतर्मुखी प्रवृत्ति के हैं सो उनसे भी कुछ बाँट नहीं पाती.
मुझसे बोली - रेखा मैंने सोचा था कि मेरी बेटी नहीं है तो बहू आ जाएगी तो मेरी बेटी के तरह से मेरे साथ व्यवहार करेगी मुझे एक साथी मिल जाएगा. इनसे तो कुछ कभी बाँट ही नहीं पायी, सारी जिन्दगी अपने गुबारों को अपने मन में ही लिए रही. सबसे बांटने कि अपनी आदत नहीं है. उससे सब कुछ बाँटूँगी. पर मेरा ये सपना चूर चूर हो गया. जब मैं कभी उससे अपने जीवन के संघर्ष की बात करती हूँ तो कहती है कि आप तो अपने मुँह मियां मिट्ठू बनती हो. ऐसा कहीं होता भी है.
सबसे बड़ा कष्ट तो तब होता है जब कि बेटे के आने पर बहुत परवाह करने का नाटक करने लगती है. जब से एंजियोप्लास्टी हुई है मुझसे बर्दास्त नहीं होता. बहुत गुस्सा आता है ऐसी बातों पर. मैं क्या करूँ? मैं कल भी अकेली थी और आज भी अकेली हूँ.
मैंने उसके दर्द को समझा उसके भरे गले से बयान किये गए दर्द को मैंने महसूस किया. कितनी अनमोल चीज होती है बेटी भी. दर्द तो बाँट लेती है. मंजू ये भूल गयी थी कि बहू बेटी तो किसी और की है. उसकी कैसे हो सकती है? लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिए. क्या बहू सिर्फ और सिर्फ अपनापन भी नहीं दे सकती है. अरे डॉक्टर को तो दया और सहानुभूति का पाठ पढ़ाया जाता है. बाहर न सही घर में तो इसको अपना ही सकते हैं.
मैंने मंजू को सलाह दी कि तुम कंप्यूटर लो और बाकी चीजें मैं तुमको सिखाती हूँ. अपना ब्लॉग बना और उसको बना अपना साथी, ये अकेलापन और घुटन सब ख़त्म हो जायेगी. तुम्हारा अपना एक संसार होगा जिसमें इतने सारे लोग होंगे कि कभी लगेगा ही नहीं कि तुम अकेली हो. वह इसके लिए राजी हो गयी और हो सकता है कि एक और ब्लॉगर हमारे सामने हो.
रविवार, 6 जून 2010
एक और बागवाँ !
जब बागवाँ फ़िल्म आई तो बहुत पसंद की गयी थी. एक आयु वर्ग ने इसको सराहा और एक ने इसकी आलोचना की. ये तो बात साफ है की किसने सराहा और किससे आलोचित हुई. ऐसे एक बागवां की पुनरावृत्ति फिर सामने आ गयी.
वो मेरे दूर के रिश्ते में हैं, कभी कभी उनसे मुलाकात भी हुई. भले लोग लगे थे. कल खबर आई कि उनकी माँ का निधन हो गया? ये बात तो मुझे पहले से ही पता थी कि वे अपनी बेटी के यहाँ रह रही थीं. माँ के लिए बेटे और बेटी दोनों ही बराबर होते हैं, दोनों को वह अपने गर्भ में धारण करके जन्म देती है और वही कष्ट उठाती है. फिर माँ के प्यार को बांटने की बात कैसे सोच लेते हैं लोग. सिर्फ इसलिए की बेटी को उस घर से विदा कर दिया तो उसकी माँ माँ नहीं रही. वो अपनी बेटी को याद नहीं कर सकती है और न ही उसके प्रति अपना प्यार ही प्रकट कर सकती है. ऐसा ही कुछ था. एक बेटा और एक बेटी ही थी.
अपने समाज की परंपरा के अनुसार वे भी अपने बेटे के साथ ही रहती थी, किन्तु जो दूर होता है उससे स्नेह अधिक होता है या फिर याद आती है. जो आँखों के सामने होता है उसको तो स्नेह मिलता ही रहता है. किन्तु शायद विवाह के बाद ये परिभाषा बदल जाती है. बेटा चाहे कम लेकिन बहू को अपनी ननद के प्रति सास का प्रेम अच्छा नहीं लगता. हर जगह ऐसा ही हो ऐसा नहीं है. तभी हर घर में बागवान जैसी कहानी नहीं होती. एक बार जब वे बहुत बीमार हुई तो उन्होंने बेटी को बुलाने की बात कही, उसको सुन कर अनसुना कर दिया. कई दिन बार बार कहने पर भी जब उन्हें बेटी को बुलाने की बात समझ नहीं आई. उनकी हालत बिगड़ रही थी. बहू ने क्या सोचा नहीं जानती ? उनके नाम बहुत सी जायदाद थी. आखिर उनके कोई रिश्ते डर उनसे मिलने आये तो उन्होंने उनसे कहा की मेरी बेटी को बुला दो. उनका यह कहना ही तो उनके लिए देश निकाले का फरमान बन गया.
"बेटी बेटी की रट लगाये रहती हो, जब बेटी इतनी प्यारी है तो उसके साथ ही जाकर क्यों नहीं रहती?"
एक तो बीमार और फिर लाचार माँ को इन शब्दों ने कितना आहत किया होगा ये तो वही बता सकती है लेकिन बेटी आई तो उन्होंने उसके साथ चलने की बात कही. थोड़ी सी शर्म और समाज के डर से कहा गया कि यहाँ कौन सा कष्ट है जो वहाँ जाना चाहती हो. पर मन ही मन वे सब चाह रहे थे कि ये चली जाएँ. पता नहीं कितने दिन बीमार रहेंगी?
वे अपनी बेटी के साथ चली आई और आने के बाद उन्होंने अपनी बेटी से वचन लिया की अब वह उन्हें कभी उन लोगों के पास नहीं भेजेगी. बेटी ने और उसके पति व बच्चों ने उनको वचन दिया और पूरी पूरी मानसिक सुरक्षा का अहसास भी दिलाया.
वे दो साल वहाँ रहीं और स्वस्थ रहीं, फिर अचानक चल बसी. बहन ने भाई को खबर भेजी और वह सपरिवार वहाँ आया भी , पर मरते समय उन्होंने अपनी वसीयत खोलने के लिए कहा था. उनकी वसीयत वकील के पास ही थी और वह खोली गयी तो उन्होंने लिख था - 'मेरी पूरी संपत्ति मेरे बेटे को ही मिलेगी क्योंकि मेरी बेटी को उसकी कोई भी जरूरत नहीं है. बस मेरे मरने के बाद ये मेरी देह मेरी बेटी को मिलेगी, जिसका क्रिया कर्म करने का अधिकार मैं अपने बेटी के बेटे को देती हूँ. मेरी अर्थी में कंधा लगाने के लिए भी मेरे बेटे या उसको बेटों को इस्तेमाल न किया जाय. यही मेरी आखिरी इच्छा होगी.'
और उनकी बेटी और उसके बेटों ने उनकी इस इच्छा का पूरा सम्मान किया , उनके बेटे या पोतों को कंधा लगाने का भी हक नहीं दिया. सब साथ गए और उनका अंतिम संस्कार भी उनके दौहित्र ने ही किया.
जहाँ बेटा रहता था वहाँ सब लोग इन्तजार कर रहे थे की बेटा माँ की शव को लेकर पैतृक घर लाएगा और वही पर उनका अंतिम संस्कार होगा किन्तु वह तो खाली हाथ लौट आया. माँ ने उसको माफ नहीं किया था और ये बोझ वह सारी जिन्दगी ढोता रहे या न रहे लेकिन ये माँ के दिल के दर्द को शायद ही समझ पाए. इतना कठोर निर्णय कोई माँ कब लेती है? इसको वही जान सकती है लेकिन बेटे के लिए ये समाज में और सबके सामने अपने कर्त्तव्य च्युत होने का ये दंड हमेशा याद रहेगा.
वो मेरे दूर के रिश्ते में हैं, कभी कभी उनसे मुलाकात भी हुई. भले लोग लगे थे. कल खबर आई कि उनकी माँ का निधन हो गया? ये बात तो मुझे पहले से ही पता थी कि वे अपनी बेटी के यहाँ रह रही थीं. माँ के लिए बेटे और बेटी दोनों ही बराबर होते हैं, दोनों को वह अपने गर्भ में धारण करके जन्म देती है और वही कष्ट उठाती है. फिर माँ के प्यार को बांटने की बात कैसे सोच लेते हैं लोग. सिर्फ इसलिए की बेटी को उस घर से विदा कर दिया तो उसकी माँ माँ नहीं रही. वो अपनी बेटी को याद नहीं कर सकती है और न ही उसके प्रति अपना प्यार ही प्रकट कर सकती है. ऐसा ही कुछ था. एक बेटा और एक बेटी ही थी.
अपने समाज की परंपरा के अनुसार वे भी अपने बेटे के साथ ही रहती थी, किन्तु जो दूर होता है उससे स्नेह अधिक होता है या फिर याद आती है. जो आँखों के सामने होता है उसको तो स्नेह मिलता ही रहता है. किन्तु शायद विवाह के बाद ये परिभाषा बदल जाती है. बेटा चाहे कम लेकिन बहू को अपनी ननद के प्रति सास का प्रेम अच्छा नहीं लगता. हर जगह ऐसा ही हो ऐसा नहीं है. तभी हर घर में बागवान जैसी कहानी नहीं होती. एक बार जब वे बहुत बीमार हुई तो उन्होंने बेटी को बुलाने की बात कही, उसको सुन कर अनसुना कर दिया. कई दिन बार बार कहने पर भी जब उन्हें बेटी को बुलाने की बात समझ नहीं आई. उनकी हालत बिगड़ रही थी. बहू ने क्या सोचा नहीं जानती ? उनके नाम बहुत सी जायदाद थी. आखिर उनके कोई रिश्ते डर उनसे मिलने आये तो उन्होंने उनसे कहा की मेरी बेटी को बुला दो. उनका यह कहना ही तो उनके लिए देश निकाले का फरमान बन गया.
"बेटी बेटी की रट लगाये रहती हो, जब बेटी इतनी प्यारी है तो उसके साथ ही जाकर क्यों नहीं रहती?"
एक तो बीमार और फिर लाचार माँ को इन शब्दों ने कितना आहत किया होगा ये तो वही बता सकती है लेकिन बेटी आई तो उन्होंने उसके साथ चलने की बात कही. थोड़ी सी शर्म और समाज के डर से कहा गया कि यहाँ कौन सा कष्ट है जो वहाँ जाना चाहती हो. पर मन ही मन वे सब चाह रहे थे कि ये चली जाएँ. पता नहीं कितने दिन बीमार रहेंगी?
वे अपनी बेटी के साथ चली आई और आने के बाद उन्होंने अपनी बेटी से वचन लिया की अब वह उन्हें कभी उन लोगों के पास नहीं भेजेगी. बेटी ने और उसके पति व बच्चों ने उनको वचन दिया और पूरी पूरी मानसिक सुरक्षा का अहसास भी दिलाया.
वे दो साल वहाँ रहीं और स्वस्थ रहीं, फिर अचानक चल बसी. बहन ने भाई को खबर भेजी और वह सपरिवार वहाँ आया भी , पर मरते समय उन्होंने अपनी वसीयत खोलने के लिए कहा था. उनकी वसीयत वकील के पास ही थी और वह खोली गयी तो उन्होंने लिख था - 'मेरी पूरी संपत्ति मेरे बेटे को ही मिलेगी क्योंकि मेरी बेटी को उसकी कोई भी जरूरत नहीं है. बस मेरे मरने के बाद ये मेरी देह मेरी बेटी को मिलेगी, जिसका क्रिया कर्म करने का अधिकार मैं अपने बेटी के बेटे को देती हूँ. मेरी अर्थी में कंधा लगाने के लिए भी मेरे बेटे या उसको बेटों को इस्तेमाल न किया जाय. यही मेरी आखिरी इच्छा होगी.'
और उनकी बेटी और उसके बेटों ने उनकी इस इच्छा का पूरा सम्मान किया , उनके बेटे या पोतों को कंधा लगाने का भी हक नहीं दिया. सब साथ गए और उनका अंतिम संस्कार भी उनके दौहित्र ने ही किया.
जहाँ बेटा रहता था वहाँ सब लोग इन्तजार कर रहे थे की बेटा माँ की शव को लेकर पैतृक घर लाएगा और वही पर उनका अंतिम संस्कार होगा किन्तु वह तो खाली हाथ लौट आया. माँ ने उसको माफ नहीं किया था और ये बोझ वह सारी जिन्दगी ढोता रहे या न रहे लेकिन ये माँ के दिल के दर्द को शायद ही समझ पाए. इतना कठोर निर्णय कोई माँ कब लेती है? इसको वही जान सकती है लेकिन बेटे के लिए ये समाज में और सबके सामने अपने कर्त्तव्य च्युत होने का ये दंड हमेशा याद रहेगा.
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