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गुरुवार, 18 मार्च 2010

वो अमृत की बूँदें!

                घर के आँगन में एक बच्चे की चहक के लिए परेशान एक दंपत्ति - कितने प्रयास किये, कोई डाक्टर नहीं छोड़ा, कोई मंदिर और मजार नहीं छोड़ी. भाग्य को शायद ये मंजूर न था की उस घर में कोई चिराग रोशन हो.
                              फिर एक दिन उसकी डाक्टर मित्र  ने उसको फ़ोन किया कि  तुम दोनों सोमवार को यहाँ पहुँचो. वे बुधवार को पहुँच पाए - उस डाक्टर ने एक जीवन समाप्त करवाने आई माँ से अनुनय की थी कि वह बच्चे को जन्मने दे. खर्च वह उठाएगी. माँ जन्म देते  ही चली गयी और डाक्टर बच्ची को अपने नर्सिंग होम में ही रखे रही. उन दोनों के पहुँचते है , उसने गाड़ी से नहीं उतरने दिया  और निश्छल के गोद में बच्ची को देकर बोली - 'बधाई हो निश्छल तुम अब पिता बन गए.'
                      निशा ने बच्चे को गोद में लिया तो जी भर आया क्योंकि उसने झेला था कैसे पढ़ी लिखी औरतें भी अपने बच्चे को उसको देने में हिचकती थी क्यों? क्योंकि उसके कोई बच्चा नहीं था. उसकी आँखें आसुंयों से भीग गयीं और  वह डाक्टर को धन्यवाद ही दे सकी क्योंकि ये उसका अपना बच्चा होगा. डाक्टर ने किसी को कुछ भी नहीं बताया न उसके होने वाली माँ को कि बच्चा किसको देंगी और न निशा को कि ये बच्चा किस माँ का है?  हाँ एक थर्मस में दूध देकर उन्हें बाहर से ही विदा कर दिया.
                    निशा बच्चे को लेकर अपनी माँ के घर चली , रास्ते में बच्ची को दूध पिलाया लेकिन वह छोटी बच्ची बोतल से पी नहीं पा रही थी और फिर गर्मी की वजह से दूध ख़राब हो गया. निशा से बच्ची का रोना नहीं देखा जा रहा था. उसको लग रहा था की क्या उसकी गोद इसके बाद भी सूनी हो जायेगी?  बच्ची के होंठ नीले पड़ने लगे थे कुछ भूख  की वजह से और कुछ रोने से. वह कितनी विवश थी? पास बैठी महिला ने कहा कि आप अपना दूध पिलाइए शायद चुप हो जाए. किन्तु? इसका उसके पास कोई विकल्प और उत्तर न था. आखिर निशा रोने लगी कि इस बच्ची को कैसे चुप कराऊँ मन में चल रहा था कि अब क्या होगा ? 
                 ट्रेन में पिछली ओर बैठी एक बच्चे की माँ उठकर आई और बोली - 'अगर आपको बुरा न लगे तो मैं इसे  अपना दूध पिला देती हूँ, शायद चुप हो जाए.'  निशा को अँधेरे में रौशनी की एक किरण दिखाई दी. उसने बच्ची को उस महिला की गोद में दे दिया.  जब माँ का दूध मिला तो पेट भरने पर वह सो गयी और निशा ने एक राहत की सांस ली. उसने उस अनजानी माँ को बहुत दुआएं दीं , जिसने एक नन्हीं जान को अपने दूध में अमृत की वो बूँदें पिला दीं जिससे उसकी जान बच गई.  वह उस माँ के दूध की कर्जदार हो गयी. जिसको वो तो कभी चुका ही नहीं सकती  थी.
               वो बच्चा गोद लेने वाली माँ मेरी अपनी छोटी बहन ही है.

जो गैरों की खातिर जिए मर मिटे ....................

  जो गैरों की खातिर जिए मर मिटे ....................
                                 कुछ  पंक्तियाँ कितनी सार्थक कथन बन जाती हैं, ये तो वही समझ सकता है जो  कि भुक्तभोगी हो. परोपकार मानव मूल्यों और नैतिक मूल्यों में सर्वश्रेष्ठ कर्म माना जाता है. अभी यह पृथ्वी वीरों से खाली नहीं हुई है और ऐसे कितने मिल जाते हैं कि इनसान अपने जीवन की प्राथमिकताओं को तिलांजलि देकर दूसरों के लिए समिधा बन जाता है. जब उस हवन कुण्ड की ओर देखता है तो सिर्फ उससे उठता हुआ धुआं दिखाई देता है  जिससे उसको यथार्थ भी धुंधला दिखने लगता है.
                             क्या कोई  उसके दर्द को समझ सकता है - शायद नहीं. वह जिनको अपना समझता रहा , वे तो अपने थे ही नहीं, उसे सीढ़ी समझ कर ऊपर चढ़े और आसमान छूने लगे तो पैर से वह सीढ़ी ठेल कर दूर कर दी., अब उन्हें उस सीढ़ी की जरूरत ही कहाँ रह गयी थी? 
                             ऐसे ही समर ने अपने भाई के परिवार की खातिर ( भाई एक दुर्घटना में विकलांग हो चुके थे) अपना पूरा जीवन ही लगा दिया. तन-मन-धन से समर्पित था अपने परिवार के लिए. उनके बच्चों के जन्म से लेकर हर कदम पर उनके साथ खड़ा रहा. चाहे बीमारी हो, पढ़ाई हो , कहीं नौकरी के लिए जाना हो, उनके लिए प्राइमरी से लेकर नौकरी में स्थापित होने तक वह अंगुली पकड़े रहा. जब पैरों पर खड़े हो गए तो  उस लक्ष्य तक अगले बच्चे को लेकर चलने लगा. इन बच्चों का भविष्य जैसे उसकी अपनी जिम्मेदारी थी.
                            और फिर एक दिन सब बच्चे सक्षम हो गए - उच्च शिक्षित , उच्च  पद प्रतिष्ठित तो एक दिन उनमें से बोला - "आप क्यों जाते हैं? आपको मना कर देना चाहिए था, मेरे मम्मी पापा खुद कुछ व्यवस्था करते."  जिनके लिए खुद शादी नहीं की. जिन्हें मेरी बेटियां और बेटे कहते जबान नहीं थकी. उसके इन शब्दों ने उसे उठाकर जमीन पर पटक  दिया  था. अब वे सब समर्थ थे और उन के लिए  इस इंसान की जरूरत ख़त्म हो चुकी थी. जिसने अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया और शिखर तक ले जाने में अपना जीवन गवां दिया. उसकी पीड़ा का अहसास कौन करेगा? शायद कोई नहीं - वह किसी से कह भी तो नहीं सकता क्योंकि उसके दोस्त कहते थे - जिनके लिए तुमने अपनी ख़ुशी और जीवन न्योछावर कर दिया,  वह अपने होने का व्यामोह उन्हीं के द्वारा तोड़ा जाएगा. सिर्फ मतलब तक के सारे रिश्ते होते हैं. फिर दुनियाँ को क्या पड़ी कि वह तुम्हारे आंसूं पोंछने आएगी.  क्या उससे पूछ कर ये सब कर रहे थे .
                      एक समर ही क्यों? निहारिका भी तो ऐसी ही है - वो मेरी बचपन की सहेली है. पिता बैंक में अफसर थे और माँ मानसिक तौर पर विक्षिप्त . चार भाई बहनों में बड़ी सारी जिम्मेदारी और पढ़ाई एक साथ उठाये रही. पिता गैर जिम्मेदार थे सिर्फ खर्च लेने से मतलब रखते थे. उनकी दूसरी दुनियाँ भी थी. कभी कभी ही घर आते थे. अगर वह अपनी शादी के बारे में सोचती तो बाकी सब का क्या होता? पता नहीं कैसे लोग मिलें? कैसी ससुराल मिले?  सब भाई बहनों की शादी की लेकिन उसकी कौन करता? माँ बाप भी समय के साथ चल बसे. अब इस उम्र में शादी कौन करेगा? अब शादी करके क्या करोगी? हम सब लोग हैं न . 
                        ये दावे करने वाले अपने अपने घरों में व्यस्त हो गए. गर्मियों की छुट्टी में जिसके पास जाती सब उपहारों की राह देखते होते. दीदी आएगी तो छोटों के लिए कुछ तो लेकर आएगी ही. बुआ थी जिसकी उन्हें लगता बुआ कमाती है, कोई खर्च तो है नहीं. जिनकी मौसी थी वे भी यही सोचा करते . इन परिवारों में उसकी कम उसकी कमाई और उपहारों की कीमत अधिक होती थी. ऐसे ही एक बार वह अपनी बहन के घर बीमार पड़ी और बीमारी लम्बी खिंच गयी बहुत कमजोर हो गयी थी . उठने बैठने में भी तकलीफ होती. अब तो वह बोझ नजर आने लगी कि आगे बीमारी पर खर्च कौन करे?  दबी जबान से कहा गया की अगर वह चैक काट देती तो कुछ पैसा ले आते बीमारी में पैसा तो लगता ही  है. उसने चैक काट कर दे दी और फिर पैरों में ताकत आने तक वह रुकी , खड़े होने लायक होते है वह अपने घर वापस आ गयी. ये जब उसने मुझे बताया तो -- मैं साक्षी थी उसके त्याग, संघर्ष और समर्पण की. यदि वह खुद शादी कर लेती तो ये सब सड़क पर घूम रहे होते. कोई उनको देखने वाला नहीं था. 
                               बरबस ही ये पंक्तियाँ मन में उमड़ने लगीं.
जो गैरों की खातिर जिए मर मिटे पूछती हूँ -- उन्हें क्या मिला? क्या मिला? क्या मिला?



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बुधवार, 10 मार्च 2010

क़ानून को ठेंगा दिखाते ये कारनामे!

                                 देश और समाज कि प्रगति और के लिए सरकार तो बहुत कुछ कर रही है लेकिन यथार्थ क्या है?  इसके सही और सच्ची तस्वीर पेश कर रही है - ये घटना जो अभी २४ घंटे पहले ही घटी है .
                                 स्कूल के बच्चों को स्कूल से पढ़ाई के समय में कुछ मजदूरी का लालच देकर किसी अध्यापक के खेत में आलू खोदने के लिए ट्रैक्टर से ले जाया गया. ट्रैक्टर चालक ने मानव रहित क्रासिंग  पर सामने आती हुई ट्रेन को अनदेखा कर क्रासिंग पार करने का दुस्साहस किया और ट्राली ट्रेन कि चपेट में आ गयी. जिसमें ९ की मृत्यु हो गयी. इन में ५ लड़के , २ लड़कियाँ  और २ महिलाएं थीं. ये बच्चे स्कूल में पढ़ने वाले १० से १५ साल के बीच के थे.  कितने घर उजड़ गए? 
                                   ये एक बहुत छोटी घटना हो सकती है, क्योंकि ऐसे एक्सिडेंट रोज ही हुआ करते हैं और हम एक खबर  की तरह  पढ़ कर अखबार रख देते हैं किन्तु ये घटना कितने कानूनों के ठेंगा दिखा रही है.

१. बाल श्रमिक निरोधक क़ानून.
२. अनिवार्य शिक्षा 
३. अधिकारों का दुरूपयोग
                       इतनी कम उम्र के बच्चों को खेत में आलू खोदने के लिए श्रमिक के रूप में प्रयोग करना दंडनीय अपराध है. उस समय और भी दंडनीय बन जाता है जब कि ये कार्य एक शिक्षक के द्वारा अपने खेत में करवाने के लिए हो रहा हो.
वे बच्चे माँ-बाप ने पढ़ने के लिए स्कूल भेजे थे न कि मजदूरी के लिए. बच्चों को पैसे का लालच देकर खेतों पर ले जाना कहाँ और किस क़ानून में लिखा है? दबंगों को तो सुना था कि बेगार और जबरदस्ती अपने खेतों और फार्म हाउस में काम करवाने के लिए ले जाते हैं लेकिन एक शिक्षक ये काम करे तो अपराध कौन तय करेगा और दंड कौन? 

                      अनिवार्य शिक्षा के तहत गाँव के बच्चे स्कूल भेजे जाने लगे हैं, वह भी प्रतिशत अभी बहुत नहीं है . श्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक या शिक्षक मित्र वही गाँव के होते हैं और बहुधन्धी भी होते हैं. अपने अधिकारों का प्रयोग करके उस शिक्षा के कानून पर कालिख पोत दी. बच्चे पढ़ने आते हैं और वे  मजदूरी के लिए ले जाते हैं.  अगर कल वे बिना पढ़े माँ-बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजने से इनकार कर दें तो?  बच्चे हर माँ-बाप के लिए जान से ज्यादा प्यारे होते हैं वे सोचेंगे कि अनपढ़ ही सही मेरे बच्चे मेरे पास तो रहेंगे. 

                   शिक्षक के ऊपर पूरे स्कूल का दारोमदार होता है, गाँव में तो और भी क्योंकि वहाँ एक या दो शिक्षक होते हैं. बाकी तो सिर्फ वेतन भोगी होते हैं. अगर शहर के हैं तो कभी एक दिन जाकर दस्तखत करके वेतन उठा लेते हैं. बाकी तो गाँव के लिए लोग देख लेते हैं. स्कूल के जिम्मेदारी होती है शिक्षा देने कि और शिक्षक अपने अधिकारों का दुरूपयोग करते हुए , विद्यालय के समय बच्चों को दूसरे कामों में प्रयोग करते हैं. खेतों के काम के लिए मुफ्त के मजदूर मिल गए या फिर १०-२० रुपयों में काम चल गया और वे तो स्कूल में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा ही  रहे हैं.

इस सब कानूनों के अबहेलना का परिणाम क्या होगा ? 
ये तो नहीं पता लेकिन सोचने पर मजबूर कर रहा है कि क्या शिक्षक , विद्यालय पर विश्वास किया जा सकेगा? 
इन शिक्षकों का दंड कौन निर्धारित करेगा?
क्या वास्तव में ये दण्डित होंगे? 
किस दफा में इनका अपराध रखा जाएगा?

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

होली रे होली !

होली वही जो दिलों में नए रंग भर दे,
 
होली वही जो मायूसों को खुश कर दे,

 
भरो कुछ ऐसे रंग सबके दिलोदिमाग में ,

 
जीवन जो सभी का पल में रंगा-रंग कर दे.



सतरंगी होली के रंगों से सजे थाल में   समस्त  ब्लॉग  संसार के  सदस्यों  को  अपनी   ओर से हार्दिक शुभकामनाएं आपके नजर  करती हूँ. 


 हमेशा आपके सहयोग , आलोचना और मार्गदर्शन के हम आकांक्षी और आभारी हैं.

बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

होली में भंग की तरंग !






होली शब्द सुनकर ही कुछ रंग-गुलाल, मौज - मस्ती और हंसी मजाक का मूड बन जाता है. इस में भंग की तरंग हो फिर क्या कहने? कुछ वाकये होली के रंग में ऐसे गुजर जाते हैं कि फिर जीवन भर के लिए यादगार बन जाते हैं.

                 ऐसे ही एक होली का किस्सा आप सब को सुन कर कुछ हंसी आपके चेहरे पर भी बिखर जाए.

     करीब दस साल पहले की बात होगी, तब होली मनाने और खेलने में जो मजा था - अब ख़त्म हो चला है. अब होली में औपचारिकता मात्र देखने के लिए रह गयी है. ये मेरा अपना अनुभव है. तब हम अपने- अपने घरों से निकलते थे और सब जो नहीं निकले उन सबको निकाल कर टोली बना कर पूरे मोहल्ले में घूमा करते थे. महिलाओं की टोली मौज मस्ती करके दिन में 2 बजे तक घर लौटती थी.

                          मैं महिलाओं की टोली में और पतिदेव अपनी टोली में निकल जाते थे.  उस बार पतिदेव टोली में निकले और कहीं से भंग पीकर आ गए.  मैं लौटी नहीं थी और उनको पता नहीं क्या सूझा और पड़ोस में रहने वाले बुजुर्ग के घर जा पहुंचे, एकदम से रोनी सूरत बनाये. उनहोने गुझिया खाने  को दी तो मना कर दिया. वैसे ये रोनी सूरत में कभी नजर नहीं आते. बड़ों के साथ बड़े और बच्चों के साथ बच्चे बन जाते हैं.
"क्या चाचा मेरी तो अब क्या होली और क्या दीवाली?"
"क्यों सब ठीक तो है न?"
"कहाँ? अब रेखा तो घर में मेरे साथ रहना नहीं चाहती है, कल से तलाक की बात कर रही है."
"अरे ! ऐसा नहीं हो सकता ."
"अरे चाचा हो रहा  है, बतलाइए मैं दो बेटियों के लेकर कैसे क्या करूंगा?"
"तुम परेशान मत हो - मैं आकर उससे बात करता हूँ."
"ठीक है चाचा , अब आप बुजुर्गों का ही सहारा है. शायद कुछ समझ आ जाए. नहीं तो मैं तो कहीं का भी नहीं रहूँगा."
                            घर आकर सबने नहा धोकर खाना khaya और फिर हम सब सोने चले जाते हैं. बच्चे अपने ढंग से मस्ती करते हैं. 
                          अचानक ५ बजे बेटी ने आकर जगाया - "मम्मी, अंकल आये हैं और कई लोग हैं. आपको बुला रहे हैं."
        शाम को आना जाना फिर शुरू हो जाता है. मैं उठी और मुंह धोकर उनके पास चली गयी. वे दो और बुजुर्गों के साथ थे. 
"बैठो बेटा, तुमसे कुछ बात करनी है."
    मैं बैठ गयी और सोचने लगी की इस समय ऐसी क्या बात हो सकती है.
"देखो बेटा  तुम्हारी बेटियां अब सयानी हो रही हैं."
"जी"
"तो इनको सही तरह से तुम्हीं गाइड कर सकती हो."
"हाँ, ये तो है."
"देखो, जहाँ चार बर्तन होते हैं तो खटकते तो हैं ही, लेकिन कोई ऐसे नहीं करता."
"बेटा , तुम पढ़ी -लिखी समझदार हो. ये तो है  कि तुम  नौकरी करती हो तो किसी के पैसों से मुंहताज नहीं हो , फिर भी घर तो दोनों लोगों से ही चलता है." दूसरे बुजुर्ग ने बात को और आगे बढाया.
       अब मेरा माथा ठनका की ये माजरा क्या है  ? क्यों इस तरह की बात हो रही है? वह भी होली के दिन सब अच्छे मूड में ही होते हैं.
       फिर वे बेटी से बोले, "बिटिया पापा कहाँ है?"
"अन्दर सो रहे हैं."
"जरा उन्हें भी बुलाकर लाओ."
                थोड़ी देर में ये भी आ गए. इतने लोगों के साथ मुझे देखकर वहीँ बैठ गए.
"अब बताओ आदित्य - क्या कह रही हैं ये?"
"अरे चाचा मैं तो भंग की तरंग में था , पता नहीं क्या क्या कह गया ?"
                 चाचा का तो चेहरा लाल, मैं बताता हूँ तुम्हें और तुम्हारी भंग भी उतरता हूँ.
"अरे बेटा , ये रोनी सूरत बना कर दोपहर में गया और कह रहा था की चाचा रेखा घर छोड़कर जा रही है , तलाक लेने की बात कर रही है. मैं लड़कियों को लेकर कहाँ जाऊँगा?"
                           ये सुनकर तो मेरी हंसी छूट गयी  क्योंकि मुझे इस विषय में कुछ भी नहीं पता था. यहाँ तक की चर्चा भी नहीं की कि  वे चाचा के पास गए थे. 
                            तब से ये मोहल्ले में प्रसिद्ध हो गया और होली में इनसे चुटकी ली जाती है.
                              "चलो तुम्हारा मामला तो नहीं सुलझाना हैं?"

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

दुरूह जीवन संध्या के पल !


वे स्टेशन की सीढ़ियों पर किनारे से बैठे थे और मैं स्टेशन पर ट्रेन का इन्तजार कर रही थीपता नहीं क्यों मेरी आँखें उनके चेहरे को पढने लगीं -- बार - बार छलक रहे आंसुओं को पोंछते जा रहे थे और आंसू भी बार बार रहे थेमन में एक जिज्ञासा सी हुई कि क्यों इस तरह से अकेले बैठे आंसू पी रहे हैं

अचानक घोषणा हुई कि ट्रेन घंटे लेट हो चुकी है, जाना जरुरी था सो इन्तजार करने के अलावा कोई चारा न था। मैं वही किनारे से अपना बैग रख कर बैठ गयी। समझ नहीं आ रहा था कि कहाँ से शुरू करूँ? कुछ सिलसिला बने तो उन्हें पढ़ सकूं, उनके छलकते आंसुओं के प्रवाह को और तेज कर सकूं ताकि वे खुद को हल्का महसूस कर सकें।
"आपको कहाँ जाना है? " मैंने ही बात शुरू की।
"कहीं नहीं? ऐसे ही बैठा हूँ।"
"पर आप तो इस बैग में सामान लेकर बैठे हैं।"
"तुमसे मतलब, कौन हो तुम , - जो मेरे से सवाल पर सवाल किये जा रही हो?"
"कोई नहीं एक मुसाफिर हूँ, सोचा आप भी वही चल रहे हों तो हमसफर हो जायेंगे।"
"तुम्हें कहाँ जाना है?"
"बनारस जा रही हूँ।"
" बनारस" कुछ उत्सुकता से मेरी ओर देखा
"हाँ, बनारस , आपको भी वही जाना है क्या?"
"चलना तो है - पर निश्चित नहीं है।"
"चलना हो तो चलिए मैं पहुंचा दूँगी आपके गंतव्य तक।"
"गंतव्य तक - कौन हो मेरी तुम जो मुझे पहुँचाओगी?" स्वर एकदम तीखा हो गया।
"हूँ तो कोई नहीं - पर एक रिश्ता होता है इंसानियत का सो कह दिया।"
"क्या इंसानियत का ठेका ले रखा है।"
"ऐसा तो नहीं है - पर जिसके लिए मन कहता है उसके लिए कुछ भी कर सकती हूँ।"
"मेरे लिए क्या कर सकती हो?"
"बतलाइए?"
"कल मेरे बेटे बहू ने घर से जाने के लिए कह दिया तो आज कपड़े लेकर निकल लिया।"
"क्यों? क्या वह आपका घर नहीं है?"
"नहीं - मैंने सिर्फ बनवाया है, घर तो बेटे के नाम से ही लिया था मैंने।"
"अब कहाँ जायेंगे?"
"यहाँ तो नहीं ही रहूँगा - बनारस में किसी आश्रम में रह लूँगा। पेंशन मिलती है किसी का मुंहताज नहीं हूँ।"
"पर घर तो घर होता है।"
"घर घर वालों से होता है। - अगर घरवाले ही नहीं तो घर कैसा?"
"बहू बेटे भी घरवाले ही हैं।"
"नहीं , मैं अकेला हूँ, मेरी अब कोई पहचान नहीं, बनारस में बाकी जीवन काट लूँगा।"
इतने में गाड़ी आ गयी, मैंने उनसे पूछा - 'चलेंगे' हाँ और न कि उहापोह में फंसे वे उठ खड़े हुए और मेरे साथ ट्रेन में बैठ गए। अधिक भीड़ न थी सो एक सीट पर हम दोनों बैठ गए।
अपनत्व पाकर या फिर कुछ और सोच कर वे अपनी रामकहानी सुनाने लगे।
'बहुत मेहनत से बेटे को डाक्टरी कि पढ़ाई करवाई। खुद कम खाया लेकिन फीस और किताबों के पैसे जुटाने में जीवन चला गया। डाक्टर बन गया तो बहू बड़े घर की ले आया । उसके तौर तरीके भी उसी तरह के थे। मैं निम्न मध्यमवर्गीय उसमें कहाँ आ सकता था। जब तक पत्नी रही - सब कुछ देखती रही। एक अलग कमरा पीछे मेहमानों के लिए बनवाया गया था वही मुझे मिला। जहाँ किसी का आना जाना न था। ऊब कर बाहर आ जाता। कभी टीवी देखने लगता तो बहू की सहेलियों के बीच अच्छा न लगता । वे सबकी सब बड़े घरों की होती तो संकोच के मारे वही कमरे में पड़ा रहता। पत्नी पिछले वर्ष साथ छोड़ गयी नहीं तो सुख - दुःख की संगिनी थी किसी कि जरूरत ही नहीं होती।
धीरे-धीरे बहू बेटे को खलने लगा कि वह कमरा तो बच्चों का स्टडी रूम बन सकता है , फिर मैं कहाँ जाता? रोज सुनने को मिलता कि एक कमरा घेर रखा है, बच्चों को एकांत नहीं मिलता है। इन्हें वृद्धाश्रम में छोड़ दिया जाय। वहाँ साथ के हमउम्र मिलेंगे तो समय भी कट जाएगा। मैंने मना कर दिया तो फिर प्रस्ताव रखा कि छत पर एक शेड डलवा देते हैं आप वही शिफ्ट हो जाइए। वहाँ गर्मी सहन नहीं होती - मन करता कि नीचे ए सी में लेट जाऊं, एक दिन गर्मी से बेहाल इसी के लिए ड्राइंग रूम में आकर दीवान पर लेट गया और थोड़ी देर में बहू कि सहेलियां आ गयी।
"चलिए आप ऊपर जाइए - यहाँ हम लोगों की पार्टी होनी है"। बहू ने कड़क आवाज में कहा।
"ओ तो इन्हें भी ए सी चाहिए - जिन्दगी में कभी देखा भी था" उसकी कोई सहेली मेरे जाने के बाद बोली थी।
फिर शाम को इसी बात पर बहस हो गयी और बहू बेटे ने कहा दिया कि आप ऊपर ही रहें , हम वही आपको खाना भेज दिया करेंगे। नीचे आने कि जरूरत नहीं है। हमारे मिलने जुलने वाले आते रहते हैं।
बस दूसरे ही दिन मन घर से निकल लिया और अब बनारस में ही रहूँगा।

उनकी कहानी सुनकर कुछ भी अजीब नहीं लगा, इतना जरूर लगा कि हम कितने स्वार्थी हैं? अपना सुख, अपनी ख़ुशी और अपना स्टेटस ही दिखलाई देता है - कभी ये भी अपना जीवन जिए हैं तो जीवन की इस संध्या में इन्हें अपनी मर्जी से जीने का हक़ हम क्यों नहीं दे सकते हैं? क्या इनके लिए सर्दी और गर्मी का अहसास मर चुका है। उनका मरा हो या नहीं पर हमारे सारे अहसास मर चुके हैं। हमारी दुनियाँ पति-पत्नी और अपने ही बच्चों में केन्द्रित है। वे हमारे जनक - जननी हैं , इस बात को अब बरसों गुजर चुके हैं। कैसे हम अपने अतीत को इतनी जल्दी भूल जाते हैं? हमारे लिए ही न फीस जुटाने के कारण ऑफिस से छूट कर पार्ट टाइम काम भी कर लिया करते थे- ऑफिस से छूट कर किसी के यहाँ लिखा पढ़ी का काम कुछ और पैसे जुटाने कि चाह में अपना आराम गिरवी रख देते थे और हम - कितने खुदगर्ज हो चुके हैं। उनके उन पलों को वापस तो नहीं ला सकते - उस कर्ज को कभी चुका भी नहीं सकते हैं। आज हम सक्षम हैं - लाखों कमा कर गाड़ी में घूम रहे हैं, ये क्रम इसी तरह चलता रहेगा। कल हम उनकी जगह लेंगे और हमारी जगह कोई और होगा। लेकिन इस कल को आज बना कर हम अपने भविष्य को किसी आईने में नहीं देख सकते हैं। लेकिन ये तो इतिहास है स्वयं को सदैव ही दुहराता रहेगा।



गुरुवार, 26 नवंबर 2009

भिक्षाटन सबसे अच्छा व्यवसाय!


हमारी संस्कृति में दान को बहुत ही महत्व दिया गया है और आज भी कितने अवसर आते हैं जब कि दान के लिए हमारे हाथ उठ जाते हैं। शास्त्रों में तो ब्राह्मण को सबसे अधिक सुपात्र बताया गया है - तब वे वन में रहकर अपना जीवन यापन इसी से करते थे। आज भी धार्मिक कृत्य के लिए ब्राह्मण को दान दिया जाता है।
कालांतर में इस का दूसरा रूप सामने आया और वह बना भिक्षा का रूप - लेकिन इसके लिए भी ब्राह्मण ही सुपात्र माना गया। अपने सम्पूर्ण आय से एक हिस्सा दान के लिए रखा जाता था।
आज भिक्षा एक घिनौना धंधा बन चुका है। वे भिखारी जो सड़क पर अपाहिज बने बैठे हैं, सुना था कि बड़े बड़े अपार्टमेन्ट के मालिक भी हैं, उनके बच्चे पढ़े लिखे और नौकरी कर रहे हैं। पर ऐसा कुछ देखा नहीं था। बच्चे जो सड़क पर भीख मंगाते हुए घूम रहे हैं या तो ये उनका पुश्तैनी धंधा है या फिर किसी गैंग की कमी का साधन बने हुए हैं। आज विश्वास ही ख़त्म हो चुका है, इससे वास्तव में जरूरतमंद भी विश्वसनीय नहीं रहे हैं।

कुछ दिन पहले ही मैं इलाहबाद से वापस आ रही थी, रात को स्टेशन पर एक निर्वस्त्र आदमी सर्दी से कांप रहा था। उस सर्दी में मुझे लगा की इसको कुछ देना जरूरी है और मैंने अपनी शाल उसके ऊपर डाल दी।

इसके बाद इस वाकिये को मैं भूल गई। इत्तेफाक से कल मुझे फिर बाहर जाना पड़ा और स्टेशन पर रात में वापस आई तो वही भिखारी फिर उसी तरह से बैठा कांप रहा था। लोग उसकी ओर न देखते हुए निकले जा रहे थे, शायद उनमें से कई उससे पहले ठग चुके होंगे ।
मेरी दृष्टि पड़ी कि मेरी शाल उससे कुछ दूर बैठी एक भिखारिन ने ओढ़ रखी थी। माजरा मेरी समझ में आ गया ।
जब मुझे अपने ठगे जाने का अहसास हुआ तो लगा कि न जाने कितने जरूरतमंद इस घटना के बाद मुझसे तो कुछ न पा सकेंगे। किसके चेहरे पर लिखा है कि ये नाटक नहीं कर रहा है। मानव की सदवृत्तियों का फायदा इस तरह से उठाया जाना कष्टदायक बन जाता है।