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गुरुवार, 4 सितंबर 2014

कैसा घर : कैसे लोग ?

                                 जीवन के कितने रंग देखे ? हर बार चमकते हुए रंग , खिलखिलाते हुए पल कम ही नजर आये। ऊपर से पोते गए रंग और खोखली ओढ़ी गयी हंसी तो बहुत दिखाई  अंदर झांक कर देखने वाले भी तो कम ही मिलते और उनके दर्द को समझने वाले तो और भी कम।  कहीं कहीं बहुत अपने और नितांत अपने ही पलक झपकते ही कैसे बदल जाते हैं ? ये भी इंसानों का ही स्वभाव है।
                                 मीरा अपने पति और बच्चों से दूर एक गाँव में नौकरी करती थी क्योंकि पति माँ बाप का सात बेटियों के बीच अकेला बेटा था।  बिगड़ गया - माँ को ये घमंड था कि मेरा बेटा कुछ भी नहीं करेगा तब भी घर बैठे खायेगा लेकिन कुछ भ्रम इतनी जल्दी टूट जाते हैं जिसकी कल्पना किसी ने की नहीं होती है। माँ का भ्रम टूटा बेटे ने नए नए धंधे किये और सब चौपट कर दिया।  मीरा को समझ आ गया कि अगर बच्चों का भविष्य देखना है तो उसे नौकरी करना पड़ेगा।
                                 भविष्य में सरकारी नौकरी की आशा में शिक्षा मित्र की नौकरी उसको दूर दराज के गाँव में मिली।  बच्चे बाबा दादी और पिता के पास रह कर पढ़ रहे थे।  वह १५ दिन में एक बार आ पाती थी।  उसके नसीब में क्या था ? ये उसको भी पता नहीं था।  पहले अचानक सास चल बसी , फिर ससुर ने बिस्तर पकड़ लिया और वह भी चल बसे।  उन दोनों की पेंशन होने वाली आमदनी ख़त्म।  सब कुछ उसको ही देखना था।  इकलौते बेटे को पहले नाना नानी और फिर माँ बाप ने नाकारा बना दिया था।
                                मीरा के भाग्य में अभी कुछ और देखना बदा था।  एक बार वह छुट्टी पर घर आई।  दो दिन के अंदर ही पति को हार्ट अटैक हुआ और वह बिना कुछ कहे चल दिया।  मीरा ने पति का सुख सिर्फ इतना ही देखा था कि उसके नौकरी पर रहने के दौरान सास ससुर और बच्चों को अच्छी तरह से ख्याल रखा था।
                                 सुना तो एकदम विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि वह अपने वृहत परिवार में सब भाई बहनों में बहुत छोटा था।  अपनी सात बहनों में ही चौथे नंबर पर था।  मीरा जो गर्मियों की छुट्टी में ननदों की पूरी सेवा किया करती थी।  अचानक सब शशिकला बन गयीं।  अब मीरा सिर्फ एक विधवा थी और उसके प्रति सबकी नजर ऐसे उठती थी जैसे की उसने कोई गुनाह जानबूझ कर किया हो।   
                                  पति के निधन पर उसके सहकर्मी भी आये और ऐसे दुःख के समय में रिश्तेदार कम  वो लोग ज्यादा सहारा देते हैं , जो आस पास होते हैं।  उस बिचारी के अकेले होने के नाते परिवार सहित रहने वाले लोग उसके लिए खाना भी बना लेते हैं। सुख और दुःख बाँट लेते हैं।  ऐसे ही एक सहकर्मी दंपत्ति  मिलने के लिए आये और जाते समय उन्होंने मीरा के कंधे पर हाथ रख कर कहा कि परेशान मत होना।  अभी छुट्टियां हैं , जब आओगी तो तुम्हारे लिए ट्रांसफर की पूरी कोशिश की जायेगी।  जिससे तुम अपने बच्चों  के पास आकर रह सको।  '
                                   उसके जाते ही  ननदों ने हंगामा काट दिया - 'उसने तुम्हारे कंधे पर हाथ कैसे रखा ? उसकी इतनी हिम्मत कैसे हुई ? ' और बहुत कुछ।  हार कर मीरा ने उसकी पत्नी को फ़ोन करके कहा कि भाई साहब ने कंधे पर हाथ रखा वह गलत था मेरे घर वालों को बहुत आपत्ति हुई।  
                                   आज मीरा अकेली अपने ट्रांसफर के लिए घूम रही है , उसका साथ देने वाला कोई भी नहीं है।  वह ननदें भी नहीं जिन्होंने उसको इसके लिए प्रताड़ित किया था।  बच्चे घर पर अकेले और वह गाँव में।  उन दंपत्ति ने भी मीरा का साथ छोड़ दिया।  अब उसकी समझ नहीं आता है कि वह कहाँ जाए और क्या करे ?

3 टिप्‍पणियां:

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

क्या कहूं दीदी... सचमुच, कई बार रिश्ते कितने बेमानी जाते हैं..

रचना त्रिपाठी ने कहा…

एक स्त्री को कमजोर बना देने के पीछे कुछ इसी तरह के अपने ही सगे-संबंधियों का भी बहुत बड़ा हाथ होता है..

मन के - मनके ने कहा…

समय-संसार की चाल कब बदल जाय कहना कठिन है.
आशा है---कांटों में भी फूल उग आते हैं.
मीरा के लिये भी कोई फूल खिल जाय.