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मंगलवार, 8 मार्च 2011

मुसीबत में साया भी साथ नहीं देता !

कल शाम आते वक्त एक झोपड़ी में आग लगी थीउसकी गृहस्वामिनी चिल्ला रही थी कि कोई मेरेघर को बचा ले लेकिन ईंटों के ऊपर रखे बांस के टट्टर के ऊपर पड़ी पालीथीन से ढके घर को कौन बचा सकताथा? घर के बाहर एक चारपाई पर चिप्स सूख रहे थेपालीथीन गल गल कर नीचे गिर रही थी ऐसे सब कुछ स्वाहाहोना तय ही थाकुछ पल रुकने के लिए मन हुआ लेकिन वहाँ कुछ भी नहीं हो सकता था बस शुक्र इतना था किउसके बच्चे सब बाहर थेफिर उस जले हुए घर के रहने वालों कि मनःस्थिति मैं बखूबी समझ रही थी
घर आते आते दिमाग में जाने कितने वर्षों पहले का घटनाक्रम घूमने लगाअपने बचपन की बात मैंउस समय नवें में पढ़ रही थीहमारा घर काफी ऊंचाई पर थाएक शाम जब पापा घर चुके थे तो दूर से आगकी लपटें दिखाएँ दीं और पापा तुरंत ही उस तरफ भागे जैसे कि उनको कोई अहसास थाजब काफी देर तक पापा आये तो भैया को भेजा गयावहाँ हमारी ही advertising agency थी और हमारी ही दुकान में आग लग गयीथी और बहुत कुछ जल कर रख हो गया थावहाँ पर सब कुछ ऐसा ही होता है कि आग पकड़ लेलोगों ने पानीडाल कर बुझाया भी लेकिन कुछ भी ऐसा था कि दुबारा काम सके
पापा घर गए हम सब एक ही आवाज में बोले - 'अब क्या होगा?' पापा ने हम सब को अपने सेचिपका लिया और बोले - 'कुछ नहीं, फिर सब ठीक हो जायेगा।' उनका ये विश्वास हमें भी संबल दे गयासब कुछतो ख़त्म हो चुका थाकितने काम पूरे रखे थे, कितने अभी अधूरे थे और कितना सारा सामान
होली आने ही वाली थीसंयुक्त परिवार में सभी त्यौहार एक साथ ही मनाये जाते थेदोनों चाचानौकरी बाहर करते थे लेकिन पर्वों पर सपरिवार यही आते और त्यौहार मनाया जाताढेरों पकवान बनाये जातेऔर के हफ्ते बाद जब सब जाते तो सबको बाँध कर दिए जातेहमने सोचा कि हर बार तो पापा ही सब करते हैंइस बार चाचा लोग कर लेंगे लेकिन ये क्या? होली के दिन पहले एक चाचा आये और बोले हम तो नहीं पायेंगेकोई परेशानी हो तो ये पैसे रख लीजिये उन्होंने १०० रुपये माँ को दिएदूसरे चाचा ने आने की जरूरत ही नहींसमझीहाँ दादी के लिए खबर भेज दी कि आना चाहें तो होली में यहाँ जाएँ
दादी न्याय प्रिय थी - 'तुम लोगों ने क्या समझा? सिर्फ यहाँ आराम और ऐश करने की जगह है कि चले आये त्यौहार मनाने करने वाले तो कर ही रहे हैंजब घर में आग लगी होती है तो माँ अपने बच्चों को बचा हीलेती है चाहे वो खुद क्यों जल जाए।'
वह होली दादी ने पूरा खर्च करके मनाई और वैसे ही जैसे कि मनाते थेउस समय बहुत छोटी थीलेकिन संवेदनशील तो तब भी थीतभी जाना था कि मुसीबत में साया भी साथ छोड़ देता हैअगले साल फिर सबआये लेकिन एक दरार जो पड़ गयी वो दिल से ख़त्म हुई

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

बेहतरीन अदाकारी !

                   उस दिन एक मेल मिली कि प्रो. साहब की माँ का निधन हो गया. जो उनसे परिचित थे सब ने कहा - 'बहुत अच्छा हुआ , अब प्रो. साहब को अपने जीवन में चैन मिलेगा.'  वैसे तो बेटे और बहुओं का माँ बाप के प्रति दुर्व्यवहार अब समाज में स्वीकार्य हो चुका है. कोई बात नहीं ऐसा अब हर दूसरे घर में होता है. पहले कहा जाता था कि पैसा बुढ़ापे का सहारा होता है , न होने पर बहू बेटे दुर्व्यवहार करते हैं लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं है. पैसे से इंसान सब कुछ नहीं कर सकता है. सुख और शांति पैसे नहीं खरीद सकते हैं. 
                             ६ कमरों के बड़े मकान में प्रो. साहब , उनकी पत्नी और माताजी रहती थी. पता नहीं क्या बात थी? उनकी पत्नी को माताजी की शक्ल देखना तक गवारा नहीं था. माताजी का सारा काम वे खुद करते थे. जब क्लास के लिए जाते तो एक नर्स की भी व्यवस्था कर रखी थी. अपने घर पर होने पर वे ही सब करते . माँ को खाना खिलाने से लेकर उनको व्हील चेयर पर लेकर बाहर बिठाना और अन्दर करना वे खुद ही करते थे. इस उम्र में कई बार उनको अस्पताल में भर्ती भी करना पड़ा तो प्रो. साहब के छात्र उनका पूरा पूरा साथ देते रहे. पर पत्नी से इस बारे में उन्हें कभी कोई सहयोग नहीं मिला. उन्होंने कभी किसी से कोई शिकायत भी नहीं की. 
                              उनके पड़ोसी उनके प्रति पत्नी के व्यवहार के साक्षी थे और माताजी के प्रति भी. पड़ोसी इस बात के गवाह थे कि जो समर्पण, सेवा और श्रद्धा प्रो. साहब में थी ठीक इसके विपरीत उनकी श्रीमती जी थी.
                              उनके निधन के बाद विभाग के लोग और उनकी पत्नियाँ प्रो. साहब के घर गयीं तो मिसेज प्रो. सफेद साड़ी में बैठी थीं. माताजी की तस्वीर पर फूल मालाएं चढ़ी हुई थी. उनके घर में उनकी देवरानी और जेठानी भी आई हुईं थी. आने वाले में कैम्पस के तमाम लोग , उनके अगल बगल के पड़ोसी जो गवाह थे सब लोग मौजूद थे. और वे अपनी लम्बी चौड़ी बातें सुना रहीं थी. 
-सारे दिन मुझे ही बुलाया करती थीं.
- उन्हें मुझसे बहुत प्यार था,  लाडली बहू जो थी , उन्होंने मुझे हमेशा बेटी समझा -और मैंने माँ. 
--माताजी सारे दिन मेरे बिना रहती ही नहीं थी.
--सभी भाइयों में उन्हें प्रो. साहब से बहुत प्यार था.
--खाली घर अब खाने को दौड़ता है.
--घर में बुजुर्गों से रौनक रहती है. आदि आदि ....
                  सब लोगों के बीच उनकी ऐसी बातें सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था क्योंकि पड़ोसी होने के नाते मैं बहुत सी बातों की मूक गवाह थी किन्तु कोई इंसान इतना बड़ा नाटक कर सकता है ऐसा मैंने अपने जीवन में नहीं देखा था. वैसे भी जमाना ऐसे ही लोगों का है. चिल्ला चिल्ला कर गलत को भी सच साबित करने वाले लोग ऐसे ही होते हैं और उनकी बेहतरीन अदाकारी के लिए वे पुरुस्कृत भी किये जाने चाहिए. 

बुधवार, 26 जनवरी 2011

२६ जनवरी १९८० : कुछ मीठी यादें !

                      गणतंत्र दिवस हमें पूर्ण रूप से अपने देश को अपने शासन के लिए तैयार संविधान के लागू होने कि याद दिलाता है . इसके लिए सम्पूर्ण देशवासी आज के लिए शुभकामनायों के हक़दार हैं और मेरी भी हार्दिक शुभकामना. 
                     लेकिन ऊपर लिखी गयी तिथि वाला गणतंत्र दिवस मेरे लिए कुछ और ही अर्थों में शुभकामनाएं देने वाला दिवस बना. इस दिन मेरे जीवन में एक नए परिवार और एक नए परिवेश में प्रविष्ट होने का अवसर मिला था,  अर्थात इस लिए मेरा विवाह हुआ था. उस समय एक कस्बे और शहर की संस्कृति के बीच का द्वंद्व कैसे निबटाया गया अब याद करती हूँ तो हंसी आती है कि विकल्प खोज लिए जाते हैं और सामंजस्य बिठाया जाता है. 
                    बारात कानपुर से आई थी और स्वाभाविक है कि उरई उस समय काफी पिछड़ा था खासतौर पर कानपुर की अपेक्षा , इसके साथ भी हमारा परिवार भी बहुत आधुनिक नहीं था या कहिये कि वहाँ कि संस्कृति के विपरीत कुछ करने में विश्वास नहीं रखता था. शायद उन लोगों को कुछ ऐसा आभास हो तो बारात के आते ही कहला दिया गया कि हम जयमाल कानपुर से लेकर आये हैं. इसका मतलब कि जयमाल की रस्म होनी चाहिए. हमारे यहाँ तो ऐसा कोई प्रावधान ही नहीं था तो इस बारे में सोचा ही नहीं गया था. इसलिए खबर भेजी गयी कि हमारे यहाँ जयमाल नहीं होती. बस फिर क्या था? दुल्हे के दोस्त भड़क गए - 
'ये क्या बात है, जयमाल नहीं होती हम बेकार ही यहाँ आये हैं.' क्योंकि दोस्तों को रात में भी वापस हो जाना था. उनको आश्वासन दिया गया कि इंतजाम करते हैं . उस समय  आजकल की तरह से ब्यूटी पार्लर तो होते नहीं थे कि वहाँ से सारी व्यवस्था कर लेते . ज्यूलरी और लहंगे का इंतजाम कर लिया जाता. मेरे अधिकांश रिश्तेदार गाँव से थे. बस मेरी सहेली प्रतिमा का परिवार और मेरे फूफाजी कानपुर से थे, सो कानपुर वालों ने अपनी बुद्धि दौड़ाई कि क्या किया जा सकता है. स्टेज का काम मेरे फूफाजी और प्रतिमा के भाई जिन्हें हम दद्दा कहते थे उन लोगों ने लिया. बड़ी बड़ी तख़्त निकली गयी और उनको पहले चादर डाल कर अच्छे से ढंका गया उसके ऊपर सोफा डाल कर बैठने का इंतजाम किया गया. स्टेज को फूलों की लड़ियों से सजा कर तैयार कर लिया गया. बाहर की शोभा तो बन गयी लेकिन अन्दर मेरे लिए क्या होना चाहिए? 
                                    मेरे पास पहनने  के लिए साड़ी तो थी लेकिन उसके ऊपर सुंदर सी चुनरी कहाँ से आये? प्रतिमा ने जो और लड़कियाँ थी उनसे उनके सूट के साथ की चुन्नी देखी तो एक लाल चुन्नी मिल गयी. बस दौड़ कर बाजार गयी और गोटा, किरण, सितारे और फेविकोल खरीद कर ले आई. पूरी चुनरी को सितारे फेविकोल से चिपका कर सजा डाला और दुल्हन  की चुनरी तैयार. जेवर तो ससुराल से आता था सो मेरे पास जेवर के नाम पर कुछ भारी जेवर भी न था बस नाक की नथ थी. और मेकअप के लिए भी कुछ इंतजाम ऐसा न था कि जयमाल जैसी लगे. कलात्मक वृत्ति वालों ने फिर अपनी अक्ल का प्रयोग किया और पेस्ट से सफेद बिंदियाँ लगायीं गयी, रोली में पानी डाल कर लाल बिंदियाँ लगायीं गयी.जेबर के लिए एक पेंडेंट वाली जंजीर लेकर बेंदी बनायीं गयी और जो भी लड़किया गले में पहने के लिए लायी थीं सब मेरे गले में पहना कर तैयार कर दिया गया. बस दुल्हन जयमाल के लिए तैयार हो गयी.
                               इस तरह से जयमाल कि रस्म पूरी हुई. इस वाकये को लिखने का विचार त्वरित है इसलिए इसके साक्ष्य फोटो लगाना संभव नहीं है वैसे भी हमारे ज़माने में ब्लैक एंड व्हाईट फोटो ही चलती थीं सो वही हैं मेरे पास. आज भी उस वाकये को हम , प्रतिमा और अपनी बहनों के साथ याद करते हैं तो बहुत हंसी आती है. 

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

सास की सेवा !

                 आज चोखेर बाली  ब्लॉग पर कुमारेन्द्र भाई का लड़कियों के द्वारा की गयी माँ की अन्त्येष्टि का आलेख पढ़ा . ऐसी घटनाएँ अब यदा कदा होने लगी हैं और हमें इस पर नाज होना चाहिए. पर इस पर ही एक टिप्पणी भी देखी कि यही लड़कियाँ जब बहू बन जाती हैं तो अपने दायित्वों से विमुख क्यों हो जाती हैं?          
                         इस बारे में कहना है कि पाँचों अंगुलियाँ बराबर नहीं होती , हाँ अगर आजकल ऐसा हो रहा है तो इसलिए कि हमारी अपनी बेटियों को दी जा रही शिक्षा में कुछ कमी है या फिर हम खुद कहीं गलत कर रहे हैं. हमारे बच्चे हमको ही देख कर सीखते हैं. अगर हम अपने माता पिता या सास ससुर को सम्मान देते हैं तो शायद ही घर ही बच्चे उनका तिरस्कार करें या फिर बेटियाँ अपने घर में तिरस्कार करें. संभव ही नहीं है. अपवाद इसके भी हो सकते हैं. 
                         मेरी शुरू से ईश्वर से यही कामना थी  कि जैसा  मैं अपनी ससुराल में सास ससुर के साथ अपने व्यवहार को करूँ वैसा ही  मेरे माँ पापा को उनकी बहू से भी मिले . शायद मेरी धारणा सही थी और मुझे अपनी धारणा पर फख्र है. मेरे इसी व्यवहार से शायद मेरी बेटियों में भी ऐसे ही संस्कार आये हैं. सिर्फ लड़कियाँ ही क्यों? बेटों पर भी ये बात लागू होती है. अगर वे अपने माता पिता और सास ससुर को समानता से देखें तो शायद कोई कारण नहीं कि  बहू उनसे इसके विपरीत अपेक्षा रखे या फिर उनको उनके कार्य से च्युत करे. कुछ साल पहले मेरी माँ की कूल्हे की हड्डी टूट गयी और उरई में उनका आपरेशन हम नहीं करवाना चाहते थे इसलिए भाई साहब को कहा कि वे कानपुर ले आयें. उनका आपरेशन जिस अस्पताल से मेरे पति जुड़े थे उसी में करवाया गया. वैसे भी वे कोई भी बीमार हो उसकी देखभाल पूरे मन से करते हैं . इसके लिए परिवार , पड़ोस या मित्र की सीमा निर्धारित नहीं है. मेरी माँ के लिए भी वे हर चीज में बहुत सावधानी बरत रहे थे. वहाँ अस्पताल में किसी ने व्यंग्य किया - 'सास है इसलिए इतनी केयर हो रही है, माँ की चाहे न करते ?' 
उनका जवाब था - मेरे लिए दोनों बराबर हैं और अपनी माँ की तो मैं पिछले ३९ साल से बराबर सेवा कर रहा हूँ. (मेरी सास जी का इतने वर्ष पहले एक भयानक एक्सीडेंट हुआ था, जिसमें वे ३ वर्ष अस्पताल में रहीं और फिर शारीरिक तौर पर विकलांग हो गयीं थीं. ) ये बात बिल्कुल सच है और उन्होंने कभी जरूरत पड़ने पर मेरे परिवार की उपेक्षा नहीं की.मुझसे भी कभी ये कहने कि जरूरत नहीं पड़ी कि तुम्हें ऐसा करना चाहिए.  जिसको इस सम्बन्ध में जो भी सहायता जरूरी हुई . उसको तन मन और धन से पूरा किया. 
                        बेटों की सोच में परिवर्तन अपने आप नहीं आता है. अक्सर सुना जाता है कि शादी के पहले मेरा बेटा ऐसा नहीं था. शादी के बाद बदल गया. इसमें सीधे सीधे पत्नी पर आरोप आता है. इसके पीछे सिर्फ पत्नी ही नहीं होती है बल्कि उसके पीछे उसकी वे शिक्षाएं भी होती हैं जो उसको अपने घर से मिली होती हैं. हर माँ का यही प्रयास होना चाहिए कि उन्हें अच्छी संस्कारित बेटी दें और उनसे संस्कारित बेटा अपने घर में लें. माँ बाप से उनका बेटा छीने नहीं. 

शनिवार, 15 जनवरी 2011

नाम ख़त्म !

                    लोग कहते हैं कि अगर हमारे बेटे हों तो हमारा नाम चलता रहेगा. और अगर बेटा ही कहे कि आज से इनका नाम ख़त्म हो गया तो सुनने वाले क्या कहेंगे?
                    हाल ही में मैं अपने बहुत ही करीब रिश्तेदार के यहाँ उनके पिता के  मरणोपरांत होने वाले एक संस्कार में शामिल होने गयी. अच्छा पढ़ा लिखा परिवार है. पिता  भी काफी वृद्ध थे. जिनके पोते और पोतियाँ सभी अच्छी जगहों पर काम कर रहे हैं.
                     मैंने अपने उन रिश्तेदार के मुँह से कई बार ये वाक्य  सुना - 'बस आज से इनका नाम ख़त्म.' जो भी आता औपचारिकता करता और वे यही बोलते. सुनने में ये वाक्य कोई खास मायने नहीं रखता है लेकिन अगर इसके गहन अर्थ की ओर जाएँ तो इसका मतलब क्या होगा? अरे अभी तो उनके दो बेटे और दो बेटियाँ जीवित हैं और उनसे उनकी कई पोते व् पोतियाँ तथा नाती और नातिन हैं. हमारी भारतीय परंपरा यही माना जाता है कि कोई नाम लेवा नहीं है यानि की उनके बाद उनका कोई अपना नहीं बचा.  जब उसकी औलाद ही कहे कि अब इनका नाम ख़त्म तो हम क्या कहें? अगर अभी वे स्वयं जीवित हैं तो कभी भी और कहीं भी कुछ भी काम करेंगे तो उनके साथ उनके पिता का नाम अवश्य ही लिखा जाएगा . उनके पिता के द्वारा किये गए सत्कर्मों से उनको याद करने वाले उनके घर में न सही बाहर  भी बहुत से लोग होंगे. क्या ऐसे मौके पर ये बुद्धिमत्तापूर्ण वक्तव्य है?  कितने अरमानों से और कितने बार अपने अरमानों का गला घोंट कर अपने बेटों को पाला होगा और वे ही इस तरह कहें तो फिर क्यों लोग बेटों को रोते हैं? मैं ये तो नहीं कह सकती कि सारे ही बेटे ऐसे होते हैं लेकिन बेटियाँ फिर भी अपने माता और पिता के लिए ऐसे शब्द नहीं बोल सकते हैं.
                 अपने जन्मदाता के ऋण से मुक्त होना इतना सहज नहीं है और लोग इस तरह से कहें तो फिर कहना होगा कि ऐसे बेटों से जो कि अपने रहते ही नाम ख़त्म कर दें बेटे न होना अधिक अच्छा है. ऐसे लोगों में अगर इंसानियत है तो उनको कई बेटे मिल जाते हैं और अगर बेटों के रहते हुए कोई बेटे की तरह होना चाहे तो ये बेटे इस बात को सहन नहीं कर सकते हैं. शायद उन्हें लगता है कि मेरे पिता इसको कुछ दे न दें. खुद भी नहीं करेंगे और दूसरे का करना भी उनको गंवारा नहीं होता. पिता की संपत्ति पर तो पूरा पूरा हक़ चाहिए इसके लिए वे अपनी बहनों को भी देने की नियत नहीं रखते (अमूमन बहनें सिर्फ माँ पिता के सुख और चैन से रहने के लिए कभी भाइयों से संपत्ति में हिस्सा नहीं मांगती. ) इसके बाद भी अगर वे इस बात को सुनती हैं तो बहुत तकलीफ होती है.
                  मुझे ऐसे लोगों कि मूर्खता पर हंसी भी आती है और सोच पर तरस आता है कि खुद सर्वसम्पन्न  और पिता की अकूत संपत्ति से क्या कोई स्मारक नहीं बनाया जा सकता है ताकि उनका नाम ख़त्म ही क्यों हो? वो दशकों तक नहीं जब तक वो संस्था रहेगी जीवित रहेगा. स्कूल, मंदिर , शरणस्थल कुछ भी बनवाया का सकता है.  लेकिन इसके लिए सदबुद्धि चाहिए, संकीर्ण मानसिकता नहीं और न ही सिर्फ अपने बारे में सोचने वाली मानसिकता.

बुधवार, 12 जनवरी 2011

कैसे कैसे समर्थक !

                   अगर हम सच का साथ न दे सकें तो हम झूठ बन कर सच पर पर्दा न डालें. पिछले दिनों हमारे  पास एक स्कूल में ६ कक्षा की १० वर्षीय बच्ची के साथ दुष्कर्म के बाद उसकी मृत्यु का मामला गरमाया हुआ है. पुलिस तो जैसे कार्य कर रही है उसके लिए कुछ कहना ही बेकार है. इस मामले में उसने पड़ोसियों को प्रताड़ित करके अपराध कबूल करवा लिया. माँ को धमकी समझौते के लिए मिलती रही. स्कूल के प्रबंधक और उनके बेटे स्वतन्त्र घूमते रहे.
                          इत्तेफाक से उन प्रबंधक महोदय के मित्र हमारे पारिवारिक मित्र भी थे. एक दिन हम लोग उनके घर गए तो उनकी बातें जब हमने सुनी तो लगा कि वह हर व्यक्ति अपराधी है जो अपराधी का साथ दे या फिर उसके गुनाह को गुनाह न मान कर पीड़ित को ही दोष मढ़ दे. मेरे पतिदेव ने उनसे पूछा कि आपके मित्र का क्या हुआ?"
"अरे यार तो लड़की दस साल कि नहीं बल्कि १६ साल कि रही होगी, लोगों ने बेकार बदनाम किया हुआ है. मेरे मित्र बहुत सीधे सादे और एक स्कूल के टीचर के पद से रिटायर हुए हैं."
"लेकिन उनके तो पैट्रोल पम्प भी हैं और एक इंग्लिश मीडियम स्कूल भी है. "
"अरे वह तो उनके भाई के हैं, लोगों ने उनको झूठा फंसा दिया. अरे यार उस लड़की की माँ भी बदमाश है. उसके दो दो पति हैं और सहानुभूति में लोगों ने उसके एकाउंट में पैसे इकट्ठे करने शुरू कर दिए. महिला आयोग के आने से तो वह और भी शेर हो गयी है. उसके एकाउंट में करीब २० लाख रुपया जमा हो चुका है. इन लोगों ने तो कमाई का साधन बना दिया है. सारा मामला झूठ है."
              मुझे सुनकर बहुत ही गुस्सा आई और मैं ने उठ कर चलने के लिए कहा और हम लोग चले आये. बाद में मैंने अपनी गुस्सा पतिदेव के ऊपर उतरी - कैसे ये इंसान किसी औरत के ऊपर ऐसे लांछन  लगा सकता है? पोस्ट मार्टम की रिपोर्ट बच्ची को दस साल की बता रही है और ये उसको मखौल समझ कर १६ वर्ष की बता रहे हैं. '
               बाद में सीबीसीआइडी  द्वारा  जांच करने के बाद पता चला कि ये कुकृत्य प्रबंधक के पुत्र के द्वारा स्कूल में ऊपर बनी लैब में किया गया और डी एन ए टेस्ट के बाद ये बात साबित हुई कि प्रबंधक पुत्र ही असली अपराधी है. .
               जो अपराधी हैं वे तो हैं ही उनके पक्ष को निर्दोष बताने के लिए दूसरों पर लांछन लगने वाले भी अपराधी से कम नहीं है. समाज ऐसे अपराधियों के दम पर ही वास्तविक अपराधी को निर्भीक रूप से घूमने के लिए का साहस दे रहे हैं. ऐसे लोगों को शर्म आनी चाहिए खास तौर उन लोगों को जो किसी स्त्री के चरित्र पर बिना सोचे समझे लांछन लगा सकते हैं.

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

अम्मा चली गयी!


अम्मा (मेरी सासुजी ) चली गयी, वे लगभग १०० वर्षों का जीवन जियीं और फिर अपने परिवार में दो बेटे और दो बहुयों के साथ अपनी ५ पोतियों का भरा पूरा संसार  २ जनवरी २०११ दिन रविवार को छोड़ गयी. अपने अंतर में दया और ममता का भाव लिए कभी भी किसी आत्मीय को या फिर अपने बेटों के या पोतियों के मित्रों या रिश्तेदारों के लिए दरियादिली के लिए प्रसिद्द  रहीं. घर में कोई भी आया हो चाहे उनके मायके वाला या फिर बहुओं के रिश्तेदार उनका पर्स खुला और नोट निकाल कर दिए जाओ समोसा और बर्फी ले आओ. फिर चलते समय बच्चों को विदाई भी.
            जब से उनकी पोतियाँ बाहर जाकर पढ़ने लगीं, उनके घर से जाने से पहले दादी टीका करने के लिए हम लोगों की आफत मचा देती और फिर जब तक वे घर से न निकल जाती वे इन्तजार करती रहती . टीका करके रुपये देना और फुटकर पैसे देना की रास्ते में चाय पी लेना. उनके लिए जरूरी था.
           बहुत लम्बी दास्ताँ हैं , फिर लिखूंगी फुरसत में.