आज विश्व रक्त दान दिवस है , रक्त जो जीवन का आधार है और इसके निर्माण की प्रक्रिया निरंतर जारी रहती है. यदि इसका उपयोग दूसरे के लिए कर दिया जाय तो एक जीवन को बचा लिया जाता है किन्तु क्या इसके लिए रक्त सम्बन्ध की सीमा निश्चित की जा सकती है ? नहीं - कहते हैं न कि आखिर खून ही खून के काम आता है लेकिन ऐसा भी नहीं है. कहीं कहीं अपना खून होता है और पराया खून उसको बचा ले जाता है. तब इसको यही कहेंगे न कि खून को किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता है, वह तो जिसमें मिल जाए उसका ही खून बन कर दौड़ने लगता है और जीवन की साँसें फिर से चलने लगती है.
आज इस दिवस पर मैं कुछ उन अनजाने बच्चों को धन्यवाद देती हूँ जिन्होंने न मुझे देखा और नहीं उन्हें मैंने देखा बल्कि हम तो जानते ही नहीं है एक दूसरे को. बात आज से करीब ५-६ साल पहले की है. मेरी बेटी की तबियत भी उस समय बहुत ख़राब चल रही थी और ठीक उसी समय मेरी छोटी बहन के पति को कैंसर हो गया. उस समय उसके मात्र एक ४ साल की बेटी थी और मेरी बहन एक गृहिणी. उनको मुंबई टाटा मेमोरिअल ले जाया गया , उनका ऑपरेशन होना था और उसके लिए उन्हें खून की जरूरत थी. एक अनजानी जगह में खून कहाँ से लाया जा सकता है? कुछ ईश्वर की कृपा हुई और मुझे यह विचार आया कि मेरे साथ कुछ साल पहले एक इंजीनियर काम करता था और उस समय वह मोहाली में जॉब कर रहा था. वह भी मुझे बहुत मानता था ( आज भी वैसे ही मानता है) मैंने उसको सारे डिटेल के साथ मेल की - और उससे कहा कि वह ये मेल अपने मित्रों को फॉरवर्ड कर दे जिससे यदि उनके कोई मित्र मुंबई में हों और सहायता कर सकें तो उनके लिए हम कुछ कर सकते हैं. उसने वैसा ही किया और मेरी मेल अपने मित्रों को फॉरवर्ड कर दी. उसमें मैंने अपनी बहन का मुंबई का मोबाइल नंबर भी दे दिया था.
जब मेरे बहनोई का ऑपरेशन होना था तो बहन के पास कई फ़ोन आये कि वे खून देने के लिए तैयार है और जैसे ही जरूरत हो उनको कॉल कर लिया जाय. उनकी खून की जरूरत पूरी हो गयी और ईश्वर की कृपा से आज वे पूर्ण रूप से स्वस्थ होकर अपने परिवार के साथ खुशहाल हैं. मेरी उन अनदेखे और अनजाने बच्चों के लिए आज यही दुआ है कि ईश्वर उनको हमेशा सुखी रखे और मानवता का ये जज्बा जो उनको दिया है वो हमेशा हमेशा बुलंद रहे.
सोमवार, 14 जून 2010
शनिवार, 12 जून 2010
कुछ ऐसे भी हैं?
जिन्दगी के मेले में कितने तरह से लोग मिलते हैं और हम सबसे दो चार हो कर या तो उन्हें भूल जाते हैं या फिर ऐसा कुछ घटित हो जाता है कि हम उन्हें भूल ही नहीं पाते हैं बल्कि एक अजीब से वितृष्णा मन में पैदा हो जाती है कि उनको शिक्षित और सभ्य लोगों की श्रेणी में रखने के लायक भी नहीं समझा जाता है.
मैं अपना एम एड पूरा करके निवृत हुई थी कि मेरे पति के मित्र , जिनका कि एक स्कूल चल रहा था , इनसे बोले कि रेखा तो फ्री ही है क्यों न मेरे स्कूल में प्रिंसिपल कि जगह पर आ जाये. मुझे प्रिंसिपल की जरूरत है. वह दोनों लोग किसी महाविद्यालय में प्रवक्ता थे सो उन्हें कोई परिचित व्यक्ति ही चाहिए था जो कि स्कूल देख सके. उनमें पतिदेव तो काफी सज्जन पुरुष थे लेकिन पत्नी किसी पहुँच के कारण महाविद्यालय तक पहुँच गयी थी सो उनमें अपने पद और धन दोनों का भी बहुत घमंड था.
मेरी एक परिचित अचानक आर्थिक परेशानी में फँस गयीं - पति की नौकरी छूट गयी , वह तो गृहिणी ही थी लेकिन उच्च शिक्षित थी. उनको मदद की जरूरत थी सो मैंने उन्हें प्राइमरी टीचर की तरह से नियुक्त कर लिया. यद्यपि वो उस काम से लिहाज से काफी अधिक शिक्षित थी लेकिन मेरे पास और कोई विकल्प उस समय नहीं था. वे सीधी सादी महिला थीं सबसे बड़ी बात कि उनके पास सीमित साड़ियाँ थी. वे उन्हीं को बदल बदल कर पहन कर आती थी. मेरी दृष्टि में ऐसी कोई बात नहीं थी और न ही मैंने इसको ध्यान दिया क्योंकि मुझे ये अपराध बोध होता था कि इनकी विद्वता का उपयोग नहीं हो पा रहा है.
एक दिन श्रीमती मैनेजर साहिबा ने स्टाफ रूम में सभी के सामने उनसे कहा - 'देखो तुम्हारी यह साड़ियाँ अब अच्छी नहीं लगती हैं - तुम इनको अब गद्दे या रजाई पर चढ़ा दो. तुम्हें ऊब नहीं होती वही साड़ियाँ पहनते हुए.'
(उनके ये शब्द मुझे आज भी जस के टस याद हैं.)
हो सकता है कि उन्होंने वह बात मजाक के लहजे में कही हो या फिर अपने दंभ में. वह महिला इस बात को सहन नहीं कर सकी और वह सभी के सामने अपमानित महसूस करके रो पड़ी. श्रीमती मैनेजर एकदम सकपका गयी और तुरंत बोली - मेरा यह मतलब था कि एक ही साड़ी पहन कर हम ऊब जाते हैं तो उठाकर रख देते हैं और फिर कुछ महीनों के बाद निकल लेते हैं. तो तबियत उबती नहीं हैं.
उनको ये पता था कि वह महिला किस समस्या का सामना कर रही है? फिर अगर हम ये महसूस न कर सके कि कोई किस तरह से अपनी जिन्दगी अपनी समस्याओं के साथ गुजर रहा है. वह एक प्राध्यापिका है , उनमें वह गरिमा और दूसरों को प्रभावित करने का गुण होना चाहिए न कि किसी को अपमानित करने का . फिर हम किसी के व्यक्तिगत मामलों में सार्वजनिक टिप्पणी करें तो ये हमारी समझदारी नहीं है. लेकिन मैं खुद बहुत अधिक दिन वहाँ नहीं रह पायी और मैंने उनका स्कूल छोड़ दिया.
वक्त ने अपना दूसरा रूप दिखाया और वह परेशान महिला आज एक सफल व्यवसायी बन चुकी हैं और उनके जीवन का रूप ही बदल गया है लेकिन आज भी वह उतनी ही विनम्र है. पैसे से इंसान अपना स्तर तो बड़ा सकता है लेकिन उसका मानसिक स्तर और सोच सिर्फ और सिर्फ उसके संस्कारों से ही बनती है.
मैं अपना एम एड पूरा करके निवृत हुई थी कि मेरे पति के मित्र , जिनका कि एक स्कूल चल रहा था , इनसे बोले कि रेखा तो फ्री ही है क्यों न मेरे स्कूल में प्रिंसिपल कि जगह पर आ जाये. मुझे प्रिंसिपल की जरूरत है. वह दोनों लोग किसी महाविद्यालय में प्रवक्ता थे सो उन्हें कोई परिचित व्यक्ति ही चाहिए था जो कि स्कूल देख सके. उनमें पतिदेव तो काफी सज्जन पुरुष थे लेकिन पत्नी किसी पहुँच के कारण महाविद्यालय तक पहुँच गयी थी सो उनमें अपने पद और धन दोनों का भी बहुत घमंड था.
मेरी एक परिचित अचानक आर्थिक परेशानी में फँस गयीं - पति की नौकरी छूट गयी , वह तो गृहिणी ही थी लेकिन उच्च शिक्षित थी. उनको मदद की जरूरत थी सो मैंने उन्हें प्राइमरी टीचर की तरह से नियुक्त कर लिया. यद्यपि वो उस काम से लिहाज से काफी अधिक शिक्षित थी लेकिन मेरे पास और कोई विकल्प उस समय नहीं था. वे सीधी सादी महिला थीं सबसे बड़ी बात कि उनके पास सीमित साड़ियाँ थी. वे उन्हीं को बदल बदल कर पहन कर आती थी. मेरी दृष्टि में ऐसी कोई बात नहीं थी और न ही मैंने इसको ध्यान दिया क्योंकि मुझे ये अपराध बोध होता था कि इनकी विद्वता का उपयोग नहीं हो पा रहा है.
एक दिन श्रीमती मैनेजर साहिबा ने स्टाफ रूम में सभी के सामने उनसे कहा - 'देखो तुम्हारी यह साड़ियाँ अब अच्छी नहीं लगती हैं - तुम इनको अब गद्दे या रजाई पर चढ़ा दो. तुम्हें ऊब नहीं होती वही साड़ियाँ पहनते हुए.'
(उनके ये शब्द मुझे आज भी जस के टस याद हैं.)
हो सकता है कि उन्होंने वह बात मजाक के लहजे में कही हो या फिर अपने दंभ में. वह महिला इस बात को सहन नहीं कर सकी और वह सभी के सामने अपमानित महसूस करके रो पड़ी. श्रीमती मैनेजर एकदम सकपका गयी और तुरंत बोली - मेरा यह मतलब था कि एक ही साड़ी पहन कर हम ऊब जाते हैं तो उठाकर रख देते हैं और फिर कुछ महीनों के बाद निकल लेते हैं. तो तबियत उबती नहीं हैं.
उनको ये पता था कि वह महिला किस समस्या का सामना कर रही है? फिर अगर हम ये महसूस न कर सके कि कोई किस तरह से अपनी जिन्दगी अपनी समस्याओं के साथ गुजर रहा है. वह एक प्राध्यापिका है , उनमें वह गरिमा और दूसरों को प्रभावित करने का गुण होना चाहिए न कि किसी को अपमानित करने का . फिर हम किसी के व्यक्तिगत मामलों में सार्वजनिक टिप्पणी करें तो ये हमारी समझदारी नहीं है. लेकिन मैं खुद बहुत अधिक दिन वहाँ नहीं रह पायी और मैंने उनका स्कूल छोड़ दिया.
वक्त ने अपना दूसरा रूप दिखाया और वह परेशान महिला आज एक सफल व्यवसायी बन चुकी हैं और उनके जीवन का रूप ही बदल गया है लेकिन आज भी वह उतनी ही विनम्र है. पैसे से इंसान अपना स्तर तो बड़ा सकता है लेकिन उसका मानसिक स्तर और सोच सिर्फ और सिर्फ उसके संस्कारों से ही बनती है.
बुधवार, 9 जून 2010
ये दर्द न होगा कम !
सदियों से बेटियों को हाशिये में रखने वालों के लिए - वे देखे कि एक बेटी की कमी कितनी दर्द देने वाली होती है. खोजते तो हम बेटी को बहू में भी हैं लेकिन क्या बहू बेटी बन पाती है? या सास माँ सी हो तो उसे वो अहसास दिला पाती है जो उसे अपनी बेटी से मिलता.
मैं अपने एक मित्र परिवार में मिलने के लिए गयी थी. हम तब से मित्र है जब मेरी शादी हुई थी. पतिदेव की मित्रता ने हमें भी मित्र बना दिया और फिर कुछ शौक और स्वभाव समान रहा तो कुछ ज्यादा ही निकट आ गए. वो मंजू उसके आज दो बेटे और दोनों डॉक्टर हैं, बहुएं भी डॉक्टर हैं. आज से ३५ वर्ष पूर्व एक मध्यमवर्गीय परिवार के संघर्ष कि गाथा एक जैसी ही थी. उसने भी अपनी सीमित आमदनी में सब कुछ किया. बच्चों की पढ़ाई , सास ससुर की देखभाल और अंत में अपनी माँ की १२ साल तक बीमारी में अपने पास रखा कर सेवा.
बहुत दिन बाद में उससे मिली थी. अब पतिदेव भी उसके रिटायर हो चुके हैं , दोनों बेटे बाहर नौकरी कर रहे हैं और छोटी बहू भी. सिर्फ बड़ी बहू यहाँ पर है. उसकी बच्ची के साथ समय काट लेती है. सारे सुख हैं लेकिन मानसिक शांति नहीं. वह भी बहुत संवेदन शील है. लिखने का शौक है पर लिख नहीं पाई कभी . इस मुलाकात पर तो जैसे बस भरी बैठी थी कि विस्फोट हो गया. पतिदेव उनके अंतर्मुखी प्रवृत्ति के हैं सो उनसे भी कुछ बाँट नहीं पाती.
मुझसे बोली - रेखा मैंने सोचा था कि मेरी बेटी नहीं है तो बहू आ जाएगी तो मेरी बेटी के तरह से मेरे साथ व्यवहार करेगी मुझे एक साथी मिल जाएगा. इनसे तो कुछ कभी बाँट ही नहीं पायी, सारी जिन्दगी अपने गुबारों को अपने मन में ही लिए रही. सबसे बांटने कि अपनी आदत नहीं है. उससे सब कुछ बाँटूँगी. पर मेरा ये सपना चूर चूर हो गया. जब मैं कभी उससे अपने जीवन के संघर्ष की बात करती हूँ तो कहती है कि आप तो अपने मुँह मियां मिट्ठू बनती हो. ऐसा कहीं होता भी है.
सबसे बड़ा कष्ट तो तब होता है जब कि बेटे के आने पर बहुत परवाह करने का नाटक करने लगती है. जब से एंजियोप्लास्टी हुई है मुझसे बर्दास्त नहीं होता. बहुत गुस्सा आता है ऐसी बातों पर. मैं क्या करूँ? मैं कल भी अकेली थी और आज भी अकेली हूँ.
मैंने उसके दर्द को समझा उसके भरे गले से बयान किये गए दर्द को मैंने महसूस किया. कितनी अनमोल चीज होती है बेटी भी. दर्द तो बाँट लेती है. मंजू ये भूल गयी थी कि बहू बेटी तो किसी और की है. उसकी कैसे हो सकती है? लेकिन ऐसा होना नहीं चाहिए. क्या बहू सिर्फ और सिर्फ अपनापन भी नहीं दे सकती है. अरे डॉक्टर को तो दया और सहानुभूति का पाठ पढ़ाया जाता है. बाहर न सही घर में तो इसको अपना ही सकते हैं.
मैंने मंजू को सलाह दी कि तुम कंप्यूटर लो और बाकी चीजें मैं तुमको सिखाती हूँ. अपना ब्लॉग बना और उसको बना अपना साथी, ये अकेलापन और घुटन सब ख़त्म हो जायेगी. तुम्हारा अपना एक संसार होगा जिसमें इतने सारे लोग होंगे कि कभी लगेगा ही नहीं कि तुम अकेली हो. वह इसके लिए राजी हो गयी और हो सकता है कि एक और ब्लॉगर हमारे सामने हो.
रविवार, 6 जून 2010
एक और बागवाँ !
जब बागवाँ फ़िल्म आई तो बहुत पसंद की गयी थी. एक आयु वर्ग ने इसको सराहा और एक ने इसकी आलोचना की. ये तो बात साफ है की किसने सराहा और किससे आलोचित हुई. ऐसे एक बागवां की पुनरावृत्ति फिर सामने आ गयी.
वो मेरे दूर के रिश्ते में हैं, कभी कभी उनसे मुलाकात भी हुई. भले लोग लगे थे. कल खबर आई कि उनकी माँ का निधन हो गया? ये बात तो मुझे पहले से ही पता थी कि वे अपनी बेटी के यहाँ रह रही थीं. माँ के लिए बेटे और बेटी दोनों ही बराबर होते हैं, दोनों को वह अपने गर्भ में धारण करके जन्म देती है और वही कष्ट उठाती है. फिर माँ के प्यार को बांटने की बात कैसे सोच लेते हैं लोग. सिर्फ इसलिए की बेटी को उस घर से विदा कर दिया तो उसकी माँ माँ नहीं रही. वो अपनी बेटी को याद नहीं कर सकती है और न ही उसके प्रति अपना प्यार ही प्रकट कर सकती है. ऐसा ही कुछ था. एक बेटा और एक बेटी ही थी.
अपने समाज की परंपरा के अनुसार वे भी अपने बेटे के साथ ही रहती थी, किन्तु जो दूर होता है उससे स्नेह अधिक होता है या फिर याद आती है. जो आँखों के सामने होता है उसको तो स्नेह मिलता ही रहता है. किन्तु शायद विवाह के बाद ये परिभाषा बदल जाती है. बेटा चाहे कम लेकिन बहू को अपनी ननद के प्रति सास का प्रेम अच्छा नहीं लगता. हर जगह ऐसा ही हो ऐसा नहीं है. तभी हर घर में बागवान जैसी कहानी नहीं होती. एक बार जब वे बहुत बीमार हुई तो उन्होंने बेटी को बुलाने की बात कही, उसको सुन कर अनसुना कर दिया. कई दिन बार बार कहने पर भी जब उन्हें बेटी को बुलाने की बात समझ नहीं आई. उनकी हालत बिगड़ रही थी. बहू ने क्या सोचा नहीं जानती ? उनके नाम बहुत सी जायदाद थी. आखिर उनके कोई रिश्ते डर उनसे मिलने आये तो उन्होंने उनसे कहा की मेरी बेटी को बुला दो. उनका यह कहना ही तो उनके लिए देश निकाले का फरमान बन गया.
"बेटी बेटी की रट लगाये रहती हो, जब बेटी इतनी प्यारी है तो उसके साथ ही जाकर क्यों नहीं रहती?"
एक तो बीमार और फिर लाचार माँ को इन शब्दों ने कितना आहत किया होगा ये तो वही बता सकती है लेकिन बेटी आई तो उन्होंने उसके साथ चलने की बात कही. थोड़ी सी शर्म और समाज के डर से कहा गया कि यहाँ कौन सा कष्ट है जो वहाँ जाना चाहती हो. पर मन ही मन वे सब चाह रहे थे कि ये चली जाएँ. पता नहीं कितने दिन बीमार रहेंगी?
वे अपनी बेटी के साथ चली आई और आने के बाद उन्होंने अपनी बेटी से वचन लिया की अब वह उन्हें कभी उन लोगों के पास नहीं भेजेगी. बेटी ने और उसके पति व बच्चों ने उनको वचन दिया और पूरी पूरी मानसिक सुरक्षा का अहसास भी दिलाया.
वे दो साल वहाँ रहीं और स्वस्थ रहीं, फिर अचानक चल बसी. बहन ने भाई को खबर भेजी और वह सपरिवार वहाँ आया भी , पर मरते समय उन्होंने अपनी वसीयत खोलने के लिए कहा था. उनकी वसीयत वकील के पास ही थी और वह खोली गयी तो उन्होंने लिख था - 'मेरी पूरी संपत्ति मेरे बेटे को ही मिलेगी क्योंकि मेरी बेटी को उसकी कोई भी जरूरत नहीं है. बस मेरे मरने के बाद ये मेरी देह मेरी बेटी को मिलेगी, जिसका क्रिया कर्म करने का अधिकार मैं अपने बेटी के बेटे को देती हूँ. मेरी अर्थी में कंधा लगाने के लिए भी मेरे बेटे या उसको बेटों को इस्तेमाल न किया जाय. यही मेरी आखिरी इच्छा होगी.'
और उनकी बेटी और उसके बेटों ने उनकी इस इच्छा का पूरा सम्मान किया , उनके बेटे या पोतों को कंधा लगाने का भी हक नहीं दिया. सब साथ गए और उनका अंतिम संस्कार भी उनके दौहित्र ने ही किया.
जहाँ बेटा रहता था वहाँ सब लोग इन्तजार कर रहे थे की बेटा माँ की शव को लेकर पैतृक घर लाएगा और वही पर उनका अंतिम संस्कार होगा किन्तु वह तो खाली हाथ लौट आया. माँ ने उसको माफ नहीं किया था और ये बोझ वह सारी जिन्दगी ढोता रहे या न रहे लेकिन ये माँ के दिल के दर्द को शायद ही समझ पाए. इतना कठोर निर्णय कोई माँ कब लेती है? इसको वही जान सकती है लेकिन बेटे के लिए ये समाज में और सबके सामने अपने कर्त्तव्य च्युत होने का ये दंड हमेशा याद रहेगा.
वो मेरे दूर के रिश्ते में हैं, कभी कभी उनसे मुलाकात भी हुई. भले लोग लगे थे. कल खबर आई कि उनकी माँ का निधन हो गया? ये बात तो मुझे पहले से ही पता थी कि वे अपनी बेटी के यहाँ रह रही थीं. माँ के लिए बेटे और बेटी दोनों ही बराबर होते हैं, दोनों को वह अपने गर्भ में धारण करके जन्म देती है और वही कष्ट उठाती है. फिर माँ के प्यार को बांटने की बात कैसे सोच लेते हैं लोग. सिर्फ इसलिए की बेटी को उस घर से विदा कर दिया तो उसकी माँ माँ नहीं रही. वो अपनी बेटी को याद नहीं कर सकती है और न ही उसके प्रति अपना प्यार ही प्रकट कर सकती है. ऐसा ही कुछ था. एक बेटा और एक बेटी ही थी.
अपने समाज की परंपरा के अनुसार वे भी अपने बेटे के साथ ही रहती थी, किन्तु जो दूर होता है उससे स्नेह अधिक होता है या फिर याद आती है. जो आँखों के सामने होता है उसको तो स्नेह मिलता ही रहता है. किन्तु शायद विवाह के बाद ये परिभाषा बदल जाती है. बेटा चाहे कम लेकिन बहू को अपनी ननद के प्रति सास का प्रेम अच्छा नहीं लगता. हर जगह ऐसा ही हो ऐसा नहीं है. तभी हर घर में बागवान जैसी कहानी नहीं होती. एक बार जब वे बहुत बीमार हुई तो उन्होंने बेटी को बुलाने की बात कही, उसको सुन कर अनसुना कर दिया. कई दिन बार बार कहने पर भी जब उन्हें बेटी को बुलाने की बात समझ नहीं आई. उनकी हालत बिगड़ रही थी. बहू ने क्या सोचा नहीं जानती ? उनके नाम बहुत सी जायदाद थी. आखिर उनके कोई रिश्ते डर उनसे मिलने आये तो उन्होंने उनसे कहा की मेरी बेटी को बुला दो. उनका यह कहना ही तो उनके लिए देश निकाले का फरमान बन गया.
"बेटी बेटी की रट लगाये रहती हो, जब बेटी इतनी प्यारी है तो उसके साथ ही जाकर क्यों नहीं रहती?"
एक तो बीमार और फिर लाचार माँ को इन शब्दों ने कितना आहत किया होगा ये तो वही बता सकती है लेकिन बेटी आई तो उन्होंने उसके साथ चलने की बात कही. थोड़ी सी शर्म और समाज के डर से कहा गया कि यहाँ कौन सा कष्ट है जो वहाँ जाना चाहती हो. पर मन ही मन वे सब चाह रहे थे कि ये चली जाएँ. पता नहीं कितने दिन बीमार रहेंगी?
वे अपनी बेटी के साथ चली आई और आने के बाद उन्होंने अपनी बेटी से वचन लिया की अब वह उन्हें कभी उन लोगों के पास नहीं भेजेगी. बेटी ने और उसके पति व बच्चों ने उनको वचन दिया और पूरी पूरी मानसिक सुरक्षा का अहसास भी दिलाया.
वे दो साल वहाँ रहीं और स्वस्थ रहीं, फिर अचानक चल बसी. बहन ने भाई को खबर भेजी और वह सपरिवार वहाँ आया भी , पर मरते समय उन्होंने अपनी वसीयत खोलने के लिए कहा था. उनकी वसीयत वकील के पास ही थी और वह खोली गयी तो उन्होंने लिख था - 'मेरी पूरी संपत्ति मेरे बेटे को ही मिलेगी क्योंकि मेरी बेटी को उसकी कोई भी जरूरत नहीं है. बस मेरे मरने के बाद ये मेरी देह मेरी बेटी को मिलेगी, जिसका क्रिया कर्म करने का अधिकार मैं अपने बेटी के बेटे को देती हूँ. मेरी अर्थी में कंधा लगाने के लिए भी मेरे बेटे या उसको बेटों को इस्तेमाल न किया जाय. यही मेरी आखिरी इच्छा होगी.'
और उनकी बेटी और उसके बेटों ने उनकी इस इच्छा का पूरा सम्मान किया , उनके बेटे या पोतों को कंधा लगाने का भी हक नहीं दिया. सब साथ गए और उनका अंतिम संस्कार भी उनके दौहित्र ने ही किया.
जहाँ बेटा रहता था वहाँ सब लोग इन्तजार कर रहे थे की बेटा माँ की शव को लेकर पैतृक घर लाएगा और वही पर उनका अंतिम संस्कार होगा किन्तु वह तो खाली हाथ लौट आया. माँ ने उसको माफ नहीं किया था और ये बोझ वह सारी जिन्दगी ढोता रहे या न रहे लेकिन ये माँ के दिल के दर्द को शायद ही समझ पाए. इतना कठोर निर्णय कोई माँ कब लेती है? इसको वही जान सकती है लेकिन बेटे के लिए ये समाज में और सबके सामने अपने कर्त्तव्य च्युत होने का ये दंड हमेशा याद रहेगा.
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