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सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

खून के रिश्ते !

बहुत दिनों से व्यस्त थी, पहले एक बेटी (जेठ जी की बेटी) की शादी ११ फरवरी को सम्पन्न हुई और फिर सम्पन्न हुए मेरी बेटी प्रज्ञा की सहेली और मेरी मानस पुत्री कल्पना की। पहली शादी में पूरा परिवार साथ था और काफी लोगों ने शिरकत की भी लेकिन दूसरी बेटी की शादी में तो जन्मदात्री माँ के बिना दूसरे स्वभाव से बागी पिता और उनसे रुष्ट रिश्तेदार और घर वालों के सहयोग और असहयोग ने कुछ जिम्मेदारियों को बढ़ा दिया था लेकिन मैं तो उस माँ से वचनबद्ध थी जिसे मैंने उसके अंतिम समय वचन दिया था।
कल
उसकी विदाई के बाद जब घर आई तो फिर तुरंत ही प्रज्ञा की विदाई करनी थी और रात में सोनू की। सब करके जब रात में सोने चली तो नींद नहीं आई क्योंकि कल्पना का रिसेप्शन था और उसमें हमारे लिए कोई जगह नहीं थी। मुझे बुरा नहीं लगा लेकिन फिर सोचा कि अगर ये अगर खून के रिश्ते होते तो जरूर निमंत्रण मिलता। असहयोगी पिता और गैर जिम्मेदार भाई और भाभी की जगह थी और वे गये और उससे भी बड़ी बात कि वे मेरा दिया हुआ उपहार ही लेकर उसके घर पहुचे मेरे पति बोले कि 'अब भूल जाओ कल्पना को, तुम्हारा काम पूरा हुआ।'
मैं
इसे सोचती रही लेकिन कैसे भूल जाऊं? वो बच्ची जिसे मैंने पिछले दस साल से अपना अंश मना है , वह दिल्ली से कानपुर आई तो उनके पिता को ये चिंता नहीं होती कि वो स्टेशन से घर कैसे आएगी? अगर रात या सुबह की ट्रेन से जाना है तो कैसे जायेगी? ये चिंता हम करते थे और उसको घर हम लाते थे हाँ इतना जरूर कि घर आने के पहले से उसके पिता के फ़ोन आने शुरू हो जाते कि उसको घर पहुंचा दो या फिर घर कब रहीहै?
इसे
मैंने उसी तरह से पूरा किया जैसे अपनी बेटी के लिए करते थे क्योंकि दोनों साथ ही आती और जाती थीं लेकिन जब वह अकेले भी आई तब भी ये काम हम करते रहे क्योंकि वो मेरी बेटी हें।
सगाई
हुई और फिर शादी भी हो गयी लेकिन हम अपना परिचय उसके भावी परिवार को क्या दें? क्योंकि उनकी नजर में मित्रता सिर्फ मित्रता होती है उसके परिवार से इतनी प्रगाढ़ता उनके समझ नहीं आती। ऐसा नहीं है कि वो परिवार पढ़ा लिखा हो लेकिन वो ठाकुर परिवार से हें और उनकी सोच खून से अधिक कुछ सोच ही नहीं सकते हें। पिछले एक हफ्ते से सारे दिन और रात उसके सारे काम पूरे करवाने में बीत गए कैसे घर में व्यवस्था होगी और कैसे उसकी रस्मों के लिए तैयारी करनी होगी? सब कुछ कर लिया और विवाह के सम्पन्न होते ही सब कुछ जैसे सपना सा हो चुका है।
मैं
उसके सामने नहीं रोई लेकिन अब सोचती हूँ कि ये आंसूं क्यों बह रहे हें? शायद एक अंश के छूट जाने का दर्द है लेकिन इंसान इन रिश्तों के लिए सार्थक क्यों नहीं सोच सकता है? क्या इस रिश्ते में भी किसी को कोई स्वार्थ दिख सकता है। नहीं जानती लेकिन ये जरूर लग रहा है कि अब तक तो ये ही सोचा था कि खून के रिश्ते कभी कभी रिश्तों को झुठला देते हें लेकिन ये आत्मा और स्नेह के रिश्ते तो सबसे गहरे होते हें। इनके लिए कोई कैसे ऐसा सोच सकता है?
अब
मेरे इस रिश्ते का भविष्य कल ही पता चलेगा , जब वो इसके लिए सबको तैयार करेगी कि ये रिश्ता कितना अहम् है? नहीं भी स्वीकारा तो भी वो मेरी बेटी तो रहेगी ही। लेकिन ये खालीपण और उदासी कब मेरा साथ छोड़ेगी ये नहीं जानती। इतना कष्ट जो मैंने प्रज्ञा के विवाह के बाद भी नहीं सहा। आज से महीने पहले लिखा "ख़ुशी मिली इतनी ...." और आज ये लिख रही हूँ। सब कुछ बांटती रही तो ये भी बाँट लिया। मन हल्का हो गया

बुधवार, 25 जनवरी 2012

३२ वर्ष का जीवन !







२६ जनवरी १९८० वह दिन था जिस दिन हम नई जिन्दगी शुरू करने के लिए वचनबद्ध हुए थे एक लम्बा अरसा गुजर गया और लगता नहीं कि ये वर्ष कहाँ गुजर गए ? संयुक्त परिवार की जिम्मेदारियों को पूरा करते करते और अपने बच्चों के बड़ा करने और पढ़ाने लिखने में ही सारा समय गुजर गया
आज हम जिस स्थिति में हें तो पुराने किसी किस्से को याद करके हँस लेते हेंबात २६ जनवरी १९८१ की है हमारी पहली विवाह की वर्षगांठ थी और इत्तेफाक से दिन भी ऐसा कि चाहे कहीं भी रहें इस दिन तो छुट्टी होनी है और हम कहीं भी जाने और आने के लिए स्वतन्त्रबड़े अरमानों से मैं तैयार हुई कि आज हम पिक्चर देखने जाते हें और वहीं से खाना खाकर लौटेंगेपरिवार हमारा बहुत आधुनिक था लेकिन मेरे पति उस समय मेडिकल रिप्रजेंतेतिवे थे और उनका मिलने जुलने वालों का स्तर अलग था और वे सब में शरीक होते थे इसलिए पार्टी देना भी जरूरी थालेकिन ये बात किसी को नहीं बताई थी घर में
मैं तो तैयार हो गयी और उस समय घर से बाहर जाने पर ससुर जी की अनुमति लेनी पड़ती थीमेरे तो पूछने का कोई सवाल ही नहीं उठता था सो पतिदेव गए पूछने के लिएउन्होंने सपाट शब्दों में मना कर दिया नहीं कहीं नहीं जाना है घर में रहोये घर में नई आई हैं कि घूमने जायेंगीमैंने साड़ी उतार दी और लेट कर खूब रोई, लेकिन तब ये था कि अगर पिताजी ने मना कर दिया है तो उनके लड़के उसके विरुद्ध कुछ कर सकेंबस दोनों चुपचाप घर में बैठ गएअपने दोस्तों को इन्होने फ़ोन करके बता दिया की पार्टी रेखा की तबियत ठीक नहीं है इसलिए शाम को रख लेते हेंऔर फिर इस बात के लिए उन्होंने ही भूमिका बनायीं और झूठ बोला कि रेखा के पेट में दर्द है इसे डॉक्टर को दिखाने के लिए ले जाना है. मेरा दिन में गुस्से के मारे खाना खाने का मन नहीं हुआ और मैंने खाना खाया भी नहीं तो ससुर जी को विश्वास हो गया कि जरूर तबियत ख़राब है और उन्होंने अनुमति दे दीहम दिन के बजाय शाम को निकले और रात तक लौटे
ससुर जी को लगा की इसको तो डॉक्टर को दिखाने में समय लगता नहीं है फिर इतनी देरगेट खोलते ही पूछा इतनी देर कहाँ लगा दी?
"वो डॉक्टर बहादुर को दिखाया था तो वो बोले बहू पहली बार आई है बगैर खाना खाए नहीं जाओ।" बताती चलूँ कि ये डॉक्टर बहादुर मेरे ससुर के सेवाकाल में अस्पताल में डॉक्टर थे और उनसे अच्छे सम्बन्ध थेबस बात बन गयी अब सोचती हूँ की एक दिन को अपने ढंग से जीने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़े थे

शनिवार, 7 जनवरी 2012

गरीबी खुद एक इल्जाम है!

गरीबी खुद एक इल्जाम है क्योंकि उसको ईश्वर ने बनाया ही इसलिए है कि जो गरीब है भले ही ईमानदार हो उसको चोर , बेईमान और गिरा हुआ कहने का सबको अधिकार प्राप्त होता है और बेकुसूर को दो चार हाथ लगाकर अपने हाथ साफ करने का मौका भी सबको ऊपरवाला दे ही देता है।


पिछले दिनों की बात है एक भव्य शादी समारोह था, करीब हजार लोग तो उसमें शामिल हुए ही होंगे। उसमें एक गरीब बच्चा घुस कर खाना खाने लगा। अभी ठीक से खा भी नहीं पाया था कि किसी की उसपर नजर पड़ गयी और फिर क्या था? उस बच्चे को रस्सी से बांध कर जीप के पीछे बाँध कर मैदान में घसीटा गया और जब वह बच्चा लहूलुहान हो गया तो कुछ समझदार कहे जाने वाले लोगों ने उसको छुड़ाया और अस्पताल पहुँचाया। पेट की भूख ही तो थी जिसने उसको उस स्थान पर जाने के लिए मजबूर किया । क्या उन घसीटने वालों ने उन प्लेटों को देखा जो पूरी पूरी भरी हुई डस्टबिन में डाल दी गयीं थी। उन में जितना खाना बर्बाद हुआ था उसमें उस जैसे कई सौ बच्चे खाना खा सकते थे लेकिन नहीं उस बच्चे को अपने अपराध की इतनी बड़ी सजा मिल गयी कि शायद वह इस जन्म में तो ऐसा कोई काम करेगा नहीं।


बड़े घरों की बात कहें उन्हें चाहिए होती हें गरीब लड़कियाँ जो २४ घंटे उनके घर में काम करें और अगर उन घरों के लड़के अपने शौक को पूरा करने के लिए अलमारी से रुपये उड़ा कर ले जाता है तो इल्जाम इन नौकरानियों पर ही आता है क्योंकि वे गरीब जो ठहरी। बड़े घर के बच्चे तो अपराध कर ही नहीं सकते हें । जब आज अच्छे घरों के लड़के ही बाइक पर घूमते हुए अपराधों के जनक बन रहे हें। उनके लिए ये शगल है क्योंकि बाइक भागना कोई कठिन काम नहीं और फिर एक दो आवारा दोस्तों को साथ लेकर ऐश करने के लिए कुछ तो मिल ही जाता है।


एक उद्योगपति घराने की बात करती हूँ वहाँ पर मेहमानों के लिए चाँदी के बर्तन खाने के लिए प्रयोग किये जाते हें और ऐसे ही एक दिन उसमें से एक गिलास गायब हो गया। चोर को पकड़ना बहुत ही मुश्किल होता है और कुछ तो परम विश्वास पात्र होते हें। घर में काम करने वाले नौकरों की पूरी फौज के वेतन से पैसे काट लिए गए। शायद उस गिलास की कीमत से ज्यादा। वह घराना अपने बेटे के स्वास्थ्य की समय के लिए प्रतिदिन हजारों रुपये खर्च कर रहा था। वे गरीब जिनके वेतन से रुपये कटने के बाद इतना भी नहीं मिला कि वे अपने बच्चों के लिए महीने भर का खाना भी जुटा सकें। लेकिन ये तो उनके भाग्य की विडम्बना ही कही जायेगी न कि वे गरीब हें। और गरीबी खुद में एक इल्जाम है।


शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

जो बीत गया !

पूरा वर्ष बीत गया, हर साल की तरह से नहीं बीता क्योंकि बहुत लम्बे समय बाद कुछ बहुत अपने को खोया। अपने पिताश्री और ससुर जी के १९९१ में निधन के बाद सब कुछ अच्छा ही गुजरा था। ये वर्ष मेरी सासु माँ को ले गया, मेरे अति आत्मीय जनों में असमय मेरे भांजे और बहनोई को ले गया। काल की गति फिर भी ऐसे ही चल रही है। उनकी जगह भरी नहीं जा सकती है लेकिन वक्त उस घाव पर मरहम तो लगा ही देता है और ईश्वर शक्ति देता है उस सब को सहने के लिए।
अगर वह दुःख देता है तो सुख और ख़ुशी के पल भी देता है। इस वर्ष में मेरी बेटी की शादी हुई और दो और बेटियों की सगाई हुई (शादी नए वर्ष में सम्पन्न होगी।) छोटी बेटी सोनू अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने जॉब में लग गयी। सारे काम सकुशल और हंसी ख़ुशी से सम्पन्न हो जाएँ इससे अच्छा और क्या हो सकता है?
मेरे अच्छे और बुरे दोनों ही वक़्त में मेरे सभी आत्मीय जनों ने मुझे पूरा साहस और धैर्य दिया जिससे कि मैं सब कुछ सह कर भी सामान्य होने की स्थिति में आती जा रही हूँ।
इस बीते वर्ष से शिकायत क्या करूँ? काल का चक्र कभी रुकता तो है नहीं और ये हमारा प्रारब्ध है कि उसमें हमें क्या मिला?
न तो शिकायत जीवन में कुछ भी न मिलने की है
और न शिकवा इतना कुछ सिर पर से गुजरने की है।
हम फिर भी सोच कर देखो बहुत अच्छे है उन लोगों से ,
jaroorat to ज्यादा खोने वालों का दर्द समझने की है।

अलविदा गुजरे वर्ष को करें, दोष उसका नहीं हमारी तकदीर का है। वह तो वैसे ही आया था जैसे और आते हें नसीब में क्या लिखा - ये तो वो ही जाने।
विदा २०११......................

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

और जिन्दगी हार गयी!

हम तो विधाता के हाथ की कठपुतली है लेकिन कभी इस धरती के भगवान कैसे अपनी जिम्मेदारियों के साथ खिलवाड़ करते हें कि एक घर बिखर जाता है - रह जाते हें रोते कलपते उसके घर वाले और परिजन
ये कहानी आज से सात साल पहले शुरू हो चुकी थी जब टाटा मेमोरिअल के डॉक्टर के हाथों हमने अपने बहनोई शरद चन्द्र खरे को सौप दिया थाउन्होंने अपने देखरेख में रखा सालों तक और फिर सात साल बाद उन्हें पूर्ण रूप से स्वस्थ घोषित कर दिया जब कि वह इंसान अपने शरीर में उनकी गहन निरीक्षण के बाद भी कैंसर पाले बैठा थाडॉक्टर उसको आगे देखने या चेक अप करने के लिए कतई तैयार नहीं थे कि डॉक्टर तुम हो या मैं हूँ? पता नहीं कौन भगवान था? फिर बहुत मिन्नतों के बाद जब एम आर आई करवाई गई तो कैंसर उनके बोन मैरो में पूरी तरह से फैल चुका थाये सात साल तक हर महीने और फिर उनके अनुसार दी गयी तारीख पर चेक करवाने के बाद की लापरवाही थी
फिर मिली १३ जून २०११ को उसके ऑपरेशन की तिथिवहाँ बहुत काबिल डॉक्टर हें और ऑपरेशन में शरीर की मुख्य धमनी उनसे कट गयीखून के बंद होने का नाम नहीं और घबरा कर उन्होंने ऑपरेशन बंद कर दिया कि हम दो दिन बाद ऑपरेशन करेंगेमरीज जिन्दगी और मौत के बीच झूलता हुआ छोड़ दियाहम घर वाले उनके इशारों पर ही तो चल सकते थेदूसरे दिन जब देखा तो पूरे शरीर में फफोले पड़ने लगे थेघबरा कर उन्होंने कहा कि हमें अभी इनके पैर को काटना पड़ेगा नहीं तो हम इन्हें बचा नहीं पायेंगेहमें तो अपने मरीज की जान प्यारी थी और रोते हुए उन्हें वह भी करने की अनुमति दे दीक्योंकि उसके जीवन के रहते हमारे पास और भी विकल्प थेउन्होंने ने पैर काट दिया और उसके बाद २३ को कहा कि अपने मरीज को ले जाइएजिस मरीज का आपने पैर काट दिया और उस हालात में घर वाले कहाँ लेकर जायेंगे? लेकिन उनकी दलील थी कि अदमित करने के समय २३ तक ही बैड देने की अनुमति दी गयी थीउन मूर्खों को कौन समझाये कि आप सिर्फ ऑपरेशन करने जा रहे थे तब ये अनुमति थी , अब इतने बड़े ऑपरेशन के मरीज को क्या सड़क पर लितायेंगेलेकिन नहीं उनका फरमान तो आपको उसी दिन हटाना हैउसी हालात में उनको एक होटल में ले गएजहाँ से अस्पताल दूर था लेकिन मरता क्या करता? किन हालातों को उनको अस्पताल से लेकर आये और उनको रखा गया ये मेरी बहन और साथ रहने वाले ही जानते थेघाव भरने में समय लगता तो उन्होंने पहले ही घर ले जाने की अनुमति भी दे दीजब कि बाहर के विशेषज्ञों के अनुसार इतने बड़े ऑपरेशन के बाद उनको कीमो
थेरेपी देनी चाहिए थी लेकिन ऐसा कुछ खुद दिया और ही ऐसा करवाने की सलाह दी
उनके बाद भी दो बार चेक आप के लिए लेकर गए सब ठीक कह कर वापस कर दियापांच महीने बाद उनको नकली पैर लगवाने की बात हुईउससे पहले अस्पताल में पूरा चेक उप किया कि कोई अन्दर से परेशानी अभी भी हो और पूरी तरह से ठीक होने की बात कह कर पैर लगवाने की बात कही और वे वही पैर लगाने वाली संस्था में रहकर पैर लगवा कर उससे चलने का अभ्यास कर रहे थे लेकिन अचानक उन्हें सांस लेने की तकलीफ हुई उनके पास सिर्फ मेरी बहन ही थीउनको टैक्सी में डाल कर टाटा मेमोरिअल ले जाने लगी तो रास्ते में ही उनकी सांस बंद हो गयी फिर भी वहाँ पहुंची डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दियाउसने कहा कि सब कुछ ठीक था फिर अचानक क्या हुआ? डॉक्टर ने उत्तर दिया कि इन तीन हफ्तों में कैंसर उनके फेफड़ों तक पहुँच गया था अगर कैंसर बाकी था तो तीन हफ्ते पहले किये गए चेक अप में क्या आपने आँखें बंद करके देखा था?
अब सिर्फ सवाल और जवाब ही राह गए हेंउन जैसे जीवट वाला आदमी जिन्दगी हार गया और हम सब को मलाल है कि डॉक्टर ने लापर्वाली की होती तो हम इस गम में आज डूबे होते

शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

सोच ऐसी क्यों हुई?

मेरे पड़ोस में रहने वाले एक ब्राह्मन परिवार का बेटा आयुध निर्माणी में कार्य करता है और एक दिन पता चला कि काम करते वक्त उसके हाथ की एक अंगुली मंशीन में आ जाने के कारण कट गयी। घर खबर आई तो हडकंप मच गया क्योंकि खबर आई थी 'मनीष ' का हाथ मशीन में आ गया और उसका हाथ काट गया। पड़ोसी होने के नाते और उनसे अपने आत्मिक सम्बन्ध होने के नाते हम लोग भी अस्पताल पहुंचे। हम सब लोग काफी दुखी थे। जब अस्पताल पहुंचे तो जो बात सुनी उसे सुनकर हंसी नहीं आई बल्कि तरस आया अपनी इस सोच पर कि सिर्फ जन्म के कारण प्रतिभा और मेधा कैसे कमतर आंकी जाती है और उसका सम्मान करने वाला कोई भी नहीं है।
उस लड़के की शादी अभी हाल में ही हुई थी। हम सब दुखी थे और वह हम लोगों के सामने हंसते हुए बोला - 'अच्छा हुआ अब मैं विकलांग के कोटे में आ जाऊँगा शादी मेरी हो ही चुकी है तो इस कटी उंगली से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है लेकिन अब मुझे प्रमोशन मिलने में आसानी होगी नहीं तो सारी जिन्दगी मशीन पर ही काम करते करते बीत जाती और मैं वहीं के वहीं रह जाता।'
उसके इन शब्दों में जो सरकारी नीतियों के प्रति आक्रोश झलक रहा था वह शर्मिंदा करने वाला है। यहाँ प्रोन्नति पाने के लिए वह विकलांग होने के बाद भी कितना खुश हुआ? आख़िर क्यों? ये सोच क्यों बदल गयी उसकी क्योंकि वह देख रहा है कि आरक्षण के चलते सिर्फ और सिर्फ चंद सर्टिफिकेट ही आधार बन चुके हें चाहे उस पद के लिए प्रोन्नत किया जाने वाला व्यक्ति काबिल हो या नहीं। आज की युवा पीढ़ी में जो कुंठा बसती जा रही है और वे तनाव में रहने लगे हें इसके पीछे कुछ ऐसे ही कारण है। युवा पीढ़ी जो आज अपराध की ओर अग्रसर हो रही है उसके पीछे भी हमारी सरकारी नीतियां ही हें। इसको बदलने या फिर सुधारने के बारे में कोई भी नहीं सोचता है। ऐसा नहीं है कि हमारे राजनेता इस बात को जानते और समझते नहीं है लेकिन वे अपनी सरकार को चलते रहने के लिए और वोट बैंक अपने कब्जे में करने के लिए ऐसा कर रहे हें और सारे तंत्र को आरक्षण की जंजीरों में बाँध कर जन जन के मन में एक घृणा का भाव भर दिया है। जिसे देखा जा सकता है उस बच्चे के शब्दों में .................

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

बेटी हुई पराई !







बेटी पराया धन किस लिए कहा जाता है कि उसको घर में हमेशा नहीं रखा जा सकता है बल्कि एक सुयोग्य वर को उसका हाथ देकर कन्यादान किया तो अपना हक़ उसपर से ख़त्म हो जाता है। ऐसा ही कहा जाता है लेकिन मुझे लगा कि बेटी या बेटा विवाह के बाद उनकी एक अपनी दुनियाँ तो बस ही जाती है लेकिन बेटी के बदले में एक बेटा भी मिल जाता है और बेटे के साथ एक बेटी, जैसे कि मैंने पाया है।



पारम्परिक परिवार होने के नाते एक महाराष्ट्रिय ब्राह्मण परिवार में बेटी को देने की बात पर सभी ने नाक भौं तो सिकोड़ी थी लेकिन मेरे पास विवाह के लिए सजातीय योग्य वर खरीदने लायक पर्याप्त धन न था। या कहो कि बेटी भी दहेज़ देकर वर खरीदने के लिए कतई तैयार न थी। इसलिए सुयोग्य वर जहाँ भी मिला उसको अपना बना लिया। मेरा दामाद पवन कुलकर्णी पुर्तगाल में पर्यावरण भौतिकी में पोस्ट डॉक्टरेट फेलो है और बेटी फिजियोथेरापिस्ट ।

एक सबसे बड़ी बात और अनुभव यह रहा है कि हमारे उत्तर भारत में लड़की का पिता हमेशा बेचारा ही बना रहता है लेकिन महाराष्ट्र से जुड़ने पर लगा कि वहाँ दोनों का सम्मान बराबर है। एक नया अनुभव मिला जो इससे पहले तो नहीं मिला था। कुल मिला कर सब कुछ बहुत अच्छा ही रहा। इसके लिए नागपुर के कुलकर्णी, भांगे और बारहाते परिवार के पूर्ण सहयोग से हम लोग इस विवाह कार्य को सम्पन्न करने में सफल हो सके।

इस अवसर पर अपनी शुभकामनाएं भेजने वाले सभी ब्लोगर साथियों को मेरा हार्दिक धन्यवाद। इस कार्य के कानपुर में सम्पन्न समारोह में महफूज की उपस्थिति ने सब लोगों का प्रतिनिधित्व किया। इसके लिए उसको बहुत बहुत धन्यवाद।